शेफाली चली गई / प्रियदर्शन
'हलो, मैं शेफाली।'
आवाज की खनक जानी-पहचानी थी।
मिलने का समय भी तय था।
मिलने की जगह भी तुम्हीं ने बताई थी।
फिर भी तुम स्तब्ध से खड़े रहे - बिल्कुल जड़वत।
क्या इसलिए कि शेफाली वैसी नहीं थी जैसी तुमने कल्पना की थी?
तुम मान कर चल रहे थे कि वह खूबसूरत होगी।
दुबली-पतली, गोरी-चिट्टी, अपनी आवाज सी ही सलोनी और दिलकश।
लेकिन यह तो कोई और थी।
लगभग काले को छूता साँवला चेहरा।
अनाकर्षक बेजान-सी आँखें।
और मोटापे को छूती स्थूल काया।
हालाँकि तुमने इस सदमे से उबरने में बहुत समय नहीं लिया था।
तेजी से हाथ बढ़ाया - मैं रोहित, अब तक फोन पर तुम्हें तंग करता रहा हूँ।
लेकिन यह एक पल की स्तब्धता शेफाली से छुपी नहीं थी।
और यह एक पल की स्तब्धता शेफाली के लिए अप्रत्याशित भी नहीं थी।
आखिर तुम पहले लड़के नहीं हो जो उससे मिल रहे थे।
उसके पहले भी फोन पर उसकी आवाज के सधाव में, उसके व्यक्तित्व की जादुई पकड़ में आने वाले लड़के उससे पहली मुलाकात की मायूसी छुपा नहीं पाते होंगे।
वह सुंदर जो नहीं थी।
लेकिन तुम बाकी लड़कों जैसे नहीं थे।
उस एक पल में शेफाली की पीड़ा का तुम्हें एहसास हो गया था।
तुमने उसके चेहरे के पार देखा, उसकी आवाज को याद किया और फिर उसे मुस्कुराता सा उलाहना दिया,
'अच्छी लड़कियाँ इतना इंतजार नहीं कराती हैं।'
शेफाली खुश हुई। एक पल में धुली हुई मायूसी को उसने भी निचोड़ कर फेंक दिया और फिर उसके चेहरे पर वही चमक चली आई जिसे फोन पर उसकी आवाज में पहचानने के आदी हो चुके थे तुम।
तुमने ही पेशकश की थी, चलो चाय पीते हैं।
'इस दुकान में?' एक पल की मायूसी की तरह यह एक पल की हिचक भी चली गई थी।
कुछ ही देर में तुम दोनों यूनिवर्सिटी कैंपस में बनी उस छोटी-सी गुमटी की टूटी-सी बेंच पर बैठे खिलखिला रहे थे।
इन्हीं खिलखिलाहटों के बीच तुमने शेफाली को ठीक से पहचाना था।
अगले 20 दिन तक पहचान का यह पौधा खिलता रहा।
यूनिवर्सिटी में चल रहे यूथ फेस्टिवल की जिम्मेदारी तुम दोनों ने 20 दिन साथ निबाही।
वे 20 दिन, जो दुबारा नहीं लौटे।
वे 20 दिन, जब धरती पंख लगाकर उड़ती रही और आसमान झालर लगाकर थिरकता रहा।
वे 20 दिन, जब एक बदसूरत लड़की के व्यक्तित्व से सुंदरता की तरंगें निकल-निकल कर पूरे माहौल को खुशगवार बनाती रही।
वे 20 दिन जब तुमने जाना, वह सुंदर नहीं है, लेकिन उससे कई सुंदरताएँ झरती हैं।
वह सपनों जैसी लड़की नहीं थी, लेकिन अपने खिलेखुलेपन में किसी सपने से ज्यादा सुंदर सच्चाई की तरह थी।
तुम खुशकिस्मत थे कि उसके साथ थे।
तुम खुशकिस्मत थे कि जिंदगी को किसी और ढंग से देखने का सलीका सीख पा रहे थे।
तुम खुशकिस्मत थे कि एक बेहद मुश्किल आयोजन में तुम्हें ऐसा जिद्दी साथ मिला था।
हाँ, वह जिद्दी भी थी। जो सबको नामुमकिन जान पड़ता, उसके पीछे भूत की तरह लगी रहने वाली, और एक दिन सबको हैरत में डालते हुए उसे संभव बनाती हुई - वह आयोजन वाकई उतना शानदार न हुआ होता अगर उसके पीछे शेफाली नहीं होती, उसकी जिद नहीं होती, उसकी न दिखने वाली सुंदरता नहीं होती।
और वह उदासी न होती जो उसे इतना सुंदर और जिद्दी बनाती थी।
हाँ, शेफाली उदास थी। यह कोई और नहीं, तुम जानते थे।
शायद यह उदासी भी उसकी ताकत थी।
उसे जिद्दी बनाती थी।
उसे यह साबित करने को मजबूर करती थी कि वह दूसरों से अलग और बेहतर है।
लेकिन किस बात की उदासी? 24 बरस की एक लड़की क्यों उदास हो सकती है? लड़के-लड़कियों के उस हँसते-खिलखिलाते झुंड में वह अचानक चुप और उदास क्यों हो जाती थी?
