शोभालाल / रूपसिंह चंदेल
मध्यम कद, गहरा सांवला रंग,गठा हुआ शरीर, जो दण्ड-बैठक लगाने वाले व्यक्ति का होता है , और गोल चेहरा. चेहरे पर गंभीरता की चढ़ी पर्त और खोजती आंखें. जब उसने सेक्शन में प्रवेश किया ,उस समय मैं कुछ पढ़ने में तल्लीन था. उन दिनों मैं एम.ए.(हिन्दी) फाइनल का विद्यार्थी था और सीट पर जब काम नहीं होता था विषय की कोई पुस्तक पढ़ने लगता. काम और पढ़ाई....उन दिनों दफ्तर से लेकर हेस्टल तक मेरी यही दिनचर्या थी.
वह प्रमोशन पाकर कानपुर से ट्रांसफर होकर आया था. मैं प्रशासन सेक्शन में था और नए आने वाले कर्मचारी को पहले वहीं रिपोर्ट करना होता था. सेक्शन में रिपोर्ट करने के बाद सेक्शन अफसर के निर्देशानुसार वह किसी सेक्शन में जा बैठा था. दोपहर लंच के बाद वह सकुचाता हुआ मेरे पास आया और अपना परिचय देता हुआ बोला, ‘‘सर, आपके लिए ओ.एन. दीक्षित जी का पत्र है.’’
‘‘ओ.एन. दीक्षित...’’ पत्र लेते हुए मैं बुदबुदाया.
‘‘सर, आर्डनैंस इक्विपमेण्ट फैक्ट्री में....आपके .....’’
उसे आगे बोलने का अवसर न दे मैं बोला, ‘‘समझ गया.....’’ उसे पास बैठने का इशारा करते हुए मैं पत्र पढ़ने लगा. वह बैठा नहीं, पत्र पढ़ता हुआ उत्सुक निगाहों से मुझे देखता रहा. पत्र पढ़कर मैं गंभीर सोच में डूब गया.
‘‘सर, अगर कुछ नहीं हो सकता तब मैं किसी और से बात करूं....शायद....’’
‘‘दो-चार दिन की कोई बात नहीं....तब तक कुछ व्यवस्था हो ही जाएगी.’’
‘‘जी सर.’’ उसके चेहरे पर राहत झलक आयी थी.
‘‘सर, दीक्षित जी आपके बारे में अक्सर बातें करते थे....’’ उसके छोड़े स्थान को भरते हुए मैं बोला,‘‘ वह मेरे गांव के हैं. मेरे बड़े भाई के मित्र ...’’
‘‘जी सर, बता रहे थे. उन्हें पूरा विश्वास था कि आप मेरे लिए कुछ अवश्य करेंगें.’’
‘‘हुंह.’’ मैं पुनः पत्र पढ़ने लगा था.
ओंकार नाथ दीक्षित को गांव में हम छुन्ना भाई साहब के नाम पुकारते थे. उनके पिता गांव नाते मेरे मामा होते थे, क्योंकि मेरा गांव मेरा ननिहाल भी था. उन्होंने लिख था, ‘‘शोभालाल चपरासी से दफ्तरी प्रमोट होकर तुम्हारे कार्यालय में आ रहा है. विश्वास है कि तुम उसके रहने की समस्या के समाधान में उसकी सहायता करोगे.’’
‘‘कितना सामान है आपके पास?’’ मेरी ओर उत्सुक दृष्टि गड़ाए शोभालाल से मैंने पूछा.
‘‘सर एक अटैची और एक बैग.’’
‘‘मेरे साथ चलना. मैं फैक्ट्री होस्टल में रहता हूं. मेरे कमरे में दूसरा बेड खाली है. कुछ दिन गेस्ट के रूप में रह सकते हो. तब तक कुछ व्यवस्था हो ही जाएगी.’’
लेकिन गेस्ट के रूप में रहने आया शाभालाल मेरे साथ एक वर्ष से अधिक दिनों तक रहा बावजूद इसके कि होस्टल में वार्डन की अनुमति के बिना किसी अपरिचित को रखना गैर कानूनी था. वार्डन किसी गेस्ट के लिए सप्ताह-दस दिन से अधिक की अनुमति नहीं दे सकता था. लेकिन शोभालाल ने कुछ इस तरह मुझे प्रभावित किया कि सप्ताह भर बाद मैंने स्वयं उससे कहा, ‘‘जब तक वार्डन आपत्ति नहीं करता...तुम यहीं रहो.’’ एक सप्ताह में ही मैं ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गया था...हालांकि वह कुछ वर्ष उम्र में मुझसे बड़ा था, लेकिन तब तक कानपुर का प्रभाव मुझ पर शेष था जहां आदर में बड़ों को भी ‘तुम’ पुकारने की छूट ले ली जाती हैं.
