शेखर पवार की कविता / मुकेश मानस

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सबसे पहले तो मैं ये साफ कर दूं कि मैं किसी ‘आलोचक’ की हैसियत से शेखर पवार की कविता पर नहीं लिख रहा हूँ। मैं एक कवि हूँ। और एक कवि की हैसियत से ही अपने कवि मित्र शेखर पवार की कविता पर लिख रहा हूँ। कवि शेखर पवार की कविताओं पर कुछ कहने से पहले मैं चाहूंगा कि आज की कविता की वास्तविकता और उसके वास्तविक स्वरूप पर विचार कर लिया जाये। आज की अधिकांश कविता पढ़ने के लिए लिखी जाती हैं या पढ़ी जाती हैं और सुनी कम जाती हैं। मतलब ये कि आज की कविता की एक वास्तविकता यह है कि वह पढ़ी जाती है। इसलिए उसका आजकल का स्वरूप टैक्स्ट का स्वरूप है जिसे हर कोई अपने हिसाब से पढ़ने को स्वतंत्र है। मैं कविता को कवि के मानवीय पहलुओं को महसूस करने और खूद मानवीय बने रहने के लिए पढ़ता हूँ।

टैक्स्ट के रूप में कविता की अन्य सच्चाइयों के अलावा एक सच्चाई यह है कि वह केवल पढ़े-लिखे ‘मध्यवर्गीय लोगों’ के लिए बनाया गया उत्पाद है। जनता से उसके जुड़े होने के बारे में भले ही कितने ही वक्तव्य क्यों न दिए जाएं असल में वह ‘मध्यवर्गीय सीमाओं’ तक ही सीमित है। इसी मायने में उसकी विशेषताएं भी मध्यवर्गीय हैं और सीमाएं भी। आज की ‘दलित कविता’ भी इस बात का अपवाद नहीं है। शेखर पवार की कविता को मैं एक दलित टैक्स्ट के रूप में समझने का प्रयास करूंगा। मैं इस कविता को एक दलित दृष्टि से जरूर देखना चाहूंगा मगर मैं उसे महज ‘दलित कविता’ के रूप में सीमित करना नहीं चाहूंगा। शेखर पवार की कविता दलित पाठ इसलिए भी है क्योंकि उसके केंन्द्र में दलित व्यक्ति और समाज है, दलित जीवन है, दलित जीवन की पीड़ाएं उसकी समस्याएं हैं, उसके अंतर्विरोध, उसकी पीड़ाएं और उसके सपने हैं। उनकी कविता के केंन्द्र में दलित समाज का व्यवस्थागत शोषण है और उसके व्यवस्थागत आधार हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि सब कुछ सहज और स्वाभाविक है, बनावटी नहीं। कुल मिलाकर शेखर पवार की कविता आज के दलित व्यक्ति और समाज की वास्तविकताओं का सहज पाठ है जिसका फलक बहुत व्यापक है।

पाठ होने के कारण और शायद अपनी रचनाशीलता और विवेकशीलता के आरंभिक दौर में होने के कारण इस कविता में ‘स्टेटमेंट’ ज्यादा देखने को मिलते हैं और ‘पांलिटिकल स्टेटमेंट’ तो कुछ ज्यादा ही देखने को मिलते हैं। यह कोई नई या अस्वाभाविक बात नहीं है। हर आंदोलन में ऐसा होता आया है। प्रगतिवादी आंदोलन की आरंभिक दौर की कविताओं में भी यह बात देखने को मिलती है जहां हर नया कवि केवल लाल झंडा, इंकलाब जिंदाबाद’ या ‘लाल-सलाम’ जैसे नारे लिखकर खुद को प्रगतिवादी कवि के रूप में स्थापित करने की कवायद करता है। लेकिन जैसे-जैसे परिपक्वता आती जाती है वैसे-वैसे यह ‘स्टेटमेंटपना’ छूटता जाता है और क्रांतिकारिता, विद्रोह और संघर्ष के भाव कविता के भीतर रच-बसकर अभिव्यक्त होते हैं।

