शैलेश मटियानी: संघर्ष से सृजन तक / पूनम चौधरी

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शैलेश मटियानी का जीवन केवल एक साहित्यिक हस्ताक्षर नहीं, अपितु एक जीवंत यात्रा है—जहाँ अनुभवों की कठोरता, मानवीय पीड़ा और अटूट आत्मविश्वास का अद्भुत संगम मिलता है। उनकी लेखनी संवेदना की भाषा में बहती ऐसी धारा है, जिसमें पाठक को अपनी अस्मिता और सामाजिक विषमताओं की गहरी अनुभूति होती है। मटियानी ने जीवन को कभी छुपाया नहीं; उन्होंने उसे योजनाबद्ध नहीं, अनुभव-समृद्ध दृष्टिकोण से देखा और जिया। उनके लिए जीवन और लेखन एक-दूसरे के पूरक थे। उन्होंने जैसे जिया, वैसा ही लिखा—बिना बनावट, बिना दिखावे के।

हिंदी साहित्य में शैलेश मटियानी एक ऐसे रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए, जिनकी संवेदनशीलता, स्पष्टवादिता और निर्भीकता उन्हें अपने समकालीनों से कहीं आगे खड़ा करती है। वे न केवल प्रेमचंद की परंपरा के उत्तराधिकारी माने जाते हैं, बल्कि कई मायनों में उस परंपरा को अपनी दृष्टि से समृद्ध भी करते हैं। उनका जीवन संघर्षों की प्रयोगशाला था, और साहित्य उस संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़।

14 अक्टूबर 1931 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के बरेछीना गांव में जन्मे रमेश सिंह मटियानी ने आगे चलकर 'शैलेश मटियानी' के नाम से साहित्य में विशिष्ट पहचान बनाई। बाल्यावस्था से ही उनका जीवन अभावों, असमय माता-पिता के निधन, आर्थिक संकट और सामाजिक उपेक्षा से घिरा रहा। इन विषम परिस्थितियों में एकमात्र संबल थीं उनकी दादी—जिनकी लोककथाओं ने बालक शैलेश के भीतर कल्पना और संवेदना का बीज बोया। वे स्वयं स्वीकार करते हैं—“मेरी दादी ने ही मुझे लेखक बनाया।” दादी की कहानियाँ ही उनकी रचनाशीलता की नींव बनीं। यही मौखिक परंपरा आगे चलकर उनकी कहानियों में लोकजीवन की आत्मा बनकर उभरी।

हाईस्कूल से आगे शिक्षा प्राप्त न कर सकने वाले मटियानी ने आत्मपाठ के माध्यम से ज्ञान की विस्तृत दुनिया रची। उन्होंने जीवन के अनुभवों को ही अपनी पाठशाला बनाया। उनकी रचनाएँ इसलिए प्रभावशाली बनती हैं क्योंकि वे यथार्थ से सीधे जुड़ी होती हैं—जीवन से गहराई से अर्जित की हुई।

मुंबई प्रवास ने उनके साहित्य को नई दिशा दी। वहाँ उन्होंने होटलों में काम किया, फुटपाथ पर रातें बिताईं, किताबों की दुकानों में नौकरी की। इस दौरान उन्होंने समाज के उस वर्ग को निकट से देखा, जिसे साहित्य में प्रायः अनदेखा किया जाता था। उनकी कहानियाँ ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’, ‘कबूतरख़ाना’ जैसे संग्रह इन्हीं अनुभवों का साक्षात चित्रण हैं—जहाँ झुग्गियों की सड़ांध के बीच जीते लोग अपने स्वाभिमान को थामे हुए हैं।

मटियानी के पात्र गढ़े हुए नहीं लगते, वे हमारे आसपास के जीवंत लोग हैं—‘गफूरन’, ‘रमकली’, ‘इब्बू मलंग’ जैसे पात्रों में समाज के वंचित, उपेक्षित, मेहनतकश जन की सच्ची प्रतिछाया मिलती है। वे पीड़ा को केवल चित्रित नहीं करते, बल्कि उसे गरिमा प्रदान करते हैं। यही विशेषता उनकी लेखनी को अद्वितीय बनाती है।