शोभालाल ने पहले दिन से ही मुझे भोजन बनाने के कार्य से मुक्त कर दिया. एक सप्ताह में वह मुझे ‘सर’ के बजाय ‘गुरू’ कहने लगा था. यह शब्द उस दौर में कानपुर के लोगों का तकिया कलाम-सा होता था. आज भी कुछ लोगों की जुबान चढ़ा हुआ है.
‘‘आप पढ़ाई पर ध्यान दें....’’ शोभालाल बोला, ‘‘मुझे तो कुछ करना नहीं है. आठवीं पास हूं ...दस साल की नौकरी में दफ्तरी हुआ हूं ...अधिक से अधिक क्लर्क बन जाऊंगा. इससे आगे कुछ नहीं गुरू जी...लेकिन आप पढ़कर बहुत आगे जा सकते हैं ...’’
मेरे लिए यह एक बड़ी राहत थी और राहत शोभालाल के लिए भी थी. कहीं बाहर रहने पर उसे किराए के साथ अंगीठी या स्टोव सुलगाने की जहमत उठानी पड़ती, जबकि होस्टल में हीटर था. होस्टल का किराया था सैंतीस रुपए और बिजली का निश्चित था पांच रुपए सत्तर पैसे. कितनी ही खर्च की जाये.
होस्टल में रहने वाले सभी लोगों (दस या बारह लोग ही थे ) के प्रति शोभालाल का व्यवहार बहुत विनम्रतापूर्ण और मिलनसार था. बहुत दिनों तक लोगों ने यही समझा कि वह अधिकृतरूप से मेरे साथ रह रहा है ,लेकिन जब तक उसकी वास्तविकता लोगों में उद्घाटित होती उसके समुधुर व्यवहार ने उसके प्रति लोगों में सद्भाव उत्पन्न कर दिया था. जबकि सभी जानते थे कि होस्टल चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को एलाट नहीं हो सकता था.
दो महीने बाद मैंने होस्टल वार्डन से शोभालाल के विषय में बात की. सामान्य कद-काठी का वार्डन बत्रा फैक्ट्री में फोरमैन था, जिसके सिर के आगे के बाल अपना स्थान छोड़ चुके थे और गाल चूसकर फेके गये आम की भांति थे. चालीस के आस-पास की उम्र थी बत्रा की और कुछ दिन पहले ही उसकी शादी हुई थी. पत्नी की उम्र भी पैंतीस के लगभग थी और वह गेंहुए रंग की भरे-पूरे शरीर की स्वामिनी थी. बत्रा के लंब्रेटा स्कूटर पर बैठकर जब वह सब्जी खरीदने जा रही होती तब हम सोचते,‘‘ जोड़ा बुरा नहीं है.’’
‘‘कितने दिन रहेगा?’’ बत्रा ने ठंठे स्वर में पूछा.
‘‘अभी तो आया है. जब तक कहीं एकमोडेशन नहीं मिल जाता....’’
‘‘ठीक है, लेकिन जल्दी ही कोई बंदोबस्त कर लेने के लिए बोलने का....आप जानते हैं यहां बिना एलाटमेण्ट किसी को एलाउ नहीं.’’
‘‘बत्रा साहब, आप बेफिक्र रहें ....जगह मिलते ही वह चला जायेगा.’’ बत्रा कुछ और कहता कि तभी उसकी पत्नी की आवाज सुनाई दी और वह हड़बड़ाता हुआ घर की ओर लपक गया था. मैं निश्चिंत हो गया था. उसे बताना आवश्यक था और मैं यह जानता था कि नई शादी की खुमारी में उसे होस्टल की चिन्ता न थी. एक वर्ष से वह वार्डन था और एक बार भी राउण्ड पर नहीं आया था.
