श्रीप्रद्युम्नविजय व्यायोग / अध्याय 1 / 'हरिऔध'
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प्रार्थना
प्यारे पाठक बृन्द!
आप लोग भली-भाँति जानते हैं कि मनुष्य की बुध्दि अपूर्णा अथच भ्रमात्मिका है। ऐसी अवस्था में यदि मेरी बुध्दि अति अपूर्णा और महाभ्रमात्मिका हो तो कोई आश्चर्य का विषय यहाँ स्थान नहीं है क्योंकि प्रथम तो उस का शरीर विद्या, कविता, प्रतिभा, काव्यांगज्ञान, रसालंकारादि बोध, प्रभृति आभूषणों से असज्जित है, दूसरे यह पामर उस जगन्नाटक सूत्रधार विदूषकशिरोमणि की रचना का एक छुद्रतम कोट है। फिर यदि मम रचित इस प्रद्युम्नविजय व्यायोग में (जिसको मैंने भाषा कवि चक्र चूड़ामणि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र गोलोकनिवासी के संस्कृत से अनुवादित धनंजयविजय व्यायोग की छाया लेकर निर्मित किया है) महामहा अशुध्दियाँ बड़े-बड़े भ्रम हों तो कोई विचित्र बात नहीं है, किन्तु आप लोगों सदृश सहृदय और सुहृद व्यक्तियों को एक ऐसे भ्रमात्मिक छुद्रतम कीट की त्रुटि पर यहाँ अशुध्दिनिचय पर ध्यान देना अथवा उपहास करना शिष्टसमाज के सर्वथा विरुद्ध और अन्यायानुमोदित होगा। अतएव आशा है कि आप लोग इस लघु पुस्तिका पर सुधरने की दृष्टि रखकर सरल हृदय से इसकी समालोचना करके इसके दोषों के निवारण करने में उत्सुक होंगे और इसको एक जगन्मान्य व्यक्ति का लोकोत्तर चरित्र समझकर आदरसहित ग्रहण और स्वीकार करेंगे।
आप लोगों का अनुग्रहार्थी
अयोध्यासिंह , निजामाबाद
समर्पण
प्यारे!
यह वस्तु तुमारी है, क्योंकि इसमें तुमारा और तुमारे प्रिय सुअन का ही लोकोत्तर चरित्र वर्णित है, अतएव आशा है कि तुम इसको स्वीकार करने में अणु मात्र भी त्रुटि न करोगे, और ऐसी अवस्था में कोई आवश्यकता नहीं है कि मैं तुमसे इस विषय का अनुरोध करूँ कि तुम इसको स्वीकार करके मेरे परिश्रम को सफल करो, पर हाँ! इतना अवश्य वक्तव्य है कि जैसा अपूर्व एवं विलक्षण तुमारा और तुमारे प्रिय पुत्र का लोकोत्तर चरित्र है वैसी इस छुद्र ग्रन्थ की कविता एवं रचना नहीं है, पर यह विषय ऐसा नहीं कि जिससे आप इसको स्वीकार न करें क्योंकि मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि तुमने ऋक्षपति जाम्बवान के किलकिला शब्द सम्मिश्रित सप्रेम निज सुयशवर्णन को भी धर्य के साथ श्रवण कर सादर ग्रहण किया था। यदि मेरा यह कथन सत्य है तो आज मैं अपने को बिना प्रयास कृतार्थ और सफलमनोरथ समझता हूँ, और तुमको इस कृपालुता के परिवर्तन में अनन्त धन्यवाद प्रदान करणार्थ सोत्साह अग्रसर होता हूँ।
तुमारा परमधृष्ट
हरिऔध
(श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दपरमात्मने नम:।)
( नान्दी मंगल पाठ करता है)
छप्पै
कर कठोर करवाल गहे कोलाहल करतो।
कम्पित करत करिन्द ओप पूरितरुअ करतो।
किये अरुन बिवि नैन कंटकित काय कोपयुत।
कमठ कोल कम्पायमान करि धरि कालदुत।
इमि नरक नृपति आगमन को निरखि नदत भामिनि चितै।
बर बिहँसन श्रीबलबीर को बहु बिवेक बितरै नितै। 1 ।
(सूत्रधार का प्रवेश)
सूत्र.- (चारों ओर देखकर) अहा! आज रंगस्थल की कैसी शोभा है!
जहँ तहँ धरे अनेक दीप जगमगत लखाहीं।
धरि चौगुनो चाव चित्त दरशक उमगाहीं।
सकल सुगन्धित द्रव्य गन्ध चहुंदिसि ते आवत।
दरसकगन समुदाय सूंघि जेहि मोद बढ़ावत।
रन पीछे रनभूमि शब्द बिन है जिमि दरसै।
तिमि अपार नर जुरेहुं शब्द श्रुति नेक न परसै।
( कुछ रुककर) सत्य है। जो मनुष्य के हृदय में होता है वही प्राय: मुख से निकलता है। यत: आज मेरे हृदय में वीररस का उद्रेक हो रहा है, इसीलिए रंगस्थल के वर्णन में भी रणभूमि का ध्यान बना रहा, कुछ मेरे ही हृदय की आज यह गति नहीं है, ज्ञात होता है कि सकल अभिनय कर्ताओं का मन वीररस में निमग्न है क्योंकि नान्दी पढ़नेवाले ने भी वीररस का ही निरूपण किया है, अच्छा परीक्षार्थ किसी को और बुलाकर देखैं तो (नेपथ्य की ओर देखकर)
अखिल कला मैं निपुन सकल गुनमै सब लायक।
अभिनयकरन प्रवीन शिष्टजन के सुखदायक।
नाटकांग अरु सकल भेद के एकबिचारी।
आवहु इतै सबेग बाट हम लखत तिहारी।
पारिपा .- ( आकर और सूत्रधार की ओर देखकर )
सकल गुनिनसिरमौर बिबुधजनमंडलिमंडन।
कलहबैरकुलकाल देसदुखदारिदखंडन।
रसिकबंसअवतंस कलापकुशलगुनवारे।
सकलकलासम्पन्न धीरे धुरधारनहारे।
पवनपूत के कोप सम खलगनदानवदलदहन।
किन करिय उचित अनुसासनहि गुनागारगुनगनगहन।
सूत्र.- वाह! क्यों न हो, इस समय तो तुमारे हृदय में भी बीररस का ही संचार हो रहा है। फिर आज बीररस के व्यतीत किसी दूसरे नाटक का खेलना युक्ति संगत नहीं हो सकता, अतएव तुम किसी बीररस के नाटक खेलने का उद्योग करो!
पा.- यह बहुत ठीक है कि जिस कार्य में मन का स्वाभाविक सन्निबेस होता है, वही उत्तम होता है, इसलिए मुझको आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, पर यह बतलाइये कि बीररस का कौन सा नाटक खेलूँ।
सू.- (बिचार कर)
कियो पान तप तेज सों जिन जलनिधि पल माहिं।
अजहूं लौं गावत सुजन जाको सुजस लखाहिं।
ता कुल में द्विजवर्य में काशीनाथ महान।
खुशी और जानकी भे तिनके सुअन प्रधान।
भये श्रीखुशी के तनै गुरप्रसाद गुरद्याल।
जिनको सुखदायक चरित सुनि सब होत निहाल।
गुरदयाल के तीन सुत भये बिप्रकुलसिंह।
जोधासिंह अरु धरमसिंह श्रीयुत सेनीसिंह।
श्रीयुत सेनीसिंह के भये बिदित त्रय तात।
श्रीयुत लकमनसिंह अरु श्रीरनजीत सुख्यात।
तृतिय भये श्रीबिवुधाबर रामचरण द्विजराइ।
तीन सुअन तिनके भये सकल सुगुन समुदाइ।
प्रथम श्रीलश्रीब्रह्महरि बिबुधबंससिरमौर।
ज्योतिर्विद्या मैं न जिन लही हार कोउ ठौर।
तृतिय विज्ञ श्रीबिष्णुहरि कुशलकाव्य गुनखान।
द्वितिय श्रील शिवहरि विदित जाको सुगुन जहान।
ता सुत ने हरिकृष्ण को अग्रज श्रीहरिऔध।
रच्यो बिसद व्यायोग जो करहु सोई करिऔध *
पा.- कौन हरिऔध? जिनका वास्तविक नाम पण्डित अयोध्यासिंह है?
सू.- हाँ!
