श्रद्धांजलि-कार्यक्रम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
वैसे तो यह बड़े अफ़सोस का विषय है कि आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी हम जीवित व्यक्ति को श्रद्धांजलि अर्पित नहीं कर सकते, परन्तु इतना होने पर भी हम लज्जा महसूस नहीं करते। हम जीवित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा-भाव भले ही न रखें; परन्तु दिवंगत के प्रति तो हमारा हृदय चटाई की तरह बिछ जाता है। हम श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के नाम पर शब्दों का पूरा बगीचा ही उजाड़ने पर तुल जाते हैं।
मेरे कस्बे के श्री हुलास चंद जी सीढ़ी से फिसलकर क्या गिरे कि फिर उठ ही न पाए। जो थोड़ी बहुत कमी रह गई थी उसे अस्पताल वालों ने अपनी अभूतपूर्व सेवा के द्वारा पूरा कर दिया। भेंट-पूजा न मिलने से डॉक्टर अपना चोला बदल लेता है। बदले हुए रूप में वह यमराज का कार्य ख़ुद ही सम्पन्न कर लेता है। मरीज बेचारा, मायामय संसार छोड़ने के लिए बाध्य हो जाता है।
हुलास चंदजी का पार्थिव शरीर घर ले आया गया। कुछ ही देर में भीड़ जुटने लगी। भीकम सिह मौके की नज़ाकत ताड़ गए। उन्होंने चेहरे को उदासी से पोतकर प्रस्ताव रखा-"भाई हुलास चंद जी इस कस्बे की बहुत बड़ी हस्ती थे। उनके सम्मान में सब लोग कुछ मिनट का मौन रखेंगे। मौन के तुरन्त बाद कुछ गिने-चुने लोग अपने-अपने उद्गार प्रकट करेंगे। इससे दिवंगत की आत्मा को शांति प्राप्ति होगी!"-फिर रूमाल में आँखें पोंछकर ओर नाक सुड़ककर भीकम सिह जी बोले-
" भाई हुलास चंद जी ने अपनी उम्र के सत्तर साल पूरे कर लिये थे। मरना लगभग निश्चित ही था। अगर न मरते, तो कुछ साल और जी लेते और जीकर करते भी क्या; क्योंकि जो-जो करना था, पहले ही कर चुके थे। इस भीड़ में बहुत सारे लोग होंगे जो उन्हें अपने जीते जी नहीं भूल पाएँगे। वे अगर न होते तो हमारे बहुत से भाई कचहरी के बारे में न जान पाते, जेल के बारे में न जान पाते। उम्र भर कूप-मण्डूक बने रहते। हुलास चंद जी कॉलिज के चेयरमैन रहे। बिरादरी की बहुत भलाई की। जो योग्य था उसे स्कूल का प्रधानाचार्य बनाया, जो किसी लायक नहीं था, उसे और कुछ न सही, चपरासी तो बना ही दिया। भलाई करने का उनका रेट भी बहुत कम था। मैं परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वे हुलास चंदजी की आत्मा को स्वर्ग में रखें, वैसे प्रभु की इच्छा; नरक में रखेंगे, तो वे वहाँ भी मस्ती से रह लेंगे। स्वर्ग में रहने से वहाँ की आत्माएँ भी उनसे कुछ दाव-पेंच सीख लेतीं, तो भगवान के लिए ठीक रहता।
भीकमसिह जी के बाद (मुहल्ले के शायद सबसे बड़े) शायर 'नीम-हकीम' जी अपनी टोपी सँभालते हुए उठे और पाँच बार खाँसकर बोले-" जनाब हुलासचन्द जी अल्लाह को प्यारे हो गए हैं, आप सभी को मालूम है। ताउम्र मुझे मलाल रहेगा। कि उन्होंने मेरी शायरी नहीं समझी। इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि वे कमअक़्ल थे। जो बड़े-बड़े तीसमारखाँ शायर हैं, वे भी उनके जज़्बात नहीं समझ सकते थे। यही वज़ह है कि बहुत से लोग उनसे गच्चा खा गए।
आखिर में उनकी रूह के लिए मेरी तरह से एक तोहफ़ा-
' मर गए हो तुम इस तरह से इस बस्ती में,
गोया कि हर चाहने वाला जी उठा फिर से। '
सुनने वालों की आँखें भर आईं। परसनाथ लस्सी वाले आगे बढ़े। अपने होठों को सिकोड़कर चोंच की तरह बनाया और जनाना, आवाज़ में बोले-"हमने हुलासचन्द जी को खोकर बहुत नुक़सान उठाया है, औरों ने भी उठाया होगा। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि सभी ने उठाया होगा। ईश्वर ने भी उनको इसलिए उठाया होगा। भगवान् करें सब ऐसे ही उठें, ख़ूब ऊँचे उठें। ज़िन्दगी में कई तरह के फेरबदल होते हैं। ज़िन्दगी कभी दूध है, कभी दही और कभी लस्सी। मैं चाहता हूँ कि उनकी आत्मा को ठंडक पहुँचे, जैसे गर्मियों में लस्सी ठंडक पहुँचाती है।" परसनाथ जी ने अपना मुँह पोंछा यद्यपि मुँह पर लस्सी का झाग तक नहीं था। साँड की तरह हुंकार भरकर वे चटाई के कोने पर उकड़ू बैठ गए।
इसी बीच भीड़ को चीरकर इलाके के नेता चिपकूलाल जी आगे बढ़े। नावनुमा टोपी को सिर पर जमाकर नम आवाज़ में बोले-"मुझे बड़ा अफ़सोस है कि हुलासचन्द जी मेरी गैरहाजिरी में मर गए। मैं तो अपनी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। मेरा सौभाग्य है, जो मुझे ऐसा अवसर मिला। मैंने पढ़ा था कि श्रद्धा से ज्ञान प्राप्त होता है। मैं तभी से बहुत सारे जीवित और मृत लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित कर चुका हूँ। यह मेरे लिए ही नहीं; बल्कि आप लोगों के लिए भी बड़े गौरव की बात है। हुलासचन्द जी महान् आदमी थे। हमारे कस्बे में इस समय उनका स्थान लेने वाला कोई नहीं है। वे इस महान् देश के महान् आदमी थे। उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ किया। लोगों को बहुत कुछ सिखाया। उनकी अत्मा इस कस्बे की गलियों में, दुकानों में चक्कर काटती रहेगी। आइए। आज हम सब प्रतिज्ञा करें कि जीवन भर उनके रास्ते पर चलेंगे।"
चिकपूलाल जी ने शव पर फूल चढ़ाए ही थे कि शव में हरकत हुई। लोगों में भगदड़ मच गई। जिसको जिधर रास्ता मिला, भाग निकला। केवल चिपकूलाल जी खड़े रहे। मुँह से कोई शब्द तो नहीं निकला; परन्तु वे भयभीत नहीं थे। दरअसल, अर्थी का बाँस खुल गया था, जिससे शव एक तरफ़ लुढ़क गया था। मुझे लगा कि हुलासचन्द जी की आत्मा श्रद्धांजलि-कार्यक्रम सुनकर जन्म-मरण से मुक्त हो गई होगी।