शेरजंग गर्ग से बातचीत / लालित्य ललित

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व्यंग्यकार की कथनी और करनी में अंतर न हो
शेरजंग गर्ग से लालित्य ललित की बातचीत

लालित्य ललितः डॉ साहब आपने व्यंग्य, ग़ज़ल, एवं हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं में लिखा है। मैं जानना चाहता हूं कि हिन्दी व्यंग्य आलोचना की शुरुआत में आपका काफी योगदान रहा। तो क्या आपको ये अखरता है कि किस तरह की आलोचना व्यंग्य की हो रही है, आप आज की स्थिति देखेंगे और अपने वाला समय देखेंगे। इससे आप कितना संतुष्ट हैं?

शेरजंग गर्गः हिन्दी में व्यंग्य की जो शुरुआत है, खासतौर से आलोचना की तो मुझे याद है कि सन् 1962 का समय याद आ रहा है जब मैंने स्वातंत्र्योतर हिन्दी कविता में व्यंग्य शीर्षक से अपने शोध प्रबंध का प्रारूप आगरा विश्वविद्यालय को भेजा था। मेरे पास प्रतिउत्तर में यह आया कि हमारे पास इस पर शोध की कोई संभावना नहीं है। तो जाहिर है कि उन्होंने उसे लौटा दिया। उसी समय मुझे कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के डॉ पद्म श्री कमलेश शर्मा रीडर थे, उन्होंने मुझे कहा कि इसे कुरूक्षेत्र भिजवा दो, थोड़ा समय लग जाएगा लेकिन हो जाएगा। लेकिन वहां समय कुछ ज्यादा ही लग गया। मन आश्वस्थ नहीं हुआ। हालांकि मुझे रांगेय राघव भी मिले। उन्होंने भी शर्मा को पत्र लिखा। वो तो बड़े व्यक्तित्व थे, लेकिन पत्र लिखा। लेकिन वो काम हुआ नहीं। फिर डॉ नगेंद्र से भेंट हुई तो कहने लगे कहो दिल्ली विश्वविद्यालय में तो बड़ा मुश्किल है बाहर के जो पोस्ट ग्रेजुऐट हैं उन्हें प्रवेश देना। भारत भूषण अग्रवाल को दिया था तो बड़ी आपत्ति हुई। तुम जहां कहो तो मैं कह देता हूं। मैंने कहा डॉ साहब यह काम तो मैं खुद ही कर लूंगा। जब जरूरत पड़ेगी तो मैं आपसे कहूंगा। खैर फिर इंदौर विश्वविद्यालय में परम विद्वान सज्जन पुरूष थे डॉ रामचंद्र बिलौरे वो क्रिश्चियन कॉलेज इंदौर में अध्यक्ष थे। जब उनसे भेट हुई और डॉ ओम नाथ जो मेरे खासमखास दोस्त थे, उन्होंने कहा कि सिनाप्सिस मुझे भेज दो। बिल्लौरे साहब इस पर शोध कराने के तैयार हैं। मैं दस्तखत वगैरह कर के दे दूंगा। जब रिसर्च कमेटी की बैठक हुई। उसके अध्यक्ष थे डॉ शिवमंगल सिंह सुमन। जब उनके समक्ष यह विषय रखा गया तो वैसे भी वो मुझे कविता वगैरह की वजह जानते थे। उन्होंने मुझसे कहा शेरजंग यह विषय बढ़िया है इस पर काम कर डालो। बस हम जुट गए। तो मैं यह बता रहा हूं कि शोध का मतलब तो आलोचना तो है ही। जब मैंने सन् 1962 में यह संकल्प किया कि मैं किसी पुराने विषय पर नहीं करूंगा। नए विषय पर करूंगा। तो मुझे इन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यह मान लेना चाहिए कि हमें व्यंग्य की आलोचना चाहे कविता हो या गद्य हो उसकी शुरुआत का एक मौका मिला। लेकिन उससे पहले बेशक व्यंग्य का नाम न लिया गया हो। लेकिन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कबीर नामक पुस्तक में कबीर के व्यंग्यों पर उन्होंने एक टिप्पणी की है। व्यंग्य को परिभाषित भी किया। मैं समझता हूं कि व्यंग्य पर विचार करने की एक कोशिश हुई और वो कोशिश इन अर्थों में मैं कामयाब कह सकता हूं कि उसके बाद शोध प्रबंध भी हुए। विभिन्न आयामों पर विभिन्न क्षेत्रों पर कविता, गद्य, नाटकों आदि में वो एक प्रारम्भ हुआ। विश्वविद्यालयों में यह एक जागृति पैदा हुई। और यह कहते हुए मुझे खुशी होती है कि आज भी लोग जब मुझे मिलते हैं। जो व्यंग्यकार के व व्यंग्य के आलोचक के रूप में जानते हैं वो कहते हैं कि हिन्दी में व्यंग्य पर मैंने ही पहला शोध प्रबंध लिखा।