शैलेश मटियानी ने प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को अपनाया, लेकिन उसे अपनी विशिष्ट चेतना के साथ आगे बढ़ाया। वे जनभाषा के लेखक थे—उनकी भाषा में गांव की मिट्टी की खुशबू, स्त्री की चुप्पी, मजदूर की थकान, और बच्चे की भूख महसूस की जा सकती है। उन्होंने साहित्य को केवल बौद्धिक वर्ग की जागीर न रहने देकर जनमानस की संवेदना से जोड़ा।

उनकी कहानियाँ—‘इब्बू मलंग’, ‘हारा हुआ’, ‘सफ़र पर जाने से पहले’, ‘सुहागिन’—सामाजिक यथार्थ का गंभीर दस्तावेज़ हैं। ये कहानियाँ किसी आंदोलन के तहत नहीं लिखी गईं, बल्कि एक सजग आत्मा की पुकार हैं जो संवेदनशील हृदय से निकलती है।

उनके उपन्यास—‘रामकली’, ‘गोपली’, ‘मुखसरोवर के हंस’, ‘गफूरन’ आदि—भी इसी दृष्टिकोण के वाहक हैं। मटियानी पात्र नहीं गढ़ते, वे उन्हें साँस देते हैं। उनकी हर रचना समाज के किसी उपेक्षित कोने की व्यथा को शब्द देती है।

‘विकल्प’ और ‘जनपक्ष’ जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने साहित्य को दिशा दी। वे साहित्य को केवल पुरस्कारों से नहीं, सामाजिक ज़िम्मेदारी से जोड़ते थे। यही कारण है कि उन्हें साहित्यिक राजनीति में उपेक्षा भी सहनी पड़ी, लेकिन पाठकों से उन्हें भरपूर स्नेह मिला।

उनके लिखे पत्र मित्रों, नवलेखकों और चिंतकों के नाम केवल संवाद नहीं, बल्कि साहित्यिक चिंतन और आत्मसम्मान की स्पष्ट मिसाल हैं। वे समझौतावादी दृष्टिकोण के विरोधी थे। उनकी आत्मकथा ‘पर्वत से सागर तक’ एक लेखक के जीवन की नहीं, बल्कि संघर्ष, संवेदना और आत्मनिरीक्षण की गाथा है। उसमें आत्ममुग्धता नहीं, बल्कि आत्मस्वीकार है।

‘अपनी अपनी परंपरा’, ‘सिंधु’, ‘हाथी और चींटी की लड़ाई’ जैसी बाल कहानियों में मटियानी ने बच्चों की संवेदनाओं को गंभीरता से लिया। उन्होंने बच्चों को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सोचने, प्रश्न करने और जागरूक बनने की दृष्टि दी।

शैलेश मटियानी की रचनाएँ केवल उनके समय की नहीं थीं, वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। उन्होंने एक ऐसे साहित्य की रचना की जो व्यक्ति को समाज से जोड़ता है, उसे उसके अस्तित्व का बोध कराता है और उसके भीतर नई चेतना जगाता है।

24 अप्रैल 2001 को उनके निधन के साथ हिंदी साहित्य ने केवल एक लेखक नहीं खोया, बल्कि उस चेतना को खोया जो हमेशा हाशिए के लोगों के पक्ष में खड़ी रही। उत्तराखंड सरकार द्वारा स्थापित ‘शैलेश मटियानी स्मृति कथा सम्मान’ इस बात का प्रमाण है कि मटियानी केवल लेखक नहीं, साहित्यिक चेतना के प्रतीक थे।

आज शैलेश मटियानी की रचनाएँ विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं, शोध का विषय हैं, और सबसे महत्वपूर्ण—पाठकों के हृदय में जीवित हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि सच्चा साहित्य वही है जो समाज को संवेदना, न्याय और करुणा से जोड़ता है।

उन्होंने एक बार कहा था—"मैं जब लिखता हूँ, तो जीता हूँ।” और निःसंदेह वे आज भी जीवित हैं—हर शब्द, हर कथा और हर पीड़ा में।

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