उसने कभी नहीं बताया।
तुमने भी कभी नहीं पूछा।
इसमें पूछने-बताने लायक कुछ नहीं था।
शायद उसे भी मालूम था
और तुम्हें भी मालूम था।
वह सुंदर नहीं थी।
यह सबको मालूम था।
हालाँकि कोई इसे याद नहीं करना चाहता था।
कोई इसका जिक्र करना नहीं चाहता था।
लेकिन यह बात बार-बार चली आती।
किसी न किसी बहाने।
उसके सामने किसी नायिका की सुंदरता की तारीफ करना भी गुनाह लगता।
उसे देखकर लगता कि सुंदरता एक बेमानी सी चीज है।
लेकिन क्या वह वाकई इतनी बेमानी चीज थी?
तुम सब इस सवाल का सामना नहीं करते थे।
तुम सबको अपने-अपने रास्ते जाना था।
बस इतना सोचते थे कि एक अच्छी सी लड़की का दिल दुखाकर क्यों जाएँ?
जाने का दिन भी आ गया।
बस वह आखिरी पिकनिक थी - उमंग, उत्साह और कुछ उदासी से भरी।
आखिर बीते 20 दिनों में कई अजनबी चेहरे आपस में दोस्त बने थे, उन्होंने साझा काम किया था, साझा ख्वाब बुने थे।
यह सबके साथ आखिरी मौका था।
तुम्हें याद है कला - वह प्यारी सी छोटी सी लड़की?
वही जो सबके हाथ देख रही थी?
बताती हुई कि किसका ब्वायफ्रेंड कौन होगा।
शेफाली हमेशा की तरह इस मजमे से दूर थी।
अकेली किनारे खड़ी।
लेकिन कला को एहसास था, शेफाली को छोड़ेगी तो सारा हाथ देखना व्यर्थ है।
'शेफाली दी, आइए तो!' वह पुकार रही थी।
और भी लोग पुकार रहे थे - शेफाली, शेफाली, अरे आओ तो।
उनमें एक आवाज तुम्हारी भी थी।
शेफाली कुछ हिचकती, कुछ सकुचाती चली आई थी।
हमेशा का दिखने वाला आत्मविश्वास उसमें एक फीकी हँसी में बदल गया था।
'लो देख लो, कर लो अरमान पूरे,' हँसने की कोशिश करते हुए उसने अपनी छोटी-सी हथेली पसार दी थी।
तुमने देखा था, अनजानी, आड़ी-तिरछी रेखाओं से भरी एक उदास हथेली, जिनमें यह पढ़ना मुश्किल नहीं था कि उसे कोई भी आसानी से नहीं मिलेगा।
'मिलेगा, मिलेगा, कला एलान कर रही थी। शेफाली दी को एक शानदार ब्वाय फ्रेंड मिलेगा। हाँ, कुछ लेट एज में।
सब खुश हो गए थे। शेफाली को छोड़कर। उसे मालूम था, कला उसकी हथेलियाँ नहीं, उसका दिल देख रही है।
शेफाली ने तुम्हें देखा था, तुमने शेफाली को।
पिकनिक खत्म हो गई थी।
बस चल पड़ी थी - न जाने अब कब कौन किससे कहाँ मिले।
शेफाली चली गई थी।
महीनों बाद शेफाली का फोन आया था।
हिचक से भरा, पुरानी पहचान की आश्वस्ति खोजता हुआ।
तुम खुश हो गए थे। अरे शेफाली! कैसे तुमने याद कर लिया?