लालित्य ललितः गर्ग साहब यह बहुत अच्छी बात है कि व्यंग्य आलोचना से आपकी शुरुआत हुई। दूसरा आप यह कैसे लेते हैं कि आज कि जो युवा सोच है वो व्यंग्य के प्रति कितनी तटस्थ है? इसको क्या मानते हैं आप?

शेरजंग गर्गः देखिए, युवा सोच में बहुत उत्साह है। युवा सोच जो है वो हमारे दिग्गजों की सोच है, उससे भिन्न नहीं है। मैं ऐसा समझता हूं। और न भिन्न होनी चाहिए। चाहे निराला हों, नागार्जुन हों, चाहे हरिशंकर परसाई हों, रवींद्र नाथ त्यागी हों, चाहे शरद जोशी हों और चाहे श्रीलाल शुक्ल हों। ये सब व्यंग्य में गहरे में जुड़े और इन्होंने श्रेष्ठ व्यंग्य हिन्दी को दिया। मतलब हिन्दी व्यंग्य रचनाएं जिस स्तर पर आज पहुंची हैं व जिस शिखर पर आज पहुंची हैं। उसे पहुंचाने में इन सब का बड़ा हाथ रहा है। चाहे परसाई हैं व केशव चंद वर्मा हैं चाहे श्रीलाल शुक्ल हैं, चाहे शरद जोशी हैं, शंकर पुणतांबेकर हैं, ललित जी और चाहे रवींद्र नाथ त्यागी हैं। और इनके बाद एकदम गोपाल चतुर्वेदी हैं। इन लोगों ने नई पीढ़ी की व्यंग्य संबंधी सोच को विकसित करने का, उसमें उद्धार देने का, एक बहुत बड़ा काम किया है। वैसे तो एक बात और है कि हर पीढ़ी अपने लिए खुद रास्ता तैयार करती है। वो कहते हैं न कि जो गए आगे उन्हीं से प्रेरणा लेकर, जो रहे पीछे उन्हें नवचेतना देकर, रंग ऐसा हूं कि सब पर छा रहा हूं। व्यंग्य ऐसा हूं कि सब पर छा रहा हूं मैं। कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूं मैं। ये बलबीर सिंह रंग की पंक्तियां हैं। रंग को मैंने व्यंग्य बना दिया। बस इतना है। मैं समझता हूं कि नई सोच भी बहुत सच्चे ढंग से कर रही है और ज्यों ज्यों उसमें परिपक्वता आएगी, जैसे जैसे उसकी सोच में, उसकी संकल्पनाओं में और जो जीवन का संघर्ष और जीवन की विसंगतियों के आयाम वो देखेगी मैं समझता हूं कि वो अपना रास्ता तैयार करेगी। और कर रही है।

लालित्य ललितः गर्ग साहब आपने ग़ज़ल, कविताएं, बच्चों के लिए गीत , यात्रा संस्मरण भी लिखे और आलोचना में तो आप सक्रिय रहे। आपकी अपनी प्रिय विधा कौन सी है?

