श्रम एव जयते / जयनन्दन

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साँचा:GKUpanyaas

अनेक गगनचुम्बी चिमनियों से आकाश में मँडराता काला धुआँ दूर से एक कारखाने के अस्तित्व का अहसास करा देता था। पास यह पूरे इलाक़े पर छायी अलकतरे से रँगी काली छत-सा लगता था, जिसे भेदने में सूरज तक असमर्थ नज़र आता था।

कारखाने का गेट किसी विशालकाय राक्षस के जबड़े-सा हमेशा खुला रहता था। वहाँ मगरमच्छी की मुद्रा में पाँच-सात वर्धीधारी सुरक्षाकर्मी तैनात रहा करते थे। जब ड्यूटी पर मज़दूरों के आने का, आदमखोर शेर सदृश्य गगनभेदी सायरन दहाड़ता तो गेट के सामने कुकुरमुत्ते-सी उग आयी चाय-पान की गुमटियाँ और कालोनी से आने वाली सड़क ज़ोरदार हरकत में आ जातीं। लोग फटापट खैनी-बीड़ी तथा चाय-पान जैसी ज़रूरतें निपटाकर यूँ भागते जैसे जंगल में हाँका पड़ गया हो।

फिर लोग अधिकतम पाँच मिनट के भीतर गेट में इस तरह समा जाते जैसे किसी अजगर ने अपनी शक्तिशाली साँस द्वारा खींचकर लील लिया हो इन्हें। गेट से ढाई-तीन सौ गज दूर एक-पर-एक रखकर सजी हुई माचिस-डिबिया की मानिन्द वर्कर्स-फ्लैट नज़र आ रहे थे। हाँलाकि उनमें रहने वाले लोग बारूद वाली तीली नहीं थे। अगर थे भी तो एक भीगी हुई तीली, जिसे जलने के पहले गर्म होना आवश्यक होता है।

आग पैदा करने वाली तीली का भीगना कितनी बड़ी विडम्बना है ! इन्हीं विडम्बनाओं के कुछ प्रतिनिधि चरित्र प्रथम पाली की सायरन-चीख पर कारखाने की तरफ बढ़े जा रहे थे।–कोई पान चबाते या चूना चाटते, कोई बीड़ी पीते या खैनी मलते, कोई अधछूटी चाय की मर्सिया पढ़ते, कोई निजी परेशानियों में मन-ही-मन गुणाभाग करते। इन गुणा-भाग करने वालों में ही एक नाम केदार था। अपनी ही धुन में वह सरपट यूँ बढ़ रहा था जैसे चल नहीं बल्कि किसी चिकने तल पर फिसल रहा हो।

पीछे से वर्करों के झुण्ड ने उसे आवाज़ लागायी तो झेंपते हुए उसने अपनी चाल घटा दी। कुछ ही पल बाद एक साथ हो गये। चलते-चलते ही आदतन उसने सबसे हाथ मिलाये। वे उसके ही मित्रमाला के मनके बद्री, सुधीर, हरीश, गेंदा, सलवर और रज्जब थे।


अब तक वे चलते-चलते गेट पर आ गये थे। सिक्यूरिटी दोहनसिंह ऊँची आवाज़ में गेट पर तैनात ‘गेटपास...गेटपास’ की रट लगाये जा रहा था। कुछ ऊपर, कुछ बगल कुछ पीछे की जेब की ओर संकेत करते हुए गेट पार करते जा रहे थे। इसी दोहनसिंह ने जमींदारी वाली कड़क दिखाकर रज्जब को टोका-लगा जैसे कोई पुराना खार हो।

‘‘ओ मियाँ जी, ज़रा खोलकर दिखाओ गेटपास।’’

पलभर के लिए कुछ लोग थम गये थे। स्वर की कर्कशता उन्हें अखर गयी थी।

दोहन ने अपने को और कटु कर लिया, ‘‘आँख क्या दिखा रहे हो गेटपास दिखाओ।’’

रज्जब ने उसे सहज करने के लिए मुसकराने की कोशिश की, ‘‘दस साल से तो देख ही रहे हैं लीजिए, आज भी समाद फरमाइए।’’ उसने गेटपास खोलकर दिखा दिया फिर लपककर सबके साथ हो लिया।

केदार ने गेंदा को देखते ही पूछा, ‘‘गेंदा भाई ! पता चला कि मैट्र्कि का रिज़ल्ट निकला गया ?’’

