शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में दलित संदर्भ / जगत सिंह बिष्ट
समीक्षा लेखक: डॉ० जगत सिंह बिष्ट
समकालीन हिंदी कहानी साहित्य में शैलेश मटियानी एक महत्त्वपूर्ण नाम है। हिंदी कहानी साहित्य के कथा सम्राट प्रेमचंद के बाद सर्वाधिक कहानी रचनाएँ शैलेश ने ही दी है। इनके समय-समय पर करीब ३० कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए थे। अब शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ, उनके पुत्र राकेश मटियानी के संपादकत्व में प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद से पाँच खंडों में प्रकाशित हो चुकी है जिसमें शैलेश मटियानी की करीब २५० कहानियाँ संगृहीत है।
शैलेश मटियानी का कहानी साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है क्योंकि इनके कहानी साहित्य के वृत के अंतर्गत विविध क्षेत्रों, वर्गों और संप्रदायों संबद्ध जीवन संदर्भों का चित्राण हुआ है किंतु इनके कहानी साहित्य में भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय जीवन संदर्भों का सर्वाधिक निरूपण हुआ है। वस्तुतः शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित यह निम्न वर्ग कुमाऊँ के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध है। किंतु इनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित, पीड़ित, शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग, संप्रदाय से संबद्ध है अपने प्रकृत रूप में दिखाई देता है। इसका कारण शैलेश मटियानी की अत्यंत संवेदनशील, उस अंतर्दृष्टि को माना जा सकता है जिसने उन्हें अपनी भोगी एवं देखी चीजों को यथार्थ रूप में पकड़ पाने की अद्भुत क्षमता दी है। यही कारण है कि शैलेश मटियानी कुमाऊँ अंचल से संबद्ध कहानीकार होते हुए भी जब वे प्यास, अहिंसा, बिद्दू अंकल, भय जैसी नगरीय जीवन से संबद्ध कहानियाँ लिखते हैं तो वे भी कुमाऊँ अंचल से संबद्ध कपिला, नाबालिग, ब्राह्मण, खरबूजा, अर्द्धांगिनी जैसी कहानियों की भाँति अत्यंत गहरे प्रकृत रूप में दिखाई देती है। इन कहानियों में किसी भी प्रकार का बनावटीपन एवं कृत्रिमता नहीं दीखती। कहना यह है कि हिंदी कहानी साहित्य में प्रेमचंद के बाद ऐसा कोई कहानीकार नहीं दिखाई देता जिसमें शैलेश मटियानी के समान विविध वर्गों, स्थानों और धर्मों से संबद्ध जीवन को, उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने की दक्षता हो। शैलेश विविध परिवेश के भीतर से अपनी कहानियों के कथ्य का चयन करते हैं उसके अनुरूप पात्रों के चयन से लेकर उनके मासिक स्तरों का मार्मिक उद्घाटन करते हैं। उससे वे आसपास को ठीक-ठाक जाँचने-परखने की अद्भुत अंतर्दृष्टि का परिचय देते हैं।
शैलेश मटियानी ने दलित जीवन संदर्भों पर पर्याप्त कहानियाँ लिखी हैं उन कहानियों में अहिंसा, जुलूस, हारा हुआ, संगीत भरी संध्या, माँ तुम आओ, अलाप, लाटी, भँवरे की जात, आंधी से आंधी तक, परिवर्तन, आक्रोश, भय, आवरण, दो दुखों का एक सुख, चुनाव, प्रेतमुक्ति, चिट्ठी के चार अक्षर, वृत्ति, सतजुगिया, गोपुली गफूरन, गृहस्थी, इब्बू मलंग, प्यास, शरण्य की ओर आदि कहानियाँ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।
इन कहानियों में दलित वर्ग से संबंधित चरित्र मुख्यतः तीन रूपों में चित्रित हुए हैं।
पहला-वह जो भारतीय समाज व्यवस्था की अमानवीयता से लाचार होकर समझौता करता दिखाई देता है।
दूसरा-वह जो समाज व्यवस्था के प्रति आक्रोश तो व्यक्त करता है किंतु उसका आक्रोश इतना दबा होता है कि अंततः टूटकर समझौते की विवशता को झेलता है।