शेरजंग गर्गः दरअसल मैं समझता हूं कि मेरी सारी विधाएं जब मैं उस पर लिख लेता हूं, वो मेरी प्रिय हो जाती हैं। मैंने कभी यह नहीं माना कि मैं न केवल बाल कवि हूं, न मैंने कभी अपने आप को गजलकार माना, न मैंने कभी माना कि मैं गीतकार हूं। मैंने नए ढंग से भी कविताएं लिखीं। छंद मुक्त भी लिखा। मैंने व्यंग्य गद्य भी लिखा। मैंने समीक्षाएं भी लिखीं। संस्मरण भी लिखा। मुझे लगता है कि सारी विधाएं जब मैं एक विधा में लिखता हूं तो वो मेरी प्रिय विधा हो जाती है। व कहें मैं उसे अपनी प्रिय विधा मान कर चलता हूं। और तभी उसमें थोड़ी बहुत सफलता उसमें मिल जाती है। मैं मानता हूं कि मैं किसी एक विधा से नहीं जुड़ा हुआ हूं। बल्कि जब मुझे जो बात कहने में सुविधा होती है। उस विधा को मैं अपना लेता हूं।

लालित्य ललितः गर्ग साहब आप अपनी उम्र की इस दहलीज पर आ गए क्या अपने लेखने से संतुष्ट हैं?

शेरजंग गर्गः ऐसा है ललित जी, लेखन से तो संतुष्ट होने का सवाल ही नहीं उठता। और होना भी नहीं चाहिए। काम करते रहना चाहिए। और अगर वो लोगों तक पहुंच जाए। लोग उसे थोड़ा बहुत ग्रहण कर लें। मान्यता प्रदान कर दें। तो हल्का सा यह लगता है कि आपने कोई गलत काम नहीं किया। पीछे नहीं रहे। लेकिन मैं यह मानता हूं कि निरंतर लिखते रहना जब तक जीवन है। अभी मंडलोई जी हमारे मित्र रहे और आकाशवाणी, दूरदर्शन में महानिदेशक के रूप मंे काम किया, अभी 31 को वो सेवा निवृत्त हुए। उन्होंने सबसे बढ़िया बात यह कही कि देखिए रचनाकार कभी रिटायर नहीं होता। और अपनी रचनाधर्मिता से जुड़ा रहता है। और अगर संतोष मान लिया और यह मान ले कि मैंने जो करना था, कर लिया तो उसकी प्रगति रूक जाती है। मैं भी यह मानता हूं कि जो काम किया उसने आनंद तो दिया। लेकिन अभी और काम करते रहें। और जितना बन पड़े, जो जो स्थितियां आएं, जो जो अनुभूतियां आएं, जो जो घटनाएं घटें, जो जो अंतरमन में आए जो बाह्य परिस्थितियां हों उस पर लिखें और लिखते रहें। बाकी आगे की संतोष की बात है मेरे पाठक संतुष्ट हों, मेरे मित्र लोग संतुष्ट हों। और हमें तो पूरी तरह संतुष्ट होना ही नहीं है।

लालित्य ललितः अच्छा यह आपने कहा कि हमें तो पूरी तरह से संतुष्ट होना नहीं है। तो यह बात बताइए कि रचनात्मक प्रक्रिया जो आपकी रहती है वो उसकी क्या शैली रहती है, कितना समय आप लेखन को देते हैं। कितना पढ़ने में देते हैं, पाठकों की प्रतिक्रिया कैसे लेते हैं, कितनी यात्रा करते हैं और कितना समय अपने लेखन के लिए चुरा लेते हैं?

शेरजंग गर्गः ऐसा है ललित जी जहां तक मेरी रचनात्मक प्रक्रिया का सवाल है वो ज्यादा उलझी हुई नहीं है। जब मैं किसी चीज के बारे में सोचता हूं तो पहला तो डाफ्ट बनता है। उस विषय पर मैं अपनी डायरी में वो चीज एक बार उतार लेता हूं। फिर मैं उस डायरी को लेकर बैठ जाता हूं। फिर उसे फेयर करना जिसे कहते हैं, फिर मैं फेयर करता हूं। इस तरह से एक सोच शुरु होती है। और फेयर करने के बाद फिर पढ़कर फेयर किए हुए में भी रद्दोबदल करता हूं। खासकर गद्य में तो ऐसा है। और कविता भी इसी तरह से आती है। कविता एक बार आई मैंने लिख ली और दो तीन दिन बाद जब उसे देखता हूं तो कई संशोधन दिखाई देते हैं। और कई बार ऐसा भी होता है कि हमें यह लगता है कि बात पूरी बनी नहीं। बात पूरी कही नहीं गई। तो उसे फाड़ कर फेंक देता हूं।

लालित्य ललितः तो आप एक रचना का कितनी संशोधन करते हो?

