श्जी से दिया उतारश् / राजा सिंह
वह नींद में था, फोन की घंटी बज रही थी। उसे देर से रात में नींद आई थी। आवाज हकीकत में आ रही है या सपने में? चेतना में आने में थोड़ा समय लगा। अनमने, अलसाये एवं सुझलाहट से सिक्त भाव से वह फोन तक पहुंच गया था। इतनी रात गये फोन? उसके भाई का ही था। भाई ने बताया माँ का देहान्त हो गया है।
' कब, कैस? े भाई बताता जा रहा था, वह सुन रहा था, परन्तु दिमाग में बातें प्रवेश नहीं पा रही थीं।
अभी तो पिछले महीने माँ से मिलकर आया था, सब कुछ ठीक लग रहा था। भाई एवं भाभी और भतीजा जो इण्टर में पढ़ रहा था, एवं भतीजी जो दसवीं में थी, सभी ख्याल रखते थे। माँ की भी इनमें जान बसती थी। जब भी वह घर कानपुर आता, अकेले या परिवार के साथ, माँ से अक्सर कहता " मां थोडे़ दिन मेरे पास भी चल कर रहो। माँ कहती बेटा ये देहरी का मोह नहीं छूटता, कहाँ जायें, यहीं से ध्यान नहीं हटता। मैं यहीं ठीक हूॅ। उसे नहीं लगता था कि माँ कुछ तकलीफ में थीं मगर फिर माँ क्यों कहती रहती थी कि कमल जल्दी-जल्दी आया करो और हो सके तो बच्चों को भी साथ ले आया करो। बड़ा मन करता है उन सब को देखने एवं मिलने का।
क्या माँ तकलीफ में थी? माँ उठती, बैठती, बोलती चालती अपना व्यक्तिगत् कार्य सारा कर लेती थी। उसने महसूस किया, माँ कुछ कमजोर-सी हो गयी थी। उनकी आंखों में उदासी उतर आयी थी। कुछ बोझ-सा महसूस करती थी, ऐसा लगता था कुछ खोजती रहती थी। कई बार उसने महसूस किया था कि माँ उससे कुछ कहना चाहती थी। कभी कुछ बोल निकलते-निकलते रह जाते थे, शायद संकोच या डर। क्या उलझन थी? वैसे माँ बड़ी सन्तोषी जीव थीं इधर माँ ज्यादातर अपने कमरे में बिस्तर में ही रहती थी। कभी-कभी सेंस में भी नहीं रहती थी। वह माँ से मिलकर हरदम अवसाद् से भर जाता था। वह माँ को इस हालत में देख नहीं पाता था। दिल डूबने लगता था, दुख सराबोर कर जाता था। माँ की यह हालत पिता के न रहने से तो नहीं? उनमें अकेलापन या खालीपन भर गया था या कुछ और था जो वे कह नहीं पा रहीं थीं।
उसने कंधे पर कोमल का स्पर्श महसूस किया। पत्नी आ गई थी। 'क्या हुआ?' कोमल का स्वर आर्द्ता भरा था। 'मां नहीं रही।' उसने उसकी तरफ बिना देखे ही उतार दिया। वह अपने को रोकने की कोशिश कर रहा था, किन्तु असफल रहा, जब पत्नी ने उसके सर को अपने पहलू में समेटा था। थोड़ी देर बाद वह सामान्य हो पाया था। उसे लगा पत्नी उसे गहराई से महसूसती है और सहानुभूति का स्पर्श काफी राहत प्रदान करने वाला था।
' अभी निकलते हैं। वह चलने के लिये उतावला हो रहा था। वह अपने पिता को आखिरी वक्त में नहीं देख पाया था। जब उसके पास खबर पहुंची थी, वह यू.एस.ए. में था, वहाँ से वह दसवां-तेरहीं में ही पहुंच पाया था। कम्पनी के एक प्राजेक्ट में वहाँ था, उस समय वह बैचलर ही था। इस बार वह कोई कोताही नहीं बरतना चाहता था।
'कैसे चलोगे?'
