श्रीचंद्रावली नाटिका / भारतेंदु हरिश्चंद्र
॥ समर्पण॥
प्यारे!
लो तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है इस पुस्तक को भी उन्हीं की कानि से अंगीकार करो। इस में तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है। हाँ एक अपराध तो हुआ जो अवश्य क्षमा करना ही होगा। वह यह कि प्रेम की दशा छाप कर प्रसिद्ध की गई। वा प्रसिद्ध करने ही से क्या जो अधिकारी नहीं है उन के समझ ही में न आवेगा।
तुम्हारी कुछ विचित्र गति है। हमीं को देखो। जब अपराधों को स्मरण करो तब ऐसे कि कुछ कहना ही नहीं। क्षण भर जीने के योग्य नहीं। पृथ्वी पर पैर धरने को जगह नहीं। मुँह दिखाने के लायक नहीं और जो यों देखो तो ये लम्बे लम्बे मनोरथ। यह बोलचाल। यह ढिठाई कि तुम्हारा सिद्धान्त कह डालना। जो हो इस दूध खटाई की एकत्र स्थिति का कारण तुम्हीं जानो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैसे हों तुम्हारे बनते हैं। अतएव क्षमा समुद्र! क्षमा करो। इसी में निर्वाह है। बस-
भाद्रपद कृष्ण 14 हरिश्चन्द्र
सं. 1933
काव्य, सुरस सिंगार के दोउ दल, कविता नेम।
जग जन सों कै ईस सों कहियत जेहि पर प्रेम॥
हरि उपासना, भक्ति, वैराग, रसिकता, ज्ञान।
सोधैं जग-जन मानि या चंद्रावलिहि प्रमान॥
स्थान रंगशाला।
ब्राह्मण आशीर्वाद पाठ करता हुआ आया।,
भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर।
जयति अलौकिक घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर॥ 1॥
और भी,
नेति नेति तत् शब्द प्रतिपाद्य सव्र्व भगवान।
चन्द्रावली चकोर श्रीकृष्ण करौ कल्यान॥ 2॥
सूत्रधार आता है,
सू. : बस बस बहुत बढ़ाने का कुछ काम नहीं? मारिष मारिष दौड़ो, दौड़ो आज ऐसा अच्छा अवसर फिर न मिलैगा हम लोग अपना गुण दिखा कर आज निश्चय कृतकृत्य होंगे।
पारिपाश्र्वक आ कर,
पा. : कहो कहो, आज क्यों ऐसे प्रसन्न हो रहे हो? कौन सा नाटक करने का विचार है और उसमें ऐसा कौन सा रस है कि फूले नहीं समाते?
सू. : आः तुमने अब तक न जाना? आज मेरा विचार है कि इस समय के बने एक नये नाटक की लीला करूँ क्योंकि संस्कृत नाटकों को अपनी भाषा में अनुवाद करके तो हम लोग अनेक बार खेल चुके हैं फिर बारम्बार उन्हीं के खेलने को जी नहीं चाहता।
पा. : तुमने बात तो बहुत अच्छी सोची, वाह क्यों नहीं, पर यह तो कहो कि वह नाटक बनाया किसने है?
सू. : हम लोगों के परम मित्र हरिश्चन्द्र ने।
पा. : मुँह फेर कर, किसी समय तुम्हारी बुद्धि में भी भ्रम हो जाता है भला वह नाटक बनाना क्या जानै। वह तो केवल आरम्भशूर है और अनेक बड़े-बड़े कवि हैं, कोई उनका प्रबन्ध खेलते?
सू. : हँसकर, इसमें तुम्हारा दोष नहीं, तुम तो उस से नित्य नहीं मिलते, जो लोग उसके संग में रहते हैं वे तो उसको जानते ही नहीं तुम बिचारे क्या हो!
पा. : आश्चर्य से, हाँ मैं जानता ही न था, भला कहो उनके दो चार गुण मैं भी सुन सकता हूँ।
सू. : क्यों नहीं, पर जो श्रद्धा से सुनो तो।
पा. : मैं प्रति रोम को कर्ण बनाकर महाराज पृथु हो रहा हूँ, आप कहिए।
सू. : आनन्द से, सुनो-
परम प्रेम निधि रसिक बर, अति उदार गुन खान।
जग जन रंजन आशु कवि, को हरिचंद समान॥ 3॥
जिन श्री गिरिधरदास कवि, रचे ग्रन्थ चालीस।
ता सुत श्री हरिचन्द को, को न नवावै सीस॥ 4॥
जब जिन तृन सम करि तज्यौ, अपने प्रेम प्रभाव।
करि गुलाब सो आचमन, लीजत वाको नाव॥ 5॥
चन्द टलै सूरज टलैं, टलैं जगत के नेम।
यह दृढ़ श्री हरिचन्द को टलैं न अविचल प्रेम॥ 6॥
पा. : वाह वाह! मैं ऐसा नहीं जानता था, तब तो इस प्रयोग में देर करनी ही भूल है।
नेपथ्य में,
श्रवन सुखद भव भय हरन त्यागिन कों अत्याग।
नष्ट जीव बिनु कौन हरि गुन सों करै विराग॥ 7॥
हम सौंहू तजि जात नहिं, परम पुन्य फल जौन।
कृष्ण कथा सौं मधुर तर, जग मै भाखौ कौन॥ 8॥
सू. : सुनकर आनन्द से, आहा! वह देखो मेरा प्यारा छोटा भाई शुकदेव जी बनकर रंगशाला में आता है और हम लोग बातों ही से नहीं सुलझे। तो अब मारिष! चलो, हम लोग भी अपना-अपना वेष धारण करैं।
पा. : क्षण भर ठहरो, शुकदेव जी के इस वेश को शोभा देख लेने दो तब चलूँगा।
सू. : सच कहा, अहा कैसा सुन्दर बना है, वाह मेरे भाई वाह। क्यों न हो आखिर तो मुझ रंगरंज का भाई है॥
अति कोमल सब अंग रंग सांवरो सलोना।
घूंघर वाले बालन पै बलि वारौं टोना॥
भुज विशाल मुख चन्द झलमले नैन लजौंहैं।
जुग कमान सी खिंचीं गड़त हिय में दोउ भौहें॥
छवि लखत नैन छिन नहिं टरत शोभा नहिं कहि जात है।
मनु प्रेमपुंज ही रूप धरि आवत आजु लखात है॥ 9॥
॥ दोनों जाते हैं॥
॥इति प्रस्तावना॥
॥ अथ बिष्कम्भक॥
॥ आनन्द में झूमते हुए डगमगी चाल से शुकदेव जी आते हैं॥
शु. : (श्रवन सुखद इत्यादि फिर से पढ़कर) अहा संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है, कोई नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त, कोई मत मतान्तर के झगड़े में मतवाला हो रहा है, एक दूसरे को दोष देता है, अपने को अच्छा समझता है, कोई संसार को ही सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता है, कोई परमार्थ ही को परम पुरुषार्थ मानकर घर बार तृण सा छोड़ देता है। अपने-अपने रंग में सब रंगे हैं, जिसने जो सिद्धान्त कर लिया है वही उस के जी में गड़ रहा है और उसी के खंडन-मंडन में जनम बिताता है पर वह जो परम प्रेम अमृत मय एकान्त भक्ति है जिस के उदय होते ही अनेक प्रकार के आग्रह स्वरूप ज्ञान विज्ञानादिक अंधकार नाश हो जाते हैं और जिस के चित्त में आते ही संसार का निगड़, आप से आप खुल जाता है-किसी को नहीं मिली मिलै; कहाँ से, अब उस के अधिकारी भी तो नहीं हैं, और भी, जो लोग धार्मिक कहाते हैं उन का चित्त स्वगत स्थापन और पर मत निराकरण रूप वादविवाद से और जो विचारे विषयी हैं उनका अनेक प्रकार की इच्छा रूपी तृष्णा से, अवसर तो पाता ही नहीं कि इधर झुकैं। (सोच कर) अहा इस मदिरा को शिवजी ने पान किया है और कोई क्या पियैगा? जिस के प्रभाव से अर्धांग में बैठी पार्वती भी उनको विकार नहीं कर सकती, धन्य हैं, धन्य हैं और दूसरा ऐसा कौन है। (विचार कर) नहीं नहीं ब्रज की गोपियों ने उन्हें भी जीत लिया है, आहा इनका कैसा विलक्षण प्रेम है अकथनीय और अकरणीय है क्योंकि जहाँ माहात्म्य ज्ञान होता है वहाँ प्रेम नहीं होता और जहाँ पूर्ण प्रीति होती है वहाँ माहात्म्य ज्ञान नहीं होता। ये धन्य हैं कि इनमें दोनों बातें एक संग मिलती हैं, नहीं तो मेरा सा निवृत्त मनुष्य भी रात दिन इन्हीं लोगों का यश क्यों गाता है?
