शोक! शोक!! महाशोक!!! / रामचन्द्र शुक्ल

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आज यह शोक समचार देते चित्त अत्यन्त व्यथित होता है कि गत 28 नवम्बर को इस सभा के पूज्य और बूढ़े सभापति गणित और ज्योतिषशास्त्र के एकमात्र स्तम्भ हिन्दी साहित्य के पूर्ण मर्म्मज्ञ प्राचीन परिपाटी के पंडित होकर भी समयानुकूल संशोधन और उन्नति के पक्षपाती महामहोपाध्या य पंडित सुधाकर द्विवेदीजी ने इस लोक से सहमा सम्बन्ध छोड़ परलोक का मार्ग लिया। इनकी मृत्यु से काशी की पंडित मंडली का एक अमूल्य रत्न ही नहीं खो गया वरन् दु:खिनी हिन्दी का भी एक बड़ा भारी सहारा हट गया।

सुधाकरजी की संस्कृत और गणित की पारदर्शिता की तो चारों ओर धूम है पर हिन्दी के लिए उन्होंने जो जो कार्य किए कदाचित् वे उतने प्रसिध्द न हों। तुलसीदासजी के ग्रन्थों के ये अच्छे ज्ञाता थे। काशी नागरीप्रचारिण् सभा की सहायता से प्रयाग के इंडियन प्रेस ने रामचरितमानस का जो संस्करण छापा था उसके सम्पादन में सुधाकरजी ने बहुत कुछ परिश्रम किया था। तुलसी सतसई पर इन्होंने कुंडिलियाँ भी लिखी हैं तथा विनयपत्रिका का संस्कृत में अनुवाद किया है। मांडा के राजा साहब ने जो रामायण छपवाई है उसमें भी सुधाकरजी ने बड़ा शारीरिक और मानसिक प्रयास किया है। कई वर्ष हुए डॉक्टर ग्रियर्सन ने “इंडियन एंटिक्वेरी” में गोस्वामी तुलसीदास पर एक लेखमाला छपवाई थी। कदाचित् यह कहना अनुचित न होगा कि इसकी सामग्री का बहुत कुछ संग्रह पंडित सुधाकरजी ही के प्रयत्नों से हुआ। एशियाटिक सोसाइटी जायसी की पद्मावत का एक सुन्दर संस्करण निकाल रही है। जिसके कई भाग छप चुके हैं। टीका टिप्पणी के साथ इसको सम्पादन करने का भार सुधाकरजी पर था। तुलसीदास के रामचरितमानस का अनेक अर्थों से युक्त एक पद्यबध्द संस्कृत अनुवाद भी ये “मानस पत्रिका” के नाम से निकालते थे। बस अनुवाद में विचित्रता यह है कि संस्कृत में भी वही छन्द रक्खे गए हैं जो हिन्दी में गोस्वामी तुलसीदासजी ने रक्खे हैं। इनकी सम्पादित दादू दयाल की बानी भी सभा की ग्रन्थमाला में निकल चुकी है। मलिक मुहम्मद जायसी की 'अखरावट' नाम की पुस्तक का भी इन्होंने सम्पादन किया है। इनकी अन्तिम अभिलाषा “विनयपत्रिका” के एक उत्तम टीका टिप्पणी युक्त संरक्षण निकालने की थी। पर खेद है कि हिन्दी के दुर्भाग्य से यह इच्छा उन्हीं के साथ चली गई।

अभी थोड़े दिन की बात है जब काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पहिला अधिवेशन हुआ था। उस समय अनेक हिन्दी प्रेमियों ने उनके दर्शन किए थे और उनकी वक्तृता सुनी थी। सुधाकरजी का विचार था कि प्रयाग विश्वविद्यालय की भिन्न भिन्न परीक्षाओं में हिन्दी के समावेश का उद्योग हो। वे इसके लिए पूरा प्रयत्न करने पर कटिबध्द थे। कदाचित् यह कहना किसी रहस्य को प्रगट करना न होगा कि माननीय पंडित मदनमोहन मालवीय सेंडिकेट में इसका प्रस्ताव करने वाले थे और सुधाकरजी उसके अनुमोदन पर दृढ़ थे पर हिन्दी के दुर्भाग्य से सुधाकर अस्त हो गए और मालवीयजी इस वर्ष युनिवर्सिटी के फेलो न रहे।

अस्तु, काशी नागरीप्रचारिणी सभा को तो सुधाकरजी की मृत्यु से बड़ी हानि पहुँची है। इनके स्थान को पूरा करनेवाला कोई दिखाई नहीं पड़ता। अभी थोड़े दिनों की बात है कि सभा के कार्य विशेष के लिए कुछ पद्य रचना की आवश्यकता हुई। उस समय इस कार्य के योग्य और कोई न देख पड़ा। सुधाकरजी उन दिनों रुग्ण शय्या पर पड़े थे, घोर ज्वर चढ़ा हुआ था। सभा के कार्यकर्ताओं ने उनके पास उपस्थित होकर अपनी कठिनता कह सुनाई। वे इस बात के सुनते ही घोर ज्वर की अवस्था में भी उठ बैठे और उसी समय सभा का कार्य कर दिया। हिन्दी के प्रेमियों! आपने अपना एक अनमोल रत्न खोया। इस सभा को तो वे मानो अनाथ ही कर गए।

ऐसे महानुभाव के जीवन की मुख्य मुख्य घटनाओं को जानने के लिए इस अवसर पर पाठक अवश्य व्याकुल होंगे। अत: हम उसका संक्षिप्त चरित्र 'कोविद रतनमाला' से यहाँ उध्दृत करते हैं।

