श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण-चरित्र / गीता हृदय: परिशिष्ट-1 / सहजानन्द सरस्वती

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प्राचीन ग्रंथों में श्रीकृष्ण-चरित्र का वर्णन प्रधानतया श्रीमद्भागवत में ही माना जाता है, यद्यपि अन्यान्य ग्रंथों में थोड़ा-बहुत यह वर्णन मिलता है। उसमें भी दशम स्कंध मुख्य है और उसमें दूसरी बात है भी नहीं। दशम में भी जन्म से लेकर मथुरा अथवा द्वारका प्रस्थान तक जितनी बातें लिखी गई हैं, उन सभी पर विचार करना हमारा लक्ष्य नहीं है। उन बातों के संबंधों में अधिकतर विवाद भी नहीं है। किंतु श्रीमद्भागवत की रासपंचाध्यायी में जो श्रीकृष्ण की रास-लीला का वर्णन पाया जाता है, वही इस लेख का विचारणीय विषय है। यद्यपि रासलीला का वर्णन गर्गसंहितादि अन्य ग्रंथों में भी पाया जाता है, तथापि वह भागवत से ही लिया हुआ जान पड़ता है। अतएव रास-लीला-वर्णन का मूलस्थान श्रीमद्भागवत ही है। लोग ऐसा ही मानते भी हैं। फलत: इस लेख में रास-लीला के रहस्य पर ही विचार किया जाएगा, हालाँकि शीर्षक व्यापक है। ऐसी दशा में यद्यपि वही शीर्षक देना उचित था, तथापि जैसा कि आगे विदित होगा, पर जिस प्रकार हम इस विषय का विवेचन करना चाहते हैं, उसको ध्यािन में रखकर हमारा दिया शीर्षक ही हमें उचित प्रतीत हुआ। प्रतिपाद्य विषय को ध्याहन में रख 'रास-लीला का रहस्य' शीर्षक हमें भ्रामक-सा भी प्रतीत हुआ। क्योंकि आजकल उसके समर्थन के लिए सैकड़ों प्रकार की दलीलें दी जाती हैं और लोग उसके लौकिक-अलौकिक बहुत-से अभिप्राय बताया करते हैं और वही अभिप्राय संप्रत्ति भावुक जनता की दृष्टि में 'रास-लीला के रहस्य' माने जाते हैं।

