श्रीराम राघवन की फिल्में और विचार / जयप्रकाश चौकसे

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श्रीराम राघवन की फिल्में और विचार
प्रकाशन तिथि :19 फरवरी 2015


निर्देशक श्रीरामराघवन की 'एक हसीना थी' में खलनायक सैफ अली खान को फिल्म के अंत में सताई हुई नाियका उर्मिला मातोंडकर बड़े-बड़े चूहों से भरी गुफा में हाथ-पैर बांधकर फेंक आती हैं। यह उसने जीवन बर्बाद करने का बदला लिया था। वर्षों बाद श्रीराम राघवन ने निर्माता सैफ के लिए अत्यