शेख़ सादी / अध्याय 8 / प्रेमचंद
फ़ारसी साहित्य की पाठ्य पुस्तकों में गुलिस्तां के बाद बोस्तां का ही प्रचार है । यह कहने में कुछन होगी कि काव्यग्रंथों में बोस्तां का वही आदर है जो गद्य में गुलिस्तां का है। निज़मी का सिकन्दरनामा, फ़िरदौसी का शाहनामा, मौलाना रूम की मसनवी, और दीवान हाफिज़ यह चारों ग्रंथ बोस्तां के ही समान गिने जाते हैं। निज़मी और फिरदौसी वीर-रस में अद्वितीय हैं, मौलाना रूम की मसनवी भक्ति संबंधी ग्रंथों में अपना जवाब नहीं रखती और हाफिज़ प्रेम रस के राजा हैं। इन चारों काव्यों का आदर किसी न किसी अंश में उनके विषय पर निर्भर है। लेकिन बोस्तां एक नीतिग्रंथ है और नीति के ग्रंथ बहुधा जनता को प्रिय नहीं हुआ करते। अतएव बोस्तां का जो आदर और प्रचार है वह सर्वथा उसकी सरलता और विचारोंत्कर्षता पर निर्भर है। मौलाना रूम ने जीवन के गूढ़ तत्व का वर्णन किया है और धार्मिक विचार से मनुष्यों में उसका बड़ा मान है। भाषा की मधुरता, और प्रेम के भाव में हाफिज़ सादी से बहुत बढ़े हुए हैं। उनकी-सी मर्मस्पर्शिनी कविता फ़ारसी में और किसी ने नहीं की। उनकी गज़लों के कितने ही शेर जीवन की साधारण बातों पर ऐसे घटते हैं मानो उसी अवसर के लिये लिखे गये हों। धन्य है शीराज़ की वह पवित्र भूमि जिसने सादी और हाफिज़ जैसे दो ऐसे अमूल्य रत्न उत्पन्न किये। भाषा और भाव की सरलता में सादी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। फ़िरदौसी और निज़मी बहुधा अलौकिक बातों का वर्णन करते हैं। पर सादी ने कहीं अलौकिक घटनाओं का सहारा नहीं लिया है। यहाँ तक कि उनकी अत्युक्तियॉं भी अस्वाभाविक नहीं होतीं। उन्होंने समयानुसार सभी रसों का वर्णन किया है लेकिन करुणा-रस उनमें सर्वप्रधान है। दया के वर्णन में उनकी लेखनी बहुत ही करुण हो गयी है। सादी नमाज़ और रोज़े के पाबंद तो थे किन्तु सेवाधर्म को उससे भी श्रेष्ठ समझते थे। उन्होंने बार-बार सेवा पर जशेर दिया है। उनका दूसरा प्रिय विषय राजनीति है। बादशाहों को न्याय, धर्म, दीनपालन और क्षमा का उपदेश करने में वह कभी नहीं थकते। उनको राजनीति पर लायलटी (राजभक्ति) का ऐसा रंग नहीं चढ़ा था कि वह खरी-खरी बातों के कहने से चूक जायँ। उनके राजनीति विषयक विचारों की स्वतंत्रता पर आज भी आश्चर्य होता है। इस बीसवीं शताब्दि में भी हमारे यहाँ बेगार की प्रथा कायम है। लेकिन आज के कई सौ वर्ष पहले अपने ग्रंथों में सादी ने कई जगह इसका विरोध किया है।
बोस्तां में दस अध्याय हैं। उनकी विषय सूची देखने से निदित होता है कि सादी की नीति शिक्षा कितनी विस्तीर्ण है।
प्रथम अध्याय-न्याय और राजनीति
द्वितीय अध्याय-दया
तृतीय अध्याय-प्रेम
चतुर्थ अध्याय-विनय
पंचम अध्याय-धौर्य
षष्ठ अध्याय-संतोष
सप्तम अघ्याय-शिक्षा
अष्टम अध्याय-कृतज्ञता
नवम अध्याय-प्रायश्चित
दशम अध्याय-ईश्वर प्रार्थना
नीतिग्रंथों की आवश्यकता यों तो जन्म भर रहती है लेकिन पढ़ने का सबसे उपयुक्त समय बाल्यावस्था है। उस समय उनके मानव चरित्र का आरम्भ होता है इसीलिए पाठय पुस्तकों में बोस्तां का इतना प्रचार है। संसार की कई प्रसिध्द भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। सर्वसाधारण में इसके जितने शेर लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हैं उतने गुलिस्तां के नहीं। यहाँ हम उदाहरण की भांति कुछ कथायें देकर ही संतोष करेंगे।
बोस्तां की कथायें
सीरिया देश का एक बादशाह जिसका नाम 'सालेह' था कभी-कभी अपने एक गुलाम के साथ भेष बदलकर बाज़रों में निकला करता था। एक बार उसे एक मस्जिद में दो फ़कीर मिले। उनमें से एक दूसरे से कहता था कि अगर यह बादशाह लोग जो भोग-विलास में जीवन व्यतीत करते हैं स्वर्ग में आवेंगे, तो मैं उनकी तरफ आंख उठाकर भी न देखूंगा। स्वर्ग पर हमारा अधिकार है क्योंकि हम इस लोक में दु:ख भोग रहे हैं। अगर सालेह वहाँ बाग़ की दीवार के पास भी आया तो जूते से उसका भेजा निकाल लूंगा। सालेह यह बातें सुनकर वहाँ से चला आया। प्रात:काल उसने दोनों फ़कीरों को बुलाया और यथोचित्त आदर सत्कार करके उच्चासन पर बैठाया। उन्हें बहुत-सा धन दिया। तब उनमें से एक फ़कीर ने कहा, हे बादशाह, तू हमारी किस बात से ऐसा प्रसन्न हुआ? बादशाह हर्ष से गद्गद् होकर बोला, मैं वह मनुष्य नहीं हूं कि ऐश्वर्य के अभिमान में दुर्बलों को भूल जाऊं। तुम मेरी ओर से अपना हृदय साफ कर लो और स्वर्ग में मुझे ठोकर मारने का विचार मत करो। मैंने आज तुम्हारा सत्कार किया है, तुम कल मेरे सामने स्वर्ग का द्वार न बंद करना।
ईरान देश का बादशाह दारा एक दिन शिकार खेलने गया और अपने साथियों से छूट गया। कहीं खड़ा इधर-उधर ताक रहा था कि एक चरवाहा दौड़ता हुआ सामने आया। बादशाह ने इस भय से कि यह कोई शत्रु न हो तुरंत धनुष चढ़ाया। चरवाहे ने चिल्लाकर कहा, हे महाराज, मैं आपका बैरी नहीं हूं। मुझे मारने का विचार मत कीजिये। मैं आपके घोड़ों को इसी चारागाह में चराने लाया करता हूं। तब बादशाह को धीरज हुआ। बोला, तू बड़ा भाग्यवान था कि आज मरते-मरते बच गया। चरवाहा हंसकर बोला, महाराज, यह बड़े खेद की बात है कि राजा अपने मित्रों और शत्रुओं को न पहचान सके। मैं हज़रों बार आपके सामने गया हूं। आपने घोड़े के संबंध में मुझसे बातें की हैं। आज आप मुझे ऐसा भूल गये। मैं तो अपने घोड़ों को लाखों घोड़ों में पहचान सकता हूं। आपको आदमियों की पहचान होनी चाहिए।
बादशाह 'उमर' के पास एक ऐसी बहुमूल्य अंगूठी थी कि बड़े-बड़े जौहरी उसे देखकर दंग रह जाते। उसका नगीना रात को तारे की तरह चमकता था। संयोग से एक बार देश में अकाल पड़ा। बादशाह ने अंगूठी बेच दी और उसने एक सप्ताह तक अपनी भूखी प्रजा का उदर पालन किया। बेचने के पहले बादशाह के शुभचिंतकों ने उसे बहुत समझाया कि ऐसी अपूर्व अंगूठी मत बेचिये फिर न मिलेगी। उमर न माना। बोला, जिस राजा की प्रजा दु:ख में हो उसे यह अंगूठी शोभा नहीं देती। रत्न जटित आभूषणों को ऐसी दशा में पहिनना कब उचित कहा जा सकता है कि जब मेरी प्रजा दाने-दाने को तरसती हो।
दमिश्क में एक बार ऐसी अनावृष्टि हुई कि बड़ी-बड़ी नदियॉं और नाले सूख गये, पानी का कहीं नाम न रहा। कहीं था तो अनाथों की आंखों में। यदि किसी घर से धुआं उठता था तो वह चूल्हे का नहीं किसी विधवा, दीन की आह का धुआं था। उस समय मैंने अपने एक धनवान मित्र को देखा, जो उदासीन, सूखकर कांटा हो गया था। मैंने कहा, भाई तुम्हारी यह क्या दशा हो रही है, तुम्हारे घर में किस बात की कमी है? यह सुनते ही उसके नेत्र सजल हो गये। बोला मेरी यह दशा अपने दु:ख से नहीं, वरन् दूसरों के दु:ख से हुई है। अनाथों को क्षुधा से बिलखते देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। वह मनुष्य पशु से भी नीच है जो अपने देशवासियों के दु:ख से व्यथित न हो।
एक दुष्ट सिपाही किसी कुएं में गिर पड़ा। सारी रात पड़ा रोता-चिल्लाता रहा। कोई सहायक न हुआ। एक आदमी ने उलटे यह निर्दयता की कि उसके सिर पर एक पत्थर मार कर बोला दुरात्मन, तूने भी कभी किसी के साथ नेकी की है जो आज दूसरों से सहायता की आशा रखता है। जब हज़रों हृदय तेरे अन्याय से तड़प रहे हैं, तो तेरी सुधि कौन लेगा। कांटे बोकर फूल की आशा मत रख।
एक अत्याचारी राजा देहातियों के गधे बेगार में पकड़ लिया करता था, एक बार वह शिकार खेलने गया और एक हिरन के पीछे घोड़ा दौड़ाता हुआ अपने आदमियों से बहुत आगे निकल गया। यहाँ तक कि संध्या हो गयी। इधर-उधर अपने साथियों को देखने लगा। लेकिन कोई दीख न पड़ा। विवश होकर निकट के एक गांव में रात काटने की ठानी। वहाँ क्या देखता है कि एक देहाती अपने मोटे ताज़े गधों को डंडों से मार-मारकर उसके धुर्रे उड़ा रहा है। राजा को उसकी यह कठोरता बुरी मालूम हुई। बोला, अरे भाई क्या तू इस दीन पशु को मार ही डालेगा! तेरी निर्दयता पराकाष्ठा को पहुंच गयी। यदि ईश्वर ने तुझे बल दिया है तो उसका ऐसा दुरुपयोग मत कर। देहाती ने बिगड़कर कहा, तुमसे क्या मतलब है? मैं जाने क्या समझकर इसे मारता हूं। राजा ने कहा, अच्छा बहुत बक-बक मत कर, तेरी बुध्दि भ्रष्ट हो गयी है, शराब तो नहीं पी ली? देहाती ने गंभीर भाव से कहा, मैंने न शराब पी है, न पागल हूं, मैं इसे केवल इसीलिये मारता हूं जिससे यह इस देश के अत्याचारी राजा के किसी काम का न रहे। लंगड़ा और बीमार होकर मेरे द्वार पर पड़ा रहे, यह मुझे स्वीकार है। लेकिन राजा को बेगार में देना स्वीकार नहीं। राजा यह उत्तर सुनकर चुप रह गया। रात तारे गिन-गिन कर काटी। प्रात:काल उसके आदमी खोजते हुए वहाँ आ पहुंचे। जब खा पीकर निश्चिन्त हुआ तो राजा को उस गंवार की याद आयी। उसे पकड़वा मंगाया और तलवार खींचकर उसका सिर काटने पर तैयार हुआ। देहाती जीवन से निराश हो गया और निर्भय होकर बोला, हे राजन्, तेरे अत्याचार से सारे देश में हाय-हाय मची हुई है। कुछ मैं ही नहीं बल्कि तेरी समस्त प्रजा तेरे अत्याचार से घबड़ा उठी है। यदि तुझे मेरी बात कड़ी लगती है तो न्याय कर कि फिर ऐसी बातें सुनने में न आवें। इसका उपाय मेरा सिर काटना नहीं, बल्कि अत्याचार को छोड़ देना है। राजा के हृदय में ज्ञान उत्पन्न हो गया। देहाती को क्षमा कर दिया और उस दिन से प्रजा पर अत्याचार करना छोड़ दिया।