कहा जाता है कि श्रीराम आदि जितने भी अवतार भगवान के हुए हैं, वे सभी पूर्ण नहीं, किंतु भगवदंशमात्र ही हैं। परंतु श्रीकृष्ण तो साक्षात भगवान के स्वरूप ही हैं - 'अन्ये चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्।' यदि और बातों का विचार न भी करके केवल गीता की ओर ही दृष्टि की जाए तो उस अद्वितीय रत्न के प्रकाशकर्त्ता की हैसियत से ही उनकी पूर्णता सिद्ध हो जाती है। क्योंकि यह निर्विवाद है कि गीता इस संसार में अपना सानी नहीं रखती। यदि अध्या त्म्रामायण की रामगीता की ओर दृष्टि करते हैं तो 'कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्' का रहस्य सहज ही विदित हो जाता है। बिना पूर्ण पुरुष की पूर्ण ज्ञानशक्ति के योग के यह पूर्ण गीता कभी प्रकट नहीं हो सकती थी। परंतु जब उसी पूर्ण भगवान का चरित्र रासपंचाध्यायी के रूप में श्रीमद्भागवत में देखते हैं तो व्यामोह हो जाता है और सहसा मुख से यह निकल पड़ता है कि क्या इस रासलीला के कृष्ण वही हैं जो श्री भगवद्गीता के? यद्यपि इसके समाधान के लिए शतश: युक्तियाँ दी जाती हैं और उन युक्तियों से हम अधिकांश से परिचित भी हैं, फिर भी अपरिपक्व बुद्धि वाले भावुकजन भले ही इन युक्तियों से संतुष्ट हो जाएँ, लेकिन विचारशीलों के हृदय में तो इस शंका से उथल-पुथल मची ही रह जाती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भावुकता भरे समाधानों से हम भक्तजनों एवं अंधजनता को भले ही संतुष्ट कर लें, लेकिन जो अंधाविश्वासी नहीं हैं और जो धर्मांतर के अनुयायी हैं, उन्हें क्या उत्तर दिया जाए? 'जिस धर्म के आवतारिक पुरुषों तक की यह दशा, उसका ठिकाना ही क्या?' विधर्मियों की इस युक्ति का समुचित उतर क्या होगा? जिस श्रीकृष्ण की गीता पर वे मुग्ध हैं, उन्हीं के जीवन-चरित्र का ऐसा वर्णन उनकी भी बुद्धि को डाँवाडोल किए बिना कैसे छोड़ेगा? हम तो भगवान के अवतारों को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहते हैं और मानते हैं कि धर्म की मर्यादा की रक्षा और दुष्टों का दमन एवं साधुओं की रक्षा ही अवतारों का एकमात्र प्रयोजन है। गीता में भी उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥' तो उस धर्म की मर्यादा क्या है और दुष्टों एवं साधुओं की परीक्षा की कसौटी क्या है? क्या दूसरों की बहू-बेटियों के साथ रात में अत्यंत निर्जन स्थान में हास-विलास और तदनुकूल वार्तालाप ही धर्म की मर्यादा है, सो भी अपने पड़ोसियों एवं भाई-बंधुओं की ही पुत्रियों एवं माता-बहिनों के साथ? यदि यही धर्म-मर्यादा मानी जाए तो फिर साधुओं एवं असाधुओं के लक्षण नए सिरे से करने होंगे तथा रावण-कंसादि को पापी कहते न बन पड़ेगा। स्थूल एवं सर्वमान्य धर्म का नाश करके सर्वसाधारण के लिए अज्ञात किसी सूक्ष्म धर्म की रक्षा यदि कोई हठ करके माने भी तो उससे क्या? अवतारों का प्रयोजन तो सर्वसाधारण का ही हित है, न कि पंडितों और महात्माओं का। इसलिए तो गीता में भगवान ने कह दिया है कि जो लोग कर्म और उसके फल में आसक्ति रखकर ही कर्म करनेवाले तथा अज्ञानी हैं, उनकी बुद्धि को चक्कर में डालनेवाली बातें या काम करने; किंतु स्वयं जानकार होता हुआ भी उन्हीं-जैसा कर्म उनके दिखाने के लिए करता हुआ उनकी धारणा और भी पक्की कर दे ताकि वे सभी कर्म करने लगें - 'न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥' तो क्या रासलीलावाला श्रीकृष्ण का काम उन्हीं की कसौटी पर खरा उतरता है? उस समय के लोगों को उनका यह चरित्र या तो पथ भ्रष्ट करनेवाला या उनमें घृणा एवं अनास्था करनेवाला क्यों नहीं माना जाएगा? उस चरित्र की आधुनिक या पीछेवाली व्याख्याएँ तो उस समय थी नहीं। तब लोग क्यों न पथभ्रष्ट होते? या नहीं तो उनमें अनास्था ही क्यों न करते?

वे स्वयं तो अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जनता को सन्मार्ग दिखाने के लिए भी तो कर्म करना ही चाहिए - 'लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।' तो क्या यही सन्मार्ग दिखाने का कर्म माना जाएगा? इतना ही नहीं, वे अपना ही दृष्टांत देकर गीता में कहते हैं कि 'हे अर्जुन! मुझे ही देख न, मुझे तो कर्म करके कुछ भी हासिल नहीं करना है, फिर भी मैं कर्म करता ही हूँ। क्योंकि यदि मैं आलस्यरहित होकर कर्म न करूँ तो सभी लोग मेरे ही अनुयायी बन जाएँ। कारण, बड़े लोग जो कुछ भी करते हैं, जनसाधारण भी वही करते हैं और वे जिस बात को ठीक मानते हैं जनता भी उसी को मानती है।'