इस कविता में जो पॉलिटिकल स्टेटमेंट ज्यादा देखने को मिल रहा है उसकी वज़ह यह भी है कि वहां विचारों की प्रबलता है। वहां जीवन में समाई भाव दृष्टि पर नजर कम है, जीवन की विचार दृष्टि पर नजर ज्यादा है और ये बात भी है कि आज के दलित कवि के सामने आलोचना करने के लिए एक पूरा का पूरा संसार है, एक पूरी की पूरी व्यवस्था है, एक पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति है। इसलिए उसकी तरफ से ‘स्टेटमेंटी कविता’ का आना स्वाभाविक है। लेकिन यहां अक्सर यह देखने को मिल रहा है कि स्टेटमेंट ही कविता बन गई है जो कि सही नहीं है। विचारों की स्पष्टता कविता में सहज और सरल रूप से आनी चाहिए, अस्वाभाविक रूप से नहीं। विचार कविता के सिर पर सवार होकर नहीं आने चाहिए बल्कि वह उसमें गुंथकर, घुल-मिलकर आने चाहिए।

विचारों की स्पष्टता से कविता की रचनाशीलता समृद्ध होती है। विचारधारात्मक स्टेटमेंट वाली कविता ज्यादा देर तक जिंदा नहीं रह पाती। भावनात्मक अभिव्यक्ति का ध्यान रखना चाहिए जिसके लिए अपार धैर्य और आत्मविश्वास की जरूरत होती है। लेकिन आजकल के दलित कवि कोई पॉलिटिकल स्टेटमेंट देकर जल्दी से जल्दी प्रसिद्ध और महान हो जाने की फिराक में रहते हैं। कई मायनों में शेखर पवार की कविता भी इसका अपवाद नहीं है। फिर भी शेखर पवार की कविता अपनी कविताओं के रचाव-बुनाव में इस अपवाद को तोड़ते नजर आते हैं। उनकी कविताओं में भी ‘स्टेटमेंट्स’ है। वह भी अनेक स्थानों पर स्टेटमेंट देते हैं लेकिन विचारक की तरह नहीं, एक कवि की तरह। और यही उनकी खूबी है जो उन्हें बाकायदा कवि के रूप में स्थापित करती है। यह कविता दलित मुक्ति संघर्ष का एक रचनात्मक हमसफर है। उसे एक हमसफर की तरह ही लेना चाहिए। उसके साथ उसी तरह का ट्रीटमेंट होना चाहिए। कविता के सिर पर सवार होकर आप उसे अपना हमराही नहीं बना सकते। शेखर भाई की कविताओं में उनकी कविता उनके एक हमसफर की रूप में दिखाई पड़ती है। यह एक बड़ी बात है। इस मायने में वह दूसरे दलित कवियों से ज्यादा अनुभवी और भिन्न नजर आते हैं।

पूरी दुनिया में आज पूंजीवाद अपने विकास के दूसरे और खतरनाक चक्र में प्रवेश कर चुका है। वह अपने शुरूआती प्रगतिशील मूल्यों का एकदम परित्याग कर चुका है, लोकतंत्र और मानवीय कल्याण का दम भरने वाले अपने मुखौटे को उतारकर फैंक चुका है। अब यह पूंजीवाद बेहद सावधानी और सतर्कता बरतते हुए शोषण करने के अपने मकड़जाल को फैला रहा है और पूरी दुनिया को अपने क्रूर पंजों में कस रहा है। खास तौर पर तीसरी दुनिया में वह अपने शोषणकारी रूपों को भयावह रूपों में क्रियान्वित कर रहा है। सब कुछ इतनी सहजता से हो रहा है कि ठीक से यह पता नहीं चल पा रहा है कि क्या और कैसे हो रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण के इस मकड़जाल को दलित आंख से देखने पर सारी सच्चाई खुलकर सामने आ जाती है। विकास के तमाम लोक-लुभावन नारों के बीच समाज की सफों में अमीरी-गरीबी की खाई लगातार और बेतहाशा बढ़ रही है और विकराल रूप धारण कर रही है। और इस बढ़ती असमानता और गरीबी का सबसे ज्यादा शिकार दलित और आदिवासी समाज हो रहा है। ‘भात का कटोरा’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज के कटोरे से भात लगातार कम होता जा रहा है। असमान विकास और गरीबी लगातार विकराल रूप धारण कर रही है। अपनी कविता ‘भारत माता’ में वह लिखते हैं।

मुझे इतराते हुए दिखाई देते हैं
टाटा स्टील, बिरला जूट, अशोक लेलैंड
या बजाज आटो
और भूख से बिलखता आम आदमी

