शैलेन्द्र चौहान की कविता प्रचलित मानदंडों के विरोध में / सूरज पालीवाल
कविता और उनके कवियों के लिये यह समय कठिन है । इसलिये कि अब कवियों ने कविता में भी चालाकी करनी शुरू कर दी है । कविता उनके लिये जीवन मरण का प्रश्न नहीं बल्कि उपयोग , उपभोग और आगे बढ़ने का साधन बन गई है । हिंदी कविता ने अपने प्रारंभिक दौर में चारणों और रीतिकाल में राज्याश्रित कवियों के यहां इस प्रकार की दुर्गति देखी थी , यह दुर्गति सूचनाओं के संजाल और लूट की चमत्कारपूर्ण दुनिया में भी होगी , ऐसी उम्मीद न तो कविता को रही होगी और न उसके पाठकों को ही । पर वास्तविकता यही है कि कवियों ने अपनी निष्ठा से किनारा कर ऐसी दुनिया बना ली है जिसमें संघर्ष और चुनौतियों के लिये कोई जगह नहीं है , जिसमें आम आदमी के दुख-दर्द के लिये कोई कोना नहीं है , जिसमें जीवन से जुड़े यथार्थ प्रश्नों के लिये कोई जगह नहीं है । ऐसी कविता कर वे पुरस्कृत हो रहे हैं , बड़े घरानों से प्रकाशित हो रहे हैं और तमाम तरह की सुविधाओं के आकांक्षी बनकर मुलायम बने हुये हैं - जीवन में भी ओर कविता में भी । खरी-खरी कहने की कवियों जैसी आदत से बड़े अभ्यास के बाद मुक्ति पा ली है और अब निश्चिंत होकर शब्दों से खेल रहे हैं । ऐसे कठिन दौर में जो कवि ईमानदारी से कविता कर रहे हैं , उदारीकरण और सत्ता के तालमेल को पहचानकर कविता में रच रहे हैं , किसानों की आत्महत्या और मजदूरों की भजन-मंडली से दुखी होकर कविता में उसे व्यक्त कर रहे हैं या आलोचक और संपादक की घालमेल वाली ठकुर-सुहाती से दूर कविता रच रहे हैं - उन्हें जड़वादी या ठोस प्रगतिशील कहकर उपेक्षित या खारिज किया जा रहा है । क्या सुविधा और साधनों की ललक कवियों को बड़ा बना सकती है ? क्या कोई संपादक या आलोचक कवि को महान या छोटा बना सकता है ? कहने को हमारे सामने कई उदाहरण हैं , जो अपने समय में महान बने रहे पर बाद में किसी ने नहीं पूछा और अपने समय में उपेक्षित कर दिये कवि बाद में महान साबित हुये तथा कविता की धारा के विभिन्न स्त्रोतों की गंगोत्री वे ही साबित हुये । इसलिये केवल कवि ही नहीं बल्कि साहित्य की किसी भी विधा के लेखक को अपने मूल्यांकन की जल्दी नहीं होना चाहिये , जब अवसर आयेगा तब उनकी अपने समय के ताप में तपी रचना ही सिर चढ़कर बोलेगी ।
कथा का आलोचक होने के नाते अधिकतर कवि मुझे अपने कविता संग्रह पढ़ने को नहीं देते , कवियों के इस ठंडेपन को मैंने भी कभी दूसरे अर्थों में नहीं लिया । लेने के कारण भी कभी दिखाई नहीं दिये । न किसी कवि ने शिकायत की और न किसी प्रकार दबाव ही बनाया , इसलिये मैं भी सुखी और वे तो पहले से ही सुखी थे । इस बीच कुछ संग्रह जिनकी चर्चा भी हुई और जिनके कवि अपनी सामयिक और तीखी टिप्पणियों के कारण मुझे अच्छे लगे मैंने उनकी कविताओं को पढ़ा । यानी पढ़े का यह मतलब बिल्कुल भी नहीं कि मैं उन्हें पहली बार पढ़ रहा हूं । मैंने उन्हें इसलिये भी पढ़ा कि विचारधारा के इस विरोधी वातावरण में आज भी ये किसानों , मजदूरों , गांव-देहात , मध्यवर्ग की लगभग दयनीय हो चुकी जिंदगी तथा विश्व साम्राज्यवादी अमेरिका-इंग्लेंड के वास्तविक चेहरे को लेकर कविताएं कर रहे हैं । मैं अब भी यह सोच पाने में असमर्थ हूं कि जिस देश में किसान आत्महत्याएं करें , मजदूर अपने संघर्षों के लिये लंबी लड़ाइयों को छोड़कर भजन गायें और मध्यवर्ग अंबानी , मित्तल , अजीम प्रेमजी या स्वराज पॉल बनने की ललक पालकर पागल हो जाये , लड़के शाहरुख खान तथा लड़कियां माधुरी आंटी से प्रियंका चौपड़ा बनने के लिये रातदिन अपनी घिसाई करती रहें - उस देश के इस पाखंड को कवि नहीं उघाड़ेंगे तो कौन उघाड़ेगा ? यह काम तो कवियों का है , कवि ही अपने समय की नब्ज को पहचानता है और वही इसकी बीमारियों और उनकी प्रवृत्तियों पर उंगली रखता है । हमारे बड़े कवियों ने यही किया इसलिये बार-बार उन्हें पढ़ने-गुनने को मन करता है ।
सजग और सक्रिय कवि शैलेंद्र चौहान का पिछले दिनों नया कविता संग्रह 'ईश्वर की चौखट पर ' पढ़ा । मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि पिछले दो दशकों में उनका यह तीसरा संग्रह है । उन्हें 'हर साल कलेंडर ' छापने की तरह कविता संग्रह छपवाने का शौक नहीं है जबकि वे कविताएं निरंतर लिखते रहे हैं । कवि में यह धैर्य होना ही चाहिये , यह उसे बड़ा बनाता है । पिछले दिनों महादेवी वर्मा और पंत की कविताओं को लेकर जो तूफान खड़ा किया गया उसमें एक बात यह अच्छी उभरकर आई कि महादेवी वर्मा ने कमजोर कविताएं लिखी होंगी -हर कवि अच्छी और कमजोर कविताएं लिखता है पर संग्रह छपवाते समय महादेवी इतनी सतर्क रही कि कोई कमजोर कविता अपने संग्रहों में नहीं आने दी यानी पाठकों के सामने जो कविताएं महादेवीजी की हैं वे प्रौढ़ कविताएं हैं लेकिन पंतजी ने ऐसी नहीं किया । उन्होने जो लिखा वह प्रकाशित करा दिया । इसलिये छायावाद के पंतजी और बाद के पंतजी में बहुत बड़ा अंतर है , गहरी खाई है । उनका उत्कर्ष काल छायावाद है , लेकिन पता नहीं क्यों यह बात उनकी समझ में नहीं आई । कई बार प्रसिद्धि के मोह और निरंतर चर्चा के केंद्र में रहने के कारण ऐसा होता है । शैलेंद्र चौहान की कविता में कहूं तो ' एक बूढ़े प्रगतिवादी आलोचक की सफेद झक्क धोती के किनारे से ' ऐसी धारा निरंतर बह रही है जो 'अवसरानुकूल व्यवहार करने वाले कवियों' को यह सोचने का अवसर नहीं दे रही कि वे क्या अच्छा और क्या बुरा लिख रहे हैं । ऐसे आलोचक पंतजी के समय में भी रहे होंगे । तो ऐसे आलोचकों से बचते हुये शैलेंद्र चौहान अपनी कविता यात्रा को बड़े ही संकोच , धैर्य और गंभीरता के साथ आगे बढ़ाते हैं - यह तथ्य 1983 में प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ' नौ रुपये बीस पैसे के लिये ' के दो दशक बाद तीसरे कविता संग्रह के प्रकाशन से स्थापित होता है ।