सुना है कि एक फ़कीर ने किसी बादशाह से उसके अत्याचारों की निन्दा की। बादशाह को यह बात बुरी लगी और उसे कैद कर दिया। फ़कीर के एक मित्र ने उससे कहा, तुमने यह अच्छा नहीं किया। बादशाहों से ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। फ़कीर बोला, मैंने जो कुछ कहा वह सत्य है। इस कैद का क्या डर, दो-चार दिन की बात है। बादशाह के कान में यह बात पहुंची। फ़कीर को कहला भेजा, इस भूल में न रहना कि दो-चार दिन में छुट्टी हो जायगी, तुम इसी कैद में मरोगे। फ़कीर यह सुनकर बोला, जाकर बादशाह से कह दो कि मुझे यह धमकी न दें। यह जिंदगी दो-चार दिन से ज्यादा न रहेगी, मेरे लिए दु:ख-सुख दोनों बराबर हैं। तू ऊंचे आसन पर बैठा दे तो उसकी खुशी नहीं, सिर काट डाल तो उसका कुछ रंज नहीं। मरने पर हम और तुम दोनों बराबर हो जायेंगे। दयाहीन बादशाह यह सुनकर और भी बिगड़ा और हुक्म दिया कि इसकी ज़बान तालू से खींच ली जाय। फ़कीर बोला, मुझको इसका भी भय नहीं है। खुदा मेरे मन का हाल बिना कहे ही जानता है। तू अपने को रो कि जिस शुभ दिन मरेगा देश में आनंदोत्सव की तरंगें उठने लगेंगी।
एक कवि किसी सज्जन के पास जाकर बोला, मैं बड़ी विपत्ति में पड़ा हुआ हूं, एक नीच आदमी के मुझ पर कुछ रुपये आते हैं। इस ऋण के बोझ से मैं दबा जाता हूं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि वह मेरे द्वार का चक्कर न लगाता हो। उसकी बाण सरीखी बातों ने मेरे हृदय को चलनी बना दिया है। वह कौन-सा दिन होगा कि मैं इस ऋण से मुक्त हो जाऊंगा। सज्जन पुरुष ने यह सुनकर उसे एक अशरफी दी। कवि अति प्रसन्न होकर चला गया। एक दूसरा मनुष्य वहाँ बैठा था। बोला, आप जानते हैं वह कौन है। वह ऐसा धूर्त है कि बड़े-बड़े दुष्टों के भी कान काटता है। वह अगर मर भी जाय तो रोना न चाहिए। सज्जन ने उससे कहा चुप रह, किसी की निंदा क्यों करता है। अगर उस पर वास्तव में ऋण है तब तो उसका गला छूट गया। लेकिन यदि उसने मुझसे धूर्तता की है तब भी मुझे पछताने की ज़रूरत नहीं क्योंकि रुपये न पाता तो वह मेरी निन्दा करने लगता।
मैंने सुना है कि हिजाज़ के रास्ते पर एक आदमी पग-पग पर नमाज़ पढ़ता जाता था। वह इस सद्मार्ग में इतना लीन हो रहा था कि पैरों से कांटे भी न निकालता था। निदान उसे अभिमान हुआ कि ऐसी कठिन तपस्या दूसरा कौन कर सकता है। तब आकाशवाणी हुई कि भले आदमी, तू अपनी तपस्या का अभिमान मत कर। किसी मनुष्य पर दया करना पग-पग पर नमाज़ पढ़ने से उत्तम है।
एक दीन मनुष्य किसी धनी के पास गया और कुछ मांगा। धनी मनुष्य ने देने के नाम नौकर से धक्के दिलवाकर उसे बाहर निकलवा दिया। कुछ काल उपरांत समय पलटा। धनी का धन नष्ट हो गया, सारा कारोबार बिगड़ गया। खाने तक का ठिकाना न रहा। उसका नौकर एक ऐसे सज्जन के हाथ पड़ा, जिसे किसी दीन को देखकर वही प्रसन्नता होती थी जो दरिद्र को धन से होती है। अन्य नौकर-चाकर छोड़ भागे। इस दुरवस्था में बहुत दिन बीत गये। एक दिन रात को इस धर्मात्मा के द्वार पर किसी साधु ने आकर भोजन मांगा। उसने नौकर से कहा उसे भोजन दे दो। नौकर जब भोजन देकर लौटा तो उसके नेत्रों से आंसू बह रहे थे। स्वामी ने पूछा, क्यों रोता है? बोला, इस साधु को देखकर मुझे बड़ा दु:ख हुआ। किसी समय मैं उसका सेवक था। उसके पास धन, धरती सब था। आज उसकी यह दशा है कि भीख मांगता फिरता है। स्वामी सुनकर हंसा और बोला, बेटा संसार का यही रहस्य है। मैं भी वही दीन मनुष्य हूं जिसे इसने तुझसे धक्के देकर बाहर निकलवा दिया था।