नेपथ्य में वीणा बजती है,
आकाश की ओर देख कर और वीणा का शब्द सुनकर,
आहा! यह आकाश कैसा प्रकाशित हो रहा है और वीणा के कैसे मधुर स्वर कान में पड़ते हैं। ऐसा संभव होता है कि देवर्षि भगवान् नारद यहाँ आते हैं? आहा! वीणा कैसे मीठे सुर से बोलती है। नेपथ्य पथ की ओर देखकर, अहा वही तो हैं, धन्य है कैसी सुन्दर शोभा है।-
पिंग जटा को भार सीस पै सुन्दर सोहत।
गल तुलसी की माल बनी जोहत मन मोहत॥
कटि मृगपति को चरम चरन मैं घुंघरु धारत।
नारायण गोविन्द कृष्ण यह नाम उचारत॥
लै बीना कर वादन करत तान सात सुर सों भरत।
जग अघ छिन मैं हरि कहि हरत जेहि सुनि नर भवजल तरत॥ 10॥
जुग तूंबन की बीन परम सोभित मन भाई।
लय अरु सुर की मनहुँ जुगल गठरी लटकाई॥
आरोहन अवरोहन के कै द्वै फल सोहैं।
कै कोमल अरु तीव्र सुर भरे जग मन मोहैं॥
कै श्री राधा अरु कृष्ण के अगनित गुन गन के प्रगट।
यह अगम खजाने द्वै भरे नित खरचत तो हू अघट॥ 11॥
मनु तीरथमय कृष्ण चरित की कांवरि लीने।
कै भूगोल खगोल दोउ कर अमलक कीने॥
जग बुधि तौलन हेत मनहुं यह तुला बनाई।
भक्ति मुक्ति की जुगल पिटारी कै लटकाई॥
मनु पांगय सों श्री राग के बीना हू फलती भई।
कै राग सिन्धु के तरन हित यह दोऊ तूंबी लई॥ 12॥
ब्रह्म जीव, निरगुन सगुन, द्वैताद्वैत विचार।
नित्य अनित्य विवाद के द्वै तूंबा निरधार॥ 13॥
जो इक तूंबा लै कढ़ै, सौ बैरागी होय।
क्यों नहि ये सब सों बढ़ैं, लै तूंबा कर दोय॥ 14॥
तो अब इन से मिल के आज मैं परमानन्द लाभ करूंगा।
ख्नारद जी आते हैं,
शु. : आगे बढ़कर और गले से मिलकर, आइए आइए, कहिए कुशल तो है? किस देश को पवित्र करते हुए आते हैं?
ना. : आपसे महापुरुष के दर्शन हों और फिर भी कुशल न हो यह बात तो सर्वथा असम्भव है; और आप से तो कुशल पूछना ही व्यर्थ है।
शु : यह तो हुआ अब कहिए आप आते कहाँ से हैं?
ना. : इस समय तो मैं श्रीवृन्दावन से आता हूँ।
शु. : अहा! आप धन्य हैं जो उस पवित्र भूमि से आते हैं ख्पैर छू कर, धन्य हैं उस भूमि की रज, कहिए वहाँ क्या क्या देखा?
ना. : वहाँ परम प्रेमानन्दमयी श्री ब्रजल्लवी लोगों का दर्शन करके अपने को पवित्र किया और उनकी विरहावस्था देखता बरसों वहीं भूला पड़ा रहा, अहा ये श्री गोपीजन धन्य हैं, इनके गुणगण कौन कह सकता है।
गोपिन की सरि कोऊं नाहीं।
जिन तृन सम कुल लाज निगड़ सब तोरौ हरि रस माहीं
जिन निज बस कीने नंदनन्दन बिहरी दै गलबांहीं।
सब सन्तन के सीस रहौ इन चरन छत्र की छांही॥ 15॥
ब्रज के लता पता मोहि कीजै।
गोपी पद पंकज पावन की रज जामैं सिर भींजै॥
आवत जात कुंज की गलियन रूप सुधा नित पीजै।
श्री राधे राधे मुख यह बर मुंह मांग्यौ हरि दीजै॥
प्रेम अवस्था में आते हैं और नेत्रों से आंसू बहते हैं।,
शु. : अपने आँसू पोंछ कर, अहा धन्य हैं, आप धन्य हैं, अभी जो मैं न सम्हालता तो बीना आप के हाथ से छूट के गिर पड़ती, क्यों न हो श्री महादेव जी के प्रीतिपात्र होकर आप ऐसे प्रेमी हों इसमें आश्चर्य नहीं।
ना. : अपने को सम्हाल कर, अहा ये क्षण कैसे आनन्द से बीते हैं, यह आप से महात्मा की संगत का फल है।
शु. : कहिए, उन सब गोपियों में प्रेम विशेष किस का है?
ना. : विशेष किसका कहूँ और न्यून किसका कहूं, एक से एक बढ़ कर हैं। श्रीमती की कोई बात ही नहीं वह तो श्री कृष्ण ही हैं लीलार्थ दो हो रही हैं तथापि सब गोपियों में भी चन्द्रावली जी के प्रेम की चरचा आज कल ब्रज के डगर-डगर में फैली हुई है। अहा! कैसा विलक्षण प्रेम है, यद्यपि माता पिता भाई बन्धु सब निषेध करते हैं और उधर श्रीमती जी का भी भय है तथापि श्रीकृष्ण से जल में दूध की भाँति मिल रही हैं लोक लाज गुरुजन कोई बाधा नहीं कर सकते किसी न किसी उपाय से श्रीकृष्ण से मिल ही रहती हैं।
शु. : धन्य हैं धन्य हैं, कुल को वरन जगत को अपने निर्मल प्रेम से पवित्र करने वाला है।
नेपथ्य में वेणु का शब्द होता है,
अहा यह वंशी का शब्द तो और भी ब्रजलीला की सुधि दिलाता है चलिए चलिए अब तो ब्रज का वियोग सहा नहीं जाता; शीघ्र ही चल के उसका प्रेम देखैं, उस लीला के बिना देखे आँखें व्याकुल हो रही हैं।
॥ दोनों जाते हैं॥
॥ इति प्रेममुख नामक विष्कम्भक॥
अंक प्रथम
॥ जवनिका उठी॥
स्थान श्री वृन्दावन; गिरिराज दूर से दिखाता है।
(श्री चन्द्रावली और ललिता आती हैं)
ल. : प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यों करती है?
चं. : नहीं सखी, मुझे शोच किस बात का है।
ल. : ठीक है, ऐसी ही तो हम मूर्ख हैं कि इतना भी नहीं समझतीं।
चं. : नहीं सखी मैं सच कहती हूँ, मुझे कोई शोच नहीं है।
ल. : बलिहारी सखी एक तू ही तो चतुर है, हम सब तो निरी मूर्ख हैं।
च. : नहीं सखी जो कुछ शोच होता तो मैं तुझ से कहती न? तुझ से ऐसी कौन बात है जो छिपाती।
ल. : इतनी ही तो कसर है जो तू मुझे अपनी प्यारी सखी समझती तो क्यों छिपाती?
चं. : चल मुझे दुख न दे भला मेरी प्यारी सखी। तू न होगी तो और कौन होगी।
ल. : पर यह बात मुख से कहती है, चित्त से नहीं।
चं. : क्यों?
ल. : जो चित्त से कहती तो फिर मुझसे क्यों छिपाती?
चं. : नहीं सखी, यह केवल तेरा झूठा सन्देह है।
ल. : सखी, मैं भी इसी ब्रज में रहती हूँ और सब के रंग ढंग देखती ही हूँ। तू मुझसे इतना क्यों उड़ती है? क्या तू यह समझती है कि मैं यह भेद किसी से कह दूंगी, ऐसा कभी न समझना। सखी तू तो मेरी प्राण है मैं तेरा भेद किससे कहने जाऊंगी?
चं. : सखी भगवान न करै कि किसी को किसी बात का सन्देह पड़ जाय जिस को सन्देह पड़ जाता है वह फिर कठिनता से मिटता है।
ल. : अच्छा तू सौगंध खा।
चं. : हाँ सखी, तेरी सौगंध।
ल. : क्या मेरी सौगंध?
चं. : तेरी सौगंध कुछ नहीं है।
ल. : क्या कुछ नहीं है फिर तू चली न अपनी चाल से? तेरी छल विद्या कहीं नहीं जाती, तू व्यर्थ इतना क्यों छिपाती है सखी तेरा मुखड़ा कहे देता है कि तू कुछ सोचा करती है।
चं. : क्यों सखी मेरा मुखड़ा क्या कहे देता है?
ल. : यही कहे देता है कि तू किसी की प्रीति में फंसी है।
चं. : बलिहारी सखी, मुझे अच्छा कलंक दिया।
ल. : यह बलिहारी कुछ काम न आवैगी अन्त में फिर मैं ही काम आऊंगी और मुझी से सब कहना पड़ेगा क्योंकि इस रोग का वैद्य मेरे सिवा दूसरा न मिलेगा।
चं. : पर सखी जब कोई रोग हो तब न?
ल. : फिर वही बात। कहे जाती है अब क्या मैं इतना भी नहीं समझती सखी भगवान ने मुझे भी आँखें दी हैं और मेरे भी मन है और मैं कुछ ईंट पत्थर की नहीं बनी हूँ।
चं. : यह कौन कहता है कि तू ईंट पत्थर की बनी है इससे क्या?
ल. : इससे यह कि ब्रज में रहकर उससे वही बची होगी तो ईंट पत्थर की होगी।
चं. : किससे?
ल. : जिसके पीछे तेरी यह दशा है?
चं. : किसके पीछे मेरी यह दशा है?
ल. : सखी तू फिर वही बात कहे जाती है। मेरी रानी, ये आँखैं ऐसी बुरी हैं कि जब किसी से लगती हैं तो कितना भी छिपाओ नहीं छिपती।
छिपाये छिपत न नैन लगे।
उघरि परत सब जानि जात है घूंघट मैं न खगे॥
कितनो करौ दुराव दुरत नहिं जब ये प्रेम पगे।
निडर भये उधरे से डोलत मोहन रंग रंगे॥
चं. : वाह सखी, क्यों न हो तेरी क्या बात है। अब तू ही तो एक पहेली बूझने वालों में बची है चल, बहुत झूठ न बोल कुछ भगवान से भी डर।
ल. : जो तू भगवान से डरती तो झूठ क्यों बोलती? वाह सखी अब तो तू बड़ी चतुर हो गई है कैसा अपना दोष छिपाने को मुझे पहिले ही से झूठी बना दिया (हाथ जोड़कर) धन्य है तू दंडवत् करने के योग्य है कृपा करके अपना बायां चरण निकाल तो मैं भी पूजा करूं चल मैं आज पीछे तुझ से पूछ न पूछूंगी।
चं. : (कुछ सकपकानी सी हो कर) नहीं सखी तू क्यों झूठी है झूठी तो मैं हूं और जो तू ही बात न पूछेगी तो कौन बात पूछैगा सखी तेरे ही भरोसे तो मैं ऐसी निडर रहती हूं और तू ऐसी रूसी जाती है!
ल. : नहीं बस अब मैं कभी नहीं पूछने की एक बेर पूछकर फल पा चुकी।
चं. : (हाथ जोड़ कर) नहीं सखी ऐसी बात मुँह से मत निकाल एक तो मैं आप ही मर रही हूँ तेरी बात सुनने से और भी अधमरी हो जाऊँगी (आंखों में आँसू भर लेती है)
ल. : प्यारी तुझे मेरी सौगन्ध। उदास न हो मैं तो सब भाँति तेरी हूँ और तेरे भले के हेतु प्राण देने को तैयार हूं यह तो मैंने हंसी की थी क्या मैं नहीं जानती कि तू मुझसे कोई बात न छिपावैगी और छिपावैगी तो काम कैसे चलेगा देख!
हम भेद न जानिहै जो पै कछू
औ दुराव सखी हम मैं परि है।
कहि कौन मिलै है पियारे पियै
पुनि कारज कासों सबै सरि हैं॥
बिन मोसों कहे न उपाव कछू
यह वेदन दूसरी को हरि है।
नहिं रोगी बताइहै रोगहि जौ
सखी वापुरो बैद कहा करि है॥
चं. : तो ऐसी कौन बात है जो तुझसे छिपी है तू जानबूझ के बार-बार क्यों पूछती है ऐसे पूछने को तो मुंह चिढ़ाना कहते हैं और इसके सिवा मुझे व्यर्थ याद दिलाकर क्यों दुःख देती है हा!
ल. : सखी मैं तो पहिले ही समझी थी, यह तो केवल तेरे हट करने से मैंने इतना पूछा नही? तो मैं इतना पूछा नहीं तो मैं क्या नहीं जानती?
चं. : सखी मैं क्या करूं मैं कितना चाहती हूं कि यह ध्यान भुला दूं पर उस निठुर की छवि भूलती नहीं इसी से सब जान जाते हैं।
ल. : सखी ठीक है।
लगौंहों चितवनि औरहि होति
दुरत न लाख दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति॥
घूंघट मैं नहिं थिरत तनिक हूं अति ललचैंही बानि।
छिपत न कैसहुं प्रीति निगोड़ी ये अन्त जात सब जानि॥
चं : सखी ठीक है जो दोष है वह इन्हीं नेत्रों का है यही रीझते, यही अपने को छिपा नहीं सकते और यही दुष्ट अंत में अपने किये पर रोते हैं।
सखी ये नैना बहुत बुरे।
तब सों भये पराये हरि सों जब सों जाइ जुरे॥
मोहन के रस बस ह्नै डोलत तलफन तनिक दुरे॥
मेरी सीख प्रीति सब छांड़ी ऐसे ये निगुरे॥
जब खीझ्यौ बरज्यौ पै ये नहिं हठ सों तनिक मुरे।
अमृत भर देखत कमलन से विष के बुते छुरे॥
ल. : इसमें क्या सन्देह है, मेरे पर तो सब कुछ बीत चुकी है। मैं इन के व्यवहारों को अच्छी रीति से जानती हूं। निगोड़े नैन ऐसे ही होते हैं।
होत सखी ये उलझौं हैं नैन।
उरझि परत सुरझयौ नहिं जानत सोचत समुझत हैं न॥
कोउ नाहिं बरजै जो इनको बनत मत्त जिभि गैन।
कहा कहौं इन बैरिन पाछे होत लैन के दैन॥
चं. : और फिर इन का हठ ऐसा है कि जिस की छवि पर रीझते हैं उसे भूलते नहीं, और कैसे भूलैं, क्या वह भूलने के योग्य है हा!
नैना वह छबि नाहिं न भूले।
दया भरी चहुं दिसि की चितवनि नैन कमल दल फूले॥
वह आवनि वह हंसनि छबीली वह मुसकनि चितचोरं।
वह बतरानि मुरनि हरि की वह वह देखन चहू कोरैं॥
वह धीरी गति कमल फिरावन कर लै गायन पाछे।
वह बीरी मुख बेनु बजावनि पीत पिछौरी काछे॥
पर बस भये फिरत हैं नैना इक छन टरत न टारे।
हरि ससि मुख ऐसी छबि निरखत तन मन धन सबहारे॥
ल. : सखी मेरी तो यह बिपति भोगी हुई है, इस से मैं तुझे कुछ नहीं कहती; दूसरी होती तो तेरी निन्दा करती और तुझे इससे रोकती।
चं. : सखी दूसरी होती तो मैं भी तो उससे यों एक संग न कह देती। तू तो मेरी आत्मा है। तू मेरा दुःख मिटावैगी कि उलटा समझावैगी?
ल. : पर सखी एक बड़े आश्चर्य की बात है कि जैसी तू इस समय दुखी है वैसी तू सर्वदा नहीं रहती।
चं. : नहीं सखी ऊपर से दुखी नहीं रहती पर मेरा जी जानता है जैसे रात बीतती है।
मनमोहन तें बिछुरी जब सों
तन आंसुन सों सदा धोवती हैं।
हरिचंद जू प्रेम के फंद परी
कुल की कुल लाज हि खोवती हैं॥
दुख के दिन कों कोउ भांति बितै
बिरहागम रैन सँजोवती हैं।
हमहीं अपुनी दसा जानैं सखी
निसि सोवती हैं किधौं रोवती हैं॥
ल. : यह हो पर मैंने तुझे जब देखा तब एक ही दशा में देखा और सव्र्वदा तुझे अपनी आरसी या किसी दर्पण में मुंह देखते पाया पर वह भेद आज खुला।
हौं तो याही सोच मैं विचारत रही री काहें,
दरपन हाथ तें न छिन बिसरत है।
त्यौंही हरिचंद जू बियोग औ संयोग दोऊ,
एक से तिहारे कछु लखि न परत है॥
जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात,
तू तौ परम पुनीत प्रेम पथ विचरत है।
तेरे नैन मूरति पियारे की वसति ताहि,
आरसी में रैन दिन देखिबो करत है॥
सखी! तू धन्य है बड़ी भारी प्रेमिन है और प्रेम शब्द को सार्थ करने वाली और प्रेमियों की मंडली की शोभा है।
चं. : नहीं सखी! ऐसा नहीं है मैं जो आरसी देखती थी उस का कारण कुछ दूसरा ही है। हा! (लम्बी सांस लेकर) सखी! मैं जब आरसी में अपना मुंह देखती और अपना रंग पीला पाती थी तब भगवान से हाथ जोड़कर मनाती थी कि भगवान मैं उस निर्दयी को चाहूं पर वह मुझे न चाहे, हा! आँसू टपकते हैं,
ल. : सखी तुझे मैं क्या समझाऊँगी पर मेरी इतनी विनती है कि तू उदास मत हो। जो तेरी इच्छा हो पूरी करने उद्यत हूँ।
चं. : हा! सखी यही तो आश्चर्य है कि मुझे इच्छा कुछ नहीं है और न कुछ चाहती हूँ तो भी मुझको उसके वियोग का बड़ा दुःख होता है।
ल. : सखी मैं तो पहिले ही कह चुकी कि तू धन्य है। संसार में जितना प्रेम होता है कुछ इच्छा लेकर होता है और सब लोग अपने ही सुख में सुख मानते हैं पर उसके विरुद्ध तू बिना इच्छा के प्रेम करती है और प्रीतम के सुख से सुख मानती है। यह तेरी चाल संसार से निराली है, इसी से मैंने कहा था कि तू प्रेमियों के मंडल को पवित्र करने वाली है।
चं. : ने त्रों में जल भर कर मुख नीचा कर लेती है,
दासी आकर,
दा. : अरी, मैया खीझ रही है के वाहि! घर के कछू और हू कामकाज हैं के एक हाहा ठीठी ही है, चल उठि, भोर सों यहीं पड़ी रही।
चं. : चल आऊं बिना बात की बकवाद लगाई ललिता से, सुन सखी इसकी बातैं सुन, चल चलैं। लम्बी सांस लेकर उठती है,॥
तीनों जाती हैं,
॥ स्नेहालाप नामक पहिला अंक समाप्त हुआ॥
दूसरा अंक
स्थान: केले का बन।
समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए।
वियोगिन बनी हुई श्री चंद्रावली जी आती हैं,
चं. : एक वृक्ष के नीचे बैठकर, वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हौ; और निश्चय बिना तुम्हारी कृपा के इसका भेद कोई नहीं जानता, जानै कैसे? सभी उसके अधिकारी भी तो नहीं है, जिसने जो समझा है उसने वैसा ही मान रक्खा है, हा! यह तुम्हारा जो अखंड परमानन्दमय प्रेम है और जो ज्ञान वैराग्यादिकों को तुच्छ करके परम शान्ति देने वाला है उसका, कोई स्वरूप ही नहीं जानता, सब अपने ही सुख में और अभिमान में भूले हुए हैं, कोई किसी स्त्री से या पुरुष से उसको सुन्दर देख कर चित्त लगाना और उससे मिलने का अनेक यत्न करना इसी को प्रेम कहते हैं, और कोई ईश्वर की बड़ी लम्बी-चैड़ी पूजा करने को प्रेम कहते हैं-पर प्यारे तुम्हारा प्रेम इन दोनों से विलक्षण है, क्योंकि यह अमृत तो उसी को मिलता है जिसे तुम आप देते हौ, कुछ ठहर कर, हाय! किससे कहूं और क्या कहूं और क्यों कहूं और कौन सुनै और सुनै भी तो कौन समुझै-हा!
