शेख़ सादी / अध्याय 10 / प्रेमचंद
गज़ले
ग़जल फारसी कविता का प्रधान अंग है । कोई कवि, जब तक वह गज़ल कहने में निपुर्ण न हो। गज़लें समाज में आदर का स्थान नहीं पाता। यों तो गज़ल शृंगार का विषय है, किन्तु कवियों ने इसके द्वारा सभी रसों का वर्णन किया है, जिसमें भक्ति, बैराग्य, संसार की असारता आदि विषय बड़े महत्तव के हैं। गज़लों के संग्रह को फ़ारसी में दीवान कहते हैं। सादी की सम्पूर्ण गज़लों के चार दीवान हैं, जिनके नाम लिखने की कोई ज़रूरत नहीं मालूम होती। इन चारों दीवानों में कोई तो युवाकाल में, कोई प्रौढ़ावस्था में लिखा गया है किन्तु उनमें कहीं भाव का वह अन्तर नहीं पाया जाता जो बहुधा भिन्न-भिन्न अवस्था की कविताओं में मिला करता है। उनकी सभी गज़लें सरलता और वाक्य निपुणता में समतुल्य हैं। और यह कवि की रचना-शक्ति का बहुत बड़ा प्रमाण है।
यद्यपि शेखसादी के पूर्वकालीन कविगण भी गज़लें कहते थे, किन्तु उस समय क़सीदे और मसनवी की प्रधानता थी। गज़लों में साधारण भाव प्रकट किये जाते थे और शृंगार को छोड़कर दूसरे रसों का उसमें प्राय: अभाव था। सादी ने गज़लों में ऐसे गूढ़ रहस्यों और मर्मस्पर्शी भावों को व्यक्त किया कि लोग क़सीदे तथा मसनवियों को छोड़कर गज़लों पर टूट पड़े और गज़ल फ़ारसी कविता का प्रधान अंग बन गई। इसी से समालोचकों ने सादी को गज़ल में प्रधान माना है। सादी के पहले के दो कवियों ने क़सीदे कहने में विशेष प्रतिभा दिखाई है अनवर और खशकानी ये दोनों कवि इस विषय में अद्वितीय हैं। लेकिन उनकी गज़लों में वह मार्मिकता नहीं पाई जाती जो सादी ने अपनी गज़लों में कूट-कूटकर भर दी। बात यह है कि गज़ल कहने के लिए हृदय में नाना प्रकार के भावों का होना अत्यावश्यक है, केवल इतना ही नहीं, उन भावों को कुछ ऐसे अनूठे ढंग से वर्णन करना चाहिए कि उनसे सुनने वाला तुरंत मुग्धा हो जाय।
अनवरी का एक शेर है
हमा बामन जफ़ा कुनद लेकिन,
वज़फ़ा हेच अजशे नया ज़रम।
भावार्थ - वह (प्रियतम) मेरे ऊपर सदैव जुल्म किया करता है, किन्तु मैं इनकी जरा भी शिकायत नहीं करती।
भाव के सुंदर होने में संदेह नहीं, क्योंकि दुखड़ा आशिकों की पुरानी बात है। किन्तु कवि ने उसे स्पष्ट रूप से वर्णन करके उसकी मिट्टी खराब कर दी। देखिये इसी भाव को सादी साहब किस ढंग से दर्शाते हैं
कादिर बर हरचेमी ख़्वाही बजुज़ आ ज़रे मन,
ज़ाँकिगर शमशीर बर फ़रक़म ज़नी आज़र नेस्त।
भावार्थ - तू सब कुछ कर सकता है किन्तु मुझ पर जुल्म नहीं कर सकता, क्योंकि यदि तू मेरे सिर पर तलवार मारे तो उससे मुझे कष्ट नहीं होता।