पारि.- उन्होंने तो कई नाटक बनाए हैं, कौन सा खेलें।
सूत्र.- श्रीप्रद्युम्नविजय।
पारि.- तो क्या उसी के खेलने की मुझको आज्ञा होती है?
सूत्र.- हाँ। उसी के।
पारि.- जो आज्ञा।
(जाता है)
(नेपथ्य में)
अतिप्रबल कोपित बृहतकाय महान भट गरबित घने।
धर मार करत पुकार कवच कृपान कसि बहुबिध वने।
इमि साठ सहस निकुंभप्रेरित असुर आवत हेरि कै।
सो धन्य अरजुन वीर जो रज कियो सर सों टेरि कै।
सूत्र.- (सुनकर और नेपथ्य की ओर देखकर)-
स्यामगात कर धनु गहे उपजावत हिय चैन।
यह आवत प्रद्युम्न बनि बीरभद्र सुखदैन।
तो अब मैं भी चलूँ और पात्रों को उचित सहायता प्रदान में दत्तचित्त होऊँ।
(जाता है)
।इति प्रस्तावना।
(रथ पर चढ़े सारथी सहित कुमार प्रद्युम्न का प्रवेश)
प्रद्यु.- (कोप से)
¹ रणजीत प्रसिद्ध नाम धु्रवी उपाध्याय, ब्रह्महरि वास्तव नाम पं. ब्रह्मासिंह, विष्णुहरि वास्तव नाम विष्णुसिंह वा पं. बनारसीसिंह, शिवहरि वास्तव नाम पं. भोलासिंह ग्रन्थकर्ता के पिता। हरिकृष्ण वास्तव नाम कृष्णसिंह बा गुरसेवकसिंह ग्रन्थकर्ता का कनिष्ठ भ्राता। जदपि माया बिरचि जनकनिदेस ते मैं अस कियो।
द्विज पंचसत कन्यान रक्षि उबार मुनिजन को लियो।
अस करी माया जाहि कोउ दानव निकुम्भहुं , नहिं लख्यो।
पै भयो यह सब कहा जो नहिं नृपन आवन फल चख्यो।
सा.- महाराज! आपके लिए यह क्या बड़ी बात है।
जबलौं कर मैं धनुष धरि नहिं रोस बढ़ावत।
जबलौं सरझर लाइ गगन महि नांहिं मिलावत।
जबलौं करि घमसान सामुहें ह्नै नहिं गाजत।
तबलौहीं मद छोरि नांहिं नरनाथन भाजत।
प्रद्यु.- अहा! निकुंभ ने भी कैसी धृष्टता की है।
जिनै जहान के जवान आइ सीस नावहीं।
महेस सेस जा अपार पार को न पाँवही।
कराल काल जो मुरारि तासु तात मात को।
कियो प्रबद्ध ना कियो विचार एक बात को।
यदि यहीं तक होता तो इतनी चिन्ता न थी, पर-
जिन विप्रन को पूजि सदा हम सीस नवावैं।
जिन विप्रनपग परसि जगत सुन्दर जस पावैं।
जिन विप्रन को सेइ करैं पूरन मनकामा।
हरयो तासु कन्याहु हाय ! सो औगुन धामा।
सा.- सत्य है, किन्तु निकुंभ से बढ़कर तो राजाओं ने धृष्टता की है-
करिकै निरादर विप्रकुल को लाज सिगरी खोय।
जदुबंस सों रन करन आये और दानव होय।
हलपानि औ बलबीर को नहिें कियो रंचक संक।
ए सकल भूपति छत्रिबंसनि सेस केर कलंक।
प्र.- तो क्या हुआ।
हम द्विज सकल दुहितान लीन उबारि ज्यों प्रथमै कहे।
पित , मात पितहिं छुड़ाइ लीने लखत सब लोगहिं रहे।
ब्रह्मास्त्र तजिकै साठ सहस सुरारि नहिं अर्जुन रहे।
अब रहे सकल नरेस तिनहूं को लखब जो हरि चहे।
(नेपथ्य में)
अनाधृष्ट अक्रूर निसठ उल्मुक कृतवर्मा।
उद्धव गदबैहरन आर्क्ष भोजरु धृतवर्मा।
सनतकुमारादिक प्रबीर करि घोर लराई।
बाँधि कैद करि लियो निकुम्भ निसाचरराई।
तिमि सकल जादवी सैन की बान मारि बिचलित कियो।
अब हम सुरारि मिलि ताहिं सों लरन काज मन है दियो।
पै आवत नृपदल सकल करन सहाय सुरारि।
बढ़ि आगे रन ठानि कै देहु तात मद टारि।
(दोनों जन कान लगाकर सुनते हैं)
सा.- कुमार! यह संग्रामार्थ किसका वाक्य किसके प्रति है?
प्रद्यु.- हमारे पूज्यचरण पितृव्य बलरामजी का, हमारे प्रति। तुम रथ को आगे बढ़ाओ?
सा.- जो आज्ञा (रथ हाँकना नाटय करता है)
प्रद्यु.- (रथ की ओर देखकर)
लौक न लखात तिमि बेग बिलगात नांही तीर सों कढ़त किकिंनीन सोर भरिकै।
बाजि गति धुज फहरान त्यों फिरन पहियान को न ज्ञान होत लखे ध्यान धरिकै।
हरिऔध दामिनी समान गति दरसाति बड़ो बेगबारो वायु बड़ो वेग करिकै।
पहुँचत पास पर पावत न जान आगे पारि देत पीछूँ मानो पौन को पकरि कै।
(नेपथ्य की ओर देखकर)
मेरे पूज्यपाद पितृव्य। आप चिन्ता न करें क्योंकि-
जबलौं कसि तन त्रन सकल आयुधन सँभारी।
तुरग धावाइ बढ़ाइ जान करि कोप प्रचारी।
नृपदल जदुकुल सैन सौंह आवन मन दैहै।
तबलौंहीं तव कृपा दास तिनको गहि लैहै।
(नेपथ्य में)
तुम सब योग्य हो।
सा.- राजकुमार! अब हमारा रथ नृपदल के अति निकट आ गया। क्योंकि-
जदपि उड़ी रज ते छपी नृपन - सैन दरसात।
तदपि कृपानरु कवच को चिलक कौंधसी जात।
सिंदुर संख हयादि रव मिलित सुनत है जौन।
विचरत श्रुतिपथ विलग ह्नै बिबिधरूप धरि तौन।
द्विप पदाति अरु बाजिगन दीसत है इकतार।
पै अब पृथक लखात सब दिये दृष्टि इकबार।
प्रद्यु.- ठीक है! यह सामने राजाओं की सेना दीख रही है-
कोऊ कसि कवच कृपान करि कोप ठाढ़ो
कोऊ करि लिए करवाल बरकत है।
कोऊ किये अरुन नयन खरो गरदात
कोऊ चोए चौगुनी चपारि करतत है।
हरिऔध कोऊ कान करत न कोटिन की
कोऊ चौंकि चकत जु पात खरकत है।
कोऊ तेह ताप ते तरकि अति तरपत
कोऊ सोर सूरन सुनत सरकत है।
अहा! राजाओं के दल की भी कैसी छटा है।
जहँ तहँ जुरे अनेक वीर भरि जीभ बिराजैं।
हय हींसहिं चिक्करहिं दुरद दुन्दुभिगन गाजैं।
नृपन - छ त्र की चमक चहूंकित ओप पसारैं।
कुन्त कुलिस करवाल चिलकि दामिनि मदगारैं।
फहरहिं पताके धुज बायुबब ढुरहिं चमर गरजहिं सुभट।
बहुभाँति बिबिधि रन बाद्य बजि करहिं बीररस को प्रगट।
(बिचार से सेना की ओर देखकर)
बहरावत निज व्यूह चित्त को चोप चढ़ावत।
उपजावत हिय चास कायरन , रोस बढ़ावत।
फहरावत धुजबृन्द बिटप गिरि भूमि कँपावत।
लखी सकल नृपसैन वायु निदरत इत आवत।
सा.- कुमार! सत्य है। राजाओं की सेना बड़ी बेग से इसी ओर आ रही है, क्योंकि-
उड़िबो रज को थी इती छपी हुती जेहि सेन।
पै अब पसरि दिगन्त लौं कियो धूसरित गैन।
जलनिधि लौं तकि कूल को रुको हुतो दल जौन।
तरल तरंगिनितोय सम चंचल लखियत तौन।
प्रद्यु.- सारथी! इसमें सन्देह नहीं कि यह दल बड़े-बड़े वीरों से संगठित है, और दृढ़ विश्वास है कि यदि कोई विश्वविजयी वीर इस समय इसको देखे तो एक बार वह भी दहल जावेगा, तथापि-
जो जगदीस दया करिहै हरिऔध जू औ बिधि बाम न दैहै।
जो यह तुच्छ अयोधन मैं लरि हारयो न आज लौं काहु सों ह्नैहै।
जो जदुबीर को तात कहावत औ जदुबंस जन्यो जस लैहै।
बात लौं मेरो बगारिबो बान को तो तिन को तिनका सम कैहै।
(भुज का फरकना देखकर)
जिन भूषन तजि सदा बान धनु धारन कीने।
जिन बीरन को मानमोचिबिन पति करि दीनै।
जिन अपने बल जगत मांहि सुन्दर जस छायो।
सावधान ! नृप सकल ! सोई मम भुज फरकायो।
सा.- कुमार! आपके कथन से ज्ञात होता है कि, इस सेना में बड़े-बड़े सूरमे बिराजमान हैं, अतएव यदि आपको कुछ कष्ट न हो तो मैं उनमें से प्रत्येक का नाम बल और प्रताप जानना चाहता हूँ।
प्रद्यु.- बहुत अच्छा, तुम ध्यान लगाकर देखते और सुनते जाओ, मैं एक-एक बात वर्णन करता हूँ।
सा.- जैसी कुमार की आज्ञा!