आज के दौर में पूंजीवाद अपने उन तमाम हथियारों को दुबारा पैना कर रहा है जिनको उनके आरंभिक दौर में जनता के संघर्षों ने भौंथरा बनाकर छोड़ दिया था। उसके एक ऐसे ही हथियार की सान तेज हो रही है। ब्राãणवादी व्यवस्था का नए रूप में आगमन हो रहा है, धार्मिक धर्मांधता फल-फूल रही है। धर्म के आधुनिक धर्माचार्यों के रूप में धर्म के धंधेबाजों की समांतर सत्ता का पुनरागमन हो रहा है। धर्मांधता का यह फलना-फूलना कई मामलों में दलित समाज के लिए खतरनाक है। इस सत्ता के शोषण का सर्वाधिक शिकार दलित समाज ही है और वही इसके खिलाफ सर्वाधिक संघर्षशील भी साबित होगा। उसकी संघर्ष चेतना को धीमा और कुंद करने के लिए यह सत्ता अंतत: एक कारगार हथियार साबित होगी। यह नई धर्म सत्ता पूंजीवादी शोषण को ढकने का आध्यात्मिक आवरण मात्र है जिसे वह लगातार बढ़ावा दे रहा है। दलित समाज को न सिर्फ इसके दुष्प्रभावों से खुद को बचाना होगा बल्कि उसे इसके खिलाफ संघर्ष भी करना होगा। यह कवि शेखर पवार की पैनी नजर का ही कमाल है कि वह इस विकराल होते दुश्मन को ठीक से पहचान कर, उसको उसकी तमाम वास्तविकताओं के साथ अपनी कविताओं में प्रस्तुत करती है और वे बार-बार दलित समाज को सावधान करते हैं-

वे चाहते हैं
हम सदा अनपढ़ रहें
तथा फले-फूले धर्मांधता
और वे बने रहें धर्मात्मा

संविधान दलितों के मानवीय, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों का दस्तावेज है। यह दलित समाज के संघर्ष का ही प्रतिफल है। किंतु अब बार-बार समीक्षा के बहाने संविधान की शक्ति को लगातार कुंद करने की कोशिशें की जा रही हैं संविधान के वास्तविक रूवरूप में बदलाव करने की कोशिशें दलित आबादी के अधिकारों को उनसे छीन लेने की कवायद का ही पर्याय है।। शेखर पवार की कविता ‘संविधान समीक्षा के बहाने’ इसी कवायद के भयानक रूप की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है-

संविधान समीक्षा के बहाने
वे चाहते हैं दलित पिछड़ों के विकास हेतु बनी
संविधान की धाराओं को सरेआम फांसी लगा देना

संविधान डा. अंबेडकर के साथ जुड़ा है और डा. अंबेडकर दलितों की प्रेरणा हैं, उनकी शक्ति हैं। जो सपना डा. अंबेडकर ने दलित विकास का देखा था उसका एक बड़ा आधार संविधान है। और संविधान पर बार-बार प्रहार करना दलितों के विकास को कुंद करना है। ‘आरक्षण’ पर बार-बार प्रहार किया जा रहा है। तमाम तरह के अतार्किक तर्क पैदा किए जा रहे हैं। ऐसा ही एक आधार है योग्यता। ‘हमारे देश में’ कविता में शेखर पवार ‘योग्यता’ पर सवाल करते हैं। वे कहते हैं कि जिस देश की बहुतायात आबादी गरीबी और बदहाली की शिकार हो जहां असफलता की गहरी खाई मौजूद हो, वहां योग्यता खुद एक विवादास्पद और जनविरोधी चीज है। उनका मानना है कि मेहनतकश वर्ग की मेहनत और श्रम ही उसकी योग्यता है-

हमारे देश में
योग्यता के थाट और मापदंड
बड़े निराले हैं
सदियों से मेहनतकश दलित भूखे हैं यहां
और हाथों में उसके छाले हैं

मेहनतकश के रूप में दलित की पहचान एक नई पहचान है। यह पहचान दलित समाज का विस्तार करती है, उसे व्यापकता प्रदान करती है। ‘दुनिया के सृजनहार’ कविता शेखर भाई की छोटी मगर अदभुत कविता है। दलित दुनिया के सृजनहार हैं क्योंकि वे मेहनतकश लोग हैं, उत्पादक समुदाय हैं। जब दलित इस रूप में अपनी पहचान करता है तो बाकी पहचानें उसमें धुल जाती हैं दलित समाज की यह नई पहचान उसे न सिर्फ शक्ति देती है बल्कि उसमें एक ओजपूर्ण स्वाभिमान को भी पैदा करती है।