शेरजंग गर्गः कम से कम दो बार तो मैं संशोधन करता हूं। उसके बाद पत्रिकाओं व किताब में छप जाती है तब भी कई बार लगता है कि यहां यह शब्द आना चाहिए था, तो मैं उसे परिवर्तित करता रहता हूं। जब नया संस्करण आता है, तो उसको उसमें डाल देता हूं।

लालित्य ललितःएक और सवाल मैं जानना चाहूंगा कि हिन्दी में जो अखाड़ेबाजी चल रही है, जो मठाधीश हैं, या संप्रदाय पनप उठे हैं, उनके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

शेरजंग गर्गः देखिये ललित जी मैं इन चीजों को बहुत गंभीरता से नहीं लेता हूं। पहली बात तो यह कि आपने देखा होगा कि गीदड़ जो हैं वो भीड़ में चलते हैं। लेकिन जो

शेर है वो अकेला ही चलता है। उसे कोई गुट बनाने की जरूरत नहीं पड़ती है। हिन्दी में यदि ऐसी कोई गुटबंदी है तो मैं मानता हूं कि यह स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं है। मैं कहता हूं कि परसाई बड़े रचनाकार कभी ऐसे को गुट बनाते नहीं देखा।। चाहे नागर्जुन हों। यह अलग बात है क इनकी मित्र मंड़ली थी। वो तो होती है। हर बड़े रचनाकार की होती है। उसका पाठक वर्ग होता है। लेकिन उसका कोई गुट नहीं होता। वो अपने मित्रों का भी विरोध कर लेता है। और अपने विरोधियों का समर्थन भी कर लेता है। उसे यह महसूस नहीं होता कि मैं गुट बनाउंगा तो मेरी तारीफ होगी और अगर गुट नहीं होगा तो मेरी तारीफ कौन करेगा। आप अच्छा लिखेंगे, ढंग का काम करेंगे। तब आपका अपना ही गुट बन जाएगा।

लालित्य ललितःयानी आप मानते हैं कि आपका अपना गुट बन चुका है। तो किस अखाड़े से अपना संबंध रखते हैं?

मेरा कोई अखाड़ा ही नहीं है। मेरा तो अखाड़ेबाजों से कोई संबंध ही नहीं है। मेरे मित्र हो सकते हैं।

लालित्य ललितः लेकिन आपके मित्र दुनिया में दूर तक फैले हुए हैं जो आपका सम्मान करते हैं, मान करते हैं, उम्र की इस दहलीज पर, बार बार दहलीज इस्तेमाल कर रहा हूं, मेरे ख्याल से आप 75 से उपर 80 के बीच में हैं और इस पूरे परिदृश्य में, आप यात्रा भी खूब कर रहे हैं, बीच में स्वास्थ्य को लेकर कुछ गड़बड़िया भी रहीं,लेकिन फिर भी एक साधक की तरह लगे हुए हैं। क्या कभी मन में ऐसा महसूस होता है कि एक सपना है जो अधूरा है या मुझे वो लक्ष्य मिला नहीं। मुझे वो सम्मान नहीं मिला। मुझे वो पुरस्कार नहीं मिला। आप पुरस्कार को किस निगाह से देखते हैं?

शेरजंग गर्गः पुरस्कार वो बड़ा है ललित जी जो आपको पता भी नहीं है और अचानक घोषणा हो जाए कि ललित जी को सम्मान मिल रहा है और आपको भी पता नहीं। आपको भी उसी दिन पता लगे। जिस दिन अखबारों में खबर आए। तो वो तो पुरस्कार है बड़ा। उसमें तो आनंद आता है। लेकिन अब ऐसे पुरस्कार मिलने लगे हैं कि पता है कि अमुक जगह घोषणा होनी है। लोगों ने जा कर डेरा जमा लिया। मुझे पुरस्कार मिल जाए तो इस बार कमाल हो जाए वरना तो सब निर्थक। पुरस्कार तो वह है जिसके लिए आप कोई जोड़तोड़ न करें। जब आपको लोग पुरस्कार दे कर प्रसन्न हों। और जब आपको पुरस्कार मिलने पर लोग प्रसन्न हों। उन्हें लगे कि आप इस बात के सच्चे हकदार हैं। इनका मिला यह बहुत अच्छी बात है। और जब भी किसी कुपात्र को पुरस्कार मिलता है। तो हमें लगता है हमें ही मिल जाए। किसी जुगाड़ू को मिल जाए तो जुगाड़ के थ्रू तो पता लगने लगता है।