याद नहीं आता कि मुझसे किसने यह कथा कही थी कि किसी समय यमन में एक बड़ा दानी राजा था। वह धन को तृणवत समझता था, जैसे मेघ से जल की वर्षा होती है उसी तरह उसके हाथ से धन की वर्षा होती थी। हातिम का नाम भी कोई उसके सामने लेता तो चिढ़ जाता। कहा करता कि उसके पास न राज्य है न खज़ाना उसकी और मेरी क्या बराबरी? एक बार उसने किसी आनंदोत्सव में बहुत से मनुष्यों को निमंत्रण दिया। बातचीत में प्रसंगवश हातिम की भी चर्चा आ गयी और दो-चार मनुष्य उसकी प्रशंसा करने लगे। राजा के हृदय में ज्वाला-सी दहक उठी। तुरंत एक आदमी को आज्ञा दी कि हातिम का सिर काट लाओ। वह आदमी हातिम की खोज में निकला। कई दिन के बाद रास्ते में उसकी एक युवक से भेंट हुई। वह अति गुणी और शीलवान था। घातक को अपने घर ले गया, बड़ी उदारता से उसका आदर-सम्मान किया। जब प्रात:काल घातक ने विदा मांगी तो युवक ने अत्यंत विनीत भाव से कहा कि यह आप ही का घर है, इतनी जल्दी क्यों करते हैं। घातक ने उत्तर दिया कि मेरा जी तो बहुत चाहता है कि ठहरूं लेकिन एक कठिन कार्य करना है, उसमें विलम्ब हो जायगा। हातिम ने कहा, कोई हानि न हो तो मुझसे भी बतलाओ कौन-सा काम है, मैं भी तुम्हारी सहायता करूं। मनुष्य ने कहा, यमन के बादशाह ने मुझे हातिम का वध करने भेजा है। मालूम नहीं, उनमें क्यों विरोध है। तू हातिम को जानता हो तो उसका पता बता दे। युवक निर्भीकता से बोला, हातिम मैं ही हूं, तलवार निकाल और शीघ्र अपना काम पूरा कर। ऐसा न हो कि विलंब करने से तू कार्य सिध्द न कर सके। मेरे प्राण तेरे काम आवें तो इससे बढ़कर मुझे और क्या आनन्द होगा। यह सुनते ही घातक के हाथ से तलवार छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी। वह हातिम के पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी दीनता से बोला, हातिम तू वास्तव में दानवीर है। तेरी जैसी प्रशंसा सुनता था उससे कहीं बढ़कर पाया। मेरे हाथ टूट जायँ अगर तुझ पर एक कंकरी भी फेंकूं। मैं तेरा दास हूं और सदैव रहूंगा। यह कहकर वह यमन लौट आया। बादशाह का मनोरथ पूरा न हुआ तो उसने उस मनुष्य का बहुत तिरस्कार किया और बोला, मालूम होता है कि तू हातिम से डरकर भाग आया। अथवा तुझे उसका पता न मिला। उस मनुष्य ने उत्तर दिया, राजन, हातिम से मेरी भेंट हुई लेकिन मैं उसका शील और आत्मसमर्पण देखकर उसके वशीभूत हो गया। इसके पश्चात् उसने सारा वृत्तांत कह सुनाया। बादशाह सुनकर चकित हो गया और स्वयं हातिम की प्रशंसा करते हुए बोला, वास्तव में वह दानियों का राजा है, उसकी जैसी कीर्ति है वैसे ही उसमें गुण हैं।
बायज़ीद के विषय में कहा जाता है कि वह अतिथि पालन में बहुत उदार था। एक बार उसके यहाँ एक बूढ़ा आदमी आया जो भूख-प्यास से बहुत दु:खी मालूम होता था। बायज़ीद ने तुरंत उसके सामने भोजन मंगवाया। वृध्द मनुष्य भोजन पर टूट पड़ा। उसकी जिह्ना से 'बिस्मिल्लाह' शब्द न निकला। बायज़ीद को निश्चय हो गया कि वह काफिर है। उसे अपने घर से निकलवा दिया। उसी समय आकाशवाणी हुई कि बायज़ीद मैंने इस काफिर का सौ वर्ष तक पालन किया और तुमसे एक दिन भी न करते बन पड़ा।