प्र.- (क्रोधसहित साम्हने देखकर) सूत! देखो।
जासु धुजा मैं उरगचिन्ह निर्मित दरसावै।
जाकी रथ चंचल तुरंग जेहि अरुन लखावै।
सकल कुटिलताखान पाण्डवन को रिपु जोई।
यह अभिमुख दरसात नीच दुर्योधन सोई।
सा.- क्या यही दुर्योधन है? इसके लिए आपने नीच पद का प्रयोग बहुत उत्तम किया। क्योंकि-
दु्रपदी निजकुलवधू को सभा बीच तजि लाज।
चह्यो नगन करिबो कवन नीच ताहि सम आज।
प्र.- अहा! यह देखो!
लखत पाण्डवन सभा बीच जिन अजगुत कीनो।
दु्रपदसुतापट आकरषन मैं अति मन दीनो।
कुरुपति दक्षिण अपर बंधु मातुल सँग लैकै।
यह दुस्सासन खरो सैन निरखत मन दैकै।
सा.- और उसके बाम भाग में कौन-कौन महाशय हैं?
प्रद्यु.- ए बड़े सच्चरित्र लोग हैं!
जाके मुख की कान्ति बाल रवि की छबि छोरत।
प्रभा फैलि चहुं पास जासु गुन गन जनु जोरत।
जाको तेज अपार ' बीररस ' मुनितनुधारी।
जनु सोहत , सोइ कृपाचार्य कुरुगुरु सुखकारी।
और भी-
जाके सिर पै जटाजूट सोहत मनहारी।
तेजपुंज तपपुंज युद्धकोबिद अरिदारी।
घनदामिनि ज्यों शान्त मांहि बीरता बिराजै।
अस्त्रनिपुन यह लखो द्रोण आचारज राजै।
सा.- और कथित दोनों महाशयों के समीप कौन खड़ा है?
प्र.- (प्रसन्नता से)
तेजपुंज जो कछु मम पौरुख समता कै है।
परमधनुर्धर धीरे वीर नवबय गुनमै है।
धरि मुनिवसन मुनिसरूप हिय हर्ष बढ़ावत।
रनबाँको अस्वत्थामा यह सौंह सुहावत।
सा.- अहा! अस्वत्थामा का भी कैसा तेज है।
प्र.- सारथी! इधर देखो।
रुक्म बिदूरथ जरासुत दन्तवक्र सिसुपाल।
साल्वसहित कुरुराज अनु राजत षट महिपाल।
सा.- कुमार! प्रत्येक का परिचय मैं पृथक्-पृथक् चाहता हूँ।
प्र.- अच्छा देखो।
लिए हाथ मैं बान को जौन फेरै।
कबौं वेग बाजी कबौं सैन हेरै।
महारोसंवारो हठी ख्यात जोई।
मेरी माता को भ्रात है रुक्म सोई।
गर्बित ह्नै गरजत गहकि दरसत अमित असंक।
बारबार बहकत वकत सोई बिदूरथ बंक।
अति प्रचण्ड भुजदण्ड जासु वीरता बढ़ावत।
करकुबण्ड को धरि बान वरिबण्ड चढ़ावत।
खंड खंड ह्नै कवच गिरयौ महिमण्डल जाको।
अति अखंड बलवीर जरासुत है रनबांको।
अंगन कौ गनतौ कहा जासु वक्र प्रति लोम।
पै बिसेस कछु दसन सोइ , दन्तवक्र बल तोम।
धरे असित परिधन असित बाजी रथ जोरे।
किये बान सन्धान बीररस मैं मन बोरे।
बरकत अति गरबाय वैन उचरत मन साने।
सोइ उधृत सिसुपाल जासु युग दृग मदसाने।
जो बांको विकसित लसत बहुतक करत प्रलाप।
भुज ऐंठत रदपुट दँसत सोय साल्वयुत दाप।
सा.- आयुष्मन्! इन लोगों का पराक्रम रुक्मिणीहरण में प्रगट हो चुका है, आप शेष लोगों का वर्णन करैं।
प्र.- तनिक तुम इन लोगों की ओर दृष्टिपात करो। ए दस राजे कुरुराज के आगे कैसे शोभायमान हैं।
बिबि तून युग करबाल कटि मैं कसे जो दरसात है।
सो धृष्टद्युम्न महानभट जेहि ओप अमित लखात है।
सित केस सित परिधन सित हय जासु रथ मैं सोहहीं।
सो जयद्रथ अति वृद्ध जा कहँ सकल सेनप जोहहीं।
मध्यम बयस तिमि मध्य जीको सकल साज जनावई।
पारथप्रिया प्रियजनक सो जेहि दु्रपद नाम कहावई।
जुग कन्ध पै जुग धनुष जाके सो विराट नरेश है।
कर जासु शक्ति विचित्र राजत सोनुबिन्दु सुबेस है।
उत्तरनृपति सो बसन जाको सकल हरित जनात है।
रथ सकल जाको लौह बिरचित सो सुसरमा ख्यात है।
हय - चार षट - ध्वज जासु रथ मैं लगे सो नृप नील है।
अति चपल हय रथ सारथी जेहि बिन्द सो बिन सील है।
सितबरन बृहतबपुष सुबारन पै चढ़ो जु बिराजई।
भगदत्त नाम नरेस सो घन सरिस अनुछिन गाजई।
सा.- इन लोगों के बीच कौन महाशय हैं?