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्य तंद्रि त:।

मम वर्त्मानुव र्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश॥

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

यदि अर्जुन श्रीकृष्ण के इस उपदेश की परीक्षा उन्हीं पर करता तो रासलीलावादियों के मत से उसकी क्या दशा होती? क्या उन्हें मिथ्यावादी मानकर चट यह नहीं कह बैठता कि 'परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्?' और जो श्रीकृष्ण ने यह कह डाला है कि 'यदि मैं ही धर्माचरण न करूँ तो यह संसार ही चौपट हो जाए और इस प्रकार वर्णसंकर करने एवं जनता के सत्यानाश का भागी मैं ही हो जाऊँ' - 'उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। संकरस्य च कर्तां स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥' उसकी क्या हालत होगी? रासलीला के मानने से तो वर्णसंकर का मार्ग ही प्रशस्त हो जाता है, क्योंकि इस प्रकार कुलस्त्रियों के दूषित और पथभ्रष्ट होने का रास्ता वही दिखा देते हैं और यही वर्णसंकर मार्ग है, जैसा कि गीता के प्रथमाध्या य में ही कहा गया है कि 'प्रदुष्यंति कुलस्त्रिय:। स्त्री षु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:॥' अतएव गीता के साथ रास-लीला को मिलाने पर प्रचंड व्यामोह होना अनिवार्य है और सहसा यही कहने को जी चाहता है कि आधुनिक उपदेशकों की तरह श्रीकृष्ण कभी भी अपने कथन के विपरीत आचरण नहीं कर सकते थे। फिर यह रास-लीला कैसी?

एक बात और। श्रीमद्भागवत के ही दशम-स्कंध के 74वें अध्याणय में युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ के प्रसंग से श्रीकृष्ण की सर्वप्रथम पूजा और उसी से शिशुपाल के रुष्ट होकर बेहिसाब झूठ-सत्य, अंट-संट बकने का वर्णन है। अन्यान्य ग्रंथों में भी यह वर्णन मिलता है। शिशुपाल के प्रलाप से यह स्पष्ट है कि उसने श्रीकृष्ण को खूब ही बदनाम करना चाहा है और एतदर्थ मिथ्यारोप तक कर डाला है। उसने कहा है - 'जो कहा जाता है कि काल बड़ा ही बली है, सो ठीक ही है। नहीं तो सहदेव-जैसे बच्चों की बात को वृद्ध लोग क्यों कर मान लेते! हे सभासदो! आप लोग पात्रपात्र के जानकारों में सर्वोपरि हैं, फिर कृष्ण की पूजा क्यों? आप लोग लड़के की बात को न मानें! भला तप, विद्या, व्रतादि के पालकों और ज्ञान के बल से सभी पापों को दग्ध कर डालनेवाले ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मर्षियों को जिन्हें इंद्रादि लोकपाल भी पूजते हैं, छोड़कर यह ग्वाला कैसे पूजा जा सकता है? क्या कौआ कभी देव-हवि का अधिकारी हो सकता है? यह तो वर्ण, आश्रम, कुल से रहित, सर्वधर्म-बहिष्कृत और गुणरहित स्वेच्छाचारी है। फिर इसकी पूजा कैसी? ययाति ने तो इसके कुल को ही शाप दिया है, भले लोगों ने इन लोगों का बहिष्कार किया है और ये यदुवंशी पियक्कड़ भी हैं। फिर भी पूजा? इसीलिए तो ब्रह्मर्षियों के देश को छोड़कर ये सब ब्रह्म-तेज-रहित देश में जाकर और समुद्र के भीतर किला बनाकर वहीं से प्रजा को लुटेरों की तरह सताया करते हैं.'

इससे स्पष्ट है कि शिशुपाल ने श्रीकृष्ण में मिथ्या दोषों के आरोप करने में कोई भी कसर नहीं की है। और जगह भी जो शिशुपाल के दोषारोपण का वर्णन है, वहाँ भी यही बात है। ऐसी दशा में यदि रास-लीलावाली बात सत्य होती तो उसे वह क्यों छोड़ देता? तब तो दुराचारी, व्यभिचारी आदि विशेषणों से उन्हें अलंकृत अवश्य करता? यह भी नहीं कि उस समय श्रीमद्भागवत, गर्गसंहिता आदि ग्रंथ बन चुके थे, जिससे रासलीला की दूसरी व्याख्या हो चुकने के कारण वह यह बात कहने से हिचक जाता। ये ग्रंथ तो उसके बाद ही बने हैं यह तो सभी को मानना ही होगा। और ग्रंथ बनने ही से क्या? जब वह मिथ्यादोषारोपण करता था तो यह बात क्यों नहीं कह डालता? इससे सिद्ध है कि श्रीकृष्ण को किसी भी प्रकार व्यभिचारी कहने की उसकी हिम्मत नहीं थी, जिससे विदित होता है कि उस समय शत्रु से भी शत्रु के लिए श्रीकृष्ण का चरित्र इस दृष्टि से अत्यंत स्वच्छ और बहुत उच्च था और रासलीलावाली बात उन दिनों सोलहों आने प्रचलित थी ही नहीं। उस समय कहीं इसकी चर्चा तक नहीं थी।