शैलेंद्र चौहान की कविताओं में मध्यवर्गीय उदासी या सब कुछ न पाने की निराशा न होकर अपने समय के सच को पहचानने की जिद है और उसे व्यक्त करने की बेचैनी है । मैं नहीं कहता कि यह जिद और बेचैनी शैलेंद्र चौहान को जीवन में क्या देगी लेकिन यह तो तय है कि अच्छे कवि के रूप में उनकी पहचान को बढ़ायेगी । इसलिये वे निर्द्वंद्व होकर कहते हैं ' अपनी छोटी दुनिया और /छोटी-छोटी बातें /मुझे प्रिय हैं बहुत /करना चाहता हूं /छोटा-सा कोई काम । कुछ ऐसा कि /एक छोटा बच्चा /हंस सके /मारते हुये किलकारी । एक बूढ़ी औरत/कर सके बातें सहज /किसी दूसरे व्यक्ति से /बीते हुये जीवन की । मैं प्यार करना चाहता हूं /खेतों , खलिहानों /उनके रखवालों को । एक औरत का /जिसकी आंखों में तिरती नमी /मेरे माथे का फाहा बन सके । मैं प्यार करना चाहता हूं तुम्हें /ताकि तुम /इस छोटी दुनिया के लोगों से /आंख मिलाने के /काबिल बन सको । ' यह छोटी दुनिया किन लोगों की है कहने की जरूरत नहीं । पर कवि बार-बार इन्हीं लोगों की दुनिया में रहना चाहता है , उनके दुख-दर्दों के साथ आत्मीय रिश्ता बनाकर उन्हें व्यक्त करना चाहता है और चाहता है कि ऐसे लोगों की दुनिया चमत्कार और चकाचौध में अंधे हो रहे तथाकथित लोगों से आंख मिलाने की हिम्मत कर सके । कविता हिम्मत दिलाने का काम करती है इसलिये कवि यह चाहता है । जो लोग कविता की ताकत और उसकी अभिव्यक्ति की मार से मुंह मोड़े हुये हैं , उन्हें कविता में छुपी इस ताकत को पहचानना चाहिये । मैं फिर जोर देकर कहना चाहता हूं कि यह ताकत दुहरे जीवन से नहीं आती , कविता की पंक्तियां केवल लेखनी से नहीं फूटतीं बल्कि वे निजी जीवन के संघर्षों और ईमानदार प्रतिबद्धता से निकलती हैं । ऐसा जीवन चुनौतियों भरा है , इसके लिये खोना अधिक पड़ता है । विरले ही कवि ऐसा जीवन जीते हैं - निराला और मुक्तिबोध इसलिये बड़े हैं कि उनके यहां जीवन का ताप और संघर्ष है , ऐसी दुनिया का वरण है जिसमें धूप अधिक और छांव बहुत बहुत कम है । पर दिक्कत यह है कि हम उदाहरण तो ऐसे बड़े कवियों के देते हैं और जीवन में आचरण उनके विपरीत करते हैं । ऐसी स्थिति में कविता कहीं छूट जाती है । शैलेंद्र चौहान के यहां स्थिति दो टूक साफ है इसलिये वे कहते हैं ' त्रासदी है मात्र इतनी /सोचता और समझता हूं मैं /अभिव्यक्त करता भाव निज / सुख-दुख और यथास्थिति के /पहचानता हूं , हो रहा भेद /आदमी का आदमी के साथ /प्रतिवाद करना चाहता हूं /अन्याय और अत्याचार का । किंतु व्यवस्था /देखना चाहती /मुझे मूक और निश्चेष्ट । नहीं हो सका पत्थर मैं /बावजूद , चौतरफा दबावों के /तथाकथित इस विकास-युग में । '
शैलेंद्र चौहान की यह त्रासदी नहीं है बल्कि आत्मविश्वास है । उनके जीवन में कोई खोट नहीं है , द्वैत नहीं है इसलिये वे अपनी बात साफ-साफ कहते हैं । वे सोचते हैं , विचारते हैं इसलिये उनकी कविता में इतनी ताकत है । वरना कवियों के पास अब कहने को बचा ही क्या है ? वे अपनी सीमित और सुरक्षित दुनिया में मस्त हैं और दिखावे के लिये शब्दों की बाजीगरी कर रहे हैं । जुलाई , 2007 के कथादेश में जानी-मानी नाट्यकलाकार असीमा भट्ट की आत्मकथा के दुख भरे हिस्से छपे हैं , उन्हें पढ़कर अपार दुख , घृणा और लज्जा आती है । एक