जग जानत कौन है प्रेम विथा
केहि सो चरचा या वियोग की कीजिए।
पुनि को कही मानै कहा समुझै कोऊ
क्यौं बिन बातकी रारहि लीजिए॥
नित जो हरिचंद जू बीतै सहै
बकि कै जग क्यौं परतीतहि छीजिए।
सब पूछत मौन क्यौं बैठि रही
पिय प्यारे कहा इन्हैं उत्तर दीजिए॥
क्योंकि-
मरम की पीर न जानत कोय।
कासो कहौं कौन पुनि मानैं बैठि रही घर रोय॥
कोऊ जरनि न जाननहारी बेमहरम सब लोय।
अपुनी कहत सुनत नहिं मेरी केहि समुझाऊं सोय॥
लोक लाज कुल की मरजादा दीनी है सर्व खोय।
हरीचंद ऐसेहि निबहैगी होनी होय सो होय॥
परन्तु प्यारे, तुम तो सुनने वाले हौ? यह आश्चर्य है कि तुम्हारे होते हमारी यह गति हो प्यारे! जिनको नाथ नहीं होते वे अनाथ कहाते हैं ने त्रों में आंसू गिरते हैं।, प्यारे! जो यही गति करनी थी तो अपनाया क्यों?
पहिले मुसुकाई लजाइ कछू
क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो।
पुनि नैन लगाई बढ़ाई कै प्रीति
निबाहन को क्यौं कलाम कियो॥
हरिचंद भए निरमोही इतै निज
नेह को यो परिनाम कियो।
मनमाहि जो तोरन ही की हती
अपनाइ के क्यों बदनाम कियो॥
प्यारे तुम बडे निरमोही हौ, हा! तुम्हैं मोह भी नहीं आती।
आंख में आंसू भर कर, प्यारे इतना तो वे नहीं सताते जो पहिले सुख देते हैं तो तुम किस नाते इतना सताते हौ? क्योंकि-
जिय सूधी चितौन की साधै रही
सदा बातन मैं अनखाय रहे।
हंसिकै हरिचंद न बोले कभूं
जिय दूरहिं सों ललचाय रहे॥
नहिं नेकु दया उर आवत है
करि के कहा ऐसे सुभाय रहे।
सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले
जिहि के बदले यों सताय रहे॥
हा! क्या तुम्हें लाज भी नहीं आती? लोग तो सात पैर' संग चलते हैं उसका जन्म भर निबाह करते हैं और तुमको नित्य की प्रीति का निबाह नहीं है। नहीं नहीं तुम्हारा तो ऐसा स्वभाव नहीं था यह नई बात है, यह बात नई है या तुम आप नये हो गये
हौ? भला कुछ तो लाज करो!
कितकों ढरिगो वह प्यार सबै
क्यों रुखाई नई यह साजत हौ।
हरिचन्द भये हौ कहां के कहा
अन बोलिबे में नहिं छाजत हौ॥
नित को मिलनो तो किनारे रह्यौ
मुख देखत ही दुरि भाजत हौ।
पहिले अपनाइ बढ़ाइ कै नेह
न रूसिबे में अब लाजत हौ॥
प्यारे, जो यही गति करनी थी तो पहिले सोच लेते।
क्योंकि,
तुम्हरे तुम्हरे सब कोऊ कहैं
तुम्हैं सो कहा प्यारे सुनात नहीं।
बिरुदावली आपुनो राखौ मिलौ
मोहि सोचिबे की कोउ बात नहीं॥
हरिचन्द जू होनी हुती सो भई
इन बातन सों कछू हात नहीं।
अपनावते सोच विचारि अबै
जल पान कै पूछनी जात नहीं॥
प्राणनाथ!: आंखों में आंसू उमड़ उठे, अरे नेत्रो,0 अपने किये का फल भोगो।
धाइकै आगे मिलीं पहिले तुम
कौन सों पूछि कै सो मोहि भाखौ।
त्यौं सब लाज तजी छिन मैं
केहि के कहे एतौ कियो अभिलाखौ॥
काज बिगारि सवै अपुनी
हरिचन्द जू धीरज क्यौं नहिं राखौ।
क्यौं अब रोई कै प्रान तजौ
अपुने किये को फल क्यौं नहिं चाखौ॥
हा!
इन दुखियान कों न सुख सपने हू मिल्यौ
यों हीं सदा व्याकुल बिकल अकुलायेगी।
प्यारे हरिचन्द जू की बीती जानि औध जोपैं
जैहैं प्रान तऊ येतो साथ न समायेगी॥
देख्यौ एक बारहू न नैन भरि तोहि यातें
जौन जौन लोक जैहें तहीं पछितायेगी।
बिना प्रान प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय
देखि लीजौ आंखें ये खुली ही रहि जायंगी॥
परन्तु प्यारे, अब इनको दूसरा कौन अच्छा लगैगा जिसे देख कर यह धीरज धरैंगी, क्योंकि अमृत पीकर फिर छाछ कैसे पीयेंगी।
बिछुरे पिय के जग सूनो भयो
अब का करिए कहि पेखि का।
सुख छांड़ि कै संगम को तुम्हरे
इन तुच्छन कों अब लेखिए का॥
हरिचन्द जू हीरन को वेवहारन कै
कांचन कों लै परेखिए का।
जिन आंखिन मैं तुव रूप बस्यो
उन आंखिन सों अब देखिए का॥
इससे नेत्र तुम तो अब बन्द ही रहो आंचल से नेत्र छिपाती है,।
ख्बनदेवी 'संध्या ४ और वर्षा झ् आती हैं,
सं. : अरी बन देवी। यह कौन आंखिनैं मूंदि कै अकेली या निरजन बन मैं बैठि रही है।
व. दे. : अरी का तू याहि नांयं जानै? यह राजा चन्द्रभानु की बेटी चन्द्रावली है।
वर्षा. : तो यहां क्यौं बैठी है।
व. दे. : राम जानै कुछ सोचकर, अहा जानी! अरी, यह तो सदा ह्यांई बैठी वक्यौ करै है और यह तो या बन के स्वामी के पीछे बावरी होय गई है।
वर्षा. : तौ चलौ यासूं कछू पूछ।
व. दे. : चल।
(तीनों पास जाती हैं)
व. दे. : चन्द्रावली के कान के पास, अरी मेरी बन की रानी चन्द्रावली! कुछ ठहर कर, राम! सुनै हू नहीं है (और ऊँचे सुर से) अरी मेरी प्यारी सखी चन्द्रावली! (कुछ ठहर कर) हाय! यह तौ अपुने सों बाहर होय रही है अब काहे को सुनैगी (और ऊंचे सुर से) अरी! सुनै नांय नै री मेरी अलख लड़ैती चन्द्रावली!
चं. : (आँख बन्द किये ही) हाँ हाँ अरी क्यौं चिल्लाय है चोर भाग जायगो।
व. दे. : कौन सो चोर?
चं. : माखन को चोर, चीरन को चोर, और मेरे चित्त को चोर।
व. दे. : सो कहां सो भाग जायगो?
चं. : फेर बके जाय है। अरी मैंने अपनी आंखिन में मूंदि राख्यौ है सौ तू चिल्लायगी तौ निकति भागैगो।
व. दे. : (चन्द्रावली की पीठ पर हाथ फेरती है)।
चं. : (जल्दी से उठ, बन देवी का हाथ पकड़ कर) कहो प्राणनाथ! अब कहाँ भागोगे।
(बनदेवी का हाथ छुड़ा कर एक ओर वर्षा सन्ध्या दूसरी ओर वृक्षों के पास हट जाती हैं)
चं. : अच्छा क्या हुआ यों ही हृदय से भी निकल जाओ तो जानूं तुमने हाथ छुड़ा लिया तो क्या हुआ मैं तो हाथ नहीं छोड़ने की, हा! अच्छी प्रीति निबाही!
