शेख़ सादी / अध्याय 3 / प्रेमचंद
मुसलमान यात्रियों में इब्नबतुता (प्रख्यात यात्री एवं महत्वपूर्णग्रंथ ‘सफ़रनामा’ का लेखक) सबसे श्रेष्ठ जाता है। सादी के विषय में विद्वानों ने स्थिर किया है कि उनकी यात्रायें 'बतूता' से कुछ ही कम थीं। उस समय के सभ्य संसार में ऐसा कोई स्थान न था जहाँ सादी ने पदार्पण न किया हो। वह सदैव पैदल सफर किया करते थे। इससे विदित हो सकता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा अच्छा रहा होगा और वह कितने बड़े परिश्रमी थे। साधारण वस्त्रों के सिवा वह अपने साथ और कोई सामान न रखते थे। हाँ, रक्षा के लिए एक कुल्हाड़ा ले लिया करते थे। आजकल के यात्रियों की भांति पाकेट में नोटबुक दाबकर गाइड (पथदर्शक) के साथ प्रसिध्द स्थानों का देखना और घर पहुंच यात्रा का वृत्तांत छपवाकर अपनी विद्वता दर्शाना सादी का उद्देश्य न था। वह जहाँ जाते थे महीनों रहते थे। जन- समुदाय के रीति-रिवाज, रहन-सहन और आचार-व्यवहार को देखते थे, विद्वानों का सत्संग करते थे और जो विचित्र बातें देखते थे उन्हें अपने स्मरण-कोष में संग्रह करते जाते थे। उनकी गुलिस्तां और बोस्तां दोनों ही पुस्तकें इन्हीं अनुभवों के फल हैं। लेकिन उन्होंने विचित्र जीव जन्तुओं, कोरे प्राकृतिक दृश्यों अथवा उद्भुत वस्त्राभूषणों के गपोड़ों से अपनी किताबें नहीं भरीं। उनकी दृष्टि सदैव ऐसी बातों पर रहा करती थी जिनका कोई सदाचार सम्बन्धी परिणाम हो सकता हो, जिनसे मनोवेग और वृत्तियों का ज्ञान हो, जिनसे मनुष्य की सज्जनता या दुर्जनता का पता चलता हो, सदाचरण, पारस्परिक व्यवहार और नीति पालन उनके उपदेशों के विषय थे। वह ऐसी ही घटनाओं पर विचार करते थे, जिनसे इन उच्च उद्देश्यों की पूर्ति हो। यह आवश्यक नहीं था कि घटनाएं अद्भुत ही हों। नहीं, वह साधारण बातों से भी ऐसे सिध्दान्त निकाल लेते थे जो साधारण बुध्दि की पहुंच से बाहर होते थे। निम्नलिखित दो-चार उदाहरणों से उनकी यह सूक्ष्मदर्शिता स्पष्ट हो जायगी।
मुझे 'केश' नामी द्वीप में एक सौदागर से मिलने का संयोग हुआ। उसके पास सामान से लदे हुए एक सौ पचास ऊंट, और चालीस ख़िदमतगार थे। उसने मुझे अपना अतिथि बनाया। सारी रात अपनी राम कहानी सुनाता रहा कि मेरा इतना माल तुर्किस्तान में पड़ा है, इतना हिन्दुस्तान में, इतनी भूमि अमुक स्थान पर है, इतने मकान अमुक स्थान पर, कभी कहता, मुझे मिश्र जाने का शौक है लेकिन वहाँ की जलवायु हानिकारक है। जनाब शेख़ साहिब, मेरा विचार एक और यात्रा करने का है, अगर वह पूरी हो जाय तो फिर एकान्तवास करने लगूं। मैंने पूछा वह कौन-सी यात्रा है? तो आप बोले, पारस का गन्धाक चीन देश में ले जाना चाहता हूं, क्योंकि सुना है, वहाँ इसके अच्छे दाम खड़े होते हैं। चीन के प्याले रूम ले जाना चाहता हूं, वहाँ से रूमका। 'देबा' (एक प्रकार का बहुमूल्य रेशमी कपड़ा) लेकर हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान का फौलाद 'हलब' में और हलब का आईना यमन में और यमन की चादरें लेकर पारस लौट जाऊंगा। फिर चुपके से एक दुकान कर लूंगा और सफर छोड़ दूंगा, आगे ईश्वर मालिक है। उसकी यह तृष्णा देखकर मैं उकता गया और बोलाआपने सुना होगा कि 'ग़ोर' का एक बहुत बड़ा सौदागर जब घोड़े से गिरकर मरने लगा तो उसने एक ठंडी सांस लेकर कहा, तृष्णावान मनुष्य की इन दो आंखों को सन्तोष ही भर सकता है या कब्र की मिट्टी।