किसी भक्त ने सपने में एक साधु को नर्क में और एक राजा को स्वर्ग में देखकर अपने गुरु से पूछा कि यह उलटी बात क्योंकर हुई। गुरुजी बोले, उस राजा को साधुओं और सज्जनों के सत्संग से रुचि थी इसलिए उसने मरने के पीछे स्वर्ग में उन्हीं के संग वास पाया और उस साधु को राजाओं और अमीरों की संगत का शौक था सो वही वासना उसको नर्क में उनकी मुसाहबत के लिए खींच लाई।
कारूं बादशाह को हज़रत मूसा ने उपदेश किया कि भलाई वैसी ही गुप्त रीति से कर जैसे मालिक ने तेरे साथ की है। उदारता वही है जिसमें निहोरे का मेल न हो तभी उसका फल मिलता है। सच्चे उपकार के पेड़ की डालियॉं आकाश के परे पहुंचती हैं।
किसी ने सपने में प्रलय की लीला देखी कि एक भारी झुंड कुकर्मियों का भय और कष्ट से चिल्ला रहा है पर उनमें से एक आदमी मोती की माला पहने शीतल छांह में बैठा है। उससे पूछा, तेरा किस कारण ऐसा आदर हुआ है। जवाब दिया, मैंने अपने द्वार पर अंगूर की टट्टी लगाई थी जिसकी छांह में एक बार एक महात्मा ने विश्राम किया था।
एक बुध्दिमान अपने लड़कों को समझाया करते थे कि बेटा, विद्या सीखो, संसार के धन-धाम पर भरोसा न रक्खो, तुम्हारा अधिकार तुम्हारे देश के बाहर काम नहीं दे सकता और धन के चले जाने का सदा डर रहता है चाहे उसे एक बारगी चोर ले जाय या धीरे-धीरे खर्च हो जाय परन्तु विद्या धन का अटूट स्रोत है और यदि कोई विद्वान निर्धान हो जाय तो भी दु:खी न होगा क्योंकि उसके पास विद्यारूपी द्रव्य मौजूद है। एक समय दमिश्क नगर में ग़दर हुआ, सब लोग भाग गये तब किसानों के बुध्दिमान लड़के बादशाह के मंत्री हुए और पुराने मंत्रियों के मूर्ख लड़के गली-गली भीख मांगने लगे। अगर पिता का धन चाहते हो तो पिता के गुण सीखो क्योंकि धन तो चार-दिन में चला जा सकता है।
किसी ने हज़रत इमाम मुरशिद बिन गज़शली से पूछा कि आपमें ऐसी भारी योग्यता कहाँ से आयी। जवाब दिया, इस तरह कि जो बात मैं नहीं जानता था उसे दूसरों से पूछकर सीखने में मैंने लाज न की। यदि रोग से छूटा चाहते हो तो किसी गुनी वैद को नाड़ी दिखाओ। जो बात न जानते हो उसके पूछने में लाज या आलस न करो क्योंकि इस सहज जुगज से योग्यता की सीधी सड़क पर पहुंच जाओगे।
एक बादशाह ने मरते समय आज्ञा दी कि मेरे मरने के सबेरे पहला आदमी जो नगर के फाटक में घुसे वह बादशाह बनाया जाय। दैवगति से सबेरे एक भिखमंगा फाटक में घुसा। उसे लोगों ने लाकर राजगद्दी पर बिठा दिया। थोड़े ही दिनों में उसकी अयोग्यता और निर्बलता से कितने ही राजमंत्री और सूबे स्वतंत्र हो बैठे और आस-पास के बादशाहों ने चढ़ाई करके बहुत-सा हिस्सा उसके राज्य का छीन लिया। बेचारा भिक्षुक राजा इन उत्पातों से उदास और दु:खी था कि उसका एक पहला साथी जो बाहर गया हुआ था लौटकर आया और अपने पुराने मित्र को उसका अचरज भाग जगने पर बधाई दी। बादशाह बोला, भाई मेरे अभाग पर रोओ क्योंकि भीख मांगने के काल में तो मुझे केवल रोटी की चिंता थी और अब देशभर की झंझट और सम्हाल का बोझ मेरे सिर पर है और चूकने की दशा में असह दु:ख। संसार के जंजाल में जो फंसा सो मर मिटा, यहाँ का सुख भी निपट दु:ख रूप है, अब मेरी आंखों के सामने साफ दरसता है कि संतोष के बराबर दूसरा धन संसार में नहीं है।