हम हैं चमार, हम हैं किसान
हम हैं भंगी, हम हैं कुम्हार
हम हैं नाई, हम हैं धोबी
हम हैं जुलाहे, हम लुहार
हम हैं कुर्मी, हम लुहार
हम हैं कुर्मी, हम हैं बढ़ई
हम हैं दुनिया के सृजनहार

दुनिया का सृजनहार ही दुनिया बदल सकता है। ‘दुनिया के सृजनहार’ दलित समाज ने आत्मविश्वास का विस्तार करती है। दलित समाज का यह आत्मविश्वास ही दलित मुक्ति संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत है। दलित समाज और शेष शोषित समाज की मुक्ति तभी हो सकती है जब दलित एकजुट होकर संघर्ष की राह पर लगातार बढ़ता चले। आज वह जहां पहुंचा है वह वहां संघर्ष करके ही पहुंचा है और इस संघर्ष के पे्ररणा स्रोत हैं-डा. अंबेडकर। डा. अंबेडकर पर शेखर भाई की बहुत सारी कविताएं हैं। दलित संघर्ष की विचाराधारात्मक जमीन तैयार करने में, दलित समाज के विकास में उनका योगदान अप्रतिम है। शेखर पवार के लिए वह अविस्मरणीय हैं। शेखर पवार के भीतर उनके लिए असीम कृतज्ञता का भाव हैं जो उनकी अधिकतर कविताओं में सहज रूप से आकर अभिव्यक्त होता है-

हमें याद भी नहीं
कि हमने पाई है नौकरी, ओहदा, इज्जत
तथा शोहरत
सिर्फ आपकी बदौलत

शेखर पवार अपनी कविताओं में बार-बार संघर्ष की बात करते हैं। इस मायने में उनकी अधिकतर कविताएँ दलित संघर्ष गान है। लेकिन वह इस संघर्ष की सीमाओं और विरोधों को भी बड़ी शिíत से अपनी कविताओं में उठाते हैं। आज दलित संघर्ष में अंतविरोध की बहुत-सी सतहें पैदा हो गई हैं। उसमें बिखराव दिख रहा है। शेखर पवार को तमाम चीजों के अलावा इस विखराव का सबसे मजबूत कारण लगता है दलित जमातों में ‘संवाद का अभाव’। ये संवादहीनता लगातार दलित संघर्ष को तोड़ रही है, उसमें दूरियां पैदा कर रही है। यह संवादहीनता अनेक कारणों से है। एक कारण है-दलित समाज के बीच मौजूद जातीय अंतर्विरोध जिसे तोड़े बिना दलित संघर्ष व्यापक रूप नहीं पा सकता। दलित समाज की इस बड़ी कमजोरी को शेखर पवार ‘औकात’ कविता में बड़ी सहजता से अभिव्यक्त कर देते हैं-

हमारा नही है आपसी तालमेल
और एक दूसरे से संवाद

ऐसी ही एक और कविता है ‘मोच’ जिसमें वह दलित समाज में बढ़ रहे बिखराव के कारण दलित आंदोलन के पांव में आने वाली मोच की बात करते हैं-

मैं चाहता हूं
हर पल विकसित हो मेरी सोच
पर बड़ी दुखदायी है
यह पैरों की मोच

दलित राजनेताओं पर भी उन्होंने करारा व्यंग्य किया है। कांशीराम के बाद मायावती दलित समाज की मुक्ति का पर्याय हैं। मगर वह भी सत्ता के चक्र में फंसकर अपने लक्ष्य और अपने लोगों से दूर होती जा रही हैं। ‘मायावती के गांव में’ कविता में मायावती पर व्यंग्य करते हुए वह लिखते हैं कि मायावती अब पूरी शहरी हो गई हैं। उनका उद्देश्य अब सिर्फ सत्ता है। उनका गांव, उसके लोग अब भी उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं जो कहीं से पूरी होती नजर नहीं आती।

मायावती के गांव में
बामन-बनियों की दरोगा-अफसरों की
रोज दिवाली हो रही है
और ढबरी तक को तरसती दलितों की दुनिया में
कबीर की चदरिया चिथड़े हो रही है

