शेरदिल औरत / गोवर्धन यादव

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"आदमी अपना काम समय पर पूरा करे अथवा न भी करे, तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन प्रकृति अपना काम समय पर ही करती है। यदि वह अपने काम में थोड़ी-सी भी ढील दे-दे तो सारा चक्र गड़बड़ा जाएगा और पृथ्वी पर तरह-तरह के संकट मंडराने लगेंगे।"

आकाश में मंडराते बादलों को देखकर रोहित सोचने लगा था। अभी कुछ समय पहले तक आकाश एकदम साफ़ था, किसी कोरी स्लेट की तरह और देखते ही देखते समुचे आकाश पटल पर बादलों के धमाचौकड़ी शुरु हो गई थी। वह अपने घर से आफ़िस जाने के लिए तैयार ही बैठा था। सुबह के साढ़े आठ बज चुके थे। आराम से मोटर साईकिल चलाते हुए उसे दफ़्तर पहुँचने में लगभग एक से सवा घंटा लग जाता है। यदि वह इस समय तक नहीं निकला तो आफ़िस समय से नहीं पहुँच सकता। फिर दिल्ली के सड़कों पर मोटर साईकिल चलाना कोई आसान काम भी तो है नहीं। पता नहीं कहाँ जाम लग जाए? पता नहीं कब कोई आकर भिड़ जाए और आपको स्वर्गलोग की टिकिट थमा दे... कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

बारिश होने के अभी कोई चांस नहीं थे, फिर भी उसने अपनी मोटर साईकिल में बरसाती रख लिया था। बस उसे इन्तजार था अपनी पत्नी का कि कब वह टिफ़िन लेकर रसोई घर से बाहर निकलती है। उसे ज़्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा। वह कुछ और सोचे इससे पहले वह मुस्कुराती हुई बाहर आयी और उसने टिफ़िन उसके हाथ में थमा दिया।

रोहित ने अपनी मोटर साईकिल स्टार्ट की और चल पड़ा। मोटर साईकिल के शीशे में उसने पत्नी को देखा जो हाथ हिला रही थी। घर से निकलते समय सुनन्दा उसे मुस्कुराते हुए बिदा करती है। कभी-कभी बच्चों अथवा माताजी की अनुपस्थिति में वह उसके गाल पर चुम्बक भी जड़ देती है। पूरा दिन कब गौरैया कि तरह फ़ुर्र से उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता। शाम तो घर लौटने पर भी वह उसी तरह मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती है।

रोहित अपने घर की गली से मुड़ गया। आगे बस स्टाप था। इस समय तक वह खाली था। शायद कुछ देर पहले बस सवारियों को भर कर ले गई थी।

वह कुछ आगे बढ़ ही पाया था कि रेड सिगनल देखकर उसे अपनी गाड़ी रोकनी पड़ी। कुछ देर इन्तजार करने के बाद ग्रीन लाईट होते ही वह आगे बढ़ने वाला ही था, तभी एक बदहवास-सी औरत उसके पास आयी और बोली-" प्लीज एक्सक्य़ूज मी ...मेरी बस निकल गई है। क्या आप मुझे ग्रीन पार्क तक लिफ़्ट दें सकेंगे? ।

रोहित की खोजी नजरों ने कुछ ही पलों में उसके सिर से लेकर पांव तक का मुआयना कर लिया था। ग़ज़ब की खूबसूरत थी वह महिला। लगता है कि विधाता ने उसे फ़ुर्सद के क्षणॊं में बनाया होगा। मांग में सिन्दूर और माथे पर मैरुन रंग की बिंदिया देखकर सहज ही अन्दाजा हो जाता है कि वह शादी शुदा है। फिर उसके कपड़े पहिनने का ढंग और बोलचाल से ही साफ़ पता चल जाता है कि वह किसी संभ्रात परिवार से ताल्लुक रखती है। उसने सोचा।

"बैठिए" कहते हुए उसने मोटर साईकिल आगे बढ़ा दी थी।

"आपको कैसे पता कि मैं उधर ही जा रहा हूँ" उसने विस्मय से कहा।

"मैने आपको कई बार उधर ही जाता देखा है" वह औरत बोली।

" अच्छा तो आप आते-जाते लोगों पर नज़र रखती हैं तभी तो! लेकिन मुझे इस बात पर ताज्जुब हो रहा है कि आपको केवल और केवल मेरी ही सूरत याद रही जबकि इस रास्ते न जाने कितने ही लोग गुजरते होंगे?