तीसरा-वह जो अपनी मान-मर्यादा एवं हितों के लिए समाज व्यवस्था से सीधे टकराता है। अतः कहने में संकोच नहीं है कि शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित दलित सरोकार अपने यथार्थ रूप में व्यक्त हुए हैं जिसमें समकालीन भारतीय समाज में आए बदलाव के स्पष्ट स्वर हैं।
इनकी अहिंसा कहानी का चरित्र जगेशर दलित वर्ग से संबद्ध है वह शासकीय व्यवस्था से सर्वाधिक संत्रास्त है। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद अपनी पत्नी के उपचार के लिए धन एकत्रिात करता है किंतु सरकारी अस्पतालों के कार्यरत कर्मचारियों एवं डॉक्टरों की अमानवीयता एवं भ्रष्ट आचरण के कारण वह ऑपरेशन से पूर्व ही दम तोड़ती चित्रित हुई है। वस्तुतः इस कहानी में जहाँ एक ओर दलित वर्ग की भारतीय समाज में प्रस्थिति का यथार्थ व्यक्त हुआ है वहीं इस कहानी का दलित चरित्र दलित चेतना से युक्त चित्रित हुआ है इसीलिए वह विद्रोह की आग में झुलसता तो दिखाई देता ही है इसके अतिरिक्त वह प्रतिशोध से भरकर डॉक्टर की हत्या करता भी चित्रित हुआ है। इनकी जुलूस कहानी में भी चित्रित दलित चरित्र वर्तमान भारत की घिनौनी राजनीति से यंत्रणा पाते चित्रित हुए हैं। इस कहानी की दलित नारी चरित्र बुधा राम की विधवा माँ सर्वाधिक कष्ट पाती है क्योंकि राजनीति प्रेरित पुलिस तंत्र के द्वारा महालक्ष्मी के दिन जुवारियों की जो धरपकड़ होती है उसमें उसका बेटा भी पुलिस द्वारा गिरफ्तार होता है। कहानीकार ने उसे अनेक प्रकार की आशंकाओं से ग्रस्त होते चित्रित किया है
कहीं इसकी सरकारी दफ्तर की चपरासगीरी भी न चली जाए? कहाँ अगले ही महिने गौना सिर पर और कहाँ थुक्का फजीहत आ गयी।१
इनकी हारा हुआ कहानी में भी गैरदलितों की दलितों के प्रति आम धारणा का यथार्थ व्यक्त हुआ है।
किंतु इस कहानी में आम धारणा के विपरीत परिणाम निकलते दिखाई देते हैं। इस कहानी का दलित चरित्र दुखहरन मोची अत्यंत असहाय होते हुए भी गैरदलित चरित्र गंडामल पहलवान के द्वारा विधवा पुत्री कैलासों के प्रति बुरी नजर डालने पर, जिस प्रकार का कथन करता है उससे उसकी दलित चेतना व्यक्त होती है,
कह देना अपने बाप गंडामल पहलवान से, आगे से मेरे घर की तरफ मुँह किया, तो उसकी बेहया आँखों को कटन्नी से बाहर खींचकर बाहर निकाल दूँगा और जबान में ठोक दूँगा जूते की नाल! पता चल जाएगा हराम जादे को कि किसी की बेटी को बुरी नजर से देखना क्या होता है।२
वस्तुतः इस कहानी में कहानीकार ने एक कमजोर, विवश और लाचार दलित के द्वारा फेंकी गई चुनौती से शक्तिशाली गैरदलित के टूटते मनोबल को दर्शाकर महान आदर्श के साथ-साथ सामाजिक परिर्वन का संकेत भी प्रस्तुत किया है।
शैलेश मटियानी की 'संगीत भरी संध्या' कहानी दलित विमर्श से भरी पड़ी है। इस कहानी में दलित चरित्र परंपरावादी और प्रगतिशील दोनों प्रकार के हैं। इस कहानी के रमदिया और गुणवंती दलित चरित्रा परंपरावादी है जो अपने परंपरागत पेशे (नाच-गाना) के प्रति समर्पित दिखाई देते हैं इसीलिए तो इस कहानी का दलित चरित्र रमदिया अपने पेशे से उदासीन भाई सुंदरिया को फटकारता चित्रित हुआ है,
कमअकल साले, जरा अपनी औकात पर रह। जाने कहाँ से स्साला किसी झुटके का पैदा हो गया है। खानदानी होता, तो जरा तबले-सारंगी-हारमोनियम में सुर लगाता। ले मेरा यार कुल्ली-कबड़ियों के जैसे नीच काम करेगा...अरे स्साल, बोझ ढोना, मजदूरी करना क्या कोई हम लोगों का पेशा है?३
इसके विपरीत मोहिनी और सुंदरिया अपने पेशे के प्रति नफरत करते चित्रित हुए हैं। दलित नारी चरित्रा मोहिनी तो अपने पति को परंपरा प्राप्त पेशे से चिपके रहने के लिए फटकारती चित्रित हुई है,