'अपनी गाड़ी से।'
'नहीं।' इतना लम्बा सफर और खुद इस हालात में ड्राइव करोगे। पारूल और शिशिर इस समय बेसुध सो रहे। उठना ठीक नहीं है। ड्राइवर को बुला लीजिये, सुबह के 5-6 बजे निकल पडें़गे। तुम्हारा सभी इन्तजार करेंगे। कोमल ने अपनी मंशा / सलाह जाहिर की। वह फिर बैठ गया था अपनी उतावली को विराम देते हुये। परन्तु दुख को आवेश फिर उमड़ने-घुमड़ने लगा था। पत्नी उसे छोड़कर तैयारियों में व्यस्त हो गई थी।
निकलते निकलते छै बज गये थे। बच्चों को 5 बजे ही उठा दिया गया था, वे तैयार होकर भी नीेंद के आगोश में थे। बीच रास्ते में कोमल ने एक ढाबे के पास गाड़ी रूकवाई थी और सबके स्वल्पाहार की व्यवस्था करने लगी थी। मैं अपने दुख में डूबता-उतराता गाड़ी में ही बैठा रहा। कोमल उसकी तरफ ही आ रही थी।
उसने पत्नी से कहा 'तुम क्यों नहीं कुछ खाती हो?'
'आप खायेंगे?' प्रतिप्रश्न उठा।
'नहीं, खा नहीं पाऊॅंगा।'
'तो मुझे भी कुछ नहीं खाना।' वह सोच रहा था। दुख मेरा था, परन्तु उसकी छाया उस पर भी पड़ रही थी, या मेरे दुख की अनुभूति से उसकी इच्छा ना हो रही थी। वह सोचने लगा था, पत्नी सारे दिन अनशन कलपेगी। रात एक बजे से जगी है। उसने एक बार फिर उससे करूण स्वर में अनुरोध किया। उसने फिर वही दोहराया 'आप कुछ ले लेंगे तो मैं भी कुछ खा लूंगी।' वह सोच रहा था स्त्री क्या है? सम्पूर्ण अस्तित्व, इच्छा अनिच्छा अपनों के ही इर्द गिर्द।
'अच्छा में लेता हूँ तुम तो लो।' उसका इतना कहते ही वह राजी हो गई थी। उसने केवल चाय ली थी। जब कोमल ने देखा, उसने केवल चाय ली है तो अपने हिस्से से आधा, जबरदस्ती उसे अर्पित कर दिया। उसकी जिद को पूरा करने के लिये उसे वहीं कुछ खाना पड़ा था।
बच्चे कहीं भी जाने की खुशी में आ चुके थे, वह भी दादी के पास, काफी उल्लासित थे। वह वस्तुस्थिति से अनभिग्न थे। उनके प्रश्नोत्तर का जबाब सिर्फ़ कोमल ही के पास था। उसने ध्यान दिया बड़े ही धैर्यपूर्वक एवं संयत ढंग से समझाया जा रहा था। वह मां, घर, परिवार और उनसी जुड़ी यादों के हिचकोले में था।
' डैडी, आप चुप क्यों हैं? बोलते क्यों नहीं? पायल ने उसकी बांह पकड़कर झिझोरा था। अक्सर पायल उससे ही मुखातिब रहती थी। उसने बेटी को दुलार किया था, एकदम यांत्रिक एवं अनमने ढंग से। उसकी भावना कहीं जुड़ी थी और हरकतें यहाँ करनी पड़ रही थी। वह सोच रहा था उसकी दोनों बहनें आ चुकी होंगी लखनऊ, सीतापुर से आने में कितनी देर लगती है। भाई बहन सभी उससे बडे़ थे। सबसे बडे़ भाई थे, फिर बहनें और सबसे बाद में वह। छोटे होने की वजह से वह सबकी डांट एवं प्यार का कारण था। परन्तु वह घर सबसे कम रह पाया था, पहले पढ़ाई के कारण बाहर हास्टल में फिर कैम्पस सेलेक्सन के तहत बाहर सर्विस में। भाई ज़रूर जन्म से लेकर अभी तक घर में ही था। बहनें शादी तक घर में रहीं फिर अपने-अपने घर। इस समय वह सरकारी कम्पनी में टेलीकाम इंजीनियर था, मेरठ में। इसके