"जी नहीं...आपका यह कहना सरासर ग़लत है कि मैं आते-जाते मर्दों पर नज़र रखती हूँ। इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में भला किसको इतनी फ़ुर्सद है कि वह किसी पर नज़र रख सके और उसे याद भी रखे" ।

"मान गया कि आप सच कह रही हैं, लेकिन हज़ार सूरतों में केवल मेरी ही सूरत आपको याद रही। यह कैसे हो सकता है?"

"इसका उत्तर एकदम सीधा-सादा-सा है। आफ़िस से निकल कर इसी जगह पर खड़े रहकर मुझे बस का इन्तजार करना पड़ता है और इसी जगह पर मैंने आपको प्रतिदिन पान के खोके पर सिगरेट पीते देखा है। आप जिस मस्ती के साथ सिगरेट के धुएँ के छल्ले बना कर उड़ाते हैं, उसे देखते रहना मुझे अच्छा लगा था। शायद यही कारण था कि आपकी सूरत मुझे याद रह गई, वरना कौन किसको याद रखता है" । उसने कहा।

"चलिए... किसी ख़ास अंदाज़ की वज़ह से आपको मेरी सूरत याद रही। इसके लिए धन्यवाद। फिर भी मैं आपसे जानना चाहता हूँ एक अंजान और अपरिचित व्यक्ति से लिफ़्ट मांगते समय आपको डर नहीं लगा? आपने कैसे अंदाज़ लगा लिया कि मैं निहायत ही शरीफ़ आदमी हूँ?" ।

"किसी पराए मर्द के साथ मोटरसाइकिल पर जाने के लिए बड़ा दिल चाहिए जनाव। मैं एक औरत हूँ और कोई औरत पराए मर्द के साथ बैठे, बड़ा हिम्मत का काम है। शायद आप जानते ही होंगे कि ईश्वर ने औरत जात को एक छटी इंद्रिय भी दी है जो आदमी के देखने मात्र से समझ जाती हैं कि उसके मन में किस तरह की उथल-पुथल हो रही है। इस बीच वह अपने बचाव का रास्ता तलाश लेती हैं"

" मान गए आपको और आपकी पारखी नजरों को। खैर जो भी हो ...मुझे इस बात को जानकर ख़ुशी हुई कि मैं एक शरीफ़ आदमी हूँ तभी तो एक अपरिचित महिला ने मुझ पर विश्वास किया। लेकिन आपने अब तक नहीं बताया कि आप ग्रीन पार्क क्यों जाना चाहती हैं। क्या वहाँ आपका फ़्लैट है अथवा कोई सगा-सम्बन्धी वहाँ रहता है? उसने पूछा।

"नहीं...नहीं ऎसा-वैसा कुछ नहीं है। दरअसल मैं वहाँ एक गारमेन्ट फ़ैक्टरी में सुपरवाईजर हूँ।"

"जानकर ख़ुशी हुई. अब कृपया अपना नाम भी बतला दें? (कुछ हंसते हुए) ...वैसे मैंने ही कब आपको अपना नाम बतला दिया? जी मेरा नाम रोहित है और मैं महरौली में एक ऎड कम्पनी में सी.ई.ओ के पद पर काम करता हूँ" ...

"जी... तीन अक्षरों का मेरा छॊटा-सा नाम है" माधुरी"। अपना नाम बतलाने के ठीक बाद उसने सहमते हुए कहा-" थोड़ा धीरे चलाईए न गाड़ी... तेज रफ़्तार से मुझे डर लगता है।"

"थोड़ा आसमान के तरफ़ भी देखिए... बादल गरजने लगे हैं...यदि बारिश शुरु हो गई तो हमारे पास बचने का कोई साधन नहीं है" ।