सुंदरिया बेचारे पर क्या बिगड़ रहे हो, भरतार? मैं तो कहती हूँ कि मेरे सुंदरिया भाई जैसे सारे कबीलों में पैदा हो जाएँ, तो जरा हम रंडियों के सुख के दिन देखने को मिलें। यह स्साला अठन्नी-दुअन्नी के भाव से अपने अंग हिलाने का पलीत करम तो छूटे... सुंदरिया का सुर तबले-सारंगी में नहीं लगता है, इसीलिए इस छोरे को छाती से लगाकर रख रही हूँ कि किसी अच्छी जाति-औकात का होगा, तो इस पलीत पेशे को त्यागकर, कहीं इज्जत की रोटी कमा खायेगा।४
इस कहानी की मोहिनी एवं सुंदरिया दलित चरित्रों की दलित चेतना अकारण नहीं है बल्कि गैरदलितों से मिलने वाली उपेक्षा एवं अमानवीय व्यवहार से मुक्ति की छटपटाहट है। इनकी 'माँ तुम, आओ' कहानी में भी पर्याप्त दलित संदर्भ है।
इस कहानी में गैरदलितों की अमानवीयता और दलित वर्ग से संबद्ध चरित्रों को दलित होने के बोध के स्तरों से गुजरते चित्रित किया गया है। इस कहानी के दलित वर्ग से संबद्ध बच्चू बाल चरित्र और बड़ी माँ नारी चरित्र को गैर दलित चरित्र माधो काका दलित होने के त्रासद बोध के धरातल पर ले जाता चित्रित हुआ है। इसके अतिरिक्त, इस कहानी के दलित चरित्रा दलित होने के स्तरों से गुजरते हुए अपार यंत्रणा पाते दीखते हैं इसीलिए तो इस कहानी का बाल चरित्र बच्चू गैरदलित चरित्रा ठाकुर माधो काका की उपेक्षा से दलित होने के आत्मबोध एवं यंत्रणा को व्यक्त करता दिखाई देता है,
अच्छा बड़ी माँ, एक बात बताओ। माधो काका हरिजन का बच्चा कहते हैं, तो मुझे बहुत बुरा लगता है - लेकिन तुम डूम भी कहती हो तो इतना अच्छा क्यों?५
इसके अलावा, इस कहानी का गैरदलित चरित्र, दलित बाल चरित्र के पिता पुन्नी ठाकुर की आर्थिक विवशता का फायदा उठाकर, अपनी वचन बद्धता के कारण दलित परिवार के भीतर संघर्ष उत्पन्न करता है किंतु दलित बाल चरित्रों की सोच-समझ के कारण परिवार टूटने से बच जाता है।
शैलेश की अलाप कहानी में दलित चरित्र डिगर राम के जीवन की विविध प्रकार के आलाप का कथन हुआ है। एक ऐसा आलाप जिससे आर्थिक रूप से लाचार एक दलित के यथार्थ जीवन की मार्मिक अभिव्यंजना हुई है। इनकी लाटी कहानी में गैरदलितों के द्वारा आर्थिक रूप से विवश दलित नारी चरित्र उत्तमा लाटी के प्रति घोर उपेक्षा का निरूपण हुआ है। अपने प्रेमी डिगरुवा की मृत्यु से अत्यंत आहत होकर विलाप करने पर गैरदलित चरित्र, उसके प्रति सहानुभूति के बजाय संवेदनहीनता का परिचय देते दीखते हैं,
अब संगमरमर की मूरत जैसी खामोश क्यों बैठी है, ससुरी! बोल? अरे राँड! कुछ तो बोल कि अपने खसम के मरने पर तू क्यों ढाई मील तक मुर्दे के पीछे चुडैल जैसी चली आई और क्यों तूने नौटंकी जैसी भीड़ इकट्ठी कर ली।६
वस्तुतः लाटी कहानी में दलित नारी चरित्रा के प्रति, इस प्रकार का कथन कहीं न कहीं भारतीय समाज की संवेदन शून्यता ही व्यक्त करता है जिससे दलित वर्ग ने घोर उपेक्षा पाई है।
शैलेश की परिवर्तन कहानी दलित संदर्भों की दृष्टि से प्रभावशाली है। क्योंकि इस कहानी में दलित जीवन से संबद्ध वे सारे प्रसंग हैं जिससे दलित विमर्श किया जा सकता है। देवराम और जसुली परिवर्तन कहानी के दलित चरित्र हैं ये दलित चरित्र गैरदलितों की उपेक्षा एवं अमानवीयता से एक साथ संत्रस्त और आक्रोशित हैं। कहना यह है कि इस कहानी में वर्षों से पीड़ित दलित वर्ग में गैरदलितों के आतंक से मुक्ति की छटपटाहट दिखाई देती है इसीलिए तो इस कहानी का दलित चरित्र देवराम अपनी बिरादरी के सामाजिक उत्थान के लिए चिंताशील दिखाई देता है
लगभग चालीस-पैंतालीस वर्षों से इसी डुमौड़िया विमलकोट की धरती से लगा हुआ देवराम कभी-कभी बहुत दुखी और कुंठित हो उठता है कि ठाकुरों और ब्राह्मणों की तुलना में बहुत ही कठोर परिश्रम करने पर भी, उसकी जाति बिरादरी के लोगों को न तो आर्थिक सुविधाएँ हो पाती हैं और न सामाजिक क्षेत्र में ही उन लोगों को आदर मिल पाता है।७
कुल मिलाकर यह कहानी दलित चेतना की वाहक है जिसमें समकालीन भारतीय समाज में व्यक्ति स्वतंत्रता की अनुगूँज है जो शैलेश के समकालीन बोध को प्रदर्शित करती है। इनकी भँवरे की जात और गृहस्थी कहानी एक जैसी हैं। इन दोनों कहानियों में कुमाऊँ अंचल की नाच-गाकर आजीविका चलाने वाली मिरासी दलित जाति से संबद्ध नारी जीवन का मार्मिक चित्रण हुआ है। इन दोनों कहानियों में चित्रित दलित नारी चरित्र मुख्य रूप से आर्थिक कठिनाइयों से संत्रस्त चित्रित हुई हैं और इस कहानी की नारी चरित्र गैरदलितों से भी कम नहीं छली जाती है। फिर भी ये कहानियाँ अलग-अलग प्रभाव छोड़ती दिखाई देती हैं।
यद्यपि इन दोनों कहानियों की नवयुवती दलित चरित्र आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए नए मूल्यों को तलाशती दिखाई देती है किंतु इस तलाश में भँवरे की जात कहानी की दलित चरित्रा कुंतुली स्वयं तलाश बन जाती है क्योंकि सामान्यतः एक दलित नवयुवती का गैर दलित विवाहिता पुरुष के साथ प्रेम प्रसंग का जो हश्र होता है, अंततः वही उसके साथ भी होता है। किंतु प्रेम प्रसंगों में विफलता के बावजूद वह कहानी के अंत में महान् आदर्श स्थापित करती दिखाई देती है वह जब अपनी पुत्री के गैरदलित पिता के पास अपने हक़ के लिए जाती है तो वह उसकी पत्नी से प्रभावित होकर, अपना दावा छोड़ती चित्रित हुई है,
मैं तो नाच-गाकर भी जिन्दगी ठेल लूँगी लेकिन तुम कहाँ तक मायके में पड़ी रहोगी। मैंने अपना दावा छोड़ा।८
इनकी आक्रोश कहानी में भी दलित पड़ोसी के बच्चों के घर में आने-जाने के कारण एक गैर दलित परिवार के भीतर तनाव उत्पन्न होता चित्रित हुआ है क्योंकि गैर दलित परिवार के मुखिया के मन में संदेह है कि
आजकल के लौंडे-लौंडियाओं को अंतर्जातीय शादी-ब्याह करते देर क्या लगती है, भला।९
किंतु जब वह अपने बच्चों को बुलाने पड़ोसी दलित परिवार के घर जाता है तो पड़ोसी कायस्थ परिवार की विधवा नारी चरित्र तारादेवी का देखकर अपना क्रोध भूल जाता है और उसके मन में तारा देवी के प्रति जबरदस्त आकर्षण उत्पन्न होता दिखाई देता है। इतना ही नहीं दलितों की घोर उपेक्षा करने वाला गैर दलित चरित्र कांता बाबू घर लौटते समय न केवल दलित नारी तारादेवी को अपने घर आने का आमंत्रण देता बल्कि दलितों के प्रति अपनी जिस धारणा को व्यक्त करता है, उससे उसकी दलितों के प्रति दोहरी मानसिकता ही व्यक्त होती है,
अच्छा, अब आप कब आयेंगी, हमारे यहाँ? देखिए, हम लोगों से संकोच न रखिएगा। खासतौर पर मैं तो आज के जमाने में कायस्थ - ब्राह्मणों में आदमी में बाँटकर सोचना हीनता समझता हूँ। आप जब भी अकेली होती हैं, चली आया करें। मैं तो काम के दिनो में सवेरे और शाम को घर पर ही हुआ करता हूँ।१०
वस्तुतः आक्रोश कहानी में शैलेश ने गैरदलित पुरुषों की विडम्बनापूर्ण नियति का उद्घाटन किया है जिससे दलित वर्ग की नारियाँ वर्षों से छली आ रही हैं।दलित संदर्भों पर आधारित शैलेश मटियानी की गोपुली गफूरन कहानी सर्वाधिक प्रभावशाली है। वह अद्वितीय सौंदर्य के कारण गैर दलित चरित्रों के हास-परिहास और काम चेष्टाओं का कारण बनती चित्रित हुई है। इस कहानी के गैर दलित चरित्र खीम सिंह, प्रोफेसर तिवारी, भोपाल शा, अदलूमियाँ और किरपाल गुरु सबके-सब, उसके प्रति आकर्षित होते चित्रित हुए हैं। उसके शरीर के स्पर्श सुख के लिए ही, उसे सहयोग देते दिखाई देते हैं,