पूर्व वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नोयडा में कार्यरत् था। उसी कम्पनी में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में 3 से एक वर्ष के अनुबंध पर अमेरिका भेजा था, वहीं पर उसकी जान-पहचान कोमल से हुयी थी। वह भी उसकी ही कम्पनी में थी, परन्तु बंगलौर में पोस्टेड। उसी प्रोजेक्ट मेें उसका भी सेलेक्सन हुआ था। एक साल में प्रोजेक्ट में काम करते-करते कोमल से काफी निकटता हो गई थी। वापस आने पर मिलना जुलना जारी रहा था क्योंकि उसका घर दिल्ली में ही था। यह सम्पर्क एक दूसरे से चाहने में तब्दील हो गया था। कोमल से शादी को लेकर उसके घर में काफी पुरजोर विरोध हुआ था। सभी कीे शादी पिता की मर्जी से हुई थी परम्परागत् तरीके से। अब पिता थे नहीं, विरासत भाई के पास में थी। माँ निरपेक्ष थी। जिससे बड़ा सम्बल मिल रहा था। भइया, भाभी एवं दोनों बहनों का भी काफी मुखर विरोध था। परन्तु माँ केे अपने पक्ष में आते ही सबका विरोध निषेधात्मक नहीं रह गया था। मगर भाई नाखुश हो गया था। वह अपने को ही सही मानता था, हर हाल में। वह मेरे विवाह के कार्यक्रमों में उदासीन ढंग से पेश आ रहा था। अक्सर वह एक जुमले का प्रयोग किया करता था "सबसे बड़ी मार कबीर की, जी से दिया उतार।" उसे लगता था कि भाई उससे कम माँ से ज़्यादा उदासीन हो गया था। उसकी आदत थी जो उसके साथ नहीं, वह उसका विरोधी है। परन्तु उसके लिये माँ और भी अजीज हो गई थी। कहते भी है जो जिसकी जितनी ज़रूरतें पूरी करता है वह उसका उतना अजीज बन जाता है।
शादी के बाद उसने और कोमल ने पुरजोर कोशिश की एम.एन.सी. दोनों को एक ही जगह कर दे या तो नोयडा या बंगलौर। जब यह सम्भव नहीं हो पाया तो कोमल ने नौकरी छोड़ दी और उसके पास आ गयी। वह कम्पनी से चिढ़ गया था, एक पिता की मौत पर समय से ना पहुॅंच पाने का मलाल फिर पति-पत्नी का साथ ना रखने का क्षोभ। उसने मौका मिलते ही सरकारी कम्पनी में शिफ्ट हो गया।
घर आते-आते दोपहर के ग्यारह बज गये थे। घर में रूदन चल रहा था जिसके आवाजें बाहर तक आ रही थीं। रूदन रह-रह कर कभी तेज एवं कभी हल्का पड़ रहा था। हम लोगों के आते ही फिर से एक लम्बा तेज रूदन का सैलाब आया था और उसमें हम सभी सराबोर हो गये थे और अपने आप को उस धारा में शामिल कर लिया था या हो गये थे। भाभी ने जो रो-रो कर हिचकियॉं लेकर बताया कि आखिर वक्त उसे ही याद कर रही थी, अपने को रोक पाने का माद्दा पूरी तरह ढह गया था। भाभी का गला फाड़ रोने का अंदाज उसे कुछ नकली-सा लग रहा था। क्योंकि भाभी, माँ को कुछ कम ही पसंद करती थी। जब से पिता जी नहीं रहे थे, धीरे-धीरे भाभी ने माँ को घर के सभी कामों से महरूम कर दिया था। माँ हर तरह सें अकेले पड़ गयी थी। यद्यपि उसे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता था जिससे ये लगता हो कि माँ आर्थिक तकलीफ में हो। दवा-दारू की भी कोई समस्या नहीं लगती थी। पिताजी अच्छा खासा बिजनेस छोड़ कर गये थे और मेरी शादी को छोड़कर घर बाहर की सारी जिम्मेदारियॉं पूरी करके गये थे। भाई ने सब कुछ अच्छी तरह सम्हाल भी लिया था।
