श्याम बेनेगल से परिचर्चा / दीप्ति गुप्ता
लखनऊ से हिन्दी की एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका निकलती है - ‘लमही’ ! इस पत्रिका के संपादक हैं प्रेमचंद जी के प्रपौत्र विजय राय ! ‘लमही’ बनारस के पास एक गांव है जहां ‘प्रेमचंद जी’ का जन्म हुआ था - उस गांव के नाम पर ही इस पत्रिका का नाम ‘लमही’ रखा गया है !
२०१० में विजय राय जी ने इसका ‘सिने विशेषांक’ निकालने की योजना बनाई तो मुझसे निवेदन किया कि मैं किस तरह के आलेख से इस विशेषांक में अपनी ओर से योगदान कर सकती हूँ ? पहले तो मुझे कुछ सूझा ही नहीं कि फिल्मों से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं तो मैं क्या और किस तरह का योगदान कर सकती हूँ ? विजय राय जी बोले – ‘फिर भी कुछ सोचिए और बताइए !’ कुछ दिन बाद एक विचार मेरे दिमाग में कौंधा - वह ये कि पूना के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ने फिल्म इंडस्ट्री को बड़े मंजे हुए निदेशक, निर्माता और अभिनेता दिए हैं जिन्होनें सन्देश परक सार्थक फ़िल्में बनाकर विश्व में भारत को ख्याति अर्जित कराई और जीवन और समाज के विविध रूप प्रस्तुत कर, उसकी विषद जानकारी दर्शकों को दी ! फिल्म इंडस्ट्री समाज का ही एक हिस्सा है ! क्योंकि फिल्मों में वही प्रतिबिंबित और दर्शित होता है जो समाज में घट रहा होता है ! फिल्मों के कथा सूत्र, तमाम पात्र, अच्छी-बुरी घटनाएँ निर्माता निर्देशक समाज से ही उठाते हैं और फिल्म में रूपांतरित कर देते हैं ! अधिकतर निर्माता -निर्देशकों का ध्येय, अर्थपूर्ण कथा को लेकर उसमे कमर्शियल सफलता की दृष्टि से कुछ आकर्षक मनोरंजकपरक चीजे डालते हुए, समाज और जीवन के यथार्थ रूप को दिखा कर जनता तक यह सन्देश पहुंचाना होता है कि वस्तुत: समाज और जीवन को होना कैसा चाहिए ! इसलिए मैं कुछ चुनिन्दा निर्माता निदेशकों और अभिनेता- अभिनेत्रियों के साथ एक सार्थक परिचर्चा इस पत्रिका के लिए भेज सकती हूँ ! विजय राय जी को यह विचार भा गया और उन्होंने मुझे इस कार्य को अंजाम देने की पूरी स्वतंत्रता और अधिकार इस मायने में दिया कि परिचर्चा में भाग लेने वाली फिल्म हस्तियों का चयन मैं अपनी पसंद से कर सकती हूँ , फिर प्रश्न भी अपनी सोच-समझ से बना सकती हूँ ! फलत: मैंने चुनिन्दा सिने- हस्तियों से संपर्क साधा और सबके साथ अपनी बातचीत को अंतिम रूप - ‘परिचर्चा’ में ढाल कर, पत्रिका के लिए भेज दिया ! मैंने यह कार्यभार लेकर जिन नामी फिल्म हस्तियों से बातचीत की उनमें सबसे यादगार बातचीत हुई प्रख्यात निर्माता निदेशक – ‘श्याम बेनेगल साहब’ से जिन्हें पहले ही दिन से मैंने ‘दादा’ कह कर पुकारा ! सो उनके साथ हुई यादगार बातचीत आप सबके लिए प्रस्तुत है
चर्चा :
दीप्ति : दादा, सामाजिक दायित्व को आप किस तरह व्याख्यायित करेंगे ?
श्याम बेनेगल : दीप्ति, ज़रा आसान सवाल पूछना ! साहित्यकारों से मैं थोड़ा अपने को सम्हाल कर बात करता हूँ क्योंकि उनकी हर चीज़ पर पकड़ बड़ी अनोखी और गहरी होती है ! हाँ, तो आपने पूछा - सामाजिक दायित्व का मतलब है?
सामाजिक दायित्व का मतलब है - समाज के विकास, उसकी उन्नति में सहयोग देना, उसकी भलाई और हित से जुड़े काम करना। यह ‘थ्रीफोल्ड’ कार्य है अ) समाज का सदस्य होने के नाते हर इंसान का फ़र्ज़ बनता है कि वह कोई भी ऐसा कार्य न करे, न कोई ऐसी बात कहे जो समाज को तोडने का काम करे या उसके विकास को रोके या किसी तरह की कलह या क्लेश पैदा करे.