शोभालाल के साथ रहने से मुझे सुविधा थी. मेरे हिस्से के सभी काम वह कर देता...भोजन बनाने से लेकर दूध आदि लाने का...कमरे में हम प्रायः बातें नहीं करते थे. वहां होने पर या तो वह कुछ काम कर रहा होता या मंद स्वर में कोई फिल्मी गाना गुनगुना रहा होता. उसकी खूबी यह थी कि वह बेहद सफाई पसंद था---मितव्ययी भी. मितव्ययिता का कारण संभव है छोटी नौकरी रही हो, लेकिन वह जिस प्रकार टिप-टॉप रहता, अनजान व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था कि वह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था.
मेरे एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के पीछे शोभालाल के सहयोग की महत भूमिका मैं स्वीकार करता हूं.
जिस दिन मुझे प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण होने की सूचना मिली, शोभालाल शाम मेरे साथ सीधे होस्टल न जाकर बाजार गया था और अपने मित्र सरदार भूपिन्दर सिंह अरोड़ा को साथ लेकर होस्टल आया था. उसके हाथ में एक पैकेट था, जिसमें मिठाई थी.
‘‘लो गुरू....’’ मिठाई मेरी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा, ‘‘फर्स्ट डिवीजन आने की खुशी में मेरी ओर से....’’
‘‘यार, यह तो मुझे....’’ शर्मिन्दा होते हुए मैं बोला.
‘‘गुरू जी....उसके लिए तो मैंने मना नहीं किया.।’’ मेरी बात काट शोभालाल बोला, ‘‘वह तो हमें खानी ही है.’’
शोभालाल ने होस्टल के कई लोगों को भी मिठाई बांटी, ‘‘ हमारे गुरू जी एम.ए. में फर्स्ट डिवीजन पास हुए हैं उसी खुशी में...’’ उसने प्रमुदितभाव से सभी को बताया था. हम दोनों के साथ सरदार भूपिन्दर सिंह भी जुड़ गया था. वह हमारे कार्यालय में क्लर्क था और उसके पिता वहां वरिष्ठ लेखा परीक्षक. वह एक सीधा-सरल लगभग छः फीट लंबा, सांवला और हंसमुख नौजवान था जो अपने पड़ोसी कपूर परिवार से परेशान रहता था. दोनों परिवार पश्चिम पाकिस्तान से आए थे, लेकिन उनमें सद्भाव का अभाव था. इसका कारण यह था कि दफ्तर का इंचार्ज,डिप्टी कण्ट्रोलर भी कपूर था और भूपिन्दर का पड़ोसी उसका चमचा था. उसके बल पर वह सब पर रौब गांठता रहता था. उसके एक पैर नहीं था (रेल के नीचे कट गया था कभी). सामने पड़ने पर वह सभी से ‘बादशाहो’ कहकर विनम्रता प्रकट करता ,लेकिन पीछे सबकी इंचार्ज से शिकायत करता रहता. उसकी पत्नी का चरित्र कमजोर था और उसका घर दिन में दफ्तर के कुछ कमजोर चरित्र लोगों का अड्डा बना रहता था.
उस कार्यालय में मेरे जो तीन-चार मित्र बने उनमें लेखा परीक्षक टी.के. मुखर्जी भी थे. मुखर्जी नाटे कद ,साफ चमकता गेहुआ रंग, बड़े गोल चेहरे पर बड़ी-तीक्ष्ण आंखों और तीक्ष्ण बुद्धि वाले लगभग बत्तीस वर्ष के व्यक्ति थे. उनके मुताबिक वह दो बार आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे, लेकिन साक्षात्कार में असफल रहे थे. परिचय के बाद वह बदन को जमा देने वाली शीतलहर वाले जाड़े के दिनों में अपने तबला वादन का आनंद लेने के लिए मुझे होस्टल से खींच ले जाते. प्रायः संगीत का कार्यक्रम फैक्ट्री एस्टेट में एक पंत जी के घर होता. मुखर्जी तबला बजाते, पंत जी हारमानियम और उनकी पुत्री गाती थी.