“बहुत दिन हुए चैनसुख नामक एक सरयूपारी दुबे ब्राह्मण काशी में संस्कृत पढ़ने आए। ये शिवपुर के पास मंडलाई गाँव में एक उपाध्यातय के यहाँ अध्य यन करने लगे। उपाध्याीयजी की कोई संतति न होने के कारण चैनसुखजी उनकी सम्पत्ति के उत्ताराधिकारी हुए। इनसे कई पीढ़ी पीछे शारंगधार और शिवराम दो भाई हुए। शारंगधार ने खजुरी सारनाथ आदि कई गाँवों को जमींदारी लेकर खजुरी में अपना निवास स्थान नियत किया। शिवराज उपाध्या।य के तीन पुत्र हुए जिनमें रामप्रसाद सबसे छोटे थे। उनके समय में केवल खजुरी की जमींदारी हाथ में रह गई थी। रामप्रसाद के पाँच पुत्र हुए जनमें कृपालुदत्ता सबसे छोटे थे। कृपालुदत्ता ज्योतिष विद्या में निपुण हुए और इनके हस्ताक्षर भी अच्छे होते थे। क्वींस कॉलेज के भीतों पर अंकित अक्षर उन्हीं के लिखे हुए हैं। पं. सुधाकरजी इन्हीं कृपालुदत्ता के पुत्र हैं। स्मरण रहे कि पं. कृपालुदत्ता स्वयं भाषाकाव्य के बड़े प्रेमी तथा कवि थे।

“जिस समय सुधाकरजी का जन्म हुआ इनके पिता मिर्जापुर में थे। इनके चाचा दरवाजे पर बैठे थे। डाकिये ने आकर सुधाकर नामक पत्र उनके हाथ में दिया तब तक भीतर से लड़के के जन्म होने की खबर आई। आपने कहा कि इस लड़के का नाम सुधाकर हुआ। इनका जन्म संवत् 1917 चैत्रा शुक्ल चतुर्थी सोमवार को हुआ था। द्विवेदीजी की नौ मांस की अवस्था होते ही इनकी माता का देहान्त हो गया इसलिए इनके लालन पालन का भार इनकी दादी पर पड़ा। इनके पिता घर पर नहीं रहते थे और घर भर का इन पर विशेष प्यार था। इसी से आठ वर्ष की अवस्था तक इनकी शिक्षा की ओर किसी ने कुछ भी ध्या न नहीं दिया। इसके बाद जब इनके बड़े चाचा ने इन्हें पढ़ने को बैठाया तो इन्होंने थोड़े ही समय में बहुत उन्नति कर दिखलाई। यज्ञोपवीत होते ही इनकी धारणा शक्ति ऐसी तीब्र हो गई कि जो पद्य एक बार देखा कंठस्थ हो गया।

“इनके बड़ों ने तो सोचा कि उन्हें कुछ व्याकरण पढ़ाकर कथा पुराण बाँचने योग्य बना दिया जाय पर इनकी तबीयत ज्योतिष शास्त्र में लग गई और केवल लीलावती पढ़ कर ये गणित के बड़े बड़े प्रश्नों को सहज में हल करने लगे। इनकी ऐसी तीव्र बुध्दि देख पं. वापूदेव शास्त्रीछ इनसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने क्वीन्स कॉलेज के प्रिंसिपल ग्रिफिम साहब से इनकी बड़ी प्रशंसा की। इससे इनका उत्साह और भी बढ़ गया। इनके बड़ों ने गणित के विशेष अध्य यन से उन्हें रोकना चाहा पर ये गणित के रंग में ऐसे रंग गए थे कि उस विद्या में पूर्ण पांडित्य प्राप्त किया। यों ही ज्योतिष विषय पर बातें होते होते एक दिन इनका बापूदेव शास्त्रीन से कुछ झगड़ा हो गया जिससे दोनों में कुछ वैमनस्य हो गया।

“पं. सुधाकरजी ज्योतिष के जैसे पंडित हैं सो तो सभी जानते हैं परन्तु अपनी मातृभाषा हिन्दी के भी आप अनन्य प्रेमी और बड़े विद्वान् हैं। आप तुलसीदास, सूरदास, कबीर तथा अन्यान्य भाषा के शिरोमणि कवियों के काव्यों में अच्छा प्रवेश रखते हैं। आप ऐसी सरल हिन्दी के पक्षपाती हैं जो कि सहज ही सर्वसाधारण की समझ में आ सके। आपने सब मिलाकर हिन्दी भाषा में कोई 77 पुस्तकें रची और सम्पादित की हैं। आप बाबू हरिश्चन्द्रजी के प्रिय मित्रों में से हैं।

“सुधाकरजी की रहन सहन सादी, स्वभाव सीधा और चाल सर्वप्रिय है। आपका सिध्दान्त है कि कोई छोटा बड़ा नहीं है। सब एक ही से जन्मते और एक ही से मरते हैं। ईश्वर ने जिसके सिर पर भार रख दिया है उसे अन्त तक निबाह ले जाना ही बड़प्पन है। आप इस समय क्वींस कॉलेज में गणित के प्रोफेसर और नागरीप्रचारिणी सभा के सभापति हैं। आपको विद्वत्ता पर मुग्धा होकर गवर्नमेण्ट ने आपको महामहोपाध्यासय की उपाधि से भूषित किया है। आपकी सुकीर्ति योरप तक फैली हुई है।”

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसम्बर, 1910 ई)