"ठीक कह रहे हैं आप, लेकिन सड़क का हाल भी तो देखिए... जगह-जगह गड्ढे हैं...कहीं बैलेंस गड़बड़ा गया तो हाथ-पैर टूटना तय है। मैं रोज़ ही एक्सीडेन्ट के केसों को देखती आ रही हूँ ...स्पीड के चक्कर में लोग दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं और चार छः महिने के लिए बिस्तर से लग जाते हैं । कितना कष्टप्रद होता है बिस्तर पर पडे रहना। शायद आपने इसकी कल्पना तक नहीं की होगी" ? ।

"बिलकुल ठीक कहा आपने... हार्दिक धन्यवाद आपका" कहते हुए उसने स्पीड कम कर दी थी।

"आपने अपने पति के बारे में कुछ नहीं बताया" ।

"जी... कई खूबियाँ हैं उनमें...साथ ही वे एक अच्छे आर्टिस्ट के साथ फ़ोटोग्राफ़र भी है। उनका अपना स्टुडियो भी है।"

"तब तो उन्होंने आपके पोट्रेट भी ख़ूब बनाये होंगे" ।

"सीधी-सी बात है। जब बीबी हसीन हो तो उसे ड्राईंग शीट पर उतारना कौन नहीं चाहेगा। कभी घर तशरीफ़ लाइयेगा। आप स्वयं जब अपनी आंखों से देखेगें तो देखते रह जाएंगे" ।

"मैं जितने भी आर्टिस्टों को जानता हूँ, वे सभी मस्त तबीयत के लोग होते हैं। उनमें एक खासियत यह भी होती है कि (जरा झिझकते हुए) कि वे ड्रिंग्स के बड़े शौकीन होते हैं"

"इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। शराबनोशी कोई बुरी चीज नहें है, बशर्ते वह अपनी मर्यादा में रहे"

"खैर... मुझे तो अब तक इसकी लत लग नहीं पायी। अब आपसे मुलाकात हो ही गई है मैं एक बार ज़रूर आपके आर्टिस्ट से मिलने कभी भी आ धमकूंगा।"

" जी... ज़रूर तशरीफ़ लाईए.

"अच्छा खासा कमा भी लेते होंगे?" ।

"हाँ...इतना तो वह कमा ही लेते कि घर-गृहस्थी आराम से चल जाती है" ।

"फिर तो आपको नौकरी करने की ज़रूरत ही नहीं होनी चाहिए"

" आपने ठीक फ़र्माया। लेकिन वे इन दिनों बीमार चल रहे हैं। स्टुडियो भी बंद पड़ा है। आमदनी नहीं के बराबर है। ऎसे में घर ख़र्च चलाना मुश्किल हो रहा था। यह अच्छा ही हुआ कि शादी से पहले मैंने ड्रेस डिजाईनर का कोर्स कर लिया था जो आज काम आ रहा है।

"यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। मैं आपके किसी काम आ सकूं तो कृपया मुझे बतलाइयेगा अवश्य। जितना भी संभव हो सकेगा मैं आपकी सच्चे मन से मदद करुंगा" । (कुछ देर तक ख़ामोश ओढ़े रहने के बाद उसने कहा) पति बीमार पड़े हैं और आप उनको अकेला छोड़कर नौकरी पर निकल जाती हैं तो उनकी देखभाल कौन करता होगा? बच्चे भी तो होंगे आपके? " ।

" जी हाँ...एक बेटा और एक बेटी है। मयंक ऎट्थ में है और ऋचा सिक्स्थ में। दोनों बच्चे बड़े समझदार हैं। उन्हें कुछ बतलाने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती...अपना काम ख़ुद कर लेते हैं। सुबह मैं उनके लिए टिफ़िन तैयार कर देती हूँ। स्कूल की बस आ जाती है, वे उससे निकल जाते हैं। दोनों शाम को घर लौटते हैं। रही उनकी बात तो आफ़िस से निकलने से पहले मैं उनकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देती हूँ। वे अब इस लायक तो हो ही गए हैं कि छोटा-मोटा काम वे ख़ुद कर लेते हैं। मेरे एबसेन्ट में टीव्ही उनका साथ देती है, किसी तरह उनका समय पास हो जाता है...