प्र.- (प्रेमपूर्वक देखकर)
सत्यसन्ध दृढब्रत प्रबीरबर बिरदबिचारी।
बिजयी विश्व त्रिबार भृगुप को दरपबिदारी।
जासु धुजा को तार चिन्ह बरता बिलगावै।
यह भीष्म भवबिदित जासु जस भुवजन भावै।
सा.- नि:सन्देह! इनका ऐसा ही यश है।
(नेपथ्य में)
घनसे दिनप समान सघन बनमैं सम पावक।
अमित - अस्त्र - संकुलित समरभूमै सम नावक।
अविरल पादप बृन्द नीच मारुत सम धावत।
को यह जो नृप अमित सैन बिच निधारक आवत।
अहा! यह तो कुमार प्रद्युम्न हैं। क्योंकि-
जिमि हमरी यह सकल बपुष कंटकित जनावै।
ताते अधिक कुमार कायरन मांहि लखावै।
गहिकै जिमि जलधार सुऊपर हम चलि जाहीं।
बानधार गहि जिमि हरिसुत दलमाहि समाहीं।
जिमि हम चंचलजल अगम मैं तिमि कुमार गतिरन करत।
यह भाव जनावत जगत को मौनचिन्ह धुज फरहरत।
सा.- आयुष्मन्। महात्मा भीष्म कैसी इर्षारहित बाणी से भवदीय पराक्रम का प्रदर्शन कर रहे हैं।
प्र.- यह ऐसे ही सत्यसील और निष्पक्ष महानुभाव हैं।
(पुन: नेपथ्य में)
गहो अस्त्र को द्रोन औ रोस धारो।
कृपाचार्य लै बान को बेग झारो।
अरे द्रोन को तात जो वीरता है।
तो को दण्ड लै सामुहैं युद्ध चाहै।
कहाँ कर्ण है जो हुतो बीर बाँको।
न मान्यो कही मैं लखों युद्ध वाको।
खरो अन्ध को पूत तू काहि हेरै।
गदा धरि क्यों बैरि को नाहि टेरै।
बिकर्ण रुक्म साल्व दन्तबक्र बिन्द आदि लै।
करो कहा सबै बली अबै बढ़ो गदादि लै।
गहे सुचाप स्यामगात क्रीट कौच को धरे।
कसे कृपान लंक है निषंग बान सों भरे।
दिखात नाहि यान जाहि को लखात धूर है।
मुरारितात सौंह आवतो भरो गरूर है।
सा.- कुमार! वीराग्रगण्य महात्मा भीष्म के वीरताजनक वाक्यों में 'न मान्यो कही', इस वाक्य का भाव मुझको नहीं ज्ञात हुआ।
प्रद्यु.- जब यज्ञकाल में ब्रह्मदत्त व निमन्त्रित पितामह वसुदेव को निकुंभ ने इस प्रकार धमकाया कि यदि यज्ञ में मुझको भाग न दोगे तो मैं तुम लोगों को बाँध लूँगा और द्विज यज्ञकर्ता को ब्रह्मदत्त की पाँच शत कन्याओं को भी हर लूँगा, तब भयभीत होकर ब्रह्मदत्त ने दानवराज से तो यह कहा कि मैं आप की बातों का उत्तर कुछ काल में समझकर दूँगा, और उसी समय भारतवर्षीय समस्त राजाओं के पास निमन्त्रणपत्र यज्ञ मिस से इस विचार से भेज दिया कि यदि वे लोग यज्ञ में आ रहेंगे तो जिस काल कोई संकट उपस्थित होगा, मेरी रक्षा करेंगे। यह निमन्त्रण पत्र दुर्योधन के यहाँ भी गया था।
सा.- सो तो मैं जानता हूँ, महात्मा नारद ने द्वारिका में जाकर जब द्विजराज ब्रह्मदत्त और सस्त्रीक मान्य वसुदेव जी के बाँधे जाने का समाचार कहा था तो यह बात भी कही थी।
प्रद्यु.- किन्तु जब निमन्त्रणानुसार यात्र के लिए सुयोधन ने सभा में परामर्श लिया, तो भीष्मपितामह ने यात्र विषय में अरुचि प्रगट की, और कहा, कि इतने काल में निकुंभ ने ब्रह्मदत्तदिकों को अवश्य बाँध लिया होगा, क्योंकि महात्मा ब्रह्मदत्त के निमन्त्रण पत्र के शब्दों से यह भाव स्पष्ट हृदयंगम होता है। ऐसी अवस्था में अवश्य है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने पूज्य पिता के उध्दार और ब्राह्मण यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति की कामना से वहाँ आ चुके होंगे। अमोघपराक्रम भगवान श्रीकृष्ण का जैसा आतंक है, प्रगट है, अतएव निकुम्भ का हृदय भी इस काल चंचल होगा, हम लोगों के वहाँ पहुँचने पर निकुम्भ अवश्य सहायता का प्रार्थी होगा, जिसका यह फल होगा कि व्यर्थ हम लोगों को श्रीकृष्ण के साथ युद्ध और शत्रुता करनी होगी। कर्ण ने इस उत्तम परामर्श का विरोध किया, और उसी की उत्तेजना से दुर्योधन को यहाँ आने का साहस हुआ और यही कारण है जो महातेजा भीष्म ने अपने उत्तेजक वाक्यों में 'न मान्यो कही', इस वाक्य का भी प्रयोग किया।
सा.- किन्तु ठीक वैसा ही हुआ, जैसा महात्मा भीष्म ने कहा था।
प्र.- दूरदर्शीजनों का कथन असत्य कब हुआ है?
(नेपथ्य में)
अहो कृष्णसुत के सरिस अपर सुभट जग कौन।
सहसन महारथीन पै जात एकलो जौन।
(दोनों सुनते हैं)
सा.- कुमार! आकाशवाणी समान यह वाक्य किसका है?
प्र.- आकाशवाणी समान क्या? यह वास्तविक आकाशवाणी है, क्योंकि देवताओं की वाणी है।
(इन्द्र, प्रवर, और जयन्त का प्रवेश)
प्रव.- देव! कुमार प्रद्युम्न केवल सुहृद ही नहीं किन्तु बड़े प्रतापशाली भी हैं, क्योंकि-
यदपि शत्रुदल के सुभट धरे धनुष बर बान।
तदपि पनच को करषि कै सकत न नेकहु तान।
इन्द्र- नि:सन्देह!
(नेपथ्य में)
अरे कुमार प्रद्युम्न! तू चापलूस देवताओं की झूठी प्रशंसा को क्या मन लगाकर सुन रहा है, यदि कुछ पौरुष रखता है तो सामने आ।
यदपि हमारे इष्टदेव के तुम प्रिय जाये।
यदपि विश्वविजयी प्रवीर तुमको सब गाये।
यदपि तुमारो बैन बौन बल पूरित दरसै।
यदपि हमारो वृद्ध बैस बल जाहि न परसै।
पै तदपि समर भूमैं तुमैं सौंह पाइ करि प्रन कहत।
वह चोपडारिहौं चूरि सब अरि जासो जौतन चहत।
प्र.- (सुनकर क्रोध से) सारथी! तुम हमारे रथ को शीघ्र भीष्मपितामह के सन्मुख ले चलो।
जीति जगत्त्रयवार अरु भृगुपति को मद जौन।
चढ़ो नदीसुत को अहै मैं निवारिहौं तौन।
सा.- जैसी आज्ञा (रथ लेकर जाता है)
प्रवर- देव! देखिए! कुमार प्रद्युम्न के रणभूमि में पहुँचते ही शत्रुदल में कैसा खलबल मच गया है।
कोउ कंपत कोऊ गिरत कोउ संकित दरसात।
अस्त्र शस्त्र तजि कोउ भजो चाहत पै रहिजात।
जयं.- अहा! महात्मा भीष्म के पुरुषार्थ को धन्य है, जो इस वृध्दावस्था में भी ऐसा अपूर्व है।
यदपि सकल अनीक मैं हरिसुत निरखि खलबल मच्यो।
पै तदपि नहिं रंचक चप्यो अरु तेह ते चौगुन तच्यो।
अब कान त्यागि धनु तानि पल मैं सहस बान प्रहारि कै।
गरजत खरो घन सरिस मानहु बैरि बेग बिदारि कै।
इन्द्र- पुत्र! देखो! महात्मा भीष्म के इस उत्तम साहस का कैसा फल हुआ है।
जो सेनप चित चके वीर जो थकित खरे है।
जो भट कादरतारु वीरता बीच परे है।
जो दल संकित हुतो सूर जो सहमित हो अति।
सो अब तरपत तेह पूरि रनधरि दुगुन गति।
प्रवर- देवेश! तनिक कुमार प्रद्युम्न के साहस को देखिए।
पल मैं नदीसुत हनित बानन काटि कै रज सम कियो।
पुनि मारि कै बिबि सहस सर रथ सुरसरित को भरि दियो।
एहि भाँति धनु गहि तजत सर यह जाहि ते न जनात है।
कब धरत धनु पै विसिष अरु कब करत अरि पै घात है।
जय.- देव! साथ ही महात्मा भीष्म के पराक्रम पर भी ट्टष्टिपात कीजिए।
हरिसुतप्रेरित सरन को निज बानन सों काटि।
पावकसर तजि कै करत महानाद अरि डाँटि।
इन्द्र- ठीक है! क्योंकि-
करत मलिन निज धुमधार सों गगनदिसा को।
अरुन बनावत दिवसनाथदुति दरन निसा को।
बेलि लता पादप खग मृग बहु जीव जरावत।
ज्वालमालसंकुलित अग्नि यह दहकत आवत।
प्रव.- क्या हुआ, कुमार का वारुणास्त्रा चल चुका।
घन घहरत चहुंओर घोर पल मैं घिरि आये।
उमड़ि उमड़ि तिमि घुमड़ि छहरि छितिमंडल छाये।
बरसि मूसलाधार प्रलयकौतुक दरसाई।
लगी महान दवारि दियो छन मांहि बुझाई।
जयं.- महोदय! महात्मा भीष्म ने अब बाणास्त्र छोड़ा है।
महाकाय नीलाद्रि लौं जौन धारैं।
बडे वृक्ष को मूल सो जो उखारैं।
बड़ी सुण्ड औ दन्त जाके डरावैं।
घिरे घूमते मो लखो सौंह आवैं।
प्रव.- सत्य है! किन्तु कुमार ने जो मृगराजास्त्र छोड़ा है उसका कौतुक अवलोकन कीजिए।
पटकि पूँछ तिन तरपि तोपि करि गन को लीनो।
प्रखरदन्त नख वल बिड़ारि तिनको दल दीनो।
कर प्रहार कटि फारि कुंभ नख सों पल माहीं।
सकल दन्ति दलि भये लोप अब नहिं दरसाहीं।
इन्द्र- अहा! यह क्या हुआ।
दल्यो जिते हुते सपच्छ अद्रि ता सुपच्छ को।
तऊ लखो समच्छ आवतो समूह लच्छ को।
किधौं भयो सपच्छ सैर वंस है नयो कोऊ।
किधौं अहै कोऊ उपाध पै जनात ना सोऊ।
जयं.- मेरे पूज्यपाद! यह सुरसरीनन्दन का छोड़ा हुआ पर्बतास्त्र है जिससे अब कुमार प्रद्युम्न का बचना कठिन जान पड़ता है।
प्रव.- आयुष्मन्! यह देखिए! प्रद्युम्न ने भी साथ ही पुरहूतास्त्र छोड़ा है।
गहे कुलिश कर भरे कोप कुण्डल श्रुति धरे।
प्रगट भये बहु इन्द्र ओप चहुंओर पसारे।
जिनके कुलिशप्रहारन सों सिगरे गिरि गाढ़े।
ह्नै अपच्छ चकचूर भये जिमि हे बहु बाढ़े।
जयं.- (साम्हने देखकर)
महाभयंकर रूप बिकट टेढ़े अति कारे।
खोले मघन रु निबिड़ केस सब दन्त निकारे।
कटकटात चिक्करत बमत निजमुख ते ज्वाला।
यह पिशाच को जूह लखो आवत गहि भाला।
इन्द्र- ठीक है! सन्तनसुअन ने पिशाचास्त्र छोड़ा है।
प्रव.- देव! देखिए!
