शेखर कपूर और ब्रूस ली की बायोपिक / जयप्रकाश चौकसे

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शेखर कपूर और ब्रूस ली की बायोपिक
प्रकाशन तिथि :20 मई 2017


खबर है कि फिल्मकार शेखर कपूर ब्रूस ली के जीवन से प्रेरित फिल्म बनाने जा रहे हैं। इस फिल्म का नाम है 'लिटिल ड्रेगन।' ज्ञातव्य है कि देव आनंद की बहन के सुपुत्र शेखर कपूर ने 'मासूम,' 'मि. इंडिया,' और 'बैंडिट क्वीन फूलन देवी' नामक तीन फिल्मों के साथ अंग्रेजी भाषा में 'क्वीन एलिजाबेथ' और 'फोर फेदर्स' नामक फिल्में बनाई हैं परंतु उनकी घोषित फिल्मों की संख्या कहीं अधिक है। वे 'पानी' नामक फिल्म की घोषणा बहुत पहले कर चुके हैं और उसमें कई पूंजी निवेशकों ने समय-समय पर रुचि दिखाई है। एक दौर में मनमोहन शेट्‌टी इसका निर्माण करने वाले थे। खबर यह है कि शेखर कपूर अपनी पटकथा 'पानी' के कुछ अंश कभी-कभी सुनाते हैं परंतु पूरा आकल्पन आज तक उन्होंने किसी को नहीं बताया है। ये अंश भी जेम्स जॉयस की यूलिसिस की तरह बेतरतीब है और उनके बिखराव में ही उसका सत छिपा है गोयाकि 'बूझो तो जानें' कथा क्या है। यह जॉयस और शेखर कपूर की तुलना नहीं है।

ज्ञातव्य है कि शेखर कपूर के मामा चेतन आनंद ने मैक्सिम गोर्की के नाटक 'लोअर डेप्थ' से प्रेरित फिल्म 'नीचा नगर' 1946 में बनाई थी। इस फिल्म को कान फिल्म समारोह में पुरस्कार से नवाजा गया। इस फिल्म को किस तरह पंडित नेहरू ने देखा और कपड़ा गोडाउन में फेंके गए फिल्म निगेटिव की कैसे रक्षा की, इसका पूरा विवरण 'चेतन आनंद : द पोएटिक्स ऑफ फिल्म' नामक किताब में प्रकाशित हुआ है। आजकल नेहरू जैकेट तो सगर्व पहना जाता है परंतु उनकी प्रशंसा करना अघोषित रूप से प्रतिबंधित है।

बहरहाल ब्रूस ली की भूमिका अभिनीत करने के लिए कलाकार की खोज की जा रही है। फिल्म की लागत और उस पर मुनाफा कमाने के लिए किसी सितारे को ही लेना व्यावहारिकता का तकाजा है। सर रिचर्ड एटनबरो ने नसीरुद्‌दीन शाह के नाम पर भी विचार किया था परंतु उन्होंने बेन किंग्सले को चुना और फिल्म में चरित्र भूमिकाएं भी नामी लोगों को दीं, क्योंकि विदेशों में प्रदर्शन के लिए यह करना पड़ता है। यह बात अलग है कि अपने चुने जाने के बाद बेन किंग्सले ने लंबे उपवास किए, योग विधा सीखी और चरखा चलाना भी सीखा। बायोपिक के लिए मोटी रकम लगती है और टिकिट खिड़की पर सितारा ही भीड़ जुटा पाता है। एक उपन्यासकार या कवि जैसी स्वतंत्रता फिल्मकार को नहीं मिलती, क्योंकि यह महंगा माध्यम है। मिल्खासिंह के बायोपिक में उनके द्वारा भाग ली गई प्रतिस्पर्धाओं का क्रम भी बदला गया, क्योंकि नाटकीय प्रभाव के लिए फिल्मकार राकेश मेहरा को वह जरूरी लगा। दरअसल, बायोपिक में किस्सागोई भी होती है, कुछ मसालों का समावेश भी करना पड़ता है। सच तो यह है कि कोई भी इंसान अपने को ही कब जान पाता है। हम सब अपनी गढ़ी हुई छवियों को ही जीते हैं। स्वयं को जानो कहना आसान है परंतु हम कहां कर पाते हैं। सबसे त्रासद वह दशा होती है, जब हम अपने खयालों में भी झूठ बोलने लगते हैं। ये काल्पनिक वार्तालाप एक अय्याशी में बदल जाता है। 'अक्ल हर काम को जुल्म बना देती है, बेसबब सोचना बेसूद पशीमां होना।' राजा साहेब जिस शिकार मुहिम पर जंगल के राजा की दहाड़ सुनकर बेहोश हो गए थे, अपने मातहत द्वारा मारे गए शेर के शव पर पैर रखकर खड़े होते हैं और फोटो खिंचवाते हैं। कालांतर में इस शिकार का अनुभव सुनाते हुए वे शेर की लंबाई में इजाफा करते चलते हैं। शिकार के किस्सों में कभी हाका लगाने वाले लोगों का जिक्र नहीं होता,जो टीन के कनस्तर पीटकर शेर को उस दिशा में खदेड़ते हैं जहां मचान पर साहेब विराजमान होते हैं। आम जीवन में शेर के शिकार के बदले पड़ोसन से काल्पनिक प्रेम-कथा का वर्णन सुनाया जाता है। इस हकीकत पर ही 'भाभीजी घर में है,' नामक हास्य सिटकॉम रचा गया है। इसके लेखक, कलाकार सभी विलक्षण काम कर रहे हैं। आज के निर्मम यथार्थ से घड़ी दो घड़ी ध्यान बंटाना कोई मामूली काम नहीं है।

शेखर कपूर की इस नई घोषणा से यह आभास होता है कि संभवत: वे ब्रूस ली के बचपन पर फोकस करना चाहते हैं। गली-मोहल्ले में आपसी मारपीट पूरे जीवन याद रहती है। पश्चिम में इस विषय पर बहुत लिखा गया है और फिल्में भी बनी हैं। 'ए स्टोन फॉर डेनी फिशर' भी रोचक किताब है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि नामी पहलवान गरीब वर्ग से आए हैं,जहां भूख औरअभाव ने उन्हें बड़े प्यार से पाला है। गरीबी एक योद्धा का ट्रेनिंग ग्राउंड होती है और गरीबी को महिमा मंडित करना राजनीति वालों का षड्यंत्र है। उससे बड़ी कोई गाली नहीं।

यह गौरतलब है कि गांधी के जीवन पर महान फिल्म एक अंग्रेज ने गढ़ी है और अब एक हिंदुस्तानी ब्रूस ली का बायोपिक बना रहा है। सृजन संसार में कोई सीमाएं नहीं होतीं।