इससे भी बढ़कर एक बात है। मीमांसादर्शन के प्रथमाध्याहय के तृतीय पाद के 'अपि वा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतियेरन्।91।' सूत्र के ऊपर विचार करते हुए श्रीकुमारिल भट्ट ने 'तंत्रवार्तिक' नामक अपने ग्रंथ में सदाचारों पर विचार किया है। क्योंकि स्मृतिकारों ने धर्म के संबंध में श्रुति, स्मृति की ही तरह सदाचारों को भी प्रमाण माना है। वे शंकारूप से लिखते हैं कि सत्पुरुषों के आचरण को ही सदाचार कहते हैं। लेकिन किसे सत्पुरुष कहें और उसके किस आचार को सदाचार कहें, क्योंकि बड़ी गड़बड़ी है। देखते हैं कि ब्रह्मा से लेकर व्यास, वसिष्ठ, विश्वामित्र, युधिष्ठिर, अर्जुन, श्रीकृष्ण तक ने तो गड़बड़ी ही की है और आजकल भी तो भारत के सभी प्रांतों में ऐसा ही गड़बड़झाला है। अतएव शिष्टाचारों को धर्म के संबंध में प्रमाण नहीं मानना चाहिए। नहीं तो बड़ी उथल-पुथल हो जाएगी और लोग अनर्थ करने लग जाएँगे।

इसके बाद जब समाधान करने लगे हैं तो ब्रह्मा और इंद्रादि का कहीं अर्थ ही बदल दिया है और कहीं कुछ और ही कर दिया है जिससे हमें यहाँ मतलब नहीं है। हमें तो श्रीकृष्ण और अर्जुन-संबंधी उनके आक्षेप और समाधान से मतलब है। क्योंकि एक तो दोनों को साक्षात परमात्मा का - नर-नारायण का अवतार मानते हैं। दूसरे दोनों की ही बातें हमारे विषय से संबंध रखती हैं। यहाँ कई बातें विचारणीय हैं। पहले तो यह देखना चाहिए कि यदि भट्टपाद (कुमारिल भट्ट) - के समय में रासलीला की बात प्रचलित होती तो वह रुक्मिणी के विवाह का दृष्टांत क्यों देते? यह तो स्पष्टतया शायद ही किसी को विदित है कि रुक्मिणी श्रीकृष्ण के मामा की लडक़ी थी, यद्यपि सुभद्रा की बात सभी जानते हैं। इसीलिए उस विवाह में विरोध भी हुआ था, मगर रुक्मिणी के विवाह के विरोध का कारण तो दूसरा ही था। फलत: बड़ी कठिनाई से ढूँढ़-ढाँढ़कर कहीं से साक्षात्परंपरा नाता जोड़ेंगे। तब कहीं रुक्मिणी मामा की लड़की सिद्ध होगी। परंतु रासलीलावाली बात तो बहुत ही स्पष्ट थी। यदि यह बात सच हो तो यह तो अपने ही घर में दुष्कर्म माना जाएगा! मामा का - सो भी परंपरा-संबंध तो दूर का है और वह प्रचलित भी है। और जब सर्वविदित मामा की कन्या के विवाह की बात अर्जुन के बारे मंर कह दी तब तो श्रीकृष्ण के बारे में दूसरी बात कहना ही ठीक था और वह दूसरी बात यही रास-लीला ही हो सकती है। स्वभावत: सबसे पहले प्रसिद्ध बात की ओर ही दृष्टि जाती है और यह लीला तो जगत्प्रसिद्ध हो रही है। फलत: इसे न कहकर अप्रसिद्ध बात रुक्मिणी-परिणय का उल्लेख यह सिद्ध कर देता है कि भट्टपाद कुमारिल के समय तक रास-लीला की बात प्रचलित न थी।