"जिसकी बीबी इतनी खूबसूरत हो और वह एक लंबे समय तक घर से बाहर रहे तो पति के मन में शंका-कुशंका के बीज भी तो पनपते ही होंगे कि कहीं वह किसी के साथ फ़्लर्ट तो नहीं कर रहीं? ।"

"संभव है, ऎसा भी हो सकता है...और नहीं भी हो सकता है... शरीर से बीमार आदमी मन-मस्तिस्क से भी बीमार हो, यह ज़रूरी नहीं, फिर भी सच तो यही है कि आदम जात ने आज तक अपनी जीवन संगनी पर भरोसा ही कब किया है? वह ख़ुद चाहे जितना गिरा हुआ क्यों न हो, लेकिन वह अपनी बीबी को लेकर शंका-कुशंकाओं को अपने मन में पाले रहता है। खैर... मैं इसकी चिंता नहीं करती...और मुझे करनी भी नहीं चाहिए. जब एक औरत घर से निकलती है तो यह ज़रूरी नहीं कि उसका सामना किसी दरिंदे से ही होगा... उसे अच्छे-भले लोग भी तो मिलते हैं, जैसे कि आप।"

" एक बात बतलाईए... आपकी छुट्टी कब होती है?

" छुट्टी तो छः बजे होती है, लेकिन निकलते-निकलते साढ़े छः तो बज ही जाते है। आख़िर ये सब क्यों पूछ रहे हैं आप?

"बस यूंहि...इसी समय तक मेरी भी ड्यूटी आफ़ हो जाती है, आप चाहें तो इसी जगह पर मेरा इन्तजार कर सकती हैं। मुझे अच्छा लगेगा कि आप मेरे साथ ही लौटें" ।

"मुझे ऎसा लगता है कि आप मुझमें कुछ ज़्यादा ही इंट्रेस्ट लेने लगे हैं।" उसने कहा।

" नहीं...नहीं। ऎसा कुछ भी नहीं है शायद आपने मेरे कहने का ग़लत मतलब निकाल लिया है। मेरा आशय और कुछ नहीं था, दरअसल मैं नहीं चाहता कि आप बस से सफ़र करें... यह वह वक़्त होता है जब सारे कार्यालय बंद होने को होते हैं। सभी जल्दी ही घर लौटना चाहते हैं और यही कारण है कि शाम के वक़्त बसों में कुछ ज़्यादा ही भीड़ हो जाती है। कुछ मजनू टाईप के लोग भी इसमें सफ़र कर रहे होते हैं। किसी खूबसूरत युवती के जिस्म से चिपकने का इससे अच्छा मौका उन्हें कब मिल पाता है। मैं नहीं चाहता कि आप उस भीड़ का हिस्सा बनें।

बात अभी पूरी भी नहीं हो पायी थे कब ग्रीन पार्क आ गया, पता ही नहीं चल पाया।

"जी बस यहीं रुक जाइये" उसने अजीजी से कहा।

मोटर साईकिल से उतरकर वह सामने आ गई. होंठॊं पर मुस्कान ओढ़ते हुए उसने कहा "आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। शाम को फिर मिलते हैं। मैं आपका इसी जगह पर इन्तजार करुंगी।" । उसके इस अंदाज़ में यक़ीन और अपनापन साफ़ झलक रहा था।

"जी बहुत अच्छा। अब मैं चलता हूँ" । उसने अपनी मोटर साइकिल आगे बढ़ाते हुए हाथ हिलाते हुए कहा।

मोटर साइकिल के शीशे में उसका अक्स दिख रहा था। वह अब भी हाथ हिलाकर उसका अभिवादन कर रही थी।

रोहित के जेहन में दिन भर माधुरी की मदहोश कर देने वाली सूरत तैरती रही।

दिन कैसे कट गया, पता ही नहीं चल पाया। आफ़िस से निकलकर वह उस स्थान पर आकर खड़ा हो गया, जहाँ उसने उसे सुबह के समय छोड़ा था। उसे ज़्यादा देर तक इन्तजार करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वह ठीक छः पच्चीस पर वहाँ पहुँच गई थी। उसने आगे बढ़कर रोहित का मुस्कुरा कर अभिवादन किया और मोटरसाइकिल पर सवार हो गई. मोटरसाइकिल स्टार्ट करने से पहले उसने अपना विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा-"इसे रख लीजिए, कभी भी ज़रूरत पड़ सकती है" ।