भोपाल शा की दुकान से गोपुली के मालिक देबराम ने गल्ले की उधारी बाँध रखी थी। किरपाल दत्त पुरोहित अपने जजमानों को ताँबे के कलशे देबराम के ही यहाँ से खरीदने की सलाह देते थे। खीम सिंह होटल वाला गोपुली को गरम-गरम शिकार-भुटुवा हाफ चार्ज लेकर खिलाया करता है। अक्सर ही इन लोगों के आमने-सामने आना पड़ता है और दो-चार ठिठोलियाँ भी सहनी पड़ती है।११
किंतु पति की मृत्यु के बाद सभी गैरदलित चरित्र गोपुली गफूरन के घोर आर्थिक संकट के क्षणों में साथ न देकर अवसरवादिता का परिचय देते हैं,
गोपुली गफूरन हो गयी कि बालकों के भूखे मरने की नौबत आ गयी और भोपाल शा ने उधार देना बंद कर दिया था।...खीम सिंह की नियत नहीं बदली थी, मगर गोश्त की तश्तरियों से बालकों का पालन-पोषण नहीं हो सकता था। किरपाल गुरु मदद करने को तैयार थे, मगर गोपुली को ताँबे के कलशों पर फूल निकालने की कला नहीं आती थी। बिरादरी के लोगों ने ऐसी पीठ फेरी, आसरा देने की जगह ताने देने लगे।१२
कहना यह है कि इस कहानी की दलित चरित्र गोपुली के दलित और उसमें भी दलित नारी होने की दोहरी मार झेलती चित्रित हुई है। अंततः वह आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए अपने धर्म से भिन्न धर्म से संबद्ध अहमद अली से विवाह तो करती है किंतु वहाँ वह अनेक बंदिशों से घिरती अपरिमित कष्ट पाती दिखाई देती है। इसीलिए तो वह कहती है
अपने मजे की बात तुम्हीं लोग जानो री! मुझे तो जो कुछ मजा आना था, पिछले साल तक आ चुका।.... अब सिर्फ सजा बाकी रह गयी है।१३
शैलेश मटियानी की आवरण कहानी की दलित नारी चरित्र रेवती भी गैरदलितों के छल-प्रपंचों का दंश झेलती चित्रित हुई है। वह बाल विधवा है। उसे गाँव का ही गैरदलित चरित्र बहला-फुसलाकर काम वासनाओं का शिकार बनाता है और दलित विधवा के गर्भवती होने पर, उसे अपनाने के बजाए, उसके लिए अनेक प्रकार के संकट उपस्थित करता है। इसके अलावा, उसकी पत्नी दलित नारी चरित्र के प्रति जिस प्रकार का कथन करती है उससे भारतीय समाज में गैर दलितों की दलितों के प्रति अमानवीय धारणा व्यक्त हो जाती है,
साफ पानी में थूकने से कुछ नहीं होता, मगर कीचड़ में पेशाब करने से भी बुरा होता है राँड मेरी लाड़ली सौत बनके, जैसे मेरे खसम के नाम की सरकारी मुहर लगाकर लाई हो। अरे, बिना मालिक के खेत में बीज किसका पड़ा, किसका नहीं!१४
इतना ही नहीं, इस कहानी में दलित नारी चरित्र रेवती ठाकुर हरपाल से छली जाने पर, उसे काश्तकारी से बेदखली की पीड़ा से भी गुजरना पड़ता है। पंचायत बिठाई जाती है किंतु पंच भी ठाकुर हरपाल के पक्ष में निर्णय देते हैं। इस कहानी की दलित नारी चरित्र रेवती तमाम प्रकार के लांछनों और अमानवीयता के बावजूद टूटती नहीं बल्कि पंचों के निर्णय के प्रति विद्रोह करती, अपने स्वाभिमान का परिचय देती है
पंच महाराज लोगों, हंसों की पाँत गू खा गई, मगर कौवे की जात अपना धरम नहीं छोड़ेगी। जिस दगा बाज नामरद ने थूककर चाट लिया, उसकी जमीन में पाँव रखने तो मर जाना अच्छा है।१५
इस कहानी में दलित चेतना के स्वर भी व्यक्त हुए हैं। इसीलिए तो ठाकुर हरपाल के द्वारा दलित रेवती को काश्तकारी से बेदखल किए जाने पर, उसके दलित बिरादर विरोध करते चित्रिात हुए हैं,
अब कोई विलायती वालों का राज नहीं है। जिस जमीन को रेवती बोती-काटती आ रही है, उसे हरपाल नहीं छीन सकता।१६
यद्यपि इस कहानी का गैर दलित चरित्र हरपाल सब कुछ अपने पक्ष में कर लेता है तथापि वह अपराध बोध से भी कम ग्रसित नहीं दिखाई देता है
