शून्य खोजने वाले शून्य कैसे रह गए? / जयप्रकाश चौकसे

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शून्य खोजने वाले शून्य कैसे रह गए?
प्रकाशन तिथि :28 अप्रैल 2016


साहित्य और सिनेमा में पिता-पुत्र रिश्ते पर अनेक फिल्में बनी हैं परंतु माता-पुत्री रिश्ते पर अधिक काम नहीं हुआ और पुरुष शासित समाज में इसकी अपेक्षा करना भी उचित नहीं होगा। समाज में पिता की प्रत्यंचा पर सधा तीर दोनों के बीच उचित तनाव होने पर जिंदगी के निशाने पर जा लगता है परंतु पुत्री तो मां की भवों पर पड़े बल की तरह होती है। घर में जरा-सी आवाज होने पर बेटी को लेकर सदैव चिंता करने वाली मां चौंक जाती है, क्योंकि उसका मन आशंकाओं से घिरा रहता है। माताओं का सदा आशंकाओं से घिरे रहना इस तथ्य को रेखांकित करता है कि कितना असुरक्षित है हमारा समाज। सरहदों पर तैनात चुस्त फौजी और शहरों में परेड करते सिपाही असुरक्षा को मिटा नहीं पाते। वह माता है और उसके हृदय में शंका है। पिता निडर होने के अभिनय में रमा हुआ है और माता की तरह हृदय में उठती शंकाओं को दबाने के प्रयास में ही अलसुबह भी थका-मांदा लगता है। वह सहमी हुई फौज का सिपहसालार जो ठहरा। इन चिंताओं और शंकाओं के मध्य संसद और विधानसभाओं में अपनी 56 इंच छाती का दावा करने वाले नेता कितने खोखले और शक्तिहीन नज़र आते हैं। यह कितनी दयनीय बात है कि नि:संतान लोग कम से कम इस मामले में तो सदृढ़ स्थिति में हैं। वाह रे समाज कि निर्धन ही सुरक्षित है, क्योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं है। लूटने को संसदीय एवं वैधानिक मौन स्वीकृति प्राप्त है।

हाल में प्रदर्शित 'निल बटे सन्नाटा' जिसे अंग्रेजी सोच से ग्रस्त लोग 'नील बटे सन्नाटा' लिख रहे हैं। 'बटे' गणित का भाग दिखाने वाला चिह्न है। टाइटल में जिसे 'नील' लिखा जा रहा है, वह निल अर्थात शून्य है और शून्य से बांटी चीज जस की तस रहती है। इस सारगर्भित फिल्म के निर्देशक हैं अश्वनी अय्यर तिवारी और नाम से ही स्पष्ट है कि वे उत्तर-दक्षिण की बामन संतान है और अपने भावप्रवण निर्देशन द्वारा कर्म से भी बामन सिंह होते हैं। मान्यता है कि शून्य का आविष्कार भारत में हुआ था। इस तरह का दावा 'भारत कुमार' मनोज ने अपनी फिल्म 'पूरब-पश्चिम' में किया हैं परंतु दुख की बात यह है कि हम अभी तक अनेक क्षेत्रों में शून्य ही है परंतु जनसंख्या के मामले में संख्या पर शून्य प्रतिक्षण बढ़ रहे हैं। यह हमारी विराट जनसंख्या ही है, जिसके कारण विश्वभर के व्यापारी इस बाजार की ओर खिंचे चले आ रहे हैं। इस विराट ग्राहक वर्ग को कोई नज़रअंदाज नहीं कर सकता।

बहरहाल, यह सारगर्भित सौ मिनट की फिल्म घर-घर जाकर बरतन मांजने वाली महत्वाकांक्षी मां की कहानी है, जो अपनी बेटी को पढ़ा-लिखाकर बेहतर जिंदगी के अवसर देना चाहती है। बेटी का विश्वास है कि पढ़-लिखकर भी उसे बर्तन ही मांजने पड़ेंगे तो कौन मेहनत करे। फिल्मकार पढ़े-लिखे असंख्य बेरोजगारों की ओर संकेत कर रहा है। उसके जीवन की बेहतरी के लिए दिन-रात खटने वाली मां को उसकी बेटी किस तरह समझ पाती है- इस बात के ताने-बाने से फिल्म बनी है। निर्देशक की गहरी सूझबूझ को देखिए कि उसे प्रेरणा और सहायता देेने वाली महिला नि:संतान है।

फिल्म में उसकी कोई संतान नहीं दिखाई गई है। संतान के लिए मां का दर्द ऐसी महिलाएं बेहतर समझती हैं। हमारी व्यवस्था ही शून्य है और इससे जन्मा सन्नाटा ही जीवन है परंतु इस सन्नाटे में मां के दिल की धड़कन ही एकमात्र आवाज है। शायद ऐसी माताओं के कारण ही हमारी संस्कृति में ध्वनि को ईश्वर माना है। फिल्म में पुत्री का सहपाठी ही उसे उसकी मां के परिश्रम से परिचित कराता है और इस सहपाठी का पिता भी श्रमिक ही है। निर्देशक ने इस पढ़ाकू बालक को चश्मा पहने दिखाया है, जो फिल्म में एकमात्र आजमाया फार्मूला है। पात्र इतने सजीव हैं कि फिल्म समाप्त होने के बाद आपके साथ घर आ जाते हैं। बेचारा गेटकीपर क्या जाने कि सौ टिकिट बिके परंतु दो सौ दर्शक बाहर आए।