शेफाली साथ बैठना चाहती थी।
तुमने क्लास छोड़ी और निकल पड़े।
लाइब्रेरी में बैठी शेफाली मिली - फिर वही बदसूरत चेहरा।
लेकिन फिर झरती हुई सुंदरता। बातों की सुंदरता, यादों की सुंदरता, कोमलता की सुंदरता।
बेशक, जो प्रकृति ने दिया नहीं था, शेफाली ने उसे अपनी मेहनत, अपने जतन से हासिल कर लिया था।
वह एक जहीन लड़की थी। रूरल डेवलपमेंट का कोर्स कर रही थी।
'गाँव में जाकर काम करूँगी, शहर में नही रहूँगी।' शेफाली खुश थी, लेकिन कितनी, यह पता नहीं।
वह गाँव चुन रही थी या शहर से भाग रही थी, यह भी पता नहीं।
'क्या करोगी गाँव जाकर? तुम पुरानी आत्मीयता की अँगुली पकड़े छेड़ रहे थे। 'शाम जल्दी हो जाएगी, टीवी भी नहीं होगा। और तो और कायदे का कोई लड़का भी नहीं मिलेगा।'
अब भी मैं टीवी नहीं देखती। और कायदे की लड़की तुम लोग खोज लो अपने लिए। कायदे का लड़का मुझे नहीं चाहिए।' आवाज में दोस्ताना उलाहने से ज्यादा अकेलेपन की तकलीफ थी।
तुम चुप रहे। यह भी नहीं कह सके कि तुमसे ज्यादा कायदे की लड़की कौन मिलेगी शेफाली?
यह कैसा चोर था रोहित मन में बसा हुआ?
शेफाली भी नहीं कह सकी कि उसने कायदे के लड़के देखे तो बहुत, किसी से हिम्मत नहीं जुटा सकी कुछ कहने की।
यह कैसी तकलीफ थी शेफाली, तन में बैठी हुई?
शेफाली चली गई थी।
तुम बहुत देर तक उसके बारे में सोचते रहे।
वह तुम्हें अच्छी लगती है।
लेकिन कितनी अच्छी?
क्या तुम उससे प्रेम करते हो?
यह सवाल तुमने अपने-आप से कभी नहीं किया जो इसका जवाब भी खोजते।
उससे भी नहीं किया जो वह जवाब देती।
शेफाली चली गई थी।
लेकिन शेफाली कहीं नहीं गई थी।
वह तुम्हारा खयाल रखती थी, मान रखती थी।
वह दूर बैठी तुम्हें देखती रहती थी।
तुम्हारी गतिविधियों को, तुम्हारी कविताओं को,
तुम्हारी प्रशंसाओं और आलोचनाओं को।
देखती भर नहीं रहती, उनमें हस्तक्षेप भी करती थी।
अपनी आलोचनाओं का तुमने कभी जवाब नहीं दिया
लेकिन शेफाली तुम्हारे लिए दूसरों से लड़ा करती।
तुम कभी शेफाली के लिए लड़े?
इसकी नौबत नहीं आई।
वह अपनी लड़ाइयाँ खुद लड़ लेती थी।
वह अपना रास्ता खुद तय कर लेती थी।
उसने तय कर लिया था - वह पुणे में पढ़ाई करेगी।
शेफाली चली गई थी।
फिर शेफाली लौट कर आई थी।
कई बरस बाद।
एक बदली हुई शेफाली।
उसकी आवाज में हजारों झरने खिलखिला रहे थे।
'रोहित, प्लीज जल्दी आओ, तुम्हें कुछ बताना है, किसी से मिलाना है।'
अचानक तुम चिहुँक गए थे।
एक लम्हा तुमने यह आवाज पहचानने में लगाया था।
खुशमिजाज वह हमेशा रही, लेकिन यह नई सी उत्फुल्लता तो कुछ और बता रही है।
'शेफाली, क्या कला की भविष्यवाणी सच हो गई? जल्दी आने से पहले तुमने पूछ लिया था।
वह बस खिलखिला रही थी। आओ तो।
तुम गए थे। उससे मिले थे। मनीष को देखकर तुम्हें लगा, एक बोझ उतर गया।
कुछ हैरानी भी हुई। यह स्मार्ट-सा लड़का शेफाली को कैसे पसंद कर बैठा।
खुश-खुश शेफाली अपनी बदसूरती में भी हसीन लग रही थी।
तुमने मन ही मन मनीष का शुक्रिया अदा किया।
तुमने दोनों को चाय पिलाई।
दोनों के साथ खूब हँसे बोले।
अपने भीतर एक खलता हुआ खालीपन छुपाए।
यह देखने की कोशिश करते कि मनीष में ऐसा क्या दिखा शेफाली को?