मगर, बिना देवराम के ही, कुछ कहे उन्हें अनुभव हुआ कि अट्टहास से वो अपने नंगे होते को सिर्फ उतना ही ढँक पा रहे हैं, जितना देवराम अपनी सिमटी हुई लंगोटी से अपनी देह को ढँक पा रहा है।१७
शैलेश मटियानी की हत्यारे कहानी में पर्याप्त दलित संदर्भ है। इस कहानी में दलित चेतना मुखरित तो हुई ही है इसके अतिरिक्त दलितों की भावनाओं को भड़काकर राजनीति करने वाले नेताओं की कुत्सित चेष्टाएँ भी अनावृत्त हुई हैं। इस कहानी के शिवचरण केवट और हरफूल चंद दलित चरित्र अपनी दलित बिरादरी के प्रति पर्याप्त चिंताशील हैं। ये दोनों चरित्र केवटपुरा हरिजन समाज जैसे दलित संगठनों के द्वारा दलित बिरादरी को सामाजिक चेतना की प्रदीप्त प्रेरणा देते चित्रित हुए हैं। दलित चरित्रा हरफूल चंद अपनी बिरादरी को क्रांति का आवाहन करता चित्रित हुआ है,
तो मैं आप लोगों से क्या कह रहा था कि हम हरिजन भाइयों पर जोर-जुल्मों की हुकूमत चलाने के वे नादिरशाही जमाने गुजर चुके, जो हमारे बाप-दादाओं के पीठों पर अपने जालिम निशान छोड़ गए हैं।...अब वक्त आ गया है कि हम हरिजन दुनिया में अपने नामोनिशान छोड़ जाएँगे।१८
इस कहानी का गैर दलित नेता संकटमोचन सिंह दलितों के साथ मिलकर राजनीति करता चित्रित हुआ है। वह दलित शिवचरण केवट को भड़काकर अपनी सीट सुरक्षित करता दिखाई पड़ता है। किंतु उसकी अवसरवादिता तब सामने आती है, जब दलितों के अवैध कब्जों को नगरपालिका के औजारों से लैश दस्ते के आने पर वह घटना स्थल से नदारत होता है इसीलिए दलित चरित्र शिवचरण केवट उसकी धोखाधड़ी का उद्घाटन करता कहता है,
ई ससुर ठाकुर संकटमोचन और ताऊ हरफूल चंद दोनों नदारत हैं। दोनों धोखे बाज हैं।१९
फलतः वह अकेले जूझता अंततः अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है, इसीलिए तो उसकी पत्नी रामरती, अपने पति की मौत का जिम्मेदार गैर दलित नेता संकटमोचन सिंह और हरफूल चंद को मानती है,
हमारे इनके तो सरकार नहीं मारी है, ई राक्षस ससुर ठाकुर संकटमोचन सिंह और तुम्हारे बुढ़ऊ हरफूल चौधरी मरवाय दिए हैं।२०
चिट्ठी के चार अक्षर कहानी की दलित नारी चरित्रा दुर्गा की त्रासदी का मार्मिक चित्रण हुआ है। घर की विवशताओं के कारण, उसे गायों को चराने के लिए वन जाना पड़ता है किंतु उसे वन में ब्राह्मणों एवं ठाकुरों के छोंकरों की छेड़-छाड़ का सामना करना पड़ता है। उसे गैर दलित नव युवक परताप ठाकुर का संरक्षण तो मिलता है किंतु यह संरक्षण, उसके लिए कलंक का कारण बनता है। दोनों के बीच अपार प्रेम होने के बावजूद जातीयता की दीवार, दुर्गा के लिए अपार यंत्रणा का कारण बनता है। फलतः दलित नव युवती दुर्गा के साथ वही होता है जैसा भारतीय समाज में, अपने गैर दलित प्रेमी को अपना सर्वस्य समर्पित करने वाली आम दलित नव युवतियों के साथ होता है। किंतु इस कहानी की दलित चरित्र दुर्गा पर्याप्त प्रगतिशील, साहसी और उदात्त विचार संपन्न चित्रित हुई है इसीलिए तो वह हारती नहीं है। अंततः संघर्ष करती है और अपने प्रेमी की विवशता तथा अपनी नियति से विवश होकर, उसे क्षमा कर उदात्त प्रेम की अभिव्यंजना करती है। इसके अलावा, इस कहानी का गैर दलित ठाकुर परताप भी एक प्रगतिशील चरित्र के रूप में दिखाई देता है। तमाम प्रकार की सामाजिक बाधाओं के बावजूद, वह अपनी प्रेयसी को न अपना पाने के अपराध बोध से संत्रस्त दिखाई देता है और सेना में भर्ती हो जाने के बाद सामाजिक बंदिशों के बावजूद भी अपनी दलित प्रेमिका के प्रति समर्पित चित्रित हुआ है,
सच प्यारी, तेरे साथ विश्वासघात करने का दुख जैसा मुझे सताता रहा है मेरी ही आत्मा जानती है। मगर अब जब मैं घर लौटूँगा, तो तुझे खुले आम अपनी घरवाली के तौर पर कबूलूँगा।२१