माक्र्सवादी विचारधारा, माक्र्सवादी आंदोलन दलित आंदोलन के स्वाभाविक मित्र हैं मगर वे अभी भी अपने ही तमाम तरह के अंतर-विरोधों में घिरे हैं। दलित समस्या के स्वरूप और उसके समाधान को लेकर उनके बीच मौजूद गतिरोधों और अंतरर्विरोधों पर कवि शेखर पवार उंगली रखते हैं। उनकी कई कविताओं में यह बात सामने आती है-

यदि तुम भटक गए
दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर
तो निश्चित है तुम्हारा
दिगंबर हो जाना कामरेड
अजय भवन पहुंचते-पहुंचते

इस सबके बावजूद उम्मीद, आशा, आप्टीमिज्म उनकी कविता का मूल उत्स है। वे लगातार उम्मीद बनाए रखते हैं कि संघर्षशील दलित जनता और शेष शोषित समाज अपने भीतर मौजूद तमाम अंतर्विरोधों से मुक्त होकर, एकजुट होकर समाज बदलाव के व्यापक संघर्ष में अपना योगदान निभाएगा। तमाम बिखरावों, अंतरविरोधों और रूकावटों के बावजूद उन्हें लगता है कि क्रांति का सूरज उग आया है।’ यहां उम्मीद उन्हें अपने समाज की मुक्ति का रास्ता खोजने की ओर अग्रसर करती रहती है-

मैं खोजता हूं
अंधियारे में सुबह

प्राय: विचारशील कविता ‘मध्यवर्गीय सोच’ की ही उपज होती है। और आजकल की हमारी कविता भी मध्यवर्गीय सीमाओं से अछूती नहीं है। वह मध्यवर्गीय दलित महत्वाकांक्षाओं में जन्म ले रही है। इसलिए वह उन मध्यवर्गीय सीमाओं में कैद है। फिर भी अनेक कवि इन सीमाओं को तोड़ने का प्रयास लगातार कर रहे हैं। वे काव्य सृजन की लोक परंपराओं की तरफ जा रहे हैं। कविता में लोक प्रचलित लोक रूपों का अन्वेषण कर रहे हैं। याद कीजिए कबीर की कविता को। वह जानता के बीच खड़ी होकर जनता के बीच सृजित होने और बांची जाने वाली जन कविता है। उसमें मध्यवर्गीयता की बू तक नहीं है। उसने अपने दौर की अभिजात्यता को तोड़ा। इसलिए वह आज भी उतनी ही क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी है और उतनी ही सहज और जीवंत है जितनी अपने समय में थी। याद कीजिए पहले आधुनिक दलित कवि हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत को’। गीत के रूप में लिखी गई यह कविता दलित पीड़ा सशक्त कविता है।


दलित कविता दलित समाज के बीच खड़े होकर दलित समाज के लिए लिखी जाने का दावा करती है जो कि सही है। मगर इसके केन्द्र में निस्संदेह मध्यवर्गीय दलित समाज ही है। कविता के भाव, विचार, स्वरूप, रूप भाषा हर चीज पर यह बात लागू होती है। इस रूप में वह दलित समाज के एक बड़े तबके से कटी हुई कविता है। दलित समाज की बहुतायत आबादी और उसकी जरूरतों के हिसाब से यह कविता नहीं लिखी जा रही है। इस कविता को कबीर से आगे जाने की जरूरत है जो कि वह नहीं कर पा रही है। वह तो परंपरागत प्रतिष्ठित कविता की सीमाओं के इर्द-गिर्द ही चक्कर काट रही है। शेखर पवार किसी हद तक इन सीमाओं को तोड़कर उससे बाहर आने का प्रयास अपनी कई कविताओं में करते दिखाई पड़ते हैं। इस बात के लिए कवि शेखर पवार की जितनी तारीफ की जाए, कम है। उनकी हर कविता एक पैनी और धारदार ‘दलित आंख’ से आज के समाज को देखती है, उसकी हलचलों और उसमें पैदा हो रही लहरों को देखती है और इस सबके बीच वह दलित समाज पर फोकस करती है। उसकी पीड़ाओं, आकांक्षाओं और सपनों पर फोकस करती है। उसके अंतर्विरोधों और संघर्ष के विविध रूपों पर फोकस करती है। इस मामले में शेखर पवार की कविता एक ‘कंपलीट दलित पाठ’ है।


(अपेक्षा के अप्रैल-जून 2008 अंक में प्रकाशित शेखर पवार की कविता के बारे में लिखा गया यह लेख मूलत: उनकी कविताओं की किताब “मायावती के गांव मे” की कविताओं पर आधारित है।)

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