श्राद्ध / अशोक भाटिया
वह लौटी तो निराश थी। कल उसे अपने पति का श्राद्ध करना है। पांच पंडितों को भी न्योत आई है, पर अब तक एक पैसा भी पल्ले नहीं है। किसी ने उसे एडवांस भी नहीं दिया। वह चटाई पर लेटे-लेटे इस धर्म संकट से निकलने की जुगत में थी...
इतने में दयावती आ गई।
उसने उठते हुए पूछा, “कुछ जुगाड़ बना या नहीं?”
“बड़ी मुश्किल से कपूर औरों ने तीस रुपये एडवांस दिए, जैसे बहुत बड़ा अहसान कर रहे हों।“
दयावती ने मां को पैसे दिए, तो मां के मुंह से घड़े के पानी जैसा ठंडा श्वास निकला। अगले ही पल बोली, “ये मुझे क्या दे रही है, जाके रामजी वाले को कह, पांच आदमियों को खीर-पूरी खिलानी है - सामान दे देवे। कम पड़ें तो कहियो, फिर दे देंगे, भागे नहीं जा रहे।“
दयावती के मन में सवाल था- अपनी दो वक्त की रोटी का तो जुगाड़ नहीं और खीर-पूरी खिलाएं ! दुविधा में पड़ी वह जाने लगी, तो कोने में लेटे हुए भाई की तरफ उसका ध्यान चला गया। चादर हटाकर उसका गाल छुआ। वह तप रह था।
“हाय राम! इसे तो अभी तक बहुत तेज़ बुखार है, तवे जैसा तप रहा है। कुछ दवाई लेके नी दी ?”
“खराती हस्पताल से पर्ची बनवाई थी। पैसे ही न थे तो दवा कहां से लाती? तू जा, मैं पानी की पट्टी कर दूंगी।“
दो दिन पानी की पट्टी करने से ठीक न हुआ, तो अब कहां से हो जाएगा? सोचते-सोचते दयावती के मन में दोतरफा हवाएं टकराने लगीं। वह दोनों की ताकत का जायजा लेने लगी।
मां की बात ने उसे झिंझोड़ा, “अब जा भी जल्दी, देखती क्या है? फिर तैयारी में भी टैम लगेगा।“
दयावती ने मां से पूछा, “श्राद्ध करना क्या बहुत जरुरी होता है?”
“तेरा दिमाग घूम गया है क्या? सारे मुहल्लेवाल लीतर नी मारेंगे ? और तेरा बाप भी कह गया था कि श्राद्ध जरुर करना। उसकी आखिरी इच्छा भी पूरी न करें?”
“वो सब बाद में देख लेंगे। अभी तो इसको दवा की जरुरत है। कम से कम जिंदा को तो पहले बचा लेवें।“ कहकर दयावती ने माँ की आँखों में झाँका। वहां एक संकट आ खड़ा हुआ था।
“तू देख ले फिर, उसकी आत्मा भटकती रहेगी, मुझे कोसती रहेगी...।“
दयावती ने भाई की चादर हटाते हुए मां से पूछा, “ये बता, इसमें आत्मा नहीं है क्या? अगर इसे कुछ हो गया तो ?” कहते हुए दयावती ने आले में रखी दवा की पर्ची खोजी और मजबूत कदमों से बाहर निकल गई....