शोले का थ्रीडी संस्करण आ रहा है ! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 नवम्बर 2013
आज मुंबई के जुहू पीवीआर में कोई तीन दशक बाद सलीम खान और जावेद अख्तर एक पत्रकार परिषद को संबोधित करेंगे। वर्षों पहले बिछड़े ये दो विरल लोग इस वर्ष अदालत में 'ज़ंजीर' के लेखकीय अधिकार के प्रसंग को लेकर अदालत में एकसाथ मौजूद थे परंतु अलग-अलग स्थानों पर बैठे थे। आज की प्रेस वार्ता का विषय उनकी सन् 1975 में प्रदर्शित 'शोले' के थ्रीडी संस्करण के बारे में है जो 3 जनवरी 2014 को प्रदर्शित होने जा रही है।
जयंतीलाल गढ़ा ने 'शोले' के थ्रीडी संस्करण के अधिकार चार वर्ष पूर्व खरीदे थे तथा उनके तकनीशियनों को मूल फिल्म का थ्रीडी स्वरूप बनाने में लंबा समय लगा और खूब धन खर्च हुआ। तीन जनवरी को प्रीमियर भी रखा गया है। इसमें निर्देशक रमेश सिप्पी, लेखक सलीम जावेद, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और जया बच्चन मौजूद होंगे। संगीतकार आरडी बर्मन, गीतकार आनंद बक्षी, निर्माता जीपी सिप्पी, अमजद खान, संजीव कुमार और एके हंगल की मृत्यु हो चुकी है। इस फिल्म की रचना में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका कैमरामैन द्वारका द्विवेचा ने निभाई थी जिनकी मृत्यु इसी टीम की अगली फिल्म 'शान' के प्रारंभ होते ही हो गई थी। आज हमें द्वारका का स्मरण इसलिए भी हो रहा है कि उनकी फोटोग्राफी फिल्म प्रदर्शन के 39 वर्ष पश्चात भी वर्तमान की सी लगती है और शॉट्स संयोजन में उनके द्वारा अनजाने में ही बनाए गए अवसर का लाभ लेकर ही थ्रीडी संस्करण बन पाया है। यह भी गौरतलब है कि कैमरामैन द्वारका द्विवेचा की मृत्यु के बाद निर्देशक सुभाष घई सफलता नहीं अर्जित कर पाए। जब 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' की शूटिंग के समय नायक शशि कपूर ने राज कपूर से कहा कि इस फिल्म का स्वप्न नृत्य उनकी 'आवारा' के स्वप्न नृत्य की टक्कर का होना चाहिए तो राज कपूर ने कहा कि वह शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र, नरगिस के सहयोग से हो पाया और अब वैसा कुछ संभव नहीं है।
'शोले' की लोकप्रियता आज भी कायम है और इसी कारण आजादी के बाद के सिनेमा इतिहास के दो खंड आसानी से किए जा सकते हैं। राज कपूर की 'आग ' 1947 से 'शोले' 1975 तक और 'शोले' से आज तक। इस बात का अर्थ लोकप्रियता के दायरे तक सीमित है क्योंकि 'शोले', 'दो आंखें बारह हाथ', 'आवारा', 'प्यासा' या 'गंगा जमुना' व सलीम जावेद की 'दीवार' की तरह क्लासिक नहीं है। परंतु कल्ट फिल्म मानी जाती है। 'शोले' में अनेक देशी-विदेशी फिल्मों का प्रभाव देखा जा सकता है और कोई भी घटना मौलिक नहीं होते हुए भी फिल्म की समग्रता का प्रभाव मौलिक ही है।
सलीम-जावेद ने इसमें विभिन्न प्रभावों और नाटकीय फोर्स को जिस तरह से ब्लेंड किया है, वह स्कॉच की ब्लेंडिंग की तरह है। उनका विभिन्न सफल तत्वों का संयोजन अनूठा था। मसलन, ठाकुर के हाथ गब्बर ने काट दिए थे, परंतु इस तथ्य को उन्होंने उस समय उजागर किया जब दोनों नायक खफा हैं कि निर्णायक क्षण में ठाकुर ने बंदूक क्यों नहीं उठाई? पटकथा में किस तथ्य को कब उजागर करना है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसी से उसका भावनात्मक प्रभाव बनता है। रमेश सिप्पी ने बेंगलुरु के निकट के स्थान को फिल्म का एक पात्र बना दिया और वह लोकेशन आज भी कमोबेश गब्बर की तरह लोकप्रिय है। यह शायद पहली बार हुआ कि खलनायक की क्रूरता कॉमिक्स के पात्र की तरह प्रस्तुत की गई और यह पात्र नायकों से अधिक लोकप्रिय हुआ। इसी तरह इस फिल्म का प्रदर्शन पूर्व जारी संगीत बाजार में बिका नहीं परंतु प्रदर्शन के बाद संवादों के साथ संगीत बाजार में खूब बिका। तदुपरांत संवाद के रिकॉड्र्स जारी हुए। कुछ नेताओं ने गब्बर की संवाद अदाएगी से प्रेरित भाषण शैली अपनाई।
दरअसल 'शोले' में निर्देशक ने एक लहर पैदा की जिसका प्रवाह इतना प्रबल था कि उसके दोषों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। मसलन, स्वयं लेखक सलीम खान के अनुसार नायक को छोड़कर सारे पात्र इतनी सहजता से गब्बर के 'गुप्त ठिकाने' तक पहुंच जाते हैं कि संभवत: डाकिया उसे पत्र भी दे आता हो। अब इसके थ्रडी संस्करण का प्रभाव मूल के प्रभाव को तिगुना बढ़ा देते हैं। इंजिन से टकराई बल्लियां दर्शकों को अपनी ओर आती लगती हैं। अनेक प्रभाव अब और अधिक मनोरंजक हो गए हैं गोया कि पुरानी स्कॉच को सर्वथा नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है।