श्याम बिहारी श्यामल / परिचय
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लगभग तीन दशक से लेखन और पत्रकारिता। मन में रचनात्मकता का बीजारोपण करने का पूरा श्रेय बचपन में रामायण और महाभारत समेत अन्यान्य शास्त्रों से संबंधित कहानियां नियमित सुनाने वाले पिताश्री (अब स्वर्गीय) बाबू द्वारिका नाथ सिंह को। लेखन की शुरूआत कविता विधा में। अस्सी के दशक के आरंभिक वर्षों में लघुकथा आंदोलन में गंभीर सक्रियता और शताधिक लघुकथाओं का सृजन जो तब की प्रमुख कथा-पत्रिका 'सारिका' से लेकर अन्य लघुकथाओं में धुआंधार छपती रहीं।
पत्रकारी सक्रियता के तहत ग्रामीण और सुदूर उपेक्षित क्षेत्रों में जाकर वहां की समस्याओं और जनजीवन पर काम करने के अभियान का अस्सी के दशक के आरंभिक वर्षों में पलामू (झारखंड) में ही आरंभ। इस क्रम में पलामू (अविभाजित, अब यह गढ़वा, लातेहार और पलामू के तौर पर तीन जिलों में बंट चुका है) के लगभग तीन हजार गांवों पर काम। यही अनुभव बाद में पलामू के अकाल को विषय बनाकर लिखे गए उपन्यास 'धपेल' में रचनाबद्ध हुआ।
1988 में धनबाद में दैनिक आज से नौकरी की शुरूआत। 1990 में दैनिक आज छोड़कर वहीं दैनिक आवाज से जुड़े। फीचर संपादक के रूप में यहां चर्चित साप्ताहिक परिशिष्ट का लगभग दस साल तक संपादन। इसमें साहित्य, संस्कृति और जनसरोकारों से जुड़े साप्ताहिक स्तभ 'अपना मोर्चा' का करीब दशक भर अविराम लेखन। इसके एपीसोड देश भर में चर्चित और समय-समय पर 'पहल' जैसी पत्रिकाओं में 'साभार' उल्लेख के साथ पुनर्प्रस्तुत भी होते रहे। दैनिक आवाज में वर्षों 'यहां से देखो शहर को' और 'गांव-गांव पांव-पांव' पूरापृष्ठीय ( दैनिक अखबार का ) स्तंभों का लेखन। 'गांव-गांव पांव-पांव' में धनबाद के लगभग एक हजार गांवों की समस्याओं और जनजीवन पर लेखन। इसी अखबार में दोनों उपन्यासों ' धपेल' और 'अग्निपुरुष' का यथासमय धारावाहिक प्रकाशन।
अस्त-व्यस्त अखबारी जीवन में भी जिद और जुनुन के चलते कुछ न कुछ लिखना तो संभव हो जाता था किंतु 1984 में कथाकार सत्यनारायण नाटे के साथ साझा लघुकथा-संग्रह छपने के बाद फिर आगे कोई पुस्तक छपाने के बारे में सोचने तक की कोई गुंजाइश न थी।
1995 में जब धनबाद में कथाकार सविता सिंह के साथ परिणय-सूत्र में बंधा तो लेखकीय जीवन में जैसे प्रकाश-स्रोत ही फूट पड़ा। सविता जी ने घर में पांव धरते ही कमरों में बिखरी प्रकाशित रचनाओं की कतरनें या अखबार-पत्रिकाओं के अंकों को देख किताबें छपाने की बात शुरू की। 'धपेल' लगभग दो साल तक दैनिक आवाज में धारावाहिक छपा था किंतु उसके सारे अंशों की कतरनें उपलब्ध न थी। उन्होंने दबाव बनाया कि सारे अंश खोजे जाएं। यह बेचैनी और तलाश ज्यादा लंबी नहीं खिंची। एकाध सप्ताह में ही यह ध्यान आया कि ज्यादातर अंशों की फाइल बनाकर कवि शिवदेव को अवलोकनार्थ दी गई थी। वह उस समय धनबाद में उप जिलाधिकारी के पद पर आसीन थे ( और अवकाश ग्रहण के बाद अब वहीं रह रहे हैं )। सविता जी एक दिन जिद कर शिवदेव जी के घर ले गईं । 