दलित चेतना की दृष्टि से शैलेश मटियानी की सतजुगिया सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी में वर्षों से उपेक्षित एवं शोषित दलित वर्ग की नई पीढ़ी में भारतीय अमानवीय समाज व्यवस्था के प्रति खुला विरोध व्यक्त हुआ है। इस कहानी में दलित वर्ग से संबद्ध चरित्र दो पीढ़ियों से संबद्ध है। पुरानी पीढ़ी से संबद्ध चरित्र परंपरा से चिपके और नई पीढ़ी के चरित्र परंपरा के प्रति पर्याप्त विद्रोही हैं। इस कहानी का हरराम पुरानी पीढ़ी और परराम नई पीढ़ी से संबद्ध दलित चरित्र हैं। कहानी का पुरानी पीढ़ी से संबद्ध चरित्र हरराम पुरानी मानसिकता को दर्शाते हुए गैर दलित केशवानंद की मरी हुई भैंस को खींचने के पक्ष में हैं किंतु उसका बेटा परराम भैंस को खींचने के लिए साफ मना करता चित्रित हुआ है। फलतः उन दोनों बाप-बेटे के बीच द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न होती दिखाई देती है। परंपरा के प्रति आग्रही हरराम अपने बेटे के द्वारा भैंस खींचने की मनाही को ब्रह्मदोह२२ मानता है। जबकि उसके बेटे परराम का स्पष्ट मत है,
सभी इस बात से सहमत थे कि जब अपना खून-पसीना निचोड़कर पेट पालते हैं, तो कम से कम इतनी तो आजादी तो होनी चाहिए कि जो काम रुचे करें। भैंसखोर मानकर, देह छूते ही सवर्ण उन्हें दुराते थे। इससे इन सभी को ठेस पहुँचती थी, जिनके हर राम जैसे रूढ़ संस्कार नहीं थे।२३
वस्तुतः इस कहानी में जहाँ एक ओर दलित वर्ग के दो पीढ़ियों के बीच संघर्ष को वाणी तो मिली ही है वहीं कहानीकार की समकालीन बोध दृष्टि भी व्यक्त हुई है। जिससे दलित जीवन संदर्भों के नए युग की अनुगूँज सुनाई देती है। इन्होंने शरण्य की ओर जैसी कहानी भी लिखी हैं जिसकी दलित नारी चरित्र सुख - सुविधाओं की चाह में इधर से उधर भटकती चित्रित हुई है किंतु गैर दलित पुरुषों की अमानवीयता से संत्रस्त होकर अंततः अपने पुराने पति के पास लौटती दिखाई देती है। वस्तुतः इस कहानी में सुख-सुविधाओं के लिए घर-परिवार को छोड़कर दलित नारी की भटकन कुछ और नहीं बल्कि नए मूल्यों की तलाश है किंतु दलित नारी नए मूल्यों के तलाश में असफल होती चित्रिात हुई है।
इन कहानियों के अतिरिक्त शैलेश ने वृत्ति, प्यास, इब्बू मलंग, दो दुखों का एक सुख जैसी कहानियाँ भी लिखी हैं जिनमें दलित चरित्र अपने प्रकृत रूप में दीखते हैं। इन कहानियों में शैलेश मटियानी ने समकालीन राजनीति, प्रशासन तंत्र, सामाजिक उपेक्षा एवं आर्थिक दुर्दशा से संत्रस्त दलित जीवन संदर्भों का मार्मिक और यथार्थ चित्रण किया है।वस्तुतः शैलेश मटियानी का कहानी साहित्य मूलतः भारतीय समाज के पिछड़े, वंचितों और आर्थिक रूप से विपन्न निम्न वर्गीय जीवन से संबद्ध रहा है। इसके अतिरिक्त, इनके कहानी साहित्य में भारतीय समाज के हासिए में रहे वर्षों से उपेक्षित एवं शोषित दलित जीवन संदर्भों का भी पर्याप्त चित्रण हुआ है। इस संबंध में श्री प्रकाश मनु का कथन उचित जान पड़ता है,
दलितों और नीचले वर्ग के लोगों से प्यार करने वाला उनसे बड़ा और कोई लेखक हमारे बीच हुआ ही नहीं। मटियानी का पूरा कथा साहित्य इस बात की गवाही देता है। ...यहाँ प्रेमचंद के बाद शैलेश मटियानी ही सबसे बड़े जनपक्षधर कथाकार साबित होते हैं।२४
इनके कहानी साहित्य में चित्रित दलित वर्ग कुमाऊँ अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध रहा है। उनकी कहानियों में दलित वर्ग कई रूपों में चित्रित हुआ है। इनकी कहानियों में जहाँ एक ओर आर्थिक विपन्नता एवं गैर दलितों से संत्रस्त दलितों का चित्रण हुआ है वही भारतीय समाज व्यवस्था के प्रति विरोध करते दलित भी दिखाई देते हैं।