उस दिन के बाद से वह ठीक समय पर उस जगह पर खड़ी मिलती, जहाँ रोहित से वह पहली बार मिली थी। इसी तरह शाम को भी वह उसी जगह पर खड़ी रहकर उसकी प्रतिक्षा करती रहती। कई दिनों तक यह क्रम चलता रहा।

रोहित अपने घर से निकला। गली के उस छोर पर वह नहीं मिली। बस स्टाप या तो खाली होता या फिर 9 बजे जाने वाली बस के इंतज़ार में 4-6 लोग खड़े दिखाई देते। वह सोचता, शायद उसे कोई दूसरा लिफ़्ट देने वाला मिल जाता हो और वह उसके साथ निकल जाती हो। फिर वह सोचता, "ऎसा नहीं हो सकता" ।

एक-एक करके काफ़ी दिन बीत गए, पर वह नहीं मिली। बावजूद इसके वह छोर वाले बस स्टाप के पास अपनी गाड़ी धीमी कर लेता कि शायद वह खड़ी हो। शाम को भी यही क्रम दोहराता, लेकिन निराशा ही हाथ लगती।

मोटरसाइकिल चलाते समय उसके जेहन में माधुरी की मधुर स्मृतियाँ तैरती रहती। कभी-कभी तो वह उससे बातें भी करने लगता था लेकिन जल्दी ही उसे इस बात का भान हो जाता कि वह अब उसके साथ नहीं है। अक्सर माधुरी की कही बातें उसके कानों में गूंजने लगती-"किसी पराए मर्द के साथ मोटरसाइकिल पर जाने के लिए बड़ा दिल चाहिए जनाब। मैं एक औरत हूँ और कोई औरत पराए मर्द के साथ बैठे, बड़ा हिम्मत का काम है।" ईश्वर ने हम औरतों को अलग से छटी इंद्री दी है जो आदमी को देखते ही समझ जाती हैं कि उसके मन में क्या पाप पल रहा है"। कभी-कभार जब उसकी गाड़ी की स्पीड ज़्यादा हो जाती तो वे सारे शब्द उसके कानों में गूंजने लगते-" मुझे स्पीड से डर लगता है, थोड़ा धीरे चलाएं" और वह अपनी स्पीड कम कर लेता।

दिन पर दिन गुजरते चले गए, लेकिन वह दुबारा नहीं मिली। इस बीच यमुना से काफ़ी पानी बह चुका था। समय भी कब किसके लिए रुका है जो उसके लिए रुकता। अब वह सेवानिवृत हो चुका था। जिस रास्ते पर चलते हुए उसने अपने जीवन के सैतीस साल गुजार दिए थे, उस रास्ते पर फिर कभी उसका जाना न हो सका, लेकिन माधुरी की याद उसके मन में जस की तस बनी रही।

उसके बेटे ने फ़ोर व्हीलर खरीद ली थी, जिसके लिए गैराज में कुछ ज़्यादा जगह की आवश्यकता पड़ती थी। उसने एक दिन अपने पापा को सलाह देते हुए कहा कि अब उन्हें मोटरसाइकिल बेच देनी चाहिए. सुनते ही वह भड़क गया था। उसने ऎसा करने से साफ़ मना कर दिया था। वह किसी भी क़ीमत पर उसे बेचने को तैयार नहीं था, क्योंकि उस मोटरसाइकिल से माधुरी की मधुर स्मृतियाँ जुड़ी हुई थी।

टेलीफ़ोन की घंटी बज रही थी लगातार, जिसे उसके पोते ने उठाया, जो उस समय पास ही खेल रहा था। एक आवाज़ उभरी-"क्या रोहितजी घर पर हैं, ज़रा उनसे बात करवाइये" । उसने वहीं से अपने दादाजी को आवाज़ देते हुए कहा-"दद्दुजी.।आपका फ़ोन" ।