भैरवास्त्र जो तज्यो कुँवर तासों छन माहीं।
स्वान चढ़े प्रगटे अनन्त भैरव तिन पाहीं।
तिनैं निरखि सिगरे पिशाच झुकि सीस नवाये।
और परसि पग ह्नै प्रलोप निज धाम सिधाये।
इन्द्र.- अब क्या भीष्मपितामह ने पन्नगास्त्र का प्रहार किया है, जो अचानक इतने सर्पों का समूह फुंकारता हुआ सन्मुख चला आता है?
जयं.- हाँ। ज्ञात तो ऐसा ही होता है!
कुहू निसा सम मलिन और कारे दरसाहीं।
कुटिलबक्र अस जाहि निरखि कच नारि लजाहीं।
उगिलत गरल अपार फुंकरत फन फहरावत।
यह अहिकुल हियमाहि त्रास त्रेगुन उपजावत।
प्रव.- देव! कुमार प्रद्युम्न की कैसी अपूर्व लाघवता है कि पन्नगास्त्र के साथ ही गरुड़ास्त्र भी छूटा है।
बान बगारत बेर भई नहीं पच्छ प्रहारत औ मुँह बाए।
भू नभ औ दसहूँ दिसि मैं हरिऔध घने उरगारि दिखाये।
देखि भुजंग सबै घबराय भजे पर एक न भाजन पाये।
पन्नग जेते हुते प्रगटे तिनको पल मैं गहि कै तिन खाये।
इन्द्र.- प्रवर! देखो।
जीव जरावत थरहरत उपजावत अति त्रस।
तज्यो नदीसुत ब्रह्मसर करन चहत जग नास।
प्रव.- अहा!
तजत ब्रह्मसर के भयो तुरत ब्रह्मसिर पात।
अब कुमार सर तजि कियो रथसारथी निपात।
जयं.- ओहो! यह क्या हुआ।
भग्न जान लखि अपर यान कुरुपति पठवायो।
बान मारि ताको कुमार पथ मांहि उड़ायो।
कोपित ह्नै सर हन्यो भीष्म जो सो रज कीनो।
मायाफाँसी डारि बाँधि तिनको अब लीनो।
प्रव.- धन्य! कुमार प्रद्युम्न धन्य!! ऐसा अपूर्व पराक्रम तुमारे अतिरिक्त किसका हो सकता है।
सकल दिव्य उपअस्त्र को अपने बल सों दारि।
भीष्म सरिस बाँध्यों सुभट मायाफाँसी डारि।
इन्द्र.- अरे तुम सब क्या देखते हो, इस बिचित्रता को अवलोकन करो।
तमसावृत औंड़ो अमित माया गुहा बनाय।
तासे भीषम को धारयौ लखत नृपन समुदाय।
प्रव.- देव! उससे अधिक विचित्रता देखिए।
अश्वत्थामा द्रोन कृप त्रे महारथी साथ।
आवत इक हरिसुवन पै गहे चाप सर हाथ।
इन्द्र.- क्या हुआ, कृष्णसुत इन तीनों के लिए अकेला ही बहुत है।
प्रव.- इन तीनों के लिए क्या, यह कहिए कि जितने राजे उपस्थित हैं, उन सबके लिए।
जयं.- महात्मन्! देखिए!
रवि ते किरिन अरु घनपटल ते बूँद ज्यों निकरहिं घने।
तिमि द्रोन कृप अरु द्रोनसुत धनु ते निकरि सायक अने।
रथ तोपि हरिसुत को लियो पै काटि सर इमि सो कढ़े।
जिमि निबिड़ बारिद को बिदारि कढ़त दिवाकर दिन चढ़े।
इन्द्र- अहा! क्यों न हो।
कढ़त बेर नहिं भई द्रोन सर अयुत चलाये।
त्रे सह्स्त्र सर रथ सारथि हय को कृप घाये।
सप्त सह्स्त्र सायक अश्वत्थामा बढ़ि मारयो।
पै कुमार इक इक सर पै द्वे द्वै सर झारयो।
जाते उनके सर पलटि कै उनहीं पै धावत भये।
ह्नै अबस आपने ही सरन असि निकासि तीनोंहये।
प्रव.- देव! कुमार ने दो-दो बाण मार कर केवल उन लोगों के बाण ही को नहीं फेर दिया, बरन यह लाघवता भी की।
लगे हुते सर काढ़न मैं जबहीं वह तीनो।
तब कुमार इक रवि औ ह्नै पावक सर लीनो।
छाड़ि दियो तकि सौंह तुरतसो अरिदिसचाह्यो
रथ सारथि हय कवच तून तीनों को दाह्यो।
जयं.- महोदय! अब देखिए!
गहे कृपान चर्म अग्र द्रोन तात धावतो।
त्रिसूल धरि द्रोन तासु पुष्ट ओप छावतो।
लिए कृपास्त्र चक्र तानु तेह सों फिरावतो।
कुमार पै कमाल कोप सों लखाहिं आवतो।
प्रव.- सत्य है। किन्तु
हनि बिसिख है हरिसुत चरम असि द्रोन सुत को दलि दियो।
निज उग्र सक्ति प्रहारि द्रोन त्रिसूल को खण्डित कियो।
कृपचक्र को निज चक्र सों चकचूर कै अति चोप सों।
गल डारि मायाफाँस तिनको बाँधि लीनो चोप सों।
इन्द्र- भद्र! कुमार ने केवल बाँध ही नहीं लिया बरन-
कथित कपट कंदरा मैं तिनैं कैदहूँ कीन।
अरुरच्छक निजसुतहिं करि जगतमांहिं जमदीन।
प्रव.- (सामने देखकर) देव! इनको क्या सूझी है, जो इतनी दृढ़ता से चले आते हैं।
इन्द्र.- किनको? दुर्योधन को!
प्रवर- हाँ!
इन्द्र- सूझी क्या है! “जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ांहीं, कहहु तूल केहि लेखे मांहीं', पर नहीं सुना है कि 'विनाशकाले विपरीतबुध्दि:,।
प्रवर- आपका कथन बहुत ठीक है, और सोई हुआ भी।
जब लौं धुन धारयो अरु सर मारयो दस औ सत कुरुराई।
तब लौं ही डाँटी बानन काटी करि लघुता समुहाई।
रथसूत बिनास्यो ध्वज धनु नास्यो सकल अस्त्र दलि डारयो।
हरिसुत बलधारी ताहि प्रचारी अरु है बान प्रहारयो।
रथ सारथी विनास ते आकुल ह्नै सर खाय।
गिरयो सुयोधन धरा पै मुरछि महादुख पाय।
जयं.- महाशय! इस कौतुक को अवलोकन कीजिए!