(बनदेवी सीटी बजाती है)
चं. : देखो दुष्ट का, मेरा तो हाथ छुड़ा कर भाग गया अब न जाने कहाँ खड़ा बंशी बजा रहा है। अरे छलिया कहाँ छिपा है? बोल बोल कि जीते जी न बोलैगा कुछ ठहर कर, मत बोल मैं आप पता लगा लूंगी। ख्बन के वृक्षों से पूंछती है, अरे वृक्षो, बताओ तो मेरा लुटेरा कहाँ छिपा है? क्यां रे मोरो इस समय नहीं बोलते नहीं तो रात को बोल के प्राण खाये जाते थे कहो न वह कहाँ छिपा है गा ती है,
अहो अहो बन के रुख कहूं देख्यौ पिय प्यारो।
मेरो हाथ छुड़ाई कहौ वह कितै सिधारो॥
अहो कदम्ब अहो अम्ब निम्ब अहो बकुल तमाला।
तुम देख्यौ कहुं मन मोहन सुन्दर नंदलाला॥
अहो कुंज बन लता बिरुध तृन पूछत तोसों।
तुम देखे कहुं श्याम मनोहर कहहु न मोसों॥
ओ जमुना अहो खग मृग हो अहो गोबरधन गिरि।
तुम देखे कहुं प्रानं पियारे मन मोहन हरि॥
(एक-एक पेड़ से जाकर गले लगती है)
(बन देवी फिर सीटी बजाती है)
चं. : अहा देखो, उधर खड़े प्राण प्यारे मुझे बुलाते हैं। तो चलो, उधर ही चलें। (अपने आभरण संवारती हैं)।
(वर्षा और संध्या पास आती हैं)
व. : (हाथ पकड़ कर) कहाँ चली सजि कै?
चं. : पियारे सों मिलन काज।
व. : कहाँ तू खड़ी है?
चं. : प्यारे ही को यह धाम है।
व. : कहा कहैं मुख सों?
चं. : पियारे प्रान प्यारे
व. : कहा काज है?
चं. : पियारे सो मिलन काम है॥
व. : मैं हूँ कौन बोल तो?
चं. : हमारे प्रान प्यारे हौ न?
व. : तू है कौन?
चं. : पीतम पियारे मेरो नाम है।
स. : आश्चय्र्य से, पूछत सखी के एकै उत्तर बतावति जकी सी एक रूप आज श्यामा भई श्याम है॥
ख्बन देवी आकर चन्द्रावली के पीछे से आँख बन्द करती है,
चं. : कौन है कौन है?
व. दे. : मैं हूँ।
चं. : कौन तू है?
व. दे. : ख्सामने आकर, मैं हूँ, तेरी सखी वृन्दा।
चं. : तो मैं कौन हूँ?
व. दे. : तू तो मेरी सखी चन्द्रावली है न? तू अपने हूं को भूल गई।
चं. : तो हम लोग अकेले बन में क्या कर रही हैं?
व. दे. : तू अपने प्राण नाथै खोजि रही है न?
चं. : हा! प्राननाथ! हा! प्यारे! अकेले छोड़ के कहाँ चले गये? नाथ ऐसी ही बदी थी! प्यारे यह बन इसी विरह का दुःख करने के हेतु बना है कि तुम्हारे साथ बिहार करने को? हा!
जो पैं ऐसिहि करन रही।
तो फिर क्यौं अपने मुख सों तुम रस की बात कही॥
हम जानी ऐसिहि बीतैगी जैसी बीति रही।
सो उलटी कीनी विधिना ने कछू नाहिं निबही॥
हमैं बिसारि अनत रहे मोनह औरै चाल गही।
'हरीचंद' कहा को कहा ह्वै गयौ कछु नहिं जात कही॥
ख्रोती है,
व. दे. : आँखों में आंसू भर के, प्यारी! अरी इतनी क्यों घबराई जाय है देख तौ यह सखी खड़ी हैं सो कहा कहैंगी।
चं. : ये कौन हैं?
चं. दे. : ख्वर्षा को दिखाकर, यह मेरी सखी वर्षा है।
चं. : यह वर्षा है तो हा! मेरा वह आनन्द का घन कहाँ है? हा! मेरे प्यारे! प्यारे कहाँ बरस रहे हौ? प्यारे गरजना इधर और बरसना और कहीं?
बलि सांवरी सूरत मोहनी मूरत
आंखिन को कबौं आई दिखाइये।
चातिक सी मरै प्यासी परीं
इन्हें पानिप रूप सुधा कबौं प्याइये॥
पीत पटै बिजुरी से कबौं
हरिचंद जू धाइ इतैं चमकाइये।
इतहू कबौं आइकै आनन्द के घन
नेह को मेह पिया बरसाइये॥
प्यारे! चाहे गरजो चाहै लरजो-इन चातकों की तो तुम्हारे बिना और गति ही नहीं है, क्योंकि फिर यह कौन सुनैगा कि चातक ने दूसरा जल पी लिया; प्यारे तुम तो ऐसे करुणा के समुद्र हौ कि केवल हमारे एक जाचक के मांगने पर नदी नद भर देते हौ तो चातक के इस छोटे चंचु-पुट भरने में कौन श्रम है क्योंकि प्यारे हम दूसरे पक्षी नहीं है कि किसी भांति प्यास बुझा लेंगे हमारे तो हे श्याम घन तुम्ही अवलम्ब हौ; हा!
ने त्रों में जल भर लेती है और तीनों परस्पर चकित हो कर देखती हैं,
व. दे. : सखी देखि तौ कछूं इनकी हू सुन कछू इनकी हू लाज कर अरी यह तो नई हैं ये कहा कहैंगी?
सं. : सखी यह क्या कहै है हम तो याको प्रेम देखि बिना मोल की दासी होय रही हैं और तू पंडिताइन बनि कै ज्ञान छांटि रही है।
चं. : प्यारे! देखो ये सब हंसती हैं-तो हंसै, तुम आओ, कहाँ बन में छिपे हो? तुम मुंह दिखलाओ इनको हंसने दो।
धारन दीजिए धीर हिए कुलकानि को आजु बिगारन दीजिए।
मारन दीजिए लाज सबै हरिचन्द कलंक पसारन दीजिए॥
चार चबाइन कों चहुं ओर सों सोर मचाइ पुकारन दीजिए।
छंड़ि संकोचन चन्द मुखै भरि लोचन आजु निहारन दीजिए॥
क्यौंकि-
ये दुखियां सदा रोयो करैं विधना इन कों कबहूं न दियो सुख।
झूठहीं चार चबाइन के डर देख्यौ कियो उनहीं को लिये रुख॥
छांड्यौ सबैं हरिचन्द तऊ न गयो जिय सों यह हाय महा दुख।
प्रान बचैं केहि भांतिन सों तरसैं जब दूर सों देखिबै कों मुख॥
व. दे. : (आंसू अपने आंचल से पोंछ कर) तौ ये यहाँ नांय रहिबे की सखी एक घड़ी धीरज धर जब हम चली जांय तब जो चाहियो सो करियो।
चं. : अरी सखियो मोहि छमा करियो, अरी देखौ तो तुम मेरे पास आईं और हमने तुमारो कछू सिष्टाचार न कियो। (नेत्रों में आंसू भर कर, हाथ जोड़ कर) सखी मोहि छमा करियो और जानियो कि जहाँ मेरी बहुत सुखी हैं उन मैं एक ऐसी कुलच्छिनी हूं है।
सं. और व.: नहीं नहीं सखी तू तो मेरी प्रानन सों हूं प्यारी है, सखी हम सच कहैं तेरी सी सांची प्रेमिन एक हू न देखी ऐसे तो सबी प्रेम करैं पर तू सखी धन्य है।
चं. : हाँ सखी और ख्संध्या को दिखाकर, या सखी को नाम का है?