आ) समाज के लिए जिम्मेदारी निभाने का दूसरा ढंग यह भी है कि समाज में यदि दूसरा इंसान कोई ऐसा गलत काम कर रहा हो जिससे समाज में अशांति फ़ैलने का खतरा हो या जो भाई चारे को खत्म करता हो, तो हमें ऐसे समाज विरोधी तत्वों को रोकना चाहिए, उनका विरोध करना चाहिए। इस तरह समाज की रक्षा कर, उसके प्रति अपना दायित्व पूरा करना चाहिए इ) समाज के लिए जिम्मेदारी निभाने का तीसरा ढंग है उन ‘पाजीटिव’ सदस्यों का साथ देना - जो समाज हित में काम कर रहे हो और उन्हे मदद की ज़रूरत हो, ‘ग्रुप सपोर्ट’ की आवश्यकता हो। हम सब के इस तरह के कार्य, एक्शन हमारे समाज दायित्व को परिभाषित करते है।
दीप्ति : आपने ज़मींदारी प्रथा, मानवीय रिश्तों, इतिहास आदि को लेकर अंकुर, निशान्त, सूरज का सांतवा घोडा, जुबैदा, आदि अनेक सार्थक फिल्में बनाई ! क्या आपकी नज़र में फिल्मों का सामाजिक दायित्व है?
श्याम बेनेगल : निश्चित ही फिल्मों का सामाजिक दायित्व है। मेरी नज़र में फिल्म निर्माण, उनका प्रोडक्शन मूलरूप से एक ‘सामाजिक कला’ है। जैसे गायन, नृत्य, रंगमंच अभिनय, टी..वी. भी ‘सोशल आर्ट’ हैं, वैसे ही फिल्म- प्रोडक्शन भी ‘सोशल आर्ट’है। सिर्फ कथानक, पात्रों के अभिनय, संवाद, मौके के अनुसार दुखद और सुखद पार्श्व संगीत, सीन के अनुरूप भावभीने गीतों की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि तकनीक और समय के साथ बेहतर रूप से विकासित तकनीक की दृष्टि से भी फ़िल्में ऐसा ‘कलात्मक माध्यम’ हैं जिसे निर्माता डायरेक्ट और इनडायरेक्ट ‘विज्युल्स’ के सांकेतिक प्रस्तुति से सारपूर्ण बातों को और अधिक खूबसूरती के साथ आम जनता तक पहुंचा सकते हैं। फिल्म सबसे कटकर ‘आईसोलेशन’ यानी अकेले एकान्त में संचालित की जाने वाली कला नहीं है। एकबारगी आप अपनी भावनात्मक पीड़ा अथवा खुशी के ज्वार को विरेचित करने के लिए कही अकेले में बैठ कर गा सकते हैं, नाच सकते हैं कविता, कहानी आदि साहित्यिक रचना कर सकते है, लेकिन फिल्म का एकांत से, एकल आदमी से कोई नाता नहीं। दीप्ति, यह तो विशुध्द रूप से जन समुदाय से जुडा ‘आर्टिस्टिक क्रिएशन’ यानी ‘कलात्मक सृजन’ कलात्मक प्रक्रिया है। फिल्म निर्माता जो भी प्रोजेक्ट करते हैं, वह आसपास के ही नही, वरन दूर दूर के गाँवों, शहरों और देश की सीमाओं से बाहर विदेशों तक जाता है। इसलिए फिल्म निर्माण एक ‘सोशल आर्ट’ है। समाज से यह गहराई से जुडा है।
दीप्ति, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि फिल्मों की ‘परसुएसिव’ क्षमता बहुत ज़बरदस्त होती है। मतलब कि फिल्में सहज ही समाज को अपने दृष्टकोण से, अपने अभिमत से, अपने तर्क से, अपनी प्रस्तुति से अपने पक्ष में करने की क्षमता रखती हैं। वे समाज को, दर्शकों को गहराई से प्रभावित करती हैं। उनके दिलो दिमाग और भावनाओं को पकडती व जकडती हैं। इस तरह फिल्म व्यवसाय, फिल्म निर्माण पूरी त्तरह समाज से जुडा है और चूंकि समाज से उसका गठबंधन है, तो फिल्मों की जिम्मेदारी बनती है कि वे पाजिटिव सोच व प्रेरणा, समाज को और उसमें रहने वाले प्रत्येक प्राणी को दे। इस गंभीर जिम्मेदारी से फिल्म इंडस्ट्री अपना पल्ला नहीं झाड सकती। इसके तहत ईमानदारी से यह भी संकेत करना चाहूँगा कि जो निर्माता - निदेशक फिल्म निर्माण को लेकर रचनात्मक नहीं हैं, जो ज़रूरी सामाजिक व जीवन से जुड़े मुद्दों को लेकर नहीं चलते, वे इस ‘सोशल आर्ट’ और समाज, दोनों के प्रति अपनी किसी भी तरह की जिम्मेदारी नहीं निभा रहें हैं। ऐसी उद्देश्यविहीन फ़िल्में, दर्शकों के दिलो-दिमाग पर किसी तरह का असर नहीं छोडती।
दीप्ति : दादा, क्या आज तक सभी फिल्म निर्माता और निर्देशक सच्चाई और ईमानदारी के साथ अपने ‘सामाजिक दायित्व’ का निर्वाह करते रहें हैं ?