'धपेल' की फाइल की चर्चा चलने पर लगा कि यहां भी वह कहीं अस्त-व्यस्त दशा में हो तो हो जिसे काफी खोजने के बाद शायद ही पाया जा सके। इसी क्रम में शिवदेव जी की श्रीमती जी ने नई दुल्हन के रूप में सविता जी का विशेष स्वागत करते हुए 'खोंइछा' भरने की रस्म पूरी की और आशीषने लगीं तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक आग्रह किया, हमें आशीर्वाद के रूप में 'धपेल' उपन्यास की कतरनों वाली फाइल मिलनी चाहिए..। तात्पर्य इसे खोजने में उनसे विशेष सहयोग का आग्रह। सचमुच यह आशीर्वाद मिल भी गया। कुछ ही दिनों बाद शिवदेव जी ने खबर की कि फाइल मिल गई है। इसमें ज्यादातर ही नहीं, तमाम कतरनें उपलब्ध थीं। इस तरह 'धपेल' को प्रेस भेजने लायक तैयार किया जा सका जो जल्द ही राजकमल प्रकाशन से छपकर पुस्तकाकार आ गया।
हिन्दी के वरेण्य समालोचक नामवर सिंह से लेकर युवा आलोचकों में ज्योतिष जोशी, देवशंकर नवीन और अरविंद त्रिपाठी आदि ने इसे सराहना दी। इसी तरह सविता जी के जतन से ही इसके बाद 'अग्निपुरुष' उपन्यास का लेखन। यह भी दैनिक आवाज के साप्ताहिक परिशिष्ट में लगभग दो साल तक धारावाहिक छपने के बाद 2001 में राजकमल पेपरैक्स से पुस्तकाकार आ गया। बाद में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फलक को विषय बनाकर तीसरे उपन्यास 'गहरे मेकअप वाली लड़की' का लेखनारंभ। इसके अंश भी कुछ छपे किंतु वर्ष 2000 में धनबाद छूटने के साथ ही यह अधूरा रह गया। अगली नौकरी अपने ही शहर डाल्टनगंज में दैनिक राष्ट्रीय नवीन मेल में समाचार समन्वयक के रूप में। यहां लगभग बीस माह तक रहने के बाद बनारस में दैनिक अमर उजाला में मुख्य उप संपादक के रूप में नई पारी की शुरूआत किंतु झारखंड की पठारी हवा जैसे रह-रहकर पुकार ले रही थी।
जल्द ही दैनिक प्रभात खबर में समाचार समन्वयक के रूप में प्रवेश किंतु वहां धनबाद से कुछ ही माह बाद देवघर स्थानरांतरण। परिवार धनबाद में और नौकरी देवघर में। बात कुछ जम नहीं रही थी। इसी बीच छुट्टियों में जब परिवार डाल्टनगंज गया था, धनबाद के आवास में भीषण डकैती। यह तिक्त अनुभव विचलित कर गया। लगा कि नौकरी की कटु सच्चाई के बवंडर के आगे जन्मभूमि-प्रेम की लौ स्थिर नहीं हो सकती। लगभग साल भर के बाद ही बनारस वापस और दैनिक जागरण में नई पारी का प्रारंभ।बहरहाल तब से यहीं कार्यरत, पद है मुख्य उप संपादक। इस बीच दैनिक अमर उजाला के दिनों में शुरू किए 'कंथा' उपन्यास के लेखन-कार्य पर केंद्रित हुए। यह वृहत उपन्यास महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन और उनके युग पर केंद्रित है जो हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका 'नवनीत' में सिंतबर 2010 से धारावाहिक छपना शुरू हुआ और यह क्रम अभी जारी है। इस बीच 'हंस', 'समकालीन भारतीय साहित्य', 'कथादेश' और 'कथा' आदि पत्रिकाओं में वर्ष 2008 में साल भर के भीतर नौ कहानियां और 'जनसत्ता' कोलकाता के पूजा विशेषांक में एक अन्य नए उपन्यास 'जिंदगी जंक्शन' का बड़ा-सा अंश प्रकाशित। यह उपन्यास बनारस के मछुआरों के जीवन-संघर्ष पर आधारित है, इस पर काम जारी।
इस बीच कुछ वर्षों से वेब दुनिया में भी नियमित सक्रियता। ब्लॉग (श्यामबिहारीश्यामल.ब्लॉगस्पॉट) और निजी साइट 'लिंखंत पढ़ंत' पर नियमित रचनात्मक गतिविधयां। फेसबुक, ट्विटर,ऑरकुट और गूगलप्लस जैसी सोशल साइटों पर लगभग दैनिक रचनात्मक भागीदारी। अस्सी के दशक में लिखी लघुकथाओं में से ज़्यादातर बलराम द्वारा संपादित 'भारतीय लघुकथा कोश' में 'विश्व लघुकथा कोश' संकलित। वेब पर 'लघुकथा.कॉम' के संचयन में भी कुछ रचनाएं उपलब्ध। 'कविता कोश' में भी सम्मिलित।