इतना ही नहीं, वे जब समाधान करने लगे हैं तो पहले अर्जुन-सुभद्रा-संबंध को ही लिया है और उसी का समाधान करके अंत में कह दिया है कि 'इसी तरह रुक्मिणी विवाह का भी तात्पर्य बताया जा सकता है' - 'एतेन रुक्मिणीपरिणयनं व्याख्यायतम्।' सुभद्रा-विवाह का जो व्याख्यान किया है उसमें बहुत यत्न और कल्पना करके यह सिद्ध किया है कि सुभद्रा श्रीकृष्ण की सगी बहन वसुदेव की पुत्री न थी, किंतु या तो रोहिणी की बहन की कन्या की पुत्री थी या रोहिणी के पिता की बहन की कन्या की पुत्री, क्योंकि उसे भी लाट-देश में भगिनी ही कहते हैं। - 'मातृस्वस्त्री या वा सुभद्रा तस्य मातृपितृस्वस्त्री याया दुहिता वा।' क्योंकि यदि यह बात न होती तो सब बातों और धर्ममर्यादा के जानकार श्रीकृष्णादि कभी उस विवाह की सम्मति नहीं देते - 'इति परिणयनाभ्यनुज्ञानाद्विज्ञायते।' इस पर कोई ऐसा न कह बैठे कि केवल अर्जुन की मित्रता के ही लिहाज से श्रीकृष्ण ने धर्मविरुद्ध भी विवाह करवा दिया जैसा कि तंत्रवार्तिक की टीका न्यायसुधा (राणक) - में सोमेश्वर भट्ट ने यही शंका की है - 'ननु विरुद्धोऽप्ययमाचारो वासुदेवेनार्जुनप्रीत्या प्रवर्तित इत्यपि परिहारोपपत्तेरनुक्त-व्यवधानकल्पना न युक्ता।' ठीक ही है। यह तो कहीं भी नहीं लिखा है कि सुभद्रा रोहिणी की बहन की पुत्री या फूआ की कन्या थी। ऐसी दशा में इस टेढ़ी-मेढ़ी निराधार कल्पना की अपेक्षा अर्जुन के प्रेम के कारण ही अनुचित विवाह की कल्पना ठीक प्रतीत होती है। इसीलिए भट्टपाद ने आगे अपनी कल्पना का आधार बताते हुए लिखा है कि 'हे अर्जुन! यदि मैं ही अनुचित कर्म करूँ तो सब लोग मेरा ही अनुकरण करने लगेंगे। कारण, बड़े लोग जो करते हैं, साधारणजन भी वही करने लगते हैं और बड़े जिस बात को ठीक मानते हैं दुनिया भी उसी को मानती है' - 'येन ह्यन्यत्रैवमुक्तम् ममवर्त्मानुवर्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥' वही ठीक उसके विपरीत आचरण वो क्योंकर प्रश्रय दे सकते थे? यदि कोई हठधर्मी हठवश कह बैठे कि श्रीकृष्ण ने शील-संकोच से ही ऐसा कर लिया, अथवा उनको बड़ा मानता ही कौन है तो इसके समाधान के लिए कुमारिल स्वयं लिखते हैं कि 'समस्त लोगों के आदर्श और पथदर्शक होकर वही श्रीकृष्ण भला ऐसे विपरीत आचरण को क्यों कर प्रश्रय दे सकते थे?' -