श्याम बेनेगल : जिन निर्माता और निर्देशकों ने जीवन और समाज से जुड़े अहम विषयों को लेकर फ़िल्में बनाई हैं और उन्हें संजीदगी से संवार कर पेश किया है, वे सभी निर्माता और निर्देशक ईमानदारी के साथ अपने ‘सामाजिक दायित्व’ का निर्वाह कर रहें हैं और करते रहे है।
दीप्ति : यदि कर रहे हैं तो उन फिल्मों के बारे बताइए, जिन्होंने समाज को सही दिशा देने में अपना दायित्व बखूबी निभाया है।
श्याम बेनेगल : दादा फालके से लेकर पृथ्वी - थियेटर्स, महबूब खान, आर. के. बैनर, बंगाल के सत्यजित राय, घटोत्कच, मृणाल सेन, अजंता आर्ट्स, गुलज़ार आदि इन सभी निर्माता और निर्देशकों ने समाज को सही दिशा देने में अपना दायित्व बखूबी निभाया है।
दीप्ति : दादा, पिछले कुछ वर्षों से निर्माता और निर्देशक सामाजिक सन्देश से रहित, उद्देश्यविहीन व ‘यथार्थ के घिसे-पिटे सांचे में ढली’ फ़िल्में दर्शकों को दे रहें हैं तो इसका कारण और निदान – दोंनो के बारे में आपका क्या कहना है ?
श्याम बेनेगल : दीप्ति , यह आपने एक समसामयिक महत्वपूर्ण सवाल उठाया ! कुछ वर्षों से निर्माता और निर्देशक सामाजिक सन्देश से रहित, उद्देश्यविहीन व ‘यथार्थ के घिसे-पिटे सांचे में ढली’ फ़िल्में दर्शकों को दे रहें हैं; जिसका कारण है सनसनी खेज,‘सैसेशनल’ फिल्मों के प्रति चाव, और उससे मिलने वाले ‘धन’ से लगाव ! ‘सैसेशनल’ फिल्म’ दर्शकों में भी वैचारिक और भावनात्मक उत्तेजना पैदा करती हैं, जो उन्हें कम समय के लिए ही सही, पर एक तरह की ऊर्जा से भरता है जो उन्हें अच्छा लगता है। समाज में, दर्शकों में सैंसेशन या थ्रिल पैदा करना यानी ‘सैंसेसेशनल’ फिल्म और ‘थ्रिलर’ बनाना ‘इल्लेजीटिमेट’ यानी अवैधानिक नहीं है किन्तु अगर वह थ्रिलर या ‘सैंसेशनल’ फिल्म समाज में, जनता में विकृति पैदा करती हैं तो उस स्थिति में वे फ़िल्में आपत्तिजनक मानी जाएगीं। मतलब कि फिल्म में दिखाई गयी सनसनीपूर्ण चीजे, दृश्य यदि दर्शकों की साफ़ सुथरी मानसिकता, पाजिटिव सोच पे चोट करती हैं, उसे तोडती है, और इस तरह लोगों को गुमराह करती हैं, तो हिंसा, सैक्स,मारकाट से बोझिल फ़िल्में सख्ती से बायकाट करने योग्य होती हैं। तब वे असामाजिक और गैरजिम्मेदार सृजन की कैटेगरी में आएगी।
दीप्ति : अच्छा, दादा ! यह बताईए कि क्या निदेशन-कला कि यह खूबी नहीं होनी चाहिए कि यथार्थ जैसा कि हम सब जानते हैं – हमेशा से नग्न, कलुष और निकृष्ट होता है, उसके कुपरिणामों को दर्शित कर, आदर्श रूप - जो हमेशा से उदात्त, स्वच्छ और उजला होता है - उसका सन्देश दर्शकों को, समाज को दे?
श्याम बेनेगल : देखिए दीप्ति, निर्माता के पास फिल्म के रूप में ‘पावर आफ एक्सप्रेशन ‘ है, पावर आफ प्रेजेंटेशन’ है, तो उसे इसका प्रयोग समाज को, दर्शकों को सही राह दिखाने में करना चाहिए, समाज की सही सोच जगाने में करना चाहिए। फिल्म एक ऐसा ‘मल्टीडायमेंशनल’ माध्यम है जिसका विस्तार,फैलाव और ऊंचाई मापी नहीं जा सकती। निर्माता और निदेशक की निदेशन-कला पर निर्भर करता है कि वह अपने संपन्न विज़न का कितना और किस तरह सदुपयोग करता है। वह चाहे तो समाज को मूल्यों की ऊंचाईयों पर ले जा सकता है, और चाहे तो पतन के गर्त में धकेल सकता है। होना यह चाहिए और यह बिलकुल सौ प्रतिशत संभव भी है कि निदेशक समाज को उसकी कमियों व कमजोरियों के साथ दर्शाता हुआ, उसके बाद, समाज की सशक्त और रौशन परतों को उजागर करके, दर्शकों को इंसानियत भरी सोच दे। समापन :
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया दादा कि आपने अपने सुलझे और निखरे हुए विचारों से हमें अवगत कराया और पाठकों को पढने के लिए सुन्दर एवं सार्थक सामग्री दी !
श्याम बेनेगल: God Bless you... Deepti and thanks for such a nice and thoughtful talk and making me the part of।t .