"कौन हो सकता है इस समय।" ...सोचते हुए उसने क्रैडल उठाया। एक सुरमई आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा था। वह आवाज़ माधुरी की थी। सुनते ही अवाक रह गया था वह।"माधुरी तुम...कहाँ थीं अब तक तुम। मैं बरसों तक तुम्हारे आने का इंतज़ार करते रहा...लेकिन तुम न जाने कहाँ खो गई थीं... वह कुछ और कह पाता कि दूसरी ओर से आवाज़ उभरी-" सारे शिकवे-शिकायत बाद में सुनूंगी रोहितजी... पहले ये सुनिए कि कल ठीक ग्यारह बजे आप प्रगति मैदान पहुँच जाएँ, देश के महामहिम राष्ट्रपति जी मुझे सम्मानित करेगें। आपकी उपस्थिति प्रार्थनीय है। यदि आप नहीं पहुँचे तो शायद मैं सम्मान ग्रहण नहीं कर पाउंगी। मैंने रिसेप्शन काउन्टर पर आपके लिए गेटपास का इन्तजाम करवा दिया है। फ़्रंट वाली सीट नम्बर आठ आपके लिए आरक्षित है। सीट नम्बर आठ...ध्यान रखियेगा" । इतना कहकर उसने टेलीफ़ोन काट दिया।

रोहित के बूढ़े शरीर में एक नया जोश, एक नयी उमंग का संचार होने लगा था। इस अतिरेक आनन्द से वह सराबोर हुआ जा रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा थी कि कल ऎसा कौन-सा विशेष दिन है, जब वह राष्ट्रपतिजी के हाथों सम्मानित होगी। उसने कैलेण्डर को ध्यान से देखा। समझ गया था कि कल "अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस" है। यह वह दिन होता है जब किसी विशिष्ट कार्य के संपादित किए जाने पर उस महिला का सम्मान किया जाता है।

उसके जेहन में केवल प्रश्नों की भरमार थी, जिसके उत्तर वह खोजने का असफ़ल प्रयास करता रहा था, लेकिन किसी नतीजे पर पहुँच नहीं पाया था।

दूसरे दिन वह समय से पहले ही घर से निकल गया था। काउन्टर पर पहुँचते ही उसे गेटपास दे दिया गया था। इस समय पूरा हाल खचाखच भरा हुआ था। चारों तरफ़ भीड़ ही भीड़ थी। भीड़ को चीरता हुआ वह अपनी सीट पर जा कर बैठ गया। अब उसे इन्तजार था उस क्षण का, जब वह अपनी आंखों से माधुरी को सम्मानित होते हुए देखेगा। प्रसन्नता कि लहरें उसके मन में हिलोरे ले रही थीं।

महामहिम पधार चुके थे। उनके स्वागत-सत्कार के बाद सम्मान देने का कार्यक्रम शुरु हुआ। हर उस महिला के नाम की घोषणा होती, जिन्हें सम्मानित किया जाना था। तीसरे क्रम में माधुरी के नाम की घोषणा हुई. मंच पर वह किसी चमकदार हीरे की तरह अपनी चमक बिखेरते हुए आयी। आगे बढकर उसने महामहिम से सम्मान प्राप्त किया और प्रसन्न बदन उपस्थित जन समुदाय का झुककर अभिवादन किया।

कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उसकी भेंट माधुरी से हुई. मिलते ही उसने उसे सम्मानित होने के लिए बधाइयाँ और शुभकामनाएँ दीं और उसके रहस्यमय तरीके से गायब हो जाने के बाबत जानकारी जाननी चाही। ।

माधुरी ने ध्यान पूर्वक सुना और विनम्रता पूर्वक बोली-"रोहितजी... अतीत में जाकर क्या करेगें? अतीत को अतीत ही रहने दें, तो अच्छा हे" ।

' मतलब साफ़ है कि तुम मुझसे कुछ छिपाना चाहती हो। सच है...आखिर मैं होता भी कौन हूँ तुम्हारा...मात्र एक प्रशंसक और क्या? "

"नहीं ऎसी बात नहीं है रोहितजी... सुनकर भी क्या करेगें...केवल दुख ही होगा आपको..." ।

