श्याम बेनेगल का लंबा फिल्मी सफर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 फरवरी 2021
श्याम बेनेगल ब्लेज कंपनी के लिए विज्ञापन फिल्में बनाते थे। इसी कंपनी ने उनकी पहली कथा फिल्म, शबाना आज़मी अभिनीत ‘अंकुर’ में भी धन लगाया। ‘अंकुर’ सामंतवादी कुप्रथाओं का विवरण प्रस्तुत करती है। सामंतवाद कानूनी रूप से समाप्त किए जाने के बाद भी जीवित बना रहा है और उसने गणतांत्रिक मुखौटा भी धारण किया है। ‘अंकुर’ के अंतिम सीन में नाजायज बच्चा सामंतवादी हवेली पर पत्थर फेंकता है। श्याम बेनेगल का सिनेमा ही वह पत्थर है जो शोषण के द्वारा बनाई हवेलियों पर गिरता रहा है। उनकी दूसरी फिल्म निशांत’ भी कुप्रथाओं को उजागर करती है। दूध व्यवसाय को सहभागिता संगठन बनाने का काम कूरियन ने किया था। दुग्ध सहकारिता संगठन के सदस्यों के रुपए लेकर स्मिता पाटिल अभिनीत ‘मंथन’ बनाई। सारे सदस्यों ने टिकट खरीदकर अपनी ही फिल्म को देखा। गोयाकि जिनकी पूंजी से फिल्म बनी थी, उन्हीं लोगों ने दर्शक के रूप में अपनी पूंजी को वापस मुनाफ़े के रूप में प्राप्त किया। जैसे, धरती पर पड़ा पानी सूर्य की किरणों से वाष्प बनता है और बादल बनाता है अर्थात ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।’
श्याम बेनेगल के पिता यायावर प्रकृति के मनुष्य थे और हर स्थान के स्थिर चित्र लेते थे। उन्होंने अपनी संतानों के चित्र भी लिए। ये चित्र जन्म से लेकर उनकी बचपन की वय तक के चित्र थे। श्याम बेनेगल के पास अपने पिता द्वारा लिए गए बचपन के फोटोग्राफ्स आज भी सुरक्षित रखे हैं। इन्हें वसीयत और विरासत की तरह संभाल कर रखते हैं। उनके पिता ने 16 एमएम की फिल्म दिखाने का उपकरण अपने घर पर लगाया था। वे पूरे परिवार के साथ फिल्में देखते थे। श्याम बेनेगल ने युवावस्था में सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ 50 बार देखी है। डिसिका की ‘बायसिकल थीव्ज’ भी अनेक बार देखी है। इन फिल्मों को देखकर उन्होंने फिल्म विद्या को समझने का प्रयास किया। उनके पिता ने उन्हें फिल्म देखने का शौक दिया, अपना कैमरा दिया। ‘पाथेर पांचाली’ और ‘बायसिकल थीव्ज’ उनके लिए पाठ्यक्रम की पुस्तकों के समान रहीं।
एक दौर में लीक से हटकर कुछ फिल्में बनीं, जिन्हें समानांतर सिनेमा कहा गया। श्याम बेनेगल का कहना है कि इन समानांतर फिल्मों को देखने वाले दर्शक अपने मित्रों और रिश्तेदारों को यह दिखाना चाहते थे कि समानांतर सिनेमा को देखना और सराहना करना ही उन्हें विशेष पढ़ा-लिखा होना साबित करता है। अर्थात वे सचमुच इन फिल्मों को पसंद नहीं करते थे, वरन इसे वैचारिक फैशन की तरह मानते थे।
श्याम बेनेगल का कहना है कि अमेरिका के विभिन्न शहरों में सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ बार-बार प्रदर्शित हुई और देखी गई है। जिस तरह भारत में समानांतर सिनेमा देखना फैशन से अधिक कुछ नहीं रहा, उसी तरह अमेरिका में भी ‘पाथेर पांचाली’ को देखा और सराहा जाना भी एक फैशन ही रहा है।
जीवन के इतने लंबे सफर में उनका दफ्तर और निवास स्थान एक ही रहा है। प्राय: सफलता मिलते ही लोग अपना निवास स्थान और दफ्तर बदलते हैं। उनकी विचार प्रक्रिया नहीं बदलती। श्याम का अपना निवास स्थान और दफ्तर कायम रखना उनकी विकसित मानसिक अवस्था का प्रतीक है। श्याम ने शशि कपूर के लिए ‘रस्किन बॉन्ड’ के उपन्यास से प्रेरित बड़े बजट की ‘जुनून’ बनाई और महाभारत की कथा को महानगर में रोपित करने वाली फिल्म ‘कलयुग’ बनाई। श्याम हमेशा समसामयिक, सामाजिक समस्याओं पर रोचक फिल्में बनाते रहे हैं। क्या वे किसान आंदोलन पर फिल्म बनाएंगे? क्या ऐसी फिल्म कभी प्रदर्शित हो सकती है? आज श्याम बेनेगल उस उम्रदराज थके-हारे व्यक्ति की तरह हैं जो अपनी जीवन यात्रा पर अजनबी फिल्म को अपने मन के स्क्रीन पर अपने अवचेतन के कैमरे से शूट कर चुका है। संभव है कि वे इस फिल्म को अपने पिता द्वारा उपयोग में लाए हुए कैमरे से शूट करें।