कोई थका-मांदा भूख का मारा बटोही एक धनवान के घर जा निकला। वहाँ उस समय आमोद-प्रमोद की बातें हो रही थीं। किन्तु उस बेचारे को उनमें जरा भी मजा न आता था। अन्त में गृहस्वामी ने कहा, जनाब, कुछ आप भी कहिये। मुसाफिर ने जवाब दिया, क्या कहूं मेरा भूख से बुरा हाल है। स्वामी ने लौंडी से कहा, खाना ला। दस्तरख्वान बिछाकर खाना रक्खा गया। लेकिन अभी सभी चीजें तैयार न थीं। स्वामी ने कहा, कृपा कर ज़रा ठहर जाइए अभी कोफता तैयार नहीं है। इस पर मुसाफिर ने यह शेर पढ़ा
कोफता दर सफ़र ये मागो मुबाश,
कोफता रा नाने-तिही कोफतास्त।
भावार्थ - मुझे कोफते की जरुरत नहीं है। भूखे आदमी की खाली रोटी ही कोफता है।
एक बार मैं मित्रों और बन्धुओं से उकताकर फिलस्तीन के जंगल में रहने लगा। उस समय मुसलमानों और ईसाइयों में लड़ाई हो रही थी। एक दिन ईसाइयों ने मुझे कैद कर लिया और खाई खोदने के काम पर लगा दिया। कुछ दिन बाद वहाँ हलब देश का एक धनाड्य मनुष्य आया, वह मुझे पहचानता था। उसे मुझ पर दया आयी। वह दस दीनार देकर मुझे कैद से छुड़ाकर अपने घर ले गया और कुछ दिन बाद अपनी लड़की से मेरा निकाह करा दिया। वह स्त्री कर्कशा थी। आदर-सत्कार तो दूर, एक दिन क्रुध्द होकर बोली, क्यों साहिब, तुम वही हो न जिसे मेरे पिता ने दस दीनार पर खरीदा था। मैंने कहा, जी हाँ, मैं वहीं लाभकारी वस्तु हूं जिसे आपके पिता ने दस दीनार पर ख़रीद कर आपके हाथ सौ दीनार पर बेच दिया। यह वही मसल हुई कि एक धर्मात्मा पुरुष किसी बकरी को भेड़िये के पंजे से छुड़ा लाया। लेकिन रात को उस बकरी को उसने खुद ही मार डाला।
मुझे एक बार कई फकीर साथ सफर करते हुए मिले। मैं अकेला था। उनसे कहा कि मुझे भी साथ लेते चलिये। उन्होंने स्वीकार न किया। मैंने कहा, यह रुखाई साधुओं को शोभा नहीं देती। तब उन्होंने जवाब दिया, नाराज़ होने की बात नहीं, कुछ दिन हुए एक मुसाफिर को इसी तरह साथ ले लिया था, एक दिन एक किले के नीचे हम लोग ठहरे। उस मुसाफिर ने आधी रात को हमारा लोटा उठाया कि लघुशंका करने जाता हूं। लेकिन खुद ग़ायब हो गया। यहाँ तक भी कुशल थी। लेकिन उसने किले में जाकर कुछ जवाहरात चुराये और खिसक गया। प्रात:काल किले वालों ने हमें पकड़ा। बहुत खोज के पीछे उस दुष्ट का पता मिला, तब हम लोग कैद से मुक्त हुए। इसलिए हम लोगों ने प्रण कर लिया है कि अनजान आदमी को अपने साथ न लेंगे।
दो खुरासानी फकीर साथ सफर कर रहे थे। उनमें एक बुङ्ढा दो दिन के बाद खाना खाता था। दूसरा जवान दिन में तीन बार भोजन पर हाथ फेरता था। संयोग से दोनों किसी शहर में जासूसी के भ्रम में पकड़े गये। उन्हें एक कोठरी में बंद करके दीवार चुनवा दी गयी। दो सप्ताह बाद मालूम हुआ कि दोनों निरपराध हैं। इसलिये बादशाह ने आज्ञा दी कि उन्हें छोड़ दिया जाय। कोठरी की दीवार तोड़ी गयी, जवान मरा मिला और बूढ़ा जीवित। इस पर लोग बड़ा कौतूहल करने लगे। इतने में एक बुध्दिमान पुरुष उधर से आ निकला। उसने कहा, इसमें आश्चर्य क्या है, इसके विपरीत होता तो आश्चर्य की बात थी।
एक साल हाजियों के काफिले में फूट पड़ गयी। मैं भी साथ ही यात्रा कर रहा था। हमने खूब लड़ाई की। एक ऊंटवान ने हमारी यह दशा देखकर अपने साथी से कहा, खेद की बात है कि शतरंज के प्यादे तो जब मैदान पार कर लेते हैं, तो वजी़र बन जाते हैं, मगर हाजी प्यादे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, पहले से भी ख़राब होते जाते हैं। इनसे कहो, तुम क्या हज करोगे जो यों एक-दूसरे को काटे खाते हो। हाजी तो तुम्हारे ऊंट हैं, जो कांटे खाते हैं और बोझ भी उठाते हैं।
