श्रद्धांजलि / सतीश दुबे
पिता की मौत हुए चार दिन हो चुके थे। वह घुटनों पर चेहरा नीचे किए बैठा था। तभी छोटे भाई ने कान में बुदबुदाया, ‘‘पिता के दफ्तर से एकाउण्टेण्ट आए हैं।’’ उसने सिर उठाकर, सामने बिछे जूट के बोरे पर गमगीन मुद्रा बनाए आलथी–पालथी मारकर बैठे व्यक्ति की ओर देखा। पाँचेक मिनट बाद वह बोरे सहित उसकी ओर खिसका, ‘‘मौत के तीसरे दिन बाद मिलनेवाला एक्सग्रेशिया पेमेन्ट ले आया हूँ.....सरकार की जी0सी0पर यही बड़ी मेहरबानी है। लो, ए0आर0पर दस्तखत कर दो।’’ उसने दस्तखत कर दिए। उन्होंने नोटों की गड्डियाँ उसकी ओर खिसका दीं। ‘‘गिना लो !...तुमसे क्या बताएँ, पटेल बाबू बड़े अच्छे आदमी थे। सज्जन इतने कि बेजा लफ्ज कभी जबान पर नहीं लाए...किफायत–पसंद बहुत थे; कहते थे–एक पैसा भी इधर–उधर खर्च करना संतान का पेट काटना है।’’ डसकी निगाहें उनकी ओर उठ गई। ‘‘हाँ–हाँ ....ऐसा ही सुझाव था उनका। शायद तुम्हें नहीं मालूम वो पीने के शौकीन थे, पर पीना नहीं चाहते थे इसलिए कि....’’ ‘‘यह आप गलत बोल रहे हैं, उन्होंने ताजिन्दगी.....’’ ‘‘तुम बच्चे हो, क्या जानो! वे इसलिए नहीं पीते थे कि पैसा खर्च होगा।’’ उसने पिता की याद में आँसू पोंछ लिए। ‘‘अच्छा, मैं चलता हूँ....’’ ‘‘जी, अच्छा....’’ ‘‘सुनो! ऐसा करो, इसमें से सौ–दो सौ रुपए दे दो.....हम एक–दो लोग कहीं बैठ लेंगे....इससे उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।’’ ‘‘आप लोगों के शराब पीने से उनकी आत्मा को शांति मिलेगी?’’ ‘‘ हाँ, तनखा के अलावा जो भी पेमेन्ट मिलता था, उसमें से वे जरूर कुछ न कुछ देते थे, और कहते थे–इसकी दारू पी लेना....अपने पैसे से हमको पीते देख वे खुश होते थे....’’ उसने उनकी ओर घृणा की दृष्टि से देखा तथा नोट उनके सामने रख दिए, ‘‘ले लीजिए।’’ उन्होंने सौ के दो नोट उठा लिए तथा ‘अच्छा, मैं चलता हूँ’ की मुद्रा में उठ खड़े हुए।