क्रांतिकारी बाप की कलाकार बेटी ने जब कवि आलोक धन्वा से उन्हीं की इच्छा रखते हुये शादी की तो उन्हें वे दिन देखने पड़े जो एक सामंती परिवार में एक स्त्री को देखने पड़ते हैं । हमारे कवियों का यह सामंतवाद इसलिये और त्रासद है कि वे अपने को प्रगतिशील कहते हैं और 'ब्रूनो की बेटियां' जैसी कविता लिखते हैं । मैं सच कहता हूं कि असीमा भट्ट की पीड़ा का यदि शतांश भी सही है तो यह हमारे जैसे सोचने-विचारने वाले लोगों के लिये शर्म की बात है । ऐसे आलोक धन्वा की कविताएं झूठी हैं और पाखंड हैं । शैलेंद्र चौहान की कविता मुझे इस प्रसंग में और बड़ी नजर आती है क्योंकि मैं उन्हें मुद्दत से जानता हूं ।
एक कवि को अपने समय और अपने इर्दगिर्द का ध्यान रखना चाहिये , उन परिस्थितियों की बारीक जांच करनी चाहिये जिनकी वजह से अमानवीय स्थितियां बन रही हैं । वह केवल अपने लिये ही कविता नहीं कर रहा बल्कि अपने समय और समाज को भी रूपायित कर रहा है । जिन लोगों को यह गलतफहमी है या गलतफहमी बनाये रखना चाहते हैं कि कविता स्वांत: सुखाय होती है , उन्हें तुलसीदास की प्रसिद्ध कृति रामचरितमानस के बालकांड और उत्तरकांड को अवश्य पढ़ना चाहिये कि तुलसी बाबा कैसे अपने समय के निर्गुणियों और शासन व्यवस्था पर बरसते हैं । इतने शांत और संत तुलसी बाबा कविता की ताकत पहचानते थे , इसलिये उन्होंने उन प्रवृत्तियों का खंडन किया है , उन्हें खारिज किया है जो मनुष्य के विरोध में जा रही थीं । हमारे समय के कवियों को भी इस आरोप के बावजूद कि कविता नारा नहीं होती , कविता सीधे-सीधे बात करने का माध्यम नहीं हो सकती , दो टूक शब्दों में मनुष्य विरोधी ताकतों का पर्दाफाश करना चाहिये । यदि वे ऐसा नहीं करते तो फिर क्यों कविता लिख रहे हैं ? शिल्प , भाषा और अलंकार के लिये तो हमारे पास रीतिकाल की प्रचुर धरोहर है ही । शैलेंद्र चौहान खुलकर चुनौतियों को स्वीकार करते हैं । अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में उनकी दो कविताएं इसी संग्रह में ध्यान देने योग्य है । मुझे याद है कि कई साल पहले 'उद्भावना' ने पाकिस्तान की कविता में अमेरिका विरोधी स्वरों पर एक अंक केंद्रित किया था तब मुझे यह देखकर प्रसन्नता ओर आश्चर्य दोनों हुये थे कि जिस उर्दू भाषा को हिंदी के अधिकांश पाठक शेरो शायरी और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं को व्यक्त करने वाली मानते हैं , उसमें अपने देश के कट्टर दुश्मन और विश्व में साम्राज्यवाद तथा आतंकवाद को फैलाने वाले अमेरिका और उसकी नीतियों का इतना पुरजोर और तीखा विरोध है । दरअसल , हुआ यह कि राजनेताओं पर व्यंग्य करने और हंसी मजाक का माहौल बनाने के लिये मंच की फूहड़ कविता , पुरस्कार पाने और लाभ पाने के लिये कोमलकांत पदावलीयुक्त कविता और जनता का दुख दर्द और आदमी को बचाये रखने के लिये विचारप्रधान कविता । इस तरह तीन खांचों में कविता को बांटकर ऊपरवाले दो लाभ कमा रहे हैं और जनता से बचने को कविता की पवित्रता को बचाये रखने का स्वांग कर रहे हैं । ऐसे स्वांगप्रिय कवि हर युग में होते आये हैं लेकिन उनकी कविता वहीं तक सीमित रहती है , आगे जाने का रास्ता वे कवि स्वयं बंद कर गये थे ।