तुम कुछ देख नहीं पाए।
एक सामान्य-सा लड़का -
जो बाकी बातों के अलावा उम्र में भी शेफाली से छोटा था।
हालाँकि इस खुशनुमा माहौल में भी तुमने देख लिया था।
मनीष कहीं से शेफाली के लायक नहीं है।
फिर भी तुम्हें लगा, शेफाली खुश है तो ठीक है।
शेफाली खुश थी।
भले ही मनीष के साथ।
शेफाली फिर चली गई थी।
तीन दिन बाद उसका फोन आया।
कुछ अनुरोध और याचना के साथ।
तुम हैरान थे, खुश भी - तुम्हें शेफाली की मदद करने का मौका मिल रहा था।
शेफाली ने बताया था, माँ तैयार नहीं है इस शादी के लिए, पापा भी नाराज हैं।
तुम कोशिश करो तो शायद दोनों मान जाएँ - उसकी मुलायम आवाज में एक मनुहार था।
तुम्हें उम्मीद नहीं थी कि वे मान जाएँगे।
फिर भी शेफाली का मन और मान रखने के लिए तुम उसके घर गए थे।
शेफाली की माँ की आँखें छलछला रही थीं - लड़का उम्र में छोटा है, नौकरी तक नहीं करता।
हालाँकि जो सबसे बड़ा एतराज था, उसका उन्होंने जिक्र नहीं किया। लड़का दूसरी जाति का है - ब्राह्मण।
ब्राह्मणों के कट्टर घर में वह अपनी अल्हड़-खिलंदड़ी बेटी देना नहीं चाहतीं।
लेकिन उनकी आवाज फिर भी लड़खड़ा रही थी।
वे अपने सारे एतराजों से ज्यादा वजनी एक और सच्चाई देख रही थीं।
वह सच्चाई जो शेफाली की सूरत और सीरत से बनती थी।
उन्हें पता था, शेफाली जिद्दी है।
उन्हें पता था, शेफाली बदसूरत है।
हालाँकि यह वाक्य लिखते हुए तुम्हारे हाथ अब भी सिहर रहे हैं।
तुम लाचार से उठ आए थे, कहते हुए कि शेफाली का मन समझना चाहिए, न कहते हुए कि उसे कम से कम एक चाहने वाला तो मिला है।
अगले दिन शेफाली आई थी - खुशी से भरी - मम्मी मान गई हैं, कुछ मायूस जरूर हैं। पापा ने भी हामी भर दी है।
'तुम जादूगर हो!' वह उत्साह से भरी हुई थी।
तुम्हें मालूम था, यह तुम्हारा जादू नहीं, कुछ और है।
तुम चुप रहे थे।
'जा रही हूँ, अभी बहुत काम है।'
दौड़ती हुई-सी शेफाली चली गई थी।
तुम भी चले गए थे।
अपने शहर से बाहर।
इस बीच शेफाली का जन्मदिन आया। तुमने फोन मिलाया, फोन नहीं मिला।
कोई खबर नहीं मिली, कुछ पता नहीं चला।
तुम अपनी दुनिया में खोए हुए भी उदास थे।
शेफाली कहाँ है? इतनी खुश है कि तुम्हें तक भूल गई?
कब है उसकी शादी? ऐसा तो हो नहीं सकता कि वह तुम्हें न बुलाए।
तुमने कई दिन इंतजार किया - अनमनेपन से, बेसब्री से, कभी-कभी हैरानी से भी।
फोन मिलता था, कोई उठाता नहीं था।
शेफाली कहाँ चली गई थी?