लालित्य ललितः गर्ग साहब यह बताएं कि व्यंग्य की जो पीढ़ी है उसमें मैं भी लिख रहा हूं। मेरे साथ कुछ और लोग भी लिख रहे हैं। तो क्या आपको आज के व्यंग्य पीढ़ी और विषय आपको आश्वस्त करते हैं। इस पीढ़ी मंे उर्जा है। आग तक जा पाएगी?

शेरजंग गर्गः सबसे बड़ी उर्जा तो इस पीढ़ी की यह है कि यह नवजवानों की पीढ़ी है। नवजवानों में उर्जा ज्यादा होती है। मैं यह समझता हूं कि यह जो नई पीढ़ी उभर रही है चाहे उसमें लालित्य ललित हों,सुभाष चंदर को मान लेता हूं, और नाम इसमें आप डाल सकते हैं, मेरा यह कहना है कि ये लोग अपनी परिवेश से, अपने संघर्षों से, अपनी आसपास की दुनिया से, आसपास की दुनिया में घटने वाली घटनाओं और दुर्घटनाओं से, विकृत और कुत्सित, श्रेष्ठ मान्यताओं से प्रभावित हो कर लिख रहे हैं। लेकिन मेरा यह कहना है कि जब ये उन विसंगतियों को मन में पका लें और उस दर्द को पूरी तरह से महसूस करके लिखेंगे तो उनकी रचनाओं में ज्यादा ताजगी पैदा होगी। ज्यादा संप्रेषणीयता आएगी। और उनको निश्चित रूप से उनको ज्यादा लिखना बड़ी बात नहीं है। बहुत महत्वपूर्ण लिखना बड़ी बात है। तभी वो अपनी पिछली पीढ़ी से और आगे जाएंगे। क्योंकि उनकी जो प्रतियोगिता है वो हिन्दी के श्रेष्ठ व्यंग्यकारों से है। उनकी प्रतियोगिता परसाई है। कविता लिखते हैं तो नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से है। गद्य लिखते हैं तो दुष्यंत कुमार से है। बालस्वरूप राही से है। मैं यह कहता हूं कि किसी भी साहित्यशास्त्र की ओर जाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ आप श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ लीजिए वो आपका मार्ग प्रशस्त्र करती रहेंगी। नई पीढ़ी भी उनसे रास्ता लेगी। मैं समझता हूं कि इतनी समर्थ बनेगी कि उसके बाद की आने वाली पीढ़ी उससे रास्ता लेगी।

लालित्य ललितः गर्ग साहब व्यंग्य में महिलाओं की अनुपस्थिति काफी खटकती है। सूर्यबाला को ले लें, या रेखा व्यास को ले लें या अब जो नई लिख रही हैं अर्चना चतुर्वेदी, मुझे लगता है कि बहुत बड़ा सन्नाटा है। इसके पीछे कारण क्या है?कौन से तथाकथित लोग हैं जो महिलाओं को इस क्षेत्र में आने नहीं दे रहे हैं?

शेरजंग गर्गः ऐसा कुछ नहीं है। यह भी नहीं है कि कोई नहीं आने दे रहा हो। ऐसा है कि महिलाएं जो हैं। सीधे व्यंग्य की बात करें तो महिला व्यंग्य रचनाओं मंे कटाक्ष की बिंदु तो आ जाते हैं। लेकिन ऐसी महिलाएं कम हैं जो सिर्फ व्यंग्य ही लिखती हैं। इनमें मुझे सबसे पहले अलका पाठक का नाम याद आ रहा है। उसके बाद ममता कालिया की रचनाओं में भी काफी मात्रा में व्यंग्य है। अब सूर्यबाला तो लिखती ही हैं। लेकिन महिलाओं में व्यंग्य की करूणा की स्थिति है। व्यंग्य में भी करूणा होती है, लेकिन महिलाएं क्योंकि जिस मिट्टी की बनी होती हैं उसमें कोमलता ज्यादा है।

लालित्य ललितः गर्ग साहब आपके पसंद के व्यंग्यकार कौन हैं?