मेरा लड़का बुन्देल और बद्री की लड़की सुनयना ने प्रथम श्रेणी पायी है।’’ गेंदा ने कहा।

‘‘वाह ! बधाई.... बहुत-बहुत बधाई ! हमारी कालोनी को गर्व है ऐसे होनहार बच्चों पर।’’


बद्री और गेंदा की छाती फूल-सी गयी। केदार ने इन्हें परामर्श दिया कि वे इनकों आगे पढ़ने के लिए कहीं से कोई रुकावट न आने दें। जोश में गेंदा ने अपने बेटे को डाक्टर बनाने की मंशा प्रकट की और कहा कि अपने न पढ़ने का मलाल तो इन बच्चों को ही पढ़ाकर मिटाना है। ऐसी चाह सम्भवताः भावी परिस्थिति से अनभिज्ञ हर बाप की होती है। बद्री भी अपनी बेटी को किसी ऊँचे ओहदे पर पहुँचाने की ख्वाहिश रखता था।

केदार की निगाह अचानक हरीश पर पड़ी तो उसे उसके बेटे के बारे में खयाल आ गया, ‘‘हरीश, तुम्हारे लड़के के दाखिले का क्या हुआ ?’’


हरीश ने संजीदा होने का नाटक करते हुए मसखरेपन से कहा, ‘‘यह सवाल सरेआम न पूछते तो अच्छा था। लड़के का इण्टरव्यू तो ठीक हुआ .......मगर उसके माँ-बाप का इण्टरव्यू बेकार हुआ इसलिए छँट गया वह।’’

चलते-चलते सब लोग ठठाकर हँस पड़े। मगर एक सुधीर था जो इन बातों से एकदम अप्रभावित गुमसुम दिखाई पड़ रहा था। सबकी निगाह एक साथ उसकी तरफ खिंच गयी। सलवर ने पहल की, ‘‘क्या बात है सुधीर, कुछ उदास-से लग रहे हो ?’’

‘‘अरे हाँ भाई ! ये कुछ हाँ-हूँ भी नहीं कर रहा..... बात क्या है यार ! कोई परेशानी है क्या ?’’ केदार ने उसे टटोलने की कोशिश की।

सुधीर ने टालने के अंदाज में कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं यार .....ऐसी कोई बात नहीं है।’’

हरीश ने फिर उसका पीछा किया, ‘‘देखो मामला तो कुछ ज़रूर है ...नहीं तो तुम इस प्रकार चुपचाप रहने वाले प्राणी नहीं हो। क्यों घरवाली से झगड़ा हुआ है क्या ?’’

हरीश के कहने का अंदाज हास्य पैदा कर रहा था। सुधीर ने उसे झिड़क दिया, ‘अरे चल न यार चुपचाप। देखते नहीं समय हो गया।’’

अब रज्जब ने भी अपनी चुटकी उछाल दी, ‘‘यार इसमें बुरा क्या है। जिसकी बीवी झगड़ती न हो, भला उसके जीवन में कोई लुफ्त है। तुम लोग एक से ही परेशान हो, मैं तो दो-दो के झगड़े देखो कितनी दिलेरी से झेल रहा हूँ।’’ रज्जब ने अपने सीने की मछलियाँ थोड़ी-सी हिला दीं।


मुसकान स्वतः तिर आयी सबके होठों पर।

इनकी तेज़ चाल के कारण रास्ते में धीमे चलनेवाले कुछ और उम्रदराज सहकर्मी साथ हो गये। इन्हीं में एक पूरन थे। सबने उन्हें देखते ही ‘प्रणाम-प्रमाण की झड़ी लगा दी। चूँकि ज़्यादा तेज़ अब चला नहीं जाता, इसलिए वे प्रायः काफ़ी समय रहते घर से निकल पड़ते थे। पर पता नहीं क्यों वे आज सायरन होने के बाद भी रास्ते में ही हैं।

केदार ने पूछा लिया, ‘‘लगता है पूरन दा, आज आपकी नींद भी देर से खुली।’’

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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