व. दे. : याको नाम संध्या है।
च. : घबड़ा कर, संध्यावली आई? क्या कुछ संदेसा लाई? कहो कहो प्रान प्यारे ने क्या कहा? सखी बड़ी देर लगाई कुछ ठहर कर, संध्या हुई? संख्या हुई? तो वह बन से आते होंगे सखियो चलो झरोखों में बैठें यहाँ क्यों बैठी हौ।
(नेपथ्य में चन्द्रोदय होता है, चन्द्रमा को देखकर)
अरे-अरे वह देखो आया (उंगली से दिखा कर)
देख सखी देख अनमेख ऐसा भेख यह
जाहि पेख तेज रबिहू को मंद ह्नै गयो।
हरीचन्द ताप सब हिय को नसाइ चित
आनन्द बढ़ाइ भाइ अति छकि सों छयो॥
ग्वाल उडुगन बीच बेनु को बजाइ सुधा
रस बरखाइ मान कमल लजा दयो।
गोरज समूह घन पटल उघारि वह
गोप कुल कुमुद निसाकर उदै भयो॥
चलो चलो उधर चलो। (उधर दौड़ती है)
व.दे. : (हाथ पकड़ कर) अरी बावरी भई है। चन्द्रमा निकस्यो है कै वह बन सों आवै है?
चं. : (घबड़ा कर) का सूरज निकस्यो? भोर भयो हाय! हाय! हाय! या गरमी में या दुष्ट सूरज की तपन कैसे सही जायगी अरे भोर भयो हाय भोर भयो! सब रात ऐसे ही बीत गई, हाय फेर वही घर के व्योहार चलैंगे, फेर वही नहानो वही खानो बेई बातें, हाय!
केहि पाप सों पापी न प्रान चलैं
अटके कित कौन विचार लयो।
नहिं जान परै हरिचन्द कछू
विधि ने हम सों हट कौन ठयो॥
निसि आजहू की गई हाय बिहाय
पिया बिनु कैसे न जींव गयौ॥
हत अभागिनी आंखिन कों नित के
दुख देखिबे कों फिर भोर भयो॥
तो चलो घर चलैं, हाय हाय! मां सों कौन बहाना करूंगी क्योंकि वह जात ही पूछेंगी कि सब रात अकेली बन मैं कहा करती रही। (कुछ ठहर कर) पर प्यारे! भला यह तो बताओ कि तुम आज की रात कहां रहे? क्यों देखो तुम हमसे झूठ बोले न! बड़े झूठे हौ, हा? अपनों से तो झूठ मत बोला करो, आओ आओ अब तो आओ।
आउ मेरे झूठन के सिरताज।
दल के रूप कपट की मूरत मिथ्यावाद जहाज॥
क्यों परतिज्ञा करी रह्यौ जो ऐसी उलटो काज।
पहिले तो अपनाइ न आवत तजिबे में अब लाज॥
चलो दूर हटो बड़े झूठे हो।
आउ नेरे मोहन प्यारे झूठे।
अपनी टारि प्रतिज्ञा कपटी उलटे हम सों रूठे॥
मति परसौ तन रंगे और के रंग अधर तुब जूठे।
ताहू पै तनिकौ नहीं लाजत निरलज अहो अनूठे॥
पर प्यारे बताओ तो तुम्हारे बिना रात क्यों इतनी बढ़ जाती है?
काम कछु नहिं यासों हमैं
सुख सों जहां चाहिए रैन बिताइए।
पै जो करै विनती हरिचन्द जू
उत्तर ताको कृपा कै सुनाइए॥
एक मतो उनसो क्यों कियो तुम
सोउ न आवै जो आप न आइए।
रूसिवे सों पिय प्यारे तिहारे
दिवाकर रूसत है क्यों बताइए॥
जाओ जाओ मैं नहीं बोलती (एक वृक्ष की आड़ में दौड़ जाती है)
तीनों : भई! यह तो बावरी सी डोलै, चलौ हम सब वृक्ष की छाया में बैठे (किनारे एक पास ही तीनों बैठ जाती हैं)
चंद्रा. : (घबड़ाती हुई आती है। अंचल केश इत्यादि खुल जाते हैं) कहाँ गया कहाँ गया? बोल!उलटा रूसना, भला अपराध मैंने किया कि तुमने? अच्छा मैंने किया सही, क्षमा करो, आओ, प्रगट हो, मुँह दिखाओ, भई बहुत भई, गुदगुदाना वहाँ तक जहाँ तक रुलाई न आवै (कुछ सोचकर) हा! भगवान किसी को किसी की कनौड़ी न करै, देखो मुझको इसकी कैसी बातैं सहनी पड़ती हैं। आप ही नहीं भी आता उलटा आप ही रूसता है, पर क्या करूं अब तौ फंस गई, अच्छा यों ही सही। ('अहो अहो बन के रूख' इत्यादि गाती हुई वृक्षों से पूछती है) हाय! कोई नहीं बदलता अरे मेरे नित के साथियों कुछ तो सहाय करो।
अरे पौन सुख मौन सबै थल गौन तुम्हारो।
क्यौं न कहौ राधिका रौन सों मौन निवारो॥
अहे भंवर तुम श्याम रंग मोहन ब्रत धारी।
क्यों न कहौ वा निठुर श्याम सों दसा हमारी॥
अहे हंस तुम राज बंस तरवर की सोभा।
क्यौं न कहो मेरे मानस सों या दुख के गोभा॥
हे सारस तुम नीके बिछुरेन बेदन जानौ।
तौ क्यौ पीतम सों नहिं मेरी दसा बखानौ॥
हे कोकिल कुल श्याम रंग के तुम अनुरागी।
क्यौ नहिं बोलहु तहीं जाय जहं हरि बड़ भागी॥
हे पपिहा तुम पिउ पिउ पिय पिय रटत सदाई।
आजहु क्यौं नहिं रटि रटि कै पिय लेहु बुलाई॥
अहे भानु तुम तो घर घर में किरिन प्रकासो।
क्यौं नहि पियहिं मिलाइ हमारो दुख तम नासो॥
हाय!