रूम में एक साधु महात्मा की प्रशंसा सुनकर हम उनसे मिलने गये। उन्होंने हमारा विशेष स्वागत किया, किन्तु खाना न खिलाया। रात को वह तो अपनी माला फेरते रहे और हमें भूख से नींद नहीं आयी। सुबह हुई तो उन्होंने फिर वही कल का सा आगत-स्वागत आरंभ किया। इस पर हमारे एक मुंहफट मित्र ने कहा, महात्मन, अतिथि के लिए इस सत्कार से अधिक ज़रूरत भोजन की है। भला ऐसी उपासना से कभी उपकार हो सकता है जब कई आदमी घर में भूख के मारे करवटें बदलते रहें।
एक बार मैंने एक मनुष्य को तेंदुए पर सवार देखा। भय से कांपने लगा। उसने यह देखकर हंसते हुए कहा, सादी डरता क्यों है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। यदि मनुष्य ईश्वर की आज्ञा से मुंह न मोड़े तो उसकी आज्ञा से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता।
सादी ने भारत की यात्रा भी की थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह चार बार हिन्दुस्तान आये, परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं। हाँ, उनका एक बार यहाँ आना निर्भ्रान्त है। वह गुजरात तक आये और शायद वहीं से लौट गये। सोमनाथ के विषय में उन्होंने एक घटना लिखी है जो शायद सादी के यात्रा वृत्तांत में सबसे अधिक कौतूहल जनक है।
जब मैं सोमनाथ पहुंचा तो देखा कि सहस्रों स्त्री-पुरुष मन्दिर के द्वार पर खड़े हैं। उनमें कितने ही मुरादें मांगने दूर-दूर से आये हैं। मुझे उनकी मूर्खता पर खेद हुआ। एक दिन मैंने कई आदमियों के सामने मूर्ति पूजा की निंदा की। इस पर मंदिर के बहुत से पुजारी जमा हो गये, और मुझे घेर लिया। मैं डरा कि कहीं यह लोग मुझे पीटने न लगें। मैं बोला, मैंने कोई बात अश्रध्दा से नहीं कहीं। मैं तो खुद इस मूर्ति पर मोहित हूं, लेकिन मैं अभी यहाँ के गुप्त रहस्यों को नहीं जानता इसलिए चाहता हूं कि इस तत्व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके उपासक बनूं। पुजारियों को मेरी यह बातें पसंद आयीं। उन्होंने कहा, आज रात को तू मंदिर में रह। तेरे सब भ्रम मिट जायेंगे। मैं रातभर वहाँ रहा। प्रात:काल जब नगरवासी वहाँ एकत्रित हुए तो उस मूर्ति ने अपने हाथ उठाये जैसे कोई प्रार्थना कर रहा हो। यह देखते ही सब लोग जय-जय पुकारने लगे। जब लोग चले गये तो पुजारी ने हंसकर मुझसे कहा, क्यों अब तो कोई शंका नहीं रही? मैं कृत्रिम भाव बनाकर रोने लगा और लज्जा प्रकट की। पुजारियों को मुझ पर विश्वास हो गया। मैं कुछ दिनों के लिए उनमें मिल गया। जब मंदिर वालों का मुझ पर विश्वास जम गया तो एक रात को अवसर पाकर मैंने मंदिर का द्वार बंद कर दिया और मूर्ति के सिंहासन के निकट जाकर ध्यान से देखने लगा। वहाँ मुझे एक परदा दिखाई पड़ा जिसके पीछे एक पुजारी बैठा था। उसके हाथ में एक डोर थी। मुझे मालूम हो गया कि जब यह उस डोर को खींचता है तो मूर्ति का हाथ उठ जाता है। इसी को लोग दैविक बात समझते हैं।
यद्यपि सादी मिथ्यावादी नहीं थे तथापि इस वृत्तांत में कई बातें ऐसी हैं जो तर्क की कसौटी पर नहीं कसी जा सकतीं। लेकिन इतना मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए कि सादी गुजरात आये और सोमनाथ में ठहरे थे।