मुखर्जी की विद्वत्ता से मैं प्रभावित था. जब तब वह मेरे यहां आ जाते. एक-दो बार उन्होंने मुझसे कुछ रुपये उधार लिए. और दो-तीन महीने विलंब से लौटा भी दिए . दफ्तर और होस्टल में सीमित रहने के कारण मुझे उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं थी .... और सच यह था कि किसी के विषय में कुछ जानने में मेरे रुचि भी नहीं थी. लोग मुझे अंहकारी या सिरफिरा समझते और कम ही बात करते, जो मेरे हित में था. लेकिन बात कब तक छुपती. शोभालल के आने के बाद मुखर्जी की कहानी ज्ञात हुई. उन्होंने अपने को सेक्शन अफसर बताकर (उन दिनों मेरे विभाग में यह एक सम्मानजनक पद था) रेलवे के डिप्टी डायरेक्टर की बेटी से विवाह किया था और उस झूठ को छुपाने के लिए शादी के बाद प्रदर्शन में इतना खर्च किया कि वह कर्ज के बोझ से दब गए. काबुली पठान से लेकर दफ्तर, फैक्ट्री और स्थानीय सूदखोरों ने उनसे कर्ज के ब्याज के रूप में मूल से कई गुना अधिक वसूल किया और स्थिति यहां तक आयी कि घर का लगभग सब सामान सूदखोर उठा ले गए थे. जब कि उनका मूल ज्यों का त्यों रहा था. मुखर्जी की वस्तुस्थिति जानने के बाद मुझे उनपर क्रोध आया और तरस भी. लेकिन एक शब्द कुछ कहा नहीं मैंने. अपना राजदार समझकर वह बहुत कुछ मूझे बताने लगे थे. वह कलकत्ता स्थानांतरण के लिए प्रयत्नशील थे जहां उनके भाई,मां और ससुरबाड़ी थी. वहां पहुंचकर उनकी स्थिति सुधर जाएगी ऐसा उन्हें विश्वास था. उनकी पत्नी का सहयोग सराहनीय था जो अभावों में भी प्रसन्न दिखती थी. एक बार मेरे हाथ में घड़ी न देख उन्होंने पूछा, ‘‘आपकी घोड़ी किधर गयी?’’
मैं परेशान सोच में डूब गया कि मैंने घोड़ी पाली ही कब थी. तभी मुखर्जी ने हंसकर कहा,‘‘ रूपसिंह, यह आपकी घड़ी के बारे में पूछ रही हैं.’’
मुखर्जी के एक लड़की और एक लड़का था....छोटे....दो-तीन साल के. एक दिन उनका ट्रांसफर आर्डर आ गया. प्रशासन में रमेन्द्र बनर्जी सेक्शन अफसर थे. एस्टेट का भद्र बंगाली समाज मुखर्जी को पसंद नहीं करता था. बनर्जी के भी वह प्रिय न थे, लेकिन फिर भी उन्होंने वह गोपनीय सूचना उन्हें दी और पूछा वह कब रिलीव होना चाहेंगें.
रात दस बजे मुखर्जी मेरे पास आए. वह गोपनीय सूचना मुझे देने के बाद पूछा,‘‘कब रिलीव होना चाहिए?’’
‘‘तीन अप्रैल के लिए पहले आप कलकत्ता जाने का आरक्षण करवा लें और दो को रिलीव हो लें. तब तक आपको मार्च का वेतन भी मिल चुका होगा. ’’
‘‘लेकिन सूदखोरों को पता चला तो....?’’ मुखर्जी के स्वर में कंपकपाहट थी. सूदखारों को सूचना मिलते ही मुखर्जी का मुरादनगर से निकलना कठिन हो जानेवाला था.
मैंने उसी समय शोभालाल से परामर्श किया. ऐसे मामलों में वह अधिक व्यावहारिक ढंग से सोचता था. वह साहसी भी था. दो घण्टे तक हम विमर्श करते रहे . तय हुआ कि अंतिम दिन हमें भूपिन्दर सिंह की सेवाएं भी लेनी होगीं, लेकिन तब तक सब कुछ गुप्त रखा जाएगा.
मैंने अपना ट्रंक और अटैची उन्हें पकड़ा दी. वे चीजें भी उनकी बिक चुकी थीं. आवश्यक सामान उनमें भरा गया. शेष दो बोरों में भरकर उन्हें सिल दिया गया. मुखर्जी ने बनर्जी से बात कर ली थी. तीन अप्रैल के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से शाम चार बजे चलने वाले जनता एक्सप्रेस से उन्हें कलकत्ता जाने का आरक्षण मिल गया था. दो को उन्हें वेतन और रिलीविगं आर्डर मिल जाना था. तय हुआ कि वह अपनी पत्नी और बच्चों को अपने मित्र मिस्टर नायर के घर रात में छोड़ देंगे जहां से दोपहर बाद भूपिन्दर सिंह उन्हें लेकर बस से दिल्ली पहुंचेगा. मुखर्जी भी बस स्टैण्ड में उनसे जा मिलेगें. मैं और शोभालाल उनके घर से सामान लेकर बारह बजे की ट्रेन से पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचेगें.