शैलेंद्र चौहान अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों से बखूबी परिचित हैं , वे यह मानते हैं कि एक जमाने तक साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने वाला इंग्लेंड अब अमेरिका के साथ होकर या उसका पिछलग्गू बनकर दुनिया को आर्थिक रूप से गुलाम बना रहा है । यह गुलामी किसी दूसरे देश पर राज करने से अधिक घातक है । अब गुलामी ऊपर से नहीं दिखती बल्कि उसे मानसिकता के रूप में परिवर्तित किया जा रहा है जिससे उसका अस्तित्व लंबे समय तक बना रह सके । शैलेंद्र चौहान लिखते हैं ' दुनिया का सबसे बड़ा उस्तरेबाज/सफाचट दाढ़ी-मूंछ और /झक्क उजले इस्त्री किये कपड़ों में /बैठा था व्हाइट हाउस में /तबला बजा रहा था वह अपनी उंगली से /चिकनी सफाचट खोपड़ियों पर / काले मनुष्यों की । ... कम्प्यूटरीकृत सेलून में /की-बोर्ड पर चलाते हुये उंगलियां / अनन्य भारतीय सुंदरियां /हो सकती होंगी जो /प्रबल दावेदार / मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स की /सौजन्य से मल्टीनेशनल कंपनियों के । सैट कर रही होंगी विभिन्न भड़कीले / हेअर-स्टायल हॉलीवुड सितारों की तरह / निश्चित ही लिखी जा सकेगी वहां / एक बेहतरीन और मादक कविता । अनगिनत किस्में पराभव की / रूप - रंग , सुख -'सुविधाएं , कैरियर , पुरस्कार , प्रोत्साहन / याचनाएं घुटनेटेक सहाय की ।' तथा आगे लिखते हैं ' जॉर्ज बुश और लादेन / दो चेहरे हैं एक व्यक्ति के'
आजकल सूचना तंत्र एक भयावह रूप में स्थापित हो रहा है । उसने बड़ी चीजों से , बड़े संघर्षों से तथा बड़ी समस्याओं से किनारा कर प्रेम , स्त्री पुरुष सम्बन्धों के घिनौने रूप , बलात्कार तथा चिकनी चुपड़ी दुनिया के अंतरंग और लुभावने दृश्यों को समाचार बनाकर प्रस्तुत करने का बीड़ा उठा रखा है ताकि लोग अपनी समस्याओं की बातें न करें । शैलेंद्र चौहान के कवि की नजर उस चालाकी पर है इसलिये वे लिखते हैं ' तुम्हें क्या पता / समस्याओं की छोटी-छोटी /हैं कितनी शक्लें / चप्पे-चप्पे पर कितने अभाव / कितनी बदहाली / सूचना अब पूंजी के प्रभाव से झरती है /पूंजी पर आकर ही / खत्म होती है । ' पूंजी का यह महात्म्य आम आदमी को दिखाई नहीं दे रहा उसे तो वे खबरें दिखाई दे रही हैं जो एक षडयंत्र के तहत दिखाई जा रही हैं लेकिन कवि उन्हें देख रहा है और दिखा भी रहा है ।
शैलेंद्र चौहान स्त्रियों की स्वतंत्रता , पुरुषों की सामंती मानसिकता तथा घर परिवार की कविताएं भी लिखते हैं । मां और पत्नी को वे कविताओं में भी नहीं भूले हैं । कई बार बड़ी बड़ी बातों के चक्कर में घर परिवार छूट जाता है । लेकिन शैलेंद्र चौहान के यहां मां पर लंबी कविता है और पत्नी पर दो कविताएं । एक कविता है 'अस्मिता ' जिसमें वे पत्नी के सपनों के विस्तार को देखते हैं ' आंगन में खड़ी पत्नी /जिसके सपने दूर गगन में /उड़ती चिड़िया की तरह ।' तथा ' हां , मैं तुम पर कविता लिखूंगा / लिखूंगा बीस बरस का / अबूझ इतिहास / अनूठा महाकाव्य / असीम भूगोल और / निर्बाध बहती अजस्त्र / एक सदानीरा नदी की कथा । ... सब कुछ तुम्हारे हाथों का / स्पर्श पाकर /मेरे जीवन-जल में / विलीन हो गया है । ' ये दो आत्मीय कविताएं पत्नी पर , जिसमें शैलेंद्र चौहान अपनी सारी कविताई उड़ेल देते हैं । दरअसल , यह आरोप प्रगतिशीलों पर लगाया जाता है कि वे घर परिवार के लोग नहीं है , वे नहीं जानते कि परिवारों की अस्मिता को कैसे कायम रखा जाता है । ये आरोप कौन लगाते हैं यह हम सभी जानते हैं लेकिन जिन्होंने हमारे कवियों की कविताएं पढ़ी हैं , उन्हें निकट से जाना है वे यह भी जानते हैं कि प्रगतिशीलों के यहां दिखावा नहीं है न जीवन में और न साहित्य में । हमारे बड़े कवि केदारनाथ अग्रवाल ने बुढ़ापे में प्रेम कविताएं अपनी पत्नी के ऊपर लिखीं और हमारे बड़े आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने पत्नी को कितना महत्व दिया इसे कौन नहीं जानता । और कहने वालों को भी हम जानते हैं कि उन्होंने जीवन में कितनी लंपटगिरी की । शैलेंद्र चौहान की पत्नी पर लिखी ये दोनों कविताएं उसी परंपरा को आगे बढ़ाती है
इस संग्रह की शीर्षक कविता है 'ईश्वर की चौखट पर' । इस इस कविता का प्रारंभ है : ' तमाम प्रार्थनाएं / रह गईं अनुत्तरित /जीवन और प्रेम / के लिये / जो की गईं ।' तथा अंत में ' इतिहास में दर्ज हैं /वे सारी कहानियां / जब ईश्वर की /चौखट पर / तोड़ दिया दम / जीवन और प्रेम के लिये / प्रार्थनाएं करते हुये / मनुष्य ने ।' इस पूरी कविता में ईश्वर से जो प्रार्थना है वह केवल जीवन और प्रेम के लिये है बहुत कुछ पाने के लिये , बहुत कुछ सहेजने के लिये बहुत छोटी लेकिन महत्वपूर्ण प्रार्थना है ईश्वर के चौखट पर जो अनुत्तरित है । यह कविता बहुत ऐसा कुछ कह देती है जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। ईश्वर के अस्तित्व और उसकी प्रार्थना में रात दिन खपते लोगों को इस कविता को अवश्य पढ़ना चाहिये । यह कविता ईश्वर और उसकी प्रार्थना के रहस्य को बताती है एक आदमी की आवाज में । यह आवाज करोड़ों रुपये देने वाले मीडिया के बनाये शताब्दी के महानायक अमिताभ बच्चन की नहीं है बल्कि उसके विरोध में है । ऐसी कविताएं प्रार्थनाओं के विरोध में एक चीख के रूप में खड़ी हैं इसलिये यह कविता बड़ी हैं।
ढेरों कविताओं के इस दौर में, ढेरों कवियों की इस जमात में किसी भी कवि के लिये पहचान बना पाना कठिन है लेकिन शैलेंद्र चौहान अपनी पहचान बना पाये हैं क्योंकि उनकी कविता प्रचलित मानदंडों के विरोध में खड़ी हैं । मैं मानकर चलता हूं कि किसी की नकल करके कोई बड़ा नहीं बनता बड़ा बनता है अपने अनुभवों और जीवन संघर्षों को अपनी तरह से रूपायित करके । शैलेंद्र चौहान ने अपनी कविताओं में यही किया है फिर उनकी कविता क्यों नहीं बड़ी बनेगी । 'ईश्वर की चौखट पर' मैं यही कहना चाहता हूं लेकिन प्रार्थना के स्वर में नहीं ।