कोउ नहिं उत्तर देत भये सबही निरमोही।
प्रान पियारे अब बोलौ कहां खोजौं तोही॥
(चन्द्रमा बदली की ओट हो जाता है और बादल छा जाते हैं) (स्मरण करके) हाय! मैं ऐसी भूली हुई थी कि रात को दिन बतलाती थी, अरे मैं किसको ढूंढ़ती थी, हा! मेरी इस मूर्खता पर उन तीनों सखियों ने क्या कहा होगा, अरे यह तो चन्द्रमा था जो बदली की ओट में छिप गया। हा! यह हत्यारिन वर्षा ऋतु है, मैं तो भूल गई थी, इस अंधेरे में मार्ग तो दिखाता ही नहीं चलूंगी कहाँ और घर कैसे पहुंचूंगी? प्यारे देखो जो जो तुम्हारे मिलने में सुहाने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गये, हा! जो बल आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है, देखो सब कुछ है एक तुम्ही नहीं हो (नेत्रों से आंसू गिरते हैं) प्यारे! छोड़ के कहाँ चले गये? नाथ! आँखें बहुत प्यासी हो रही हैं इनको रूप सुधा कब पिलाओगे? प्यारे बेनी की लट बंध गई हैं इन्हें कब सुलझाओगे (रोती है) नाथ इन आंसुओं को तुम्हारे बिना और कोई पोंछने वाला भी नहीं है, हा! यह गत तो अनाथ की भी नहीं होती, अरे विधिना! मुझे कौन सा सुख दिया था जिसके बदले इतना दुःख देता है, सुख का तो मैं नाम सुन के चैंक उठती थी और धीरज धर के कहती थी कि कभी तो दिन फिरैंगे सो अच्छे दिन फिरे। प्यारे बस बहुत भई अब नहीं सही जाती, मिलना हो तो जीते जी मिल जाओ। हाय! जी भर आंखों देख भी लिया होता तो जी का उमाह निकल गया होता, मिलना दूर रहै मैं तो मुँह देखने को तरसती थी, कभी सपने में भी गले न लगाया, जब सपने में देखा तभी घबड़ा कर चैंक उठी, हाय! इन घर वालों और बाहर वालों के पीछे कभी उनसे रो-रो कर अपनी बिपत भी न सुनाई कि जी भर जाता, लो घर वालों और बहार वालों ब्रज को सम्हालो मैं तो अब यहीं (कंठ गद्गद् हो कर रोने लगती है) हाय रे निठुर! मैं ऐसा निरमोही नहीं समझी थी, अरे इन बादलों की ओर देख के तो मिलता, इस ऋतु में तो परदेसी भी अपने घर आ जाते हैं पर तू न मिला, हाँ! मैं इसी दुख देखने को जीती हूँ कि वर्षा आवै और तुम न आओ, हाय! फेर वर्षा आई, फेर पत्ते हरे हुए, फेर कोइल बोली पर प्यारे तुम न मिले, हाय! सब सखियाँ हिंडोले झूलती होंगी पर मैं किसके संग झूलूं क्योंकि हिंडोला झुलाने वाले मिलेंगे पर आप भींज कर मुझे बचाने वाला और प्यारी कहने वाला कौन मिलैगा (रोती है) हा! मैं बड़ी निर्लज्ज हूँ, अरे प्रेम मैंने प्रेमिन बन कर तुझे भी लज्जित किया कि अब तक जीती हूँ, इन प्रानों को अब न जानै कौन लाहे लूटने हैं कि नहीं निकलते। अरे कोई देखो मेरी छाती वज्र की तो नहीं है कि अब तक (इतना कहते ही मूर्छा खा कर ज्यों ही गिरा चाहती है उसी समय तीनों सखियाँ आ कर सम्हालती हैं)
(जवनिका गिरती है)
॥ प्रियान्वेषण नामक दूसरा अंक समाप्त हुआ॥
दूसरे अंक के अंतर्गत
॥ अंकावतार॥
॥ बीथी, वृक्ष॥
(सन्ध्यावली दौड़ी हुई आती है)
सं. : राम राम! मैं दौरत दौरत हार गई, या ब्रज की गऊ का हैं सांड हैं; कैसी एक साथ पूंछ उठाय कै मेरे संग दौरी हैं, तापैं वा निपूते सुबल को बुरो होय और हू तूमड़ी बजाय कै मेरी ओर उन सबनै लहकाय दीनी, अरे जो मैं एक संग प्रानन्ने छोड़ि कै न भाजंती तौ उनके रपट्टा में कबकी आय जाती। देखि आज वा सुवल की कौन गति कराऊं, बड़ो ढीठ भयो है प्रानन की हांसी कौन काम की। देखौ तो आज सोमवार है नन्दगांव में हाट लगी होयगी मैं वहीं जाती इन सबने बीच ही आय धरी, मैं चन्द्रावली की पाती वाके यारैं सौंप देती इतनो खुटकोऊ न रहतो। (घबड़ा कर) अरे आईं ये गौवें तो फेर इतैही कूं अरराईं। ख्दौड़ कर जाती है और चोली में से पत्र गिर पड़ता है, (चंपकलता आती है)
चं. ल. : (पत्र गिरा हुआ देखकर) अरे! यह चिट्ठी किसकी पड़ी है किसी की हो देखूं तो इसमें क्या लिखा है (उठा कर देखती है) राम राम! न जानै किस दुखिया की लिखी है कि आंसुओं से भींज कर ऐसी चपट गई है कि पढ़ी ही नहीं जाती और खोलनं में फट जाती है (बड़ी कठिनाई से खोलकर पढ़ती है)
प्यारे!
क्या लिखूं! तुम बड़े दुष्ट हौ चलो भला सब अपनी वीरता हम पर दिखानी थी। हाँ! भला मैंने तो लोक वेद अपना विराना सब छोड़कर तुम्हैं पाया तुमने हमैं छोड़ के क्या पाया? और जो धम्र्म उपदेश करो तो धम्र्म से फल होता है, फल से धम्र्म नहीं होता, निर्लज्ज, लाज भी नहीं आती मुंह ढको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते हौ, चलो वाह! अच्छी प्रीति निबाही, जो हो तुम जानते ही हो, हाय कभी न करूँगी यों ही सही अन्त मरना है मैंने अपनी ओर से खबर दे दी अब मेरा दोष नहीं बस।
"केवल तुम्हारी"
(लंबी सांस लेकर) हा! बुरा रोग है न करै किसी के सिर बैठे बिठाए यह चक्र घहराय, इस चिट्ठी के देखने से कलेजा कांपा जाता है, बुरा! तिसमें स्त्रियों की बड़ी बुरी दशा है क्योंकि कपोतब्रत बुरा होता है कि गला घोंट डालो मुंह से बात न निकलै। प्रेम भी इसी का नाम है, राम राम उस मुंह से जीभ खींच ली जाय जिससे हाय निकलै। इस व्यथा को मैं जानती हूं और कोई क्या जानैगा क्योंकि जाके पांव न भई बिवाई सो क्या जाने पीर पराई। यह तो हुआ पर यह चिट्ठी है किस की यह न जान पड़ी (कुछ सोचकर) अहा जानी! निश्चय यह चन्द्रावली ही की चिट्ठी है, क्योंकि अक्षर भी उसी के से हैं और इस पर चन्द्रावली का चिन्ह भी बनाया है। हा! मेरी सखी बुरी फंसी, मैं तो पहिले ही उसके लच्छनों से जान गई थी पर इतना नहीं जानती थी, अहा गुप्त प्रीति भी विलक्षण होती है, देखो इस प्रीति में संसार की रीति से कुछ भी लाभ नहीं, मनुष्य न इधर होता है न उधर का, संसार के सुख छोड़कर अपने हाथ आप मूर्ख बन जाता है। जो हो यह पत्र तो मैं आप उन्हैं जा कर दे आऊंगी और मिलने की भी बिनती करूंगी।
(नेपथ्य में बूढ़ों के से सुर से)
हाँ तू सब करैगी।
चं. : (सुन कर और सोचकर) अरे यह कौन है (देख कर) न जानै कोऊ बूढ़ी फूस सी डोकरी है ऐसी न होय कै यह बात फोड़ी के उलटी आग लगावै, अब तो पहिले याहि समझावनो परौ, चलूं (जाती है)
॥ इति द्वितीयां के भेदप्रकाश नामकोवतारः॥