"दुख और सुख की बात नहीं है माधुरी... मैं तो केवल इतना भर जानना चाहता हूँ कि यदि तुम्हें शहर छोड़ कर जाना ही था तो मुझे बतला तो दिया होता। तुम्हारे इंतज़ार में मैंने मन के कितने आघात सहे हैं, क्या तुम इसकी कल्पना कर सकती हो? । एक दिन तो मैं तुम्हारी फ़र्म का पता लगाते-लगाते वहाँ तक जा पहुँचा था। जाकर पता चला कि तुमने नौकरी छॊड़ दी है। नौकरी छॊड़ने का कोई कारण भी नहीं बतलाया गया। यदि घर का पता तुमने दिया होता तो वहाँ भी मैं जाकर पता लगाता। न तो मेरे पास तुम्हारा मोबाइल नंबर ही था। हमारी मुलाकातें मात्र चंद महिनों की थी, लेकिन तुम इतनी अज़ीज़ हो जाओगी, इसका मुझे गुमान तक न था। फिर तुम्हारी बसी-बसाई गिरस्थी थी...बच्चे थे...क्या तुम उन्हें साथ ले गई थीं या फिर उन्हें छोडकर चली गई थीं? बोलो-...बोलो माधुरी...तुम्हें मेरे प्रश्नों का उत्तर देना ही होगा। मैं सब कुछ जानना चाहता हूँ तुम्हारे बारे में" । रोहित ने मन के आंगन में फ़न फ़ैलाए बिलबिलाते शिकायती नागों का पिटारा खोल दिया था।

प्रश्नों का आघात इतना तीव्र था कि उसके आंखों से आंसू झरकर बहने लगे। किसी तरह अपने पर संयम रखते हुए उसने कहा-"रोहितजी मैं आपके मन की पीड़ा को समझ रही हूँ। फिर आपका अधिकार भी बनता है मेरे बारे में जानने का...लेकिन यह स्थान इसके लिए उपयुक्त नहीं है। मैं" सैण्ड एंड सन" होटल में रुकी हुई हूँ। आप कृपया वहाँ आ सकेगें तो मेहरबानी होगी। मैं आपको अपना वर्तमान और अतीत सभी के बारे में विस्तार से कह सुनाउंगी।

"ठीक है...मैं कल ग्यारह बजे के आसपास आ रहा हूँ" उसने कहा और वापस अपने घर की ओर बढ़ गया।

कालबेल बजते ही दरवाज़ा खुल गया। शायद वह उसी का इन्तजार कर रही थी।

सारी औपचारिकताओं के बाद वह एक कुर्सी पर धंस गया। ठीक उसके सामने वह कुर्सी लगाकर बैठ गई थी। देर तक छत की ओर टकटकी लगाकर देखते रहने के बाद उसने मुंह खोला, शायद वह अपने अतीत को समेटने में लगी थी।

" रोहितजी... शुरु से ही मैं मेधावी छात्रा रही हूँ। ड्रेस डिजाइनिंग कोर्स के साथ ही मैंने कालेज ज्वाईन कर लिया था। एक बार कालेज में रोमियो-जुलियट नाटक खेला जाना था। प्रो. सिन्हा इस प्ले को डायरेक्ट करने वाले थे। उन्हें जुलियट के लिए उपयुक्त पात्र की तलाश थी। रोमियो का चुनाव वे पहले कर चुके थे। आडिशन में मेरा स्लेक्शन हुआ। इस तरह मैं घ्रुव के संपर्क में आयी। हमने नाटक प्ले किया। नाटक बेहद सफल रहा। इस प्ले के बाद से कालेज के स्टुडेंट हमे रोमियो-जुलियट कहकर बुलाते। ध्रुव से मुलाकातें होती रहीं। उसमें एक नहीं अनेक गुण समाए हुए थे, साथ ही वह एक सुलझे हुए व्यक्तिव का धनी भी लगा मुझे। उसमें एक सफल नाटककार के गुणॊं के अलावा गीत-संगीत में गहरी रुचि थी। गायकी में वह बेजोड़ था। गीत-गजल भी वह लिखा करता था और माडर्न आर्ट में तो वह पारंगत था ही। यही सब कारण थे कि मैं मन ही मन उसे चाहने लगी थी। रोमियो-जुलियट का नकली जीवन तो हम जी ही रहे थे। अब हमने फ़ैसला कर लिया था कि इसे हक़ीक़त में बदल देंगे, लेकिन हमारे बीच ऊँच-नीच की एक अभेद्य दीवार खड़ी हो गई. इस दीवार को तोड़ने की हिम्मत तो हममें थी नहीं, सो हमने घर छोड़ देने का फ़ैसला किया। भाग कर विवाह किया और इस तरह घर-गिरस्थी की गाड़ी चल निकली।

ध्रुव ने टाप-टेन में पोस्ट-ग्रेजुएशन किया था। उसे नौकरी के लिए भटकना नहीं पड़ा और वह एक कालेज में सहायक प्राध्यापक हो गया। मुझे भी एक गार्मेन्ट फ़ैक्टरी में ड्रेस डिजाइनर के पद पर नियुक्ति मिल गई. इस बीच हमारे एक बेटा और एक बेटी पैदा हुए. इनके बारे में मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ।

अच्छे हंसते-खाते-पीते परिवार को न जाने किसकी नज़र लग गई. एक रात घ्रुव को सिवीयर अटैक आ गया। स्कार्ट में उसका आपरेशन हुआ। इसमें करीब तीन लाख ख़र्च हुए. उस समय इतनी बड़ी रक़म हमारे पास तो थी नहीं। जैसे-तैसे रक़म का इन्तजार भी कर लिया गया। लेकिन कुछ दिन बाद वह पैरेलाइज्ड हो गया। एक मुसीबत से निकली भी नहीं थे कि दूसरी आ धमकी। जैस-तैसे उसको संभाला ही था कि वह फ़ोबिया का शिकार हो गया। उसके मन में एक फ़ांस घर कर गई कि मेरे किसी अन्य से नाजायज सम्बंध है। लाख समझाने के बाद भी उसे मुझ पर यक़ीन नहीं हुआ। नारकीय ज़िन्दगी बन चुकी थी मेरी। मैंने कड़ा फ़ैसला लेते हुए निर्णय कर लिया था कि उसे अब उसके हाल पर छॊड़ दिया जाना चाहिए. उसका अब जो होना है सो हो लेकिन मैं अपने बच्चों का जीवन बर्बाद करना नहीं चाहती थी। एक रात मैंने घर छोड़ दिया और बच्चों को लेकर अपने शहर चली आयी। मेरे पास मेरा अपना हुनर था। जल्दी ही मैंने पड़ौस की औरतों को सिलाई-कढ़ाई सिखलाई, उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया और इस तरह मेरा अभियान सफ़लता के क़दम चूमने लगा। यह काम यहीं तक नहीं रुका, बल्कि गांव-देहातों तक जा पहुँचा। हजारों-हज़ार महिलाएँ इससे लाभान्वित हुईं। स्कुल भी खोले गए. इस तरह मैंने गाँव की अनपढ़-गवांर समझी जाने वाली महिलाऒं के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए अपना जीवन होम कर दिया। इस बात की चर्चा तो पूरे देश भर में होना था, सो हुई भी और यह ख़बर दिल्ली भी जा पहुँची। शायद इसी का परिणाम है कि मुझे इस देश के महामहिम के हस्ते सम्मानित होने का गौरव प्राप्त हुआ।

अपने अतीत और वर्तमान को सुनाते हुए वह फ़बक कर रो पड़ी।

रोहित ने आगे बढ़कर उसे शाबासी देनी चाही तो माधुरी उसके सीने से चिपक गई. वह जार-जार रोए जा रही थी। उसने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा-"अरे पगली...इसमें रोने की क्या बात है। तुम तो शेर दिल औरत हो... शेर दिल। अच्छा ही किया तुमने जो ध्रुव से समय रहते किनारा कर लिया वरना लांछन के बौछार से तुम घुट-घुटकर मर जातीं। मैं ही क्या... कोई और भी इस बात तो सुनता कि तुमने कितनी ही विरान जिदंगियों में आशा कि किरण जगाई है...उन्हें नया जीवन दिया है और उनका आंचल खुशियों से भर दिया है...वरना आज की इस स्वार्थी दुनिया में भला कौन किसके लिए जीता है। तुम धन्य हो माधुरी...धन्य हो" ।

झरते आंसूओं से उसकी शर्ट भीगी जा रही थी। वह अब तक यह समझ नहीं पाया था कि वे पश्चाताप के आंसू थे अथवा ख़ुशी के