मुरछित कुरुपति निरखि सल्य रथ चढ़ि द्रुत आयो।
अरु चढ़ाय रथ ताहि हाँकि रथ तुरत परायो।
हरिसुत हँसि रथ भाजि बाजि हति कौतुक कीनो।
क्रीट सुयोधन को उतारि सल्यहिं गहि लीनो।
प्रवर- यह तो हुआ, पर इसमें क्या युक्ति है?
सल्यहिं तो गहि कै कियो कैद कन्दरा माँहि।
क्रीटलेइ कुरुपति तज्यो तेहि गहि बाँध्योंनाँहि।
इन्द्र.- यह तो प्रत्यक्ष बात है।
कुरुपति ही सेनप अहै तेहि बाँधे सब सैन।
बिचलि भाजि है सहमि के अरु ह्नै महा अचैन।
पै कुमार अस चहत नहि बल दरसावन काज।
याही ते बाँध्यों नहीं क्रीट उतारन ब्याज।
(नेपथ्य में)
अरे बीरमानी प्रबीर निरखत कत ठाढ़े।
अहो कहा चिन्तत सिगरे रावत रन गाढ़े।
करत कहा को दण्ड लिए भूपति कुलमानी।
ररत कहा कायर लौं सब सेनप सिर ठानी।
धावहु धावहु धरि लेहु गहि धीरे दूर अरि बल करहु।
रथ तुरग सारथी बिसिख धनु दलि हरिसुत को मद हरहु।
प्रवर- अमरेश! दुर्योधन की इस निर्लज्जता को देखिए, जब अपने से कुछ न बन आया, तो सेनपों को उत्त्तेजित करने लगा।
इन्द्र.- कायरों की यही रीति है, किन्तु इसके उत्तेजना करने का प्रभाव बड़ा हुआ-क्योंकि-
बीर जेते हुते भूप लैकै तिते कृष्ण प्यारे सुतै घेरि लीने।
सोर कीनो महाचाप चीनो गहाजोम भीने तहाँ त्रस दीने।
रोस साने बने तेज तीखे अने बान मारे घने दाप शीने।
जीत ईहा पगे बीरता मैं खगे जुद्ध जोधा जगे मान भीने।
प्रवर.- देव! इसमें सन्देह नहीं कि राजाओं ने अपार सेना से प्रद्युम्न को घेर लिया, किन्तु प्रद्युम्न का असीम साहस इस समय भी वैसा ही अनिवार्य है।
यदपि चार जोजन को घेरो करि दल छायो।
व्यूह बाँधि अस , संगसि वायु जहँ जानन पायो।
सकल सुभट नृप सिमिटि सैन के आगे आये।
तुरग हस्ति रन कुशल चमू चहुँदिस बगराये।
झर लाइ सबै असि परिघ सर सिंह सरिस गरजत खरे।
पै तदपि हरिसुअन धनु धुनत धंसे मन्द हँसि नहिं टरे।
इन्द्र- प्रवर! देखो।
दल मैं प्रबिसि हरितात तानि कमान को अजगुत कियो।
करि छिन्न भिन्न अनेक भट बहुतेक बीरन दलि दियो।
क्रीटरु कवच को काटि सूत निपाति सूर अनेक को।
मद मोरि दरि अभिमान दीनो समन कीनो टेक को।
प्रवर- बाहबा! कुमार! बाहबा!!
जिमि अपार मृग जूह बीच केहरि गति धारै।
जिमि अहिगन मैं नभगनाथ कौतुक बिस्तारै।
तृन समूह पै अग्नि राशि जिमि जोम जनावै।
दिवसनाथ तम तोम नासि जिमि तेज बढ़ावै।
तिमि निरखि अमित नृप संकुलित सैन मांहि तज अगमगति।
उमगत मन मोहित ह्नै महा अरु प्रमुग्ध है रहत मति।
जयं.- महाशय! कुमार का अद्भुत पराक्रम निस्सन्देह प्रशंसनीय है।
जोजन भर को करि घेरो रथ भ्रमत लखावै।
रोमरोम ते तजत बिसिख हरि तात जनावै।
एक बान जो कोउ दिसि ते हरिसुत पै आवै।
तानु तीन सर धार बैरि सूतादि नसावै।
चकि चौंकि चौंकि अति भट भजत भभरि भूरि अरुथरहरत।
जब सम्बरारि संगर सबल माया ते ढिग संचरत।
इन्द्र- प्रिय पुत्र! तुम शीघ्र हाथ में धन्वा बाण लेकर हम लोगों की रक्षा करो। क्योंकि-
सूत तुरग हरि तात रोम रोमन अरु रथ ते।
निकसत बहु सरबृन्द झरत कै उडुगन पथ ते।
किधौं धरा प्रति छिद्रन ते सर निकरत आवत।
किधौं ककुभ ते निकरि शिलीमुख को गन धावत।
जाते जल थल अरु गगन चर जीव जन्तु कटि कटि परत।
सोइ गति ह्नैहै हम सबन की जौ न बान धनु तुम धरत।
जयं.- जैसी पूज्यपाद की आज्ञा। (धन्वा बाण ग्रहण और सन्धान)।
प्रवर- देव! आपने बहुत अच्छी युक्ति सोची, नहीं तो इसमें सन्देह नहीं कि हम लोगों का यहाँ ठहरना कठिन हो जाता।
नैन उठावत नैन माहि द्रुत सर परि जावै।
भुजा सस्त्र के सहित उठत कटि भू पै आवै।
जलचर सरभय धरि अगाध उदक तकि धावै।
नभचर उड़िबो त्यागि सहमि गिरिगुहा समावै।
जगजीव अमित इमि जोहियत जहाँ तहाँ ब्यथितरु विकल।
हम सब फिर कब हरितात के तजित बिसिख ते लहत कल।
इन्द्र- मित्र! देखो।
फनि समान फुंकरत सौंह कोऊ सर आवत।
गज पदाति की पाँति भेदि कोऊ नभ धावत।
काटि बाहु अरु सीस ता सहित कोउ इत दौरे।
लपटि ऑंत सों रुधिर भरे आवत ढिग औरे।
तिमि काक कंक के जूह को भेदि आनि कोऊ गिरत।
पै करि लाघवता सबन दलि मम प्रिय सुत रक्षा करत।
जयं.- पूज्यचरण। तनिक रणभूमि की ओर दृष्टिपात कीजिए।
सहसन सुभट कटि परत सहसन मारमार उचारहीं।
बिनु नासिका दृग श्रवन ह्नै सहसन सभीत चिकारहीं।
कटि गये दोऊ भुजनहूं सहसन लरत अरु परत हैं।
बिन सीस ह्नै कै बैरि हित सहसन बिसिख धनु धरत हैं।
अहा! यह देखिए।
अक्ष स्त्रौन मुख आदि ढेर जहँ तहँ दरसावै।
रुधिर मेद अरु मांस फैलि मन घिन उपजावै।
कर कबन्ध करबाल गहे इत सों उत घूमहिं।
गिरत लोथ पर लोथ सीस कटिकटि भुव चूमहिं।
प्रव.- देवेश! रणभूमि इस समय निस्सन्देह दर्शनीय है।
जहाँ तहाँ अपार दन्ति सुण्ड दन्त खोय कै।
भ्रमैं जिनैं लखैं भजैं अधीर भीरु होय कै।
तुरंग जूह बान के लगे बिहाय चाल को।
खरे रहैं जकेति जीव ज्यों बिलोकि शाल को।
ध्वजादि सारथी रथी बिहीन चूर चूर ह्नै।
अनेक यात हैं परे कितेक धूर पूर ह्नै।
और भी
खोपरौन भरि स्त्रौन पान कै नचत कराली।
पोय मुण्ड की माल रुधिर पोतत बपु शाली।
भूत प्रेत बैताल मेद पूरित पल खाई।
क्रीड़त कन्दुक मुण्ड और पग दण्ड बनाई।
बहु काक कंक बल हित लपकि बान खाइ द्रुत कटि परत।
अरु उड़त मांस लै अमित नभ पै तहांति लरि पुनि गिरत।
इन्द्र.- मित्र! रणभूमि क्या यह तो एक सुबृहत ताल है।
कोसन लौं जो भरो रुधिर सोई जल मानो।
मृतक अश्व गज जूह नक्र मकरादि पछानो।
दीरघ लघु सफरीस मान पग कर जकटे कर।
कंसजाल सैबाल दृगादिक अपर उदक चर।
जहँ तहँ अनेक भट जोहियत रुधिर मांहि अतिहीं भरे।
सो मनहु समर भूताल मैं न्हात अमित मानव खरे।
(रणभूमि की ओर देखकर)
किधौं मेदिनी माँग माँहि सेंदुर को टीको।
किधौं बृहत रजतल प्रबाह गेरू को नीको।
किधौं कालिका रुधिरपान हित जीह पसारयो।
किधौं रक्तनद कोउ सैल ते निकरि पधारयो।
रवि हनित प्रात असुरन किधौं छतज धार महि बसि रहौ।
हरिऔध किधौं रनभूमि मैं सिमिटि रुधिरधारा बहौ।
जयं.- पिता जी। देखिए! इस समय कैसा घोर युद्ध हो रहा है!