कार्य बिल्कुल योजनानुसार सम्पन्न हुआ. मुखर्जी के घर से रिक्शों में सामान लाद जब हम स्टेशन जा रहे थे तब उस ब्लॉक की गृहणियां हमें देख रही थीं. उन सबके पति फैक्ट्री में थे. यदि वे होते तब हमारा रहस्य छुपा नहीं रह पाता. उन महिलाओं ने यही अनुमान लगाया होगा कि हम भी कोई सूदखोर हैं.
स्टेशन पर हमें मेरठ से मछली बेचने आने वाला मिला जो प्रतिदिन मेरठ से लाकर वहां मछलिया बेचता था. उसकी कुछ उधारी थी. उसे कुछ भनक लग गयी थी. उसे देखकर मुझे अफसोस हुआ. वह जब हमारे निकट आया, शोभालाल उसे सुनाते हुए मुझसे बोला,‘‘गुरू आप चण्डीगढ़ पहुंचकर मुझे भूल मत जाना. पत्र जरूर लिखना.’’
‘‘यार, भूलूंगा कैसे?’’ मैं भी उतनी ही जोर से बोला था.
‘‘आप बहुत कठोर जो हैं.’’
‘कठोर’ शोभालाल का प्रिय शब्द था.
मछलीवाला हमारा संवाद सुन आगे बढ़ गया था.
पुरानी दिल्ली स्टेशन पर हमने क्लॉक रूम में सामान रखा. अटैची और ट्रंक रखने की समस्या न थी. बोरों के लिए बाबू तैयार नहीं था, जिसके लिए उसे कुछ देना पड़ा था. चार बजे के लगभग भूपिन्दर, मुखर्जी और उनका परिवार प्लेटफार्म नंबर बारह में हमसे आ मिले. टिकट के आधार पर मुखर्जी को रिटायरिंग रूम मिल गया. रात ग्यारह बजे जब हम होस्टल पहुंचे पता चला दफ्तर का सूदखोर जैन मेरे कमरे के दो चध्ककर काट गया था. सूदखोरों को अनुमान हो गया था कि चिड़िया उड़ गयी थी. अगले दिन पता चला कि दूसरा सूदखोर दिल्ली स्टेशन के चक्कर काट आया था. दफ्तर में जब हम तीनों से लोगों ने मुखर्जी के विषय में पूछा हमने यही कहा कि हमसे वह हरिद्वार जाने की बात कह रहे थे.... सपरिवार वहीं गये होगें ....शेष बनर्जी साहब बताएगें कि वह कब रिलीव होगें.
‘‘लेकिन तुम तीनों...आप, भूपिन्दर और शोभालाल.....कल दफ्तर नहीं आए थे.’’
हमने पूर्व निर्धारित बहाने बता दिए थे.
लेकिन हमारी बातों पर किसी को विश्वास नहीं हुआ था.
1977 में शोभालाल अपना परिवार ले आया और किराये के मकान में रहने चला गया. जुलाई 1980 में मैंने अपना स्थानांतरण दिल्ली करवा लिया. उसके बाद शोभालाल से मेरी मुलाकात नहीं हुई. कुछ वर्षों वह मुरादनगर कार्यालय में रहा. वहां से प्रमोशन पर अण्डमान निकोबार और फिर प्रमोशन पर कानपुर. यह सूचना मुझे भूपिन्दर से मिलती रही जो यदा-कदा मुझसे मिलने आ जाया करता था. नौकरी से अवकाश प्राप्त कर शोभालाल अब कहां है मुझे जानकारी नहीं है. लेकिन उसे भूल पाना संभव नहीं और भूल मैं भूपिन्दर सिंह को भी नहीं सकता, कुछ दिन पहले सुबह दूध लेने जाते समय किन्हीं अज्ञात लोगों ने जिसकी गोली मारकर हत्या कर दी थी. क्यों...? इसका उत्तर मुझे आज तक नहीं मिला. उस जैसे सीधे-सरल व्यक्ति के भी दुश्मन थे यह सोचकर आश्चर्य होता है.