'स कथं सर्वलोकादर्शभूत: सन् विरुद्धाचारं प्रवर्तयिष्यति?' इससे तो निस्संदेह यह बात सिद्ध हो जाती है कि उस समय तक रासलीला की बात बिलकुल ही प्रचलित न थी। भट्टपाद के कथनानुसार तो ऐसे धर्मविरुद्ध आचरण की कल्पना भी श्रीकृष्ण के संबंध में नहीं की जा सकती। वे इतने बड़े और महान थे कि धर्मविचार के समय शील-संकोच या दबाव आदि उनपर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते थे। गोपियों के बारे में जो समाधान गर्गसंहिता आदि ग्रंथों में किए जाते हैं यदि वे भी उस समय प्रचलित होते तो रुक्मिणी और सुभद्रा के बारे में भी वही समाधान भट्टपाद क्यों नहीं लिख देते? और क्यों यह सिद्ध करने का कष्ट उठाते कि सुभद्रा वसुदेव की कन्या न थी। क्योंकि अर्जुन भी तो भगवान के अंशावतार ही माने जाते हैं और श्रीकृष्ण का तो कहना ही क्या? रुक्मिणी को लक्ष्मी का अंश भागवत में ही कहा है 'श्रियो मात्रां स्वयंवरे' (10/52/19)। सुभद्रा को भी ऐसा ही कहकर चट समाधान कर देते, जैसा कि द्रौपदी के संबंध में कहा है। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसी से पता लगता है कि एक तो ऐसे समाधानों को वे लचर मानते थे जैसा कि द्रौपदी के ही विषय के ऐसे समाधान को पहले कहकर पीछे दूसरे समाधान किए हैं। दूसरे ये कल्पनाएँ उस समय तक प्रचलित न थीं। द्रौपदी के प्रसंग में भी उन्होंने श्रीकृष्ण के बारे में कह दिया है कि 'इतरथा हि कथं प्रमाण भूत: सन्नेवंवदेत्' भला प्रामाणिक पुरुष होकर वे मिथ्या कैसे बोल सकते थे? तो फिर वही श्रीकृष्ण रासलीला कैसे कर सकते थे?

एक बात और भी द्रष्टव्य है। श्रीमद्भागवत के आरंभ की जो कथा है उससे स्पष्ट है कि ऋषि के शाप से सात दिन में ही मृत्यु होने के समाचार से समस्त सांसारिक बंधनों को छोड़ और अन्न-पानादि को भी न ग्रहण कर एकमात्र मोक्षकामना से ही गंगा के तट पर मंच बनवाकर महाराज परीक्षित जा बैठे थे। उन्हें पुत्र-कलत्रादि की वार्ता से भी कुछ मतलब न था। वही भागवत के प्रधान श्रोता थे। उधर श्रीशुकदेवजी उसके वक्ता थे, जिनके बारे में महाभारत में यहाँ तक लिखा है कि स्त्री -पुरुष भेद तक नहीं जानते थे और जन्म से ही विरक्त थे। इसीलिए जब जन्म के ही समय भागे जा रहे थे तो मार्ग में देववधुओं ने उनसे कोई लज्जा न की, हालाँकि नग्न स्नान कर रही थीं। मगर व्यासजी से लज्जित हो गईं। इन दोनों के अतिरिक्त महान विरक्त तथा ज्ञानी महर्षियों का समाज वहाँ जुटा था जो आत्माराम थे और जिनके यहाँ रस-चर्चा की संभावना नहीं थी। भला, ऐसे समुदाय में कैसे रासलीला का वर्णन आ गया जो आधुनिक कवियों के शृंगाररस-वर्णन को भी मात करनेवाला है? व्यास जी ने ऐसे समाज में उस प्रकार के श्रोता से कैसे यह चर्चा करवाई और शुकदेव के मुख से वह बातें क्यों कर कहलवाईं, यह समझ में नहीं आता। इस बात की संभावना तो ठीक ऐसी ही है जैसी सूई के छिद्र से हाथी के निकल जाने की। यदि अन्यान्य श्रोता-वक्ता के द्वारा ग्रंथांतर में यह बात कहलाई जाती जो एक बात भी थी। मगर भागवत में शुकदेव के मुख से इस शृंगार-रसवर्णन की हिम्मत व्यासजी को कैसे हो सकती थी?