शैलेश की कहानियों में दलित नारी सर्वाधिक संत्रस्त दीखती है। इनकी कहानियों में जहाँ एक ओर कथा सम्राट प्रेमचंद की घासवाली कहानी की मुलिया और ठाकुर का कुआँ की गंगी जैसी प्रबुद्ध दलित नारी चरित्र हैं वहीं गैर दलितों की काम पिपासा से दंशित एवं कलंक का बोझ ढोती दलित नारी चरित्र भी है। जो तमाम प्रकार की सामाजिक उपेक्षा एवं आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद भी खुशी-खुशी संघर्ष करती चित्रित हुई है। इस दृष्टि से शैलेश की भँवरे की जात, चिट्ठी के चार अक्षर, शरण्य की ओर, और आवरण, कहानियाँ उलेख्य हैं। इसके अलावा शैलेश के कहानी साहित्य में प्रेमचंद की सद्गति कहानी के गोंड जैसे दलित चरित्र भी हैं जो गैर दलितों की अमानवीयता एवं समाज व्यवस्था के संवेदन शून्यता के प्रति गहरा विरोध व्यक्त करते हैं। उनमें परिवर्तन कहानी का देबराम, सतजुगिया का परराम, हत्यारे का शिवचरण केवट आदि महत्त्वपूर्ण है। इनकी कहानियों में चित्रित कतिपय दलित नारी चरित्र तमाम कठिनाइयों के बावजूद महान् आदर्श प्रस्तुत करती दीखती हैं। इनके कहानी साहित्य में प्रायः चित्रित दलित वर्ग से संबद्ध चरित्र तमाम प्रकार की कठिनाइयों के बावजूद भी मानवीय गुणों से युक्त है। इस संबंध में श्री हृदयेश का कथन उद्धृत है -
यों उनके कथा-संसार में ...तुच्छ पेशों को चिपटाए गरीब एवं लाचार पात्र हैं, किंतु वे मानवीय गुणों के मामले में गरीब और तुच्छ नहीं हैं।२५
इसके अलावा शैलेश मटियानी की कहानियों में कतिपय नई पीढ़ी से संबद्ध गैरदलित पुरुष चरित्र दलित वर्ग से संबंध नारियों से संबंध स्थापित करते चित्रित हुए हैं जिससे निश्चित ही समकालीन मूल्य परिवर्तन का संकेत मिलता है। इनके कहानी साहित्य के संबंध में प्रसिद्ध कथाकार पंकज बिष्ट का कथन उचित ही है,
उनका रचना संसार ऐसे पात्रों से भरा है जो शोषित, पीड़ित और समाज के हाशिए में डाल दिए गए लोग हैं।२६
सन्दर्भ सूची
१.शैलेश मटियानी, अहिंसा तथा अन्य कहानियाँ ; साहित्य भंडार ५०, चाहचंद, इलाहाबाद, १९९२, पृ० ११०
२. शैलेश मटियानी, हारा हुआ ; आशु प्रकाशन, इलाहाबाद, १९८५, पृ० १२७
३. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी संपूर्ण कहानियाँ - ४ ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० २६८
४. वही, पृ० २६८
५. वही, पृ० २८२
६. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - २ ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० ३४
७. शैलेश मटियानी, तीसरा सुख ; प्रतिभा प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९२, पृ० ५७
८. शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - २ ; पृ० १०१
९. वही, पृ० १६४
१०. वही, पृ० १६८
११. शैलेश मटियानी, पापमुक्ति तथा अन्य कहानियाँ ; आशु प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९४, पृ० ४९
१२. वही, पृ० ५५
१३. वही, पृ० ५९
१४. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - 1 ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० ३४८
१५. वही, पृ० ३५२
१६. वही, पृ० ३५१
१७. वही, पृ० ३५४
१८. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - ३ ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० १६८
१९. वही, पृ० १७९
२०. वही, पृ० १८०
२१. वही, पृ० १८८
२२. वही, पृ० ४५१
२३. वही, पृ० ४५५
२४. आजकल ; अक्टूबर, २००१
२५. पहाड़ ; २००१, पृ० १९१
२६. आजकल ; अक्टूबर २००१