यह स्मरण रखना चाहिये कि गज़ल प्रधानत: शृंगार का विषय है, इसलिए कविगण जब इसके द्वार भक्ति, वैराग्य, वंदना आदि का वर्णन करते हैं तो उनको रसिकता की ही आड़ लेनी पड़ती है। अतएव शराब की मस्ती से ईश्वर प्रेम, शराब से ज्ञान, आत्म-दर्शन, शराब पिलाने वाले साकी से गुरु, ज्ञानी, माशूक (प्रियतमा) से ईश्वर का बोध कराते हैं। इसी प्रकार वह बुलबुल से प्रेमी, उसके पिंजरे से दुखमय संसार और माली से विपत्ति का आशय प्रकट करते हैं। यह प्रणाली इतनी सर्ब प्रसिध्द हो गई है कि किसी को कवि के आंतरिक भावों के जानने में सन्देह नहीं हो सकता। भक्ति के लिए हृदय की स्वच्छता तथा निर्मलता का होना आवश्यक है। कपट के साथ भक्ति का मेल नहीं हो सकता, इसलिए कविगण भगवे बाने की निंदा करने से कभी नहीं थकते। मस्जिद के आविद की अपेक्षा जो संसार को दिखाने के लिये यह स्वांग रचे हुए हैं वह वासनाओं में फंसा हुआ मनुष्य कहीं सहृदय है जिसके हृदय में कपट नहीं। विद्वता और धर्म तथा कर्तव्य-परायणता आदि गुणों से जो मनुष्य में बहुधा अभिमान का उद्भव करते हैं, अज्ञान, मूर्खता तथा भ्रष्टता कहीं उत्तम है जो मानव हृदय में विनय, दीनता तथा नम्रता उत्पन्न करती है।
इसलिए कविगण साधुवेष, विद्वता, धार्मिकता, विवेक आदि की खूब दिल खोलकर हंसी उड़ाते हैं और भ्रष्टता, मूर्खता, रसिकता को खूब सराहते हैं, वे पीतवसनधारी महात्माओं को लताड़ते हैं, और शराबियों तथा शृंगारियों के आगे शीश झुकाते हैं, वे ज्ञानियों को मूर्ख और मूर्खों को ज्ञानी कहते हैं। शेखसादी के पहले भी यह प्रणाली संस्कृत हो चुकी थी पर सादी ने इसके प्रभाव और चमत्कार को उज्ज्वल कर दिया। और यह प्रणाली कुछ ऐसी सर्वप्रिय सिध्द हुई कि बाद वाले कवियों ने तो इन्हीं विषयों को गज़ल का मुख्य अंग बना दिया और हाफिज़ ने सादी को भी पीछे कर दिया।
अब हम सादी की गज़लों के कुछ शेर उध्दृत करते हैं जिनको देखकर रसिक-वृन्द स्वयं यह निर्णय कर सकेंगे कि इन गज़लों में कितना लालित्य और रस भरा हुआ है।
अय कि गुफ़ती हेच मुशकिल चूं फिरा के यार नेस्त,
गर उमीदे वस्ल बाशद आंचुनां दुशवार नेस्त।
भावार्थ - यद्यपि प्रियतम का वियोग बहुत कष्टजनक है, तथापित मिलाप की आशा हो तो उसका सहना कुछ कठिन नहीं है।
हरको ब हमा उमरश सौदाय गुले बूदस्त,
दानद कि चरा बुलबुल दीवाना हमी बाशद।
भावार्थ - जिस मनुष्य ने सारा जीवन किसी फल के प्रेम में व्यतीत किया है वहीं जानता है कि बुलबुल क्यों दीवाना रहता है।
दिलों ज़नम ब तो मश ग़ूलो निगह बट चपो रास्त,
ता न दानन्द रकशीबां कि तू मंजूर मनी।
भावार्थ - मैं तो तेरी ओर तन्मय हूं पर आंखें दाहिने-बायें फेरता रहता हूं जिसमें प्रतिद्वन्द्वियों को यह न ज्ञात हो सके कि तू मेरा प्रियतम है।
इस शेर में कितना लालित्य है इसे रसिकजन स्वयं अनुभव कर सकते हैं।
दीगरां चूं ब रवन्द अज़ नजर अज़ दिल ब रवन्द,
तो चुनां दर दिले मन रफश्ता कि जो दर बनी।
भावार्थ - साधारणत: जब कोई नज़रों से दूर हो जाता है तो उसकी याद भी मिट जाती है, किन्तु तूने मेरे हृदय में इस प्रकार प्रवेश किया है, जैसा प्राण शरीर में।
कितनी मनोरम उक्ति है!