भइया का विलाप भी कुछ अजीब-सा लग रहा था उसे। ' अरे माँ एक बार तो बोल दो। एक बार तो देख लो। तुम्हारे पोते-पोती रो रहे हैं उठकर कर तो देख लो। माँ एक बार बोलो। अम्मा हमें सेवा का मौका ही नहंीं दिया। माँ ज़्यादा दिन बीमार नहीं रही थी। उसके बच्चें भी रोने लगे थे और हाँ, पत्नी भी विसुरने लगी थी। उसे लगा उसका ही दुख कमतर है। वह नीचे उतर आया था जहाँ मातमपूर्सी करने वालों की आमद बढ़ती जा रही थी, उन्हें भी रिसीव करने वाला कोई चाहिये।
एक बार मां, कोमल पारूल और शिशिर माँ के कमरे में थे। माँ ने कुछ सोचा होगा और अपने बकस को खेलकर कुछ देखा, कुछ खोजा और फिर वापस आ गई और फिर कोमल से बात में तल्लीन हो गई. माँ और कोमल के बीच बातचीत का आदान-प्रदान बड़ा सीमित रहा करता था, ज्यादातर पारूल और शिशिर से सम्बिन्धित। परन्तु कोमल जब भी घर आती थी उसका ज्यादातर समय माँ के पास ही गुजरता था। उनके बीच ज्यादातर मौन ही पसरा रहता था। कोमल साधारणतया कम बोलने वाली थी सभी से, हाँ अगर कोई उसे कुछ बताता या सुनाता था, तो वह तल्लीनता पूर्वक सुनती रहती थी, बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये। पारूल और शिशिर ज़रूर दादी को बुलवाते, सुनते रहते या अपनी बातें बताते और अपनी फरमाइशें करते रहते। उसके परिवार सहित आने पर माँ में प्रसन्नता की लकीर खिंच जाया करती। उसके अकेले आने पर भी संतुष्ट तो होती थी और बच्चों के ना आने पर उलाहना भी नहीं देती थी। इसी समय वह एक दोस्त से मिलकर आया था और ड्राइंगरूम में पसरा था कि कोमल ने मॉं के कमरे से निकलकर उसे देखा और उसके पास बड़े संयत ढ़ग से प्रवेश किया। उसने आते ही कहा 'एक बात पूॅंछू।' उसकी टोन कुछ शिकायत लिए थी। "हॉं-हॉं अवश्य वह कुछ रोमांटिकता से चहका।"
कभी मॉं जी से पूछा है कि उनके पास अपने पैसा है कि नहीं उन्हें पैसे की ज़रूरत है भी कि नहीं? वह सन्न से रह गया था वास्तव में कभी पूॅंछना तो दूर कभी सोचा भी नहीं। वह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मॉं के पास इस चीज की भी कमी हो सकती थी। हम लोगों की गिनती धनवानों में होती थी सारे पैसे की धरोहर मॉं के पास पिता जी के समय थी घरेलू खर्चें व लेन देन मॉं ही करती थी। परन्तु अब? पिता जी के ना रहने पर? उसका ध्यान अब गया था, बिजनेस तो भाई ने सम्हाल लिया और भाभी ने घर। मगर वह यह सोचकर आश्वश्त रहता था कि भाई माँ का बेहद ख्याल रखते हैं और यह तो बहुत छोटी चीज है और ऐसा ही उसने अपनी पत्नी को समझाने की पुरजोर कोशिश की। कोमल उसकी बातें, दलीलें ध्यानपूर्वक एवं शान्त भाव से सुनती रही और फिर माँ के बकस वाली घटना का वर्णन निरपेक्ष भाव से किया और उसकी तरफ प्रश्नवाचक मुद्रा में बैठ गई.