लेकिन शेफाली कहाँ चली जाती?
तुम शहर आए तो वह भी आई।
मगर जो आई वह शेफाली ही थी क्या?
इतनी टूटी, इतनी उदास, इतनी अजनबी।
बोलने के लिए मुँह खोलती थी तो आँखें पहले भरने और फिर झरने लगती थीं।
तुम सन्नाटे में थे।
उसने हिचकियों के बीच बताया।
मनीष धोखेबाज निकला। तब तक शादी की बात करता रहा, जब तक शेफाली का परिवार तैयार नहीं था।
जैसे ही शेफाली के पापा उसके घर पहुँचे, मनीष ने बता दिया कि वे दोनों बस दोस्त हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
'वह ऐसा कैसे कह सकता है, रोहित? हम बस दोस्त थे, इससे ज्यादा कुछ नहीं? उसके आँसू रुक नहीं रहे थे।
तुमने सँभालने की कोशिश की थी।
'जाने दो, तुम्हें और अच्छे लड़के मिलेंगे। वह तुम्हारे लायक नहीं था।'
वह तड़प उठी थी - 'हाँ, मुझे मालूम था, वह मेरे लायक नहीं था। लेकिन उसने मेरा होने का वादा किया था! वह वादा जो किसी और ने मुझसे कभी नहीं किया।'
तुम्हें क्यों किसी और की जरूरत है। तुम खुद इतनी समर्थ हो, शेफाली।' तुमने उस पुचकारने की कोशिश की थी।
'मुझे मालूम है, मैं समर्थ हूँ। इसी बल पर सोचती थी कि एक नाकाबिल लड़के को भी अपने लायक बना लूँगी।' उसकी आवाज में जैसे उसकी आत्मा पर बरसों से चढ़ा रहा तकलीफ का पलस्तर झरता लग रहा था, 'लेकिन मुझे ये बताओ रोहित, इस समर्थ लड़की को कोई लायक लड़का क्यों नहीं मिला? क्यों सब इसके दोस्त ही बने रहे, दोस्त से ज्यादा कुछ नहीं?'
तुम्हारे पास बस एक विवश चुप्पी थी।
तुम्हें मालूम था, कठघरे में तुम भी हो।
मैं जानती हूँ, सब जानते हैं, मैं सुंदर नहीं हूँ। मैंने इस असुंदरता से कम लड़ाई नहीं की, रोहित! इसी लड़ाई ने मुझे समर्थ बनाया - इस लायक बनाया कि मैं तुम लोगों में से किसी भी परवाह किए बिना जी सकूँ।'
तुमने कातरता से अपना सिर उठाया और हल्के से हिलाया था। अब भी तुम्हारे पास बोलने को कुछ नहीं था।
'तुम कुछ मत बोलो। बस सुनो, जब अपनी काबिलियत की आग में मैं सबकुछ जला और सुखा चुकी थी, तब आया ये मनीष। तुम नहीं समझोगे, अब मैं समझती हूँ। वह मेरे काबिल नहीं था। लेकिन उसमें एक काबिलियत थी। उसने मेरे अकेलेपन को पहचान लिया था। मेरी छाया बनने का भरोसा दिलाया था। मैं इस भरोसे के चंगुल में क्यों आ गई? इसलिए कि और कोई नहीं था जो इतना भी भरोसा दिलाए। लेकिन वह बस एक मर्द था जो मेरे भीतर की एक औरत को शिकार बनाना चाहता था। और उसने बनाया, रोहित। मैं बिछती चली गई। वह जब बुलाता, मैं चली जाती। मैं कॉल गर्ल नहीं थी, लेकिन उसने मेरे साथ कुछ वैसा ही सलूक किया!'
शेफाली रो रही थी। लेकिन सन्नाटा उसकी रुलाई से कहीं ज्यादा बड़ा था। एक सन्नाटा जो लगातार पड़ते घूसे की तरह तुम्हारी छाती पर बज रहा था।
तुम बैठे रहे थे। शेफाली चली गई थी।
तुम्हें मालूम था, अब वह नहीं लौटेगी।