अंत में एक बात और कहकर इस लेख को पूरा करेंगे। दशम-स्कंध के 29 से 33 अध्या्यों तक को रासपंचाध्यायी कहते हैं। उससे पूर्व के 25-28 आदि अध्यासयों में श्रीकृष्ण के गोवर्धन-धारण, वरुणलोक से नंद को मोचन आदि अलौकिक कामों का वर्णन है। फिर 34 आदि अध्याधयों में भी सुदर्शन नामक विद्याधर के उद्धार, शंखचूड़ के वध आदि ऐसे ही कर्मों का वर्णन है और उसी प्रसंग से बलराम और श्रीकृष्ण के साथ गोपी-बालिकाओं की लीलाओं का वर्णन भी है। इसके बीच में जो रासपंचाध्यायी आई है वह असंबद्ध-सी मालूम पड़ती है। न तो यहाँ उसका कोई प्रसंग है और न उसमें वर्णित रासलीला में कोई असाधारण अद्भुतता है। जितनी गोपियाँ उतने कृष्ण का वर्णन भी कृत्रिम-सा मालूम होता है और विदित होता है कि रासलीला को भी अलौकिक कर्म बलात बनाने के लिए यह कवि की कल्पना है। उसमें श्रीकृष्ण के अन्यान्य कामों-जैसी स्वभावसिद्ध विचित्रता नहीं है। प्रत्युत श्रीकृष्ण-बलराम दोनों का एक साथ जो गोपियों के साथ खेलना है वह बाललीला प्रतीत होता है और उसमें जो शंखचूड़ का वध है वह स्वाभाविक अद्भुत कर्म प्रतीत होता है, इससे अनुमान होता है कि उसी लीला के आधार पर रासपंचाध्यायी को अपनी ओर से बनाकर किसी आधुनिक कवि ने पीछे से इधर आकर भागवत में डाल दिया है। कोई भी निष्पक्ष होकर यदि पूर्वापर का अनुशीलन करे तो हठात इसी निश्चय पर पहुँचेगा। इसका इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि रासपंचाध्यायी के बनने के बाद भी किसी कवि को जब उसके शृंगार-वर्णन में न्यूनता मालूम हुई है तो 30वें अध्यानय के 31वें श्लोक के बाद डेढ़ श्लोक उसने गढ़कर बहुत हाल में डाल दिया है। अतएव श्रीधरादि टीकाकारों की टीका में यह डेढ़ श्लोक नहीं मिलता और आजकल की छपी पुस्तकों में प्रक्षिप्त का चिह्न देकर छपा हुआ मिलता है। वह है 'इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम्। गोप्य: पश्यत कृष्णस्य भाराक्रांतस्य कामिन:॥ अत्रावरोपिता कांता पुष्पहेतोर्महात्मना।' भागवत में ऐसे एकदम नूतन प्रक्षेप बहुत स्थानों में हैं जो इस अनुमान को पुष्ट करते हैं कि रासपंचाध्यायी भी आधुनिक और प्रक्षिप्त है। इसीलिए केवल रासपंचाध्यायी पर ही जो पुष्टिमार्गीय विद्वानों की बहुत-सी टीकाएँ मिलती हैं न कि समस्त भागवत पर, वह इस अनुमान को और भी पुष्ट बना देती हैं। क्योंकि उस संप्रदाय में रासलीला में विशेष आस्था देखी जाती है। इस संबंध में प्रसंगवश एक बात हम कह देना चाहते हैं। काशी में सरस्वती भवन नाम की जो लाइब्रेरी है उसके भूतपूर्व लाइब्रेरियन पं. विंध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी से एक बार लेखक की बातें इसी संबंध में हुई थीं। उस समय उन्होंने कहा था कि कलकत्ते की एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय में रखी एक बहुत ही प्राचीन हस्तलिखित श्रीमद्भागवत की प्रति मिली है जिसमें रासपंचाध्यायी नहीं है और जो बोपदेव से बहुत पहले की है। हम कह नहीं सकते कि उनकी यह बात कहाँ तक ठीक है। कारण, इसके अनुसंधान का मौका हमें नहीं मिला है। लिख इसलिए दिया है कि अनुसंधान प्रेमी श्रीकृष्णभक्त इसका अनुसंधान करें। इस प्रकार श्रीकृष्ण-चरित्र-चंद्र में हमें जो कलंक प्रतीत हुआ उसका यथाबुद्धि हमने मार्जन कर दिया है। उसके सारासार का विवेचन विज्ञ पाठक ही कर सकते हैं। क्योंकि श्रीकृष्णलीला अनंत सागर है। उसका पार पाना या उसकी इयत्ता तथा स्वयंभूतता का निश्चय साधारण बुद्धि का कार्य नहीं है। ¹