उसने पत्नी को कोई उत्तर नहीं दिया, एकदम से उठा और माँ के कमरे में घुस गया। माँ आंखें बंद किये लेटी थी, शायद सो रही थी या जग रही थी। उसने माँ से कुछ पैसों की फरमाईश कर दी। माँ हतप्रभ उसे देखने लगी थी, यह पहली बार था कि सर्विस में जाने के बाद उसने माँ से पैसे मांगे थे। 'मेरे पास कहाँ, पैसे कमल।' और उसने बकस लाकर उसके पास रख दिया था। उसमें माँ की पुरानी साड़ियॉ, कुछ गहने आदि थे पैसे का नामोनिशान नहीं था। फिर एक उहव्वास लेकर बोली तेरे पिता के बाद जो कुछ मेरे पास थे वह सब धीरे-धीरे पोते-पोतियों एवं नाती-नातियों को देनलेन में खतम हो गये। फिर वह बोली बेटा मुझे पैसों की ज़रूरत ही क्या? भइया सारा ख्याल रखते ही है, घर बाहर सारा लेनदेन, वृत त्यौहार बहू और बेटा सम्हालते ही हैं। मेरे पास पैसों का क्या काम है उसे माँ की यह खुद्दारी अपनों से ही समझ में नहीं आयी।
मगर माँ आप अपनी तरफ किसी को कुछ देना चाहें नानी या दादी के रूप में। या फिर कुछ अपने मन से कुछ खर्चाने चाहे। कभी किसी नौकर आदि को देना चाहे। तब क्या भइया से कहकर दिलवाइयंेगी या देंगी। माँ के कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया था, अपलक उसे भरी आंखों से निहारती रह गई थी। वह क्षेाभ से भर गया था, उसे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी। इसी बात पर उसकी दृष्टि क्यों नहीं गई. उसने अपने पर्स से काफी रूपये-पैसे निकाल के रख दिये थे, माँ के हाथ मेें, ये कहते हुये कि माँ आप मना नहीं करेंगी और जैसे चाहें अपने मन मुताबिक खर्चा करेगी। फिर भी अगर कभी कमी तो मुझे ज़रूर बताईगा। तब से जब भी कानपुर जाना होता था वह माँ की ज़रूरत से ज़्यादा पैसे देने का बजट लेकर जाता था।
भाई माँ की अंतिम यात्रा की तैयारी में व्यस्त थे। यात्रा का सारा सामान आ चुका था, विमान बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। उसे देखकर भाई उसके कंधों में दोनों हांथ रखकर ढाढस बंधा रहे थे और उसे भाई की आंखों में निराशा के बादल घुमड़ते-घुमड़ते नजर आ रहे थे। माँ भाई को सबसे ज़्यादा चाहती थी, उनकी हर जिद पूरी होती थी, क्या खाने में, क्या पहनने में। भाई उनके पहले और सबसे बडे़ लड़के थे। माँ का प्यार दुलार सबसे ज़्यादा उन्हें ही नसीब हुआ था। पिता जी के गुस्से, नाराजिगी का शिकार होने पर माँ उनका ही पक्ष लेती प्रतीत होती थी। भाई का ध्यान पढ़ाई-लिखाई या पिता जी के करोबार में नहीं लगाया था या तो बहुत कम लगता था सिर्फ़ अपने जान पहचान वालों के काम आ जाने का जो लुफ्त उन्हें मिलता था उसके कारण घर, अपना गौड़ थे। वही भाई अब सिर्फ़ अपने लिये ही सोचते थे, ऐसा वह महसूस करता था। वह सोच रहा था मेरे शादी के प्रकरण के बाद से क्या भाई ने वास्तव में माँ को अपने जी से उतार दिया था। माँ को अकेलेपन की खाई में डाल दिया था। शायद अपने प्यारे बेटे की उपेक्षा उन्हें खामोश करती जा रही थी। भाई की उपेक्षा जी से उतार देने की मुहिम में माँ का साथ देने के लिये ना पिता जी थे, ना मैं और बहनें तो पराई हो चुकी थी। शायद माँ प्रत्युततर में पलायन करना ही उचित समझा हो। उसे अपने अपराध बोध से गृसित होने का लक्षण प्रगट हो रहा था कि वह माँ को अकेलेपन में ढ़कलने वह भी कहीं उत्तरदायी तो नहीं था। उसे अब वही भाव अपने भइया की आंखों में महसूस हो रहे थे।