शर्बते तल्ख तर अज दर्दे फिराकत बायद,
ता कुनद लज्ज़ते वस्ले तो फरामोश मरा।
भावार्थ - तुझसे प्रेमालिंगन के आनंद को भुलाने के लिये तेरे वियोग से भी दारुण दु:ख चाहिये।
अन्य कवियों ने वियोग दुख वर्णन में खूब आंसू बहाए हैं, पर सादी प्रेमालाप के स्मरण में विरह के दु:ख को भूल जाता है। वियोग विस्मृति का कितना अच्छा उपाय, कैसी अक्सीर दवा निकलती है।
बर अन्दली बे आशिक गर विषकनी कफरा
अज़ं जौकशे अन्दररूनश परवायद दर न बाशद।
भावार्थ - प्रेममग्न बुलबुल के पिंजरे को यदि तू तोड़ डाले तो भी अपने हृदयानुराग के कारण उसे दरवाज़े की सुधि भी न रहेगी। कितना प्यारा लाजबाव शेर है! बुल बुल प्रेमानुराग में ऐसी तन्मय हो रही थी कि यदि कोई उसके पिंजरे को तोड़ डाले तो भी वह उसमें से न निकले। अन्य कवियों के आशिक कपड़े फाड़ते हैं, जंगलों में मारे-मारे फिरते हैं, विरह कल्पना में आठों पहर आंसू की धारा बहाया करते हैं, मौका पाते ही कैदखाने से भाग खड़े होते हैं, जंजीरों को तोड़ डालते हैं, दीवारों की फांद जाते हैं और यदि इतना साहस न हुआ तो बहार और गुल और चमन की याद में तड़पते रहते हैं, पर सादी प्रेम में इतने मग्न हैं कि उन्हें किसी बात की चिंता ही नहीं। प्रेम का कितना ऊंचा आदर्श है, उसके गहरे रहस्य को कितने मुग्धाकारी आनंदमय शब्दों में वर्णन किया है।
बूद हमेश: पेश अज़ीं रस्मे तो बेगुन: कुशी
अज़ चे मरा नमीं कुशी मन चे गुनाह करदा अम।
भावार्थ - इसके पहले तू बेगुनाहों को कत्ल किया करता था। मैंने क्या गुनाह किया है कि मुझे कत्ल नहीं करता।
जों न दारद हरकि जानानेश नेस्त
तंग ऐशस्त आं कि बुस्तानेश नेस्त।
भावार्थ - वह प्राण शून्य है जिसका कोई प्राणेश्वर नहीं, वह भागयहीन है जिसके कोई बाग़ नहीं।
इस शेर में भक्ति रस का कैसा गंभीर स्वाद भरा हुआ है।
चुनां बमूए तो आशुफत: अम बबूए मस्त,
कि नेस्तम ख़बर अज़ हर चे दर दो आलम हस्त।
भावार्थ - मैं तेरे केशों में ऐसा उलझा और उनकी सुगन्धि में ऐसा मस्त हूं कि मुझे लोक, परलोक की कुछ सुधि ही नहीं।
गुलामे हिम्मते आनम कि पायबन्द य केस्त,
ब जानिबे मुत अल्लिक शुद अज़ हज़ार बरूस्त।
भावार्थ - मैं उसी का सेवक हूं जो केवल एक का अनुरागी है, जो एक का होकर हजारों से मुक्त हो जाता है।
निगाहे मन बतो वो दीगरां ब तो मशगूल,
मुआशिरां ज़े मयो आरिफशं ज़े साकशी मस्त।
भावार्थ - मेरी आंखें तेरी ओर हैं तुझसे अन्य लोग बातें कर रहे हैं। भोगियों के लिये शराब चाहिये, ज्ञानी शराब पिलाने वालों को देखकर ही मस्त हो जाता है।
बड़े मार्के का शेर है, प्रेमानुराग के एक नाजुक पहलू को अत्यंत भावपूर्ण रूप से वर्णन किया है। भक्तों को ईशचिंतन ही सबसे बड़ा पदार्थ है, उसके दर्शन करने की उन्हें अभिलाषा नहीं। शराब पीकर मस्त हुए तो क्या बात रही, मज़ तो जब है कि साकशी (शराब पिलाने वाले) के दर्शन ही से आत्मा तृप्त हो जाय।
दिले कि आशिकशे साबिर बुबद मगर संगस्त,
ज़े इश्क ता ब सबूरी हज़ार फ़र्सगस्त।
भावार्थ - जिस हृदय में प्रेम के साथ धौर्य भी है वह परस्पर है। प्रेम और धर्म में सौ कोस का अंतर है।
चे तरबियत शुनवम या मसलहत बीनम
मरा कि चश्म ब साकशी व गोश बर चंगस्त।