¹बात ठीक है, 'श्रीकृष्णलीलारूपी अनंत सागर का पार पाना साधारण बुद्धि का कार्य नहीं है।' मेरी तुच्छ समझ से तो दीर्घ साधन से द्वारा जब अंत:करण की शुद्धि हो जाती है तभी श्रीकृष्ण कृपा से श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म-कर्मों का कुछ रहस्य समझा जा सकता है। रासलीला का क्या रहस्य है, इस बात को वास्तव में श्रीभगवान या महामुनि व्यास ही जानते हैं, अथवा वे महान पुरुष जानते होंगे जो श्रीकृष्णकृपा के पात्र और उनके पवित्र चरण-रज के यथार्थ प्रेमी हैं। मुझ सरीखा मनुष्य तो इस विषय पर कुछ भी कहने का अधिकारी नहीं? हाँ, महात्मा पुरुषों द्वारा सुने हुए सदुपदेशों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके मत के अनुसार श्रीमद्भागवत में रासलीला का प्रसंग प्रक्षिप्त नहीं है। यह वृंदावन में होनेवाली श्रीमद्भगवान की एक महान उच्च और सत्य आध्या्त्मिक लीला है। इसमें व्यभिचार या इंद्रियचरितार्थता का लेश भी नहीं है। शिशुपाल को इस महान अंतरंग लीला का पता ही कैसे लगता जब कि रास में सम्मिलित होने वाली प्रात: स्मरणीया, भक्ति और वैराग्य की मूर्ति कृष्णप्रेममयी साध्वी गोपियों के पति-पुत्रों को ही यह ज्ञान रहा कि वे सब घर में सोई हुई हैं। श्रीमद्भागवत में इसका स्पष्ट उल्लेख है।

द्रौपदी-प्रभृति पवित्र अंतरंग भक्तों को इस लीला का पता था, इसी से तो द्रौपदी ने कौरव-सभा में लाज जाते समय लाज बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण को 'गोपीजनप्रिय' कहकर पुकारा है।

रही भट्टपाद कुमारिली के वर्णन की, बात, सो उन लोगों के मन के इस लीला के आध्याैत्मिक रूप होने के सिवा दूसरी बात जँची ही नहीं थी तब वे इनका उल्लेख कैसे करते? कुमारिलजी के कुछ ही बाद होनेवाले भगवान शंकराचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण की महिमा गान करते हुए स्वयं कहा है -

एको भगवान रेमे युगपद् गोपीप्वनेकासु।

तब यह कैसे कहा जा सकता है कि उस समय यह कथा प्रचलित नहीं थी। काशी के सरस्वती-भवन में जो भागवत की पुरानी प्रति है, उसका चित्र इसमें अलग छापा जा रहा है, उसके संबंध में उसके वर्तमान लाइब्रेरियन डॉ. श्रीमंगलदेवजी शास्त्री एम.ए., पी-एच.डी. लिखते हैं कि (गवर्नमेंट संस्कृत-कालेज के प्रिंसिपल) श्रीगोपीनाथ जी कविराज ने पहले पता लगवाया था कि उसमें रासपंचाध्यायी तथा चीरहरणसंबंधी कथाएँ हैं या नहीं। उनका निश्चयपूर्वक कहना है कि ये दोनों कथाएँ उसमें वर्तमान हैं। रासपंचाध्यायी के विषय में प्रचलित प्रति से केवल इतना ही भेद है कि हमारी प्रति में प्रचलित दो अध्यापयों को एक ही अध्यािय माना है पर श्लोक-संख्या में भेद नहीं है। - कल्याण संपादक की टिप्पणी श्रीकृष्ण अंक

इस टिप्पणी के बाद से ही स्वामी जी ने कल्याण को आगे लेख भेजने में संकोच करना शुरू कर दिया।

(श्रावण 1988 संवत् पृष्ठ 432 कृष्ण अंक कल्याण, मालवीय भवन, वाराणसी से उद्धृत)