झड़ाक चाप तानि कै तड़ाक पैंतरे फिरे।
सड़ाक सैहथी हतं पड़ाक सूरमे गिरे।
भड़ाक फूटियो सिरं धड़ाक बान को सहा।
खड़ाक खोल उत्तरी कड़ाक शब्द कै महा।
और भी -
तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुट्टे।
बागिड़दं बीरं लागिड़दं लुट्टे।
कागिड़दं कोपे जागिड़दं ज्वानं।
मागिड़दं मारे बागिड़दं बानं।
नागिड़दं नच्चे भागिड़दं भूतं।
हागिड़दं हस्से पागिड़दं प्रेतं।
जागिड़दं युध्दे सागिड़दं सूरं।
घागिड़दं घूमीं हागिड़दं हूरं।
इन्द्र.- पुत्र! निस्सन्देह इस समय बड़ा घोर युद्ध हो रहा है।
कृणणण कोपे। चृणणण चोपे।
सृणणण सूरं। पृणणण पूरं।
नृणणण नासे। खृणणण खासे।
जृणणण जोधो। कृणणण क्रोधे।
तृणणण तीरं। बृणणण बीरं।
मृणणण मारे। दृणणण दारे।
छि्रणणण छुट्टे। लृणणण लुट्टे।
बृणणण बानं। ज्रिणणण ज्वानं
और भी -
टरे कोल कच्छं। लरे बीर दच्छं।
डरे लोक लोकं। भरे सर्ब सोकं।
चमक्के कृपानं। कड़क्के कमानं।
तड़क्के तुफंगं। सड़क्के अभंगं।
कहूं बीर जुट्टे। कहूं बान छुट्टे।
कहूं सूर गज्जे। कहूं डंक बज्जे।
मसक्कैत धाकं। धसक्कैत नाकं।
जहक्कैत ज्वानं। बहक्कैत बानं।
प्रव.- देव! बस कीजिए, रण के विषय में मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ।
बहकन्त बीरं। फहकन्त तीरं।
ढमकन्त ढोलं। बमकन्त गोलं।
बहकन्त काकं। बबकन्त बाकं।
तमकन्त सूरं। चमकन्त हूरं।
दरतन्त मानं। हरतन्त सानं।
कटतन्त अंगं। तजतन्त संगं।
भरतन्त द्रोहं। करतन्त कोहं।
लगतन्त बानं। भजतन्त ज्वानं।
और भी -
कि वज्जेत बाजं। कि सज्जेत साजं।
कि नच्चेत उध्दं। कि मच्चेत युध्दं।
कि जुज्झन्त ज्वानं। कि लुज्झन्त प्रानं।
कि सुज्झन्त दोसं। कि बुजझन्त रोसं।
कि पच्चेत मानं। कि खच्चेत बानं।
कि लज्जेत जोधे। कि गज्जेत क्रोधे।
कि फुट्टन्त संगं। कि कुट्टन्त अंगं।
कि तुट्टन्त तीरं। कि जुट्टन्त बीरं।
इन्द्र.- मित्र! कुमार प्रद्युम्न का युद्ध देख हम लोगों को कौतुक हो रहा है किन्तु इससे सम्पूर्ण संसार सभीत है।
शिव समाधि भी भंग बिधाता व्यस्त लखावैं।
जच्छ रच्छ गन्धर्ब देव मुनि जकित जनावैं।
कच्छ कोल दिग्गज अहीस डिग्गत दरसाहीं।
उथलत पुहुमी बार बार गिरि सकल हलाहीं।
उच्छलत बारि बारिधि बिचलि टूटि टूटि तारे गिरत।
रवि अरुन छत्रपति भूलि पथ गगन माहिं भटकत फिरत।
प्रव.- ठीक है, पर अप्सराओं के आनन्द की तो सीमा नहीं है।
रन सोहैं लरि मुदित बीर जो निज तन त्यागैं।
लिए हाथ जैमाल तासु हित कोउ अनुरागैं।
कोउ ताको हियलाइ मोढ मढ़ि पुलकित होवैं।
कोउ बरि लहि मनकाम बाट निजगृह की जोवैं।
कोउ लरत एक सों एक हित कोउ बीचहि तेंहि लै भजत।
कोउ करि कामना अनेक उर आभूषण अंगन सजत।
जयं.- महाशय! इस समय दो ही की तो बन आयी है।
कै आमिष भोजीन की भूमण्डल के माँहि।
कै बर नाकनटीन की नाकलोक के पाहि।
प्रव.- देव! यद्यपि चारणों के यशोच्चारण, बन्दियों के बिरदप्रसारण, कड़खैतों की कड़क, रणबाद्यों की तड़क, नगाड़ों की गरज, और शंखों की तरज, का यह प्रभाव हुआ कि लाखों सूर, वीरगति को प्राप्त हुए, यहाँ तक कि अनेक कायर भी कट मरे, तथापि रणभूमि सूरसामन्तों से भरी है, किन्तु अब सम्पूर्ण राजाओं को विशेष क्रोध हुआ है।
दन्तवक्र , सिसुपाल , जरासुत , रुक्म , विदूरथ।
साल , बिन्द , अनुबिन्द , नील , भगदत्त , जयद्रथ।
दु्रपद , सुसरमा , धृष्टद्युम्न , उत्तर , दुस्सासन।
ए प्रबीर संग , सकुनि , बिराट , कुरुप , सतभ्रातन।
तिमि सोमदत्त , पुरुजित , जुधामन्यु , भोज उतभोज , मन।
बर बाहलीक , भूरिश्रवा , चेकितान कामीस गन।
कुन्त सैव अरु धृष्टध्वज ¹ आदि अपर महिनाथ।
बृत्ताकार सुव्यूह रचि घेरि लियो रतिनाथ ।
इन्द्र- मित्र! तो अब क्या होगा?
प्रवर- होगा क्या, यद्यपि राजाओं ने प्रलय का ठाठ किया है। अर्थात्
¹धृष्टध्वज=धृष्टकेतु। + रतिनाथ = कामावतार कुमार प्रद्युम्न। कोउ सहस कोउ लच्छ कोउ कोटिन शिलीमुख डारहीं।
कोउ रुद्र कोउ ब्रह्म कोउ विष्णु बान प्रहारहीं।
कोउ मुसल मुग्दर मारि चक्र चलाइ सांगन हनत है।
कोउ बिरचि माया कपट खानिक बिविध बानिक बनत है।
तथापि
करि कौसल प्रति नृपन सों करत युद्ध हरितात।
हनितसकलसस्त्रस्त्रदलि तिमिबिदारिअरिगात।
जयं- महाशय। देखिए।
बिदारि व्यूह चाप काटि अस्त्र शस्त्र दूर कै।
निपाति सारथी रु बाजि स्यन्दनादि चूर कै।
लगाइ घाव अंग अंग बेधि रोम रोम को।
कियो कुमारु भीरु औ अधीर भूप तोम को।
इन्द्र- भद्र। फिर अब विजय होने में क्या विलंब है!