शेरजंग गर्गः मेरे पसंद के बड़े व्यंग्यकारों में तो मैंने व्यंग्य की कई व्यंग्य के मूलभूत सवालों का जो नया संस्करण पेश किया, समर्पित किया उसमें निराला, नागार्जुन और परसाई के नाम हैं। ये तो मेरी पसंद के हैं उसके बाद ये लोग इतने बड़े हैं कि उन्हें मैं अगर नापसंद करूंगा तो लोग मुझे नापसंद करने लगेंगे। मैं भवानी प्रसाद मिश्र, सक्सेना, जोशी, पुणतांबेकर का नाम ले रहा हूं श्रीलाल का नाम ले रहा हूं, रवीन्द्र नाथ त्यागी का नाम ले रहा हूं। मेरे सामने इतने बड़े बड़े महान पुरुष हैं। गोपाल चतुर्वेदी लगातार अपने ढंग का काम कर रहे हैं। और हमारे अनके नए लोग हैं जिसमें ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, सुभाष चंदर है, और एक हैं विनोद शंकर शुक्ल इतने लोग हैं और ये लोग निरंतर समर्पित हैं। लेकिन इन्हें अपना मुहावरा गढ़ना है। ज्ञान चतुर्वेदी ने भी चमक पैदा की। और लोगो भी प्रयत्शील हैं। परसाई जी अपनी अनुपस्थिति के बावजूद भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। गोपाल प्रसाद व्यास को लोग आज याद करते हैं। श्रीनारायण चतुर्वेदी को लोग याद करते हैं। ये लोग नहीं हैं लेकिन इनकी व्यंग्य रचनाएं आज भी छाप छोड़े हुए हैं। यह बहुत बड़ी बात है।

लालित्य ललितः गर्ग साहब व्यंग्य को लेकर कई सारी पत्रिकाएं हमारे सामने हैं, लेकिन व्यंग्य यात्रा इस समय देश में सर्वाधिक चर्चित पत्रिका हमारे बीच में है। आप व्यंग्य यात्रा के जरिए व्यंग्य के क्षेत्र में पदार्पण कर रहे नए लोगों को कोई संदेश देना चाहेंगे

शेरजंग गर्गः हुआ यह कि एक जमाने में कई व्यंग्य पत्रिकाएं निकलीं। पहले राम अवतार चेतन ने रंगचक्कलस, और अट्टाहास है जो अनुप श्रीवास्तव निकालते हैं। उसके अलावा एक और व्यंग्य पत्रिका हुल्लड मुरादाबादी ने निकाली थी। व्यंग्य यात्रा की खूबी यह है कि यह निरंतर निकल रही है। संुदर रूप से मुद्रित भी होती है। इसमें प्रायः हिन्दी के श्रेष्ठतम व्यंग्यकारों को समाहित करने का प्रयास किया जाता है। एक और पत्रिका जौनपुर से निकलती है व्यंग्यतरंग। पत्रिकाएं हैं लेकिन व्यंग्य यात्रा का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि देश के कोने कोने में पहुंच रही है। न केवल हिन्दी बल्कि अन्य भाषाओं के व्यंग्यकारों को जोड़ रही है। व्यंग्य यात्रा को एक महत्वपूर्ण कार्य यह है। दूसरा यह कि साहित्यिक घटनाओं के साथ ही व्यंग्य घटनाओं की रिपोटिंग भी लगातार छापती रहती है। व्यंग्य की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं व पुस्तकों की समीक्षाएं भी व्यंग्य यात्रा में प्रायः मिलती हैं। जैसे परसाई जी, श्रीलाल शुक्ल,शरद जोशी गोपाल चतुर्वेदी व रवींद्रनाथ त्यागी पर उन्होंने विशेषांक निकाला यह एक बड़ा काम है। व्यंग्य संबंधी सवालों पर लगातार एक विचार मंथन की स्थिति बनाए रखने का काम व्यंग्य यात्रा ने किया है। और यह यात्रा निरंतर चल रही है। यात्रा का अर्थ ही है चलते रहो चलते रहो। मैंने तो आज 55 साल पहले यह लिखा था जीत की पहली निशानी है सतत चलना न रूकना और मैं अंगार पर भी पग बढ़ाना जानता हूं। मैं यह मानता हूं कि जो निरंतर चलत हुए अपना सफर पूरा करते हैं। उनकी जीत की पूरी संभावनाएं होती हैं। उनकी हार की कोई संभावनाएं ही नहीं होती है। और जो हर मुश्किल में आगे बढ़ना जानते हैं। उनका जीत तय है। मेरी तो शुभकामनाएं हैं कि यह पत्रिका श्रेष्ठतम व्यंग्यांे का एक एलबम बन जाए। बहुत कम रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी पहली रचना से ही परिपक्वता हासिल कर ली। यह एक ईमानदार विधा है। इसमें हम बेईमानी अफोड नहीं कर सकते हैं। अगर हम करते हैं तो हमारे व्यंग्य भोथरा हो जाएगा। हमारे व्यंग्य में प्रभावशीलता खत्म हो जाएगी। वह नाम मात्र का व्यंग्य रह जाएगा। व्यंग्य रचना पढ़ने के बाद लोग अगर व्यंग्यकार के बारे में जानते हैं वो सोचते हैं इसने लिख तो दिया लेकिन वो काम तो ऐसा करता नहीं है। इसके कहने और करने में तो बहुत फर्क है। तो व्यंग्य का कोई असर नहीं पड़ेगा। व्यंग्यकार की कथनी और करनी मेें अंतर न हो। एक एक रूपता होगी तो मैं समझता हूं कि उंचा खड़ा हुआ दिखाई देगा। लोग उसे सम्मान की दृष्टि से देखेंगे।

