शैलबाला का 'वक्तव्य' / रामचन्द्र शुक्ल
यह उपन्यास बंगभाषा के पुराने उपन्यासकार, अमृतपुलिन, मुगलप्रदीप, कोहेनूर आदि के रचयिता श्रीयुत ननीलाल बन्द्योपाध्याय की एक पुस्तक का अनुवाद है। ननीलाल बाबू के उपन्यासों का बंगदेश में अच्छा आदर हुआ। समाज के भिन्न भिन्न वर्गों की प्रवृत्ति का चित्रण करने में ये बड़े कुशल समझे जाते थे। इस पुस्तक में देश की उस समय की परिस्थिति का एक चित्र है जब मोगल साम्राज्य का एक प्रकार से अन्त हो चुका था। मरहठों के हृदय से भी साम्राज्य स्थापित करने का उत्साह दूर हो चुका था और ईस्ट इंडिया कम्पनी का दिन दिन बढ़ता हुआ प्रभाव ऍंगरेजों के भावी महत्तव का आभास दे रहा था। इस उलट फेर के कारण देश के बड़े बड़े प्रतिष्ठित वंश र्दुव्य वस्थाड को प्राप्त हो रहे थे और निम्न या साधारण वर्ग के बहुत से लोग कम्पनी के उद्देश्य साधन में सहायक हो कर अपने लिए समृध्दि का मार्ग निकाल रहे थे। इस प्रतिकूल स्थिति में इधर उच्च वंश के लोगों को तो अपनी मान मर्यादा की रक्षा कठिन हो रही थी, उधर नवीन समृध्दि प्राप्त वंश अपना बल वैभव प्रकट करने में कोई बात उठा नहीं रखते थे।
इस उपन्यास में दो क्षत्रिय कुल ऐसी ही भिन्न दशाओं में दिखाए गए हैं और प्रेम के उत्कर्ष का सुन्दर चित्र खींचा गया है। अनुवाद करने वाली वही श्रीमती 'सावित्री' हैं जिनकी लिखी' कलंकिनी' नामक पुस्तक का उपन्यास प्रेमियों में अच्छा आदर हुआ है। कहने की आवश्यकता नहीं इस अनुवाद में भी अच्छी सफलता हुई है। भाषा भी वैसी ही सरस और चलती हुई है। आशा है हिन्दी प्रेमी इसका भी उचित आदर करके लेखिकाको और और पुस्तकों के अनुवाद करने के लिए उत्साहित करेंगे।
(शिवरात्रि सं. 1980, सन् 1923)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]