प्रव.- देव! अब कुछ विलंब नहीं है।
(नेपथ्य में)
परम सुभट सब भाँति बडे ह्नै बीर कहाई।
निज लघु पै रिस करब महा अनुचित दरसाई।
याते कत समुहाइ बरकि हमसों तुम माड़त।
चले जाहु हठ त्यागि धाम मातुल हम छाड़त।
प्रव.- अमरेश! आपने सुना, कुमार प्रद्युम्न ने निज मातुल रुक्म को कैसा उत्तम परामर्श दिया है।
इन्द्र.- निस्सन्देह! पर इस परामर्श का प्रत्येक अक्षर उसकी क्रोधग्नि के लिए घृत से भी बढ़कर है।
(पुन: नेपथ्य में)
बृद्धन बाँधि कहा इतो अरे मूढ़ गरबात।
मिल्यो तोहि नहिं कोउ सुभट पै अब मैं समुहात।
इन्द्र- प्रवर! रुक्म की बातों को सुना।
प्रव.- सुना, यदि ऐसे न होते तो बार-बार दुर्गति क्यों होती।
जयं.- पूज्यचरण! आप देखैं।
भगदत्त बारन सीस पै रथ को उड़ाइ सिवारि गो।
दलि चाप चर्मादिक पकरि तेहि कन्दरा मैं डारि गो।
पुनि रुक्म औ सिसुपाल तजि तजि सूल सायक टारि कै।
सूतादि हनि तिनको गह्यो गर कपट फाँसी डारि कै।
रथ छोरि नभ मों आइ कूदि सकुनि रथोपरि हँकरिकै।
कच मिथ : बाँध्यों तेहि सदुस्सासन सभ्रातन पकरि कै।
तिमि मध्य मैं कर मैं समीप छुटत बिदलि सर जाल को।
अरु अस्त्र शस्त्रन नासि गहि बाँध्यों सकल भूपाल को।
कुरुराज को कुरुपति बिचारि बिनाहि बाँधे गहि लियो।
अरु सकल नृपगन सहित ताको कैद कन्दर में कियो।
प्रव.- तो क्या कुमार प्रद्युम्न की जीत हो गयी?
जयं.- महाशय! आप देखते नहीं।
जिते जगद्विजयी नृपाल रनहित हैं आये।
तिनै जीति गहि बाँधि गुहा में हरिसुत नाये।
धीरे वीर सीमन्त सूर रावत हैं जेते।
करि कठोर घमसान वीरगति गमने तेते।
अस निरखि बची सैना भजी तजि तन सुधि तिमि बसन धन।
कोउ नहिं दरसत रनभूमि अब अपर त्यागि बहु मृतक जन।
इन्द्र- मित्र! कुमति भी कैसी आपदा है। इसी के कारण राजाओं की आज यह दशा हुई है।
व्यर्थ बैर हरि सों बेसहि ह्नै असैन लहि चोट।
अखिल अंधेरी गुहा मैं अब भोगत दुख कोट।
प्रव.- अमरेश! यह तो उचित ही है, क्योंकि-
अनुचित उचित न जो लखत मति उजास मदछाय।
सो तममावृत अरि गुहा परि दुख लहै बनाय।
जयं.- (सामने देखकर) महोदय! रथ को त्याग बाम हस्त में माया बन्धन लिये, कुमार प्रद्युम्न अब कहाँ जा रहे हैं?
प्रव.- आयुष्मन्! ज्ञात होता है रणभूमि के अन्तिम भागस्थ पर्वत की उस कन्दरा के रक्षक कर्ण को दण्ड देने के लिए, जिसमें समस्त यदुवंशीबद्ध हैं।
(नेपथ्य में)
अरे सूतसुत चाप गहि कहा हनत सर मोहि।
बिना गहे आयुध कोऊ मैं गहि लैहौं तोहि।
इन्द्र- (सुनकर) मंत्रिवर! कुमार प्रद्युम्न ने कैसी कठिन प्रतिज्ञा की है, क्या कर्ण के सन्मुख यह सफल हो सकती है?
प्रव.- देवेश! आप के इतना कहते ही कि 'सफल हो सकती है' वह सफल हो गयी।
जदपि सो ढिग सों कुमार समीप लों तजि बान को।
रचि बिसिखपंजर पूरि दीनो गगन और दिसान को।
पै तदपि जिमि महि छिद्र पथ ह्नै वायु की गति होत है।
अरु निबिड़ घन मैं धाँसत दामिनि करि अपार उदोत है।
तिमि प्रविसि तामैं कृष्णसुत निज ओप को सौगुन कियो।
चकचौंधि रविसुत चाप तजि चकि तोपि चख कर सों लियो।
तब पद प्रहारि गिराइ क्रीटहिं पकरि केस समूह को।
तेहि कैद कीनो कन्दरा मैं छोरि जदु जन जूह को।
इन्द्र.- मित्र! ऐसा अद्भुत पराक्रम काहे को किसी का होगा, जैसा कि कुमार प्रद्युम्न का है।
सहसन महा महारथी रथी अतिरथी काँहिं।
त्यागि कृष्णसुत को सकत जीति द्वै घटी माँहिं।
प्रवर- देव! जब कुमार प्रद्युम्न का ऐसा अद्भुत पराक्रम है तभी तो हम लोग आज रणकौतुक देखकर अघा गये! नहीं तो
देखेहूँ आहव अमित रही चाह चित ऐन।
पै बिलोकि हरितात को युद्ध अघाने नैन।
जयं.- महाशय! केवल हमी लोग नहीं अघा गये, कुमार के अद्भुत पराक्रम ने अनेक को अघा दिया।
सूरता समर कै अघानी जूह सूरन को
भूपति अघाने बान बेर वेर धरि कै।
काक कंक कूकर अघाने मांस मेद खाइ
कालिका अघानी पान स्त्रोनित को करि कै।
हरिऔध भूपत अघाने पाइ मुण्डमाल
अतिहौ अघाने बीर बारबार लरि कै।
बन्दीजन बिरद बखानि कै अघाने आज
देवन की अंगना अघानी वीर वरि कै।
(रथारूढ़ सारथी सहित कुमार प्रद्युम्न का प्रवेश)
इन्द्र.- मित्र! समरीयकृत्य का अब शेष हो गया, और अघाने उपरान्त विश्राम भी आवश्यक है, अतएव चलो चलैं!
प्रवर- बहुत उत्तम, चलिए।
(तीनों जाते हैं)
सार.- कुमार! ऐसे उत्कट संग्राम में आप की विजय और आप के एवं अपने शरीर को बिना व्रण देखकर इस समय मुझको परमानन्द प्राप्त है।
प्रद्यु.- सूत! मुझको इन बातों का उतना हर्ष है वा नहीं है, जितना भक्त मानसरहंस महात्मा भीष्म और ब्राह्मणवंशावतंस श्रीयुत कृपाचार्य व द्रोणाचार्य को अपने हाथों से बाँधने का खेद है।
सार.- कुमार! खेद का कोई स्थल नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय धर्म ही महाकठोर है।
पिता पूज्य गुरु भ्रातहूँ पाइ सौंह रनमाँहि।
जे सकाहिें ह्नै छत्रिसुत ते पामर कहलाहिं।
प्रद्यु.- यदि खेद का स्थल नहीं है तो हर्ष का अवसर भी नहीं है क्योंकि पूर्ववर्णित अयोग्य कार्य के अतिरिक्त और भी कतिपय अनुचित कर्म हुए हैं।
कमल सरिस कोमल कबौं न जिन बन्धन पायो।
भूपन के तिन हस्त पाद हम शृंगल नायो।
सुमनसेज पै सैन समय कल जिनैं न आयो।
तिनैं कन्दरा माहिं कठिन भू पै हम स्वायो।
जिन नृपनसीस सोहत हुतो कलित क्रीट बर बसन तन।
तिन क्रीट काटि हरि बसन हम करि दीनो रन मैं नगन।
सूत.- कुमार! राजाओं की इस दुर्गति का कारण उनका यह अभिमान है कि 'यदि हमलोग श्रीकृष्ण को एकाकी नहीं जीत सकते तो आज सब कोई मिलकर उनको जीत लेंगे, जिससे चिरसंचित बैर निर्यातन का हम लोगों को अवसर हस्तगत होगा' किन्तु,
बिना लखेई हेत के बँहकि जोय गरबात।
सो घटाय निजमान को बिना सिध्दिरहि जात।
उठहिं बलूले उदक मैं बिना हेत मद छाय।
याही ते बिनसत रहत वनि तिनको समुदाय।
(नेपथ्य में)
खल निकुम्भ हरिसर ते पीड़ित ह्नै नभ आयो।
यहाँ देखि कै हम सबको मन मैं दुख पायो।
गदा तानि कै ताकि प्रवर को बल सों मारयो।
जाके लगत सकाइ सो सपदि निजबल हारयो।
अब ह्नै मुरछित भेदत पवन सो दिखात भू मैं गिरत।
तुम तात लोकि कै मध्य ते करहु तासु रच्छा तुरत।
(दोनों सुनते हैं)
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