लालित्य ललितः गर्ग साहब ये तो रहीं बातें जो व्यंग्य के इर्द-गिर्द जो घूम रही थीं। एक सवाल कुछ अलग सा कि यदि आपको अलगा जन्म मिले तो क्या आप व्यंग्यकार, लेखक,कलाकार या अभिनेता ही बनना चाहेंगे? कोई ऐसी आपकी मन की इच्छा हो या मनुष्य बनना चाहेंगे?

शेरजंग गर्गः साहित्य ऐसी विधा है जिसके जरिए आप कहीं भी पहुंच सकते हैं। यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति आपसे मिला न हो। कोई व्यक्ति आपके पास न आया हो लेकिन वो आपकी रचनाओं के माध्यम से वह आपको दुनिया की किसी भी कोने में जान सकता है। अगर फिल्में पर्दे पर न दिखाई जाएं तो कोई कितना भी बड़ा अभिनेता क्यों न हो वह मुझे नहीं जानेगा। क्योंकि साहित्य केवल शब्दों के माध्यम से ऐसे ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें सारी दुनिया में लोग जानते हैं। न वो लोगों से मिलते हैं और न लोग उनसे मिलते हैं। लेकिन उनकी रचनाएं लोगों को मिलती हैं। उनकी रचनाएं ही रचनाकार से परिचय कराती हैं। अगले जन्म की तो बात यह है कि अगला जन्म किसने देखा है? लेकिन अगर मौका मिले तो यह अच्छा है मैंने तो इसी जन्म में लोगों का थोड़ा प्यार पाया। उनकी प्रशंसा पाई। बहुुत कम किया लेकिन लोगों ने बहुत दिया। यह उदारता साहित्य ही पैदा करता है। साहित्य की रचनात्मकता ही प्रशंसक बनाती है। यह लोग महसूस करते हैं जब वो चीज हमारी रचनाओं मंे देखते हैं। तब उनके मन में एक प्यार, आदर और आत्मीयता का भाव पैदा होता है। साहित्य बहुत बड़ी चीज है। मनुष्य को संवेदनशील और मनुष्य को मनुष्य बनाता है। यह अलग बात है कि लोग साहित्य से नाता तोड़ते जा रहे हैं। लेकिन जो लोग साहित्य से नाता जोड़ेंगे मैं समझता हूं अच्छे मनुष्य वही बनेंगे।

लालित्य ललितःयानी आप अगले जन्म में फिर मनुष्य ही होना चाहेंगे।

शेरजंग गर्गः निश्चित रूप से। मनुष्य होना तो बहुत बड़ी बात है।