शेर और बकरी / अशोक भाटिया
(1)
कहा जाता है कि हमारे देश में कभी शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पिया करते थे। इसमें हालाँकि कई पेच हैं। एक सवाल यह उठता है कि जिस घाट पर पानी पीते थे, उस पर पहले कौन आता था? यही सवाल मैंने अपने एक साथी से पूछा तो वह बोला- ‘‘तुम भी अजीब आदमी हो। पहले तो बकरी ही आयेगी, तभी तो उसे देखकर शेर आयेगा!
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भर- पेट खाकर शेर अगले शिकार की तलाश में निकल पड़ा। भटकता हुआ वह जंगल से बाहर निकल गया। थोड़ी दूर पर एक कस्बा था। शेर उधर ही चल पड़ा। कस्बे के बाहर कुछ बकरियाँ एक घाट पर पानी पी रही थीं। शेर ने कुछ देर प्रतीक्षा करना ही ठीक समझा। पानी पीकर सारी बकरियाँ चल पड़ीं, सिर्फ एक बकरी रह गई। शेर चुपके से उसके निकट आकर बोला-‘‘थोड़ा सा पानी मैं भी पी लूँ..?‘‘ बकरी ने सोचा- ‘‘मुझे कितना महत्व दे रहा है...इतना तो चुनावों में विधायक भी जनता को नहीं देता!‘‘उसने आँख झपककर स्वीकृति दे दी, हालाँकि घाट उसका नहीं था।
इस प्रकार शेर ने शिकार के लिये नये घाट पर अपनी जगह बनाई।
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सवाल है कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे? इन्सानों ने अपनी जाति के हिसाब से अलग-अलग कुओं की सुविधा बना रखी थी, तो पशु-जगत के साथ ऐसा अन्याय क्यों? क्योंकि पशु-समाज मनुष्य-समाज की नकल नहीं करता।
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आखिरकार युग बदला। केबल-संस्कृति ने अपने पाँव पसारे। एक लोकप्रिय चैनल का फोटोग्राफर उस दृश्य की खोज में निकल पड़ा जिसमें शेर और बकरी एक घाट पर पानी पी रहे हों। कुछ दिनों तक वह मारा-मारा फिरता रहा।
खोजते-खोजते वह एक छोटे से कस्बे के बाहर पहुँचा। वहां एक घाट पर एक बकरी पानी पी रही थी और एक शेर घाट के निकट पहुँच रहा था। ज्यों ही शेर ने अपना मुँह पानी में डाला, फोटोग्राफर ने फोटो खींच लिया। मौका पाकर बकरी तो वहाँ से निकल पड़ी पर फोटोग्राफर से रहा नहीं गया। उसने शेर से पूछा ’‘बकरी को इतने निकट पाकर भी आपने उसका शिकार क्यों नहीं किया?‘‘
शेर ने मीडिया को महत्व देते हुए कहा- ‘यह बकरी अभी जाकर अपनी सहेलियों से मेरी उदारता का गुण-गान करेगी। इस प्रकार यह मेरे लिए एफ.डी. (फिक्सड डिपाजि़ट) हो जाएगी।‘
फोटोग्राफर ने चलते-चलते, इस सच्चे इतिहास पर चिंतन करने के बाद अपने कैमरे से वह रील निकालकर फेंक दी!
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पहले छोटे-बड़े शहरों में सार्वजनिक नल हुआ करते थे। नगर-पालिकायें उनमें बहुत-सा पानी बहाया करती थीं। धीरे-धीरे प्याऊ भी आ गये। किसी घुप्प अँधेरे कमरे में पसीना चुआती कोई औरत या मर्द ओक से पानी पिलाता और प्यासे लोग पीकर चले जाते। फिर प्याऊ खत्म हो गये और सार्वजनिक नल भी नाम- मात्र को रह गये। नया जमाना आ गया।
इसी नये जमाने में एक शेर भटककर शहर में आ गया। लोगों में अफरा-तफरी मच गई। मीडिया-कर्मी कवरेज के लिए आ पहुँचे। शेर बहुत प्यासा था। उसे अपनी प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उसकी नज़र एक रेहड़ी पर पड़ी। उसने देखा, कुछ लोग एक-एक रूपये में एक-एक गिलास पानी खरीदने के लिए मारा-मारी कर रहे थे। कुछ लोग एक दुकान से पंद्रह रूपये में साफ पानी की बोतल खरीद रहे थे। गिलास या बोतल के पानी से, प्यास बुझाना उसे असंभव लग रहा था। कुछ लोग अब भी उचक-उचककर उसे देख रहे थे। कैमरों और फ़्लैश-लाइटों की चका-चौंध से घबराया शेर एक खण्डहर की ओर भागा। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। उसने सोचा-‘इस शहर से तो जंगल ही अच्छा था।‘