भावार्थ - मैं किसी का उपदेश क्या सुनूं और क्या उचित-अनुचित का विचार करूं, मेरी आंखें तो साकशी की ओर और कान चंग की ओर लगे हुए हैं। आशय स्पष्ट है।
खल्क मी गोयद कि जाहो फ़ज्ल दर फ़र्जानगीस्त
गो मुवाश ईंहा, कि मा रंदाने ना फज़ीना एम।
भावार्थ - अगर प्राण के बदले में भी शराब मिले तो सस्ती है, ले ले, क्योंकि शराब खाने की मिट्टी भी अमृत से उत्तम है।
रूएस्त माह पैकरो मूएस्त मुश्कबूय,
हर लालएं कि मी दमद अज़ खशको संबुले।
भावार्थ - मिट्टी से जो लाले (एक प्रकार का फल) या सैबुल (एक प्रकार की घास) निकलते हैं, वास्तव में प्रत्येक किसी का चन्द्रमुख या सुगंध से भरे हुए केश हैं।
सैबुल की केश से उपमा दी जाती है। वेदान्त का सार एक शेर में निकालकर रख दिया है।
गज़लों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा इसके विषय में कुछ कहना अनुपयुक्त न होगा। शृंगार रस की कविता विलासिता को उत्तोजित करती है, यह एक सर्वसिध्द बात है और जब शृंगार के साथ कविता में विद्या, धर्म, आचार, नियम, संयम, और सिध्दान्त का अपमान भी किया जाय, तो उसकी विकारक शक्ति और भी बढ़ जाती है। इसमें संदेह नहीं कि सादी और अन्य कवियों ने कबीर साहब की भांति ढोंग, ढकोसला, नुमाइश का अनादर करने ही के निमित्त यह रचनाशैली ग्रहण की है और आचार, नीति तथा ज्ञान के बड़े-बड़े जटिल और मर्मस्पर्शी विषय रूपक द्वारा दर्शाये हैं पर जनता इन गज़लों के आशय को अपने चित्त और मन की वृत्तियों के अनुसार ही समझती है। कीर्त्तन में जो स्वर्गीय आनंद एक भक्त को होगा वह विलासान्धा मनुष्य को कदापि नहीं हो सकता। वह अपने चरित्र और स्वभाव की दुर्बलता के कारण ऊपरी आशय ही का आनंद उठाता है। मर्म तक उसकी स्थूल बुध्दि पहुंच ही नहीं सकती। यह शैली कुछ ऐसी सर्वप्रिय हो गई है कि अब फ़ारसी या उर्दू कवियों को उसका त्याग या संशोधन करने का साहस ही नहीं हो सकता। श्रोताओं को उन गज़लों में कुछ आनन्द ही न आयेगा जो इस शैली के अनुकूल न हों। इस विषय में सादी के उर्दू जीवनकार मौलाना अलताफ हुसेन। हाली ने बड़ी उपयुक्त बातें लिखी हैं, जिन्हें पढकर पाठक स्वयं जान जायँगे कि उर्दू ही के कवि और लेखक इस विषय में क्या सम्मति रखते हैं
इन गज़लों के विषय में प्राय: लोग परिचित हैं। यह सर्वदा बुध्दि और ज्ञान, मान और मर्यादा, धर्म और सिध्दान्त, धन और अधिकार की उपेक्षा करती है तथा दरिद्रता और अपमान, अविद्या और अज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बतलाती है। संसार पर लात मारना, बुध्दि से कभी काम न लेना, संतोष और विरति के नशे में अपने जीवन को नष्ट और मनुष्यत्व का पतन करना, संसार को असार और अनित्य समझते रहना, किसी वस्तु के तत्तव के जानने की चेष्टा न करना, सुप्रबंध तथा मितव्यता को अवगुण समझना, जो कुछ हाथ लगे उसे तुरंत व्यर्थ खो देना और इसी प्रकार की और कितनी ही बातें उनसे प्रकट होती हैं। विदित ही है कि यह विषय बेफिक्रों और नवयुवकों को स्वभावत: रुचिकर प्रतीत होते हैं....यद्यपि यह सिध्द करना कठिन है कि हमारा वर्तमान नैतिक पतन इन्हीं गज़लों का परिणाम है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि शृंगार और वैराग्य की कविता ने इस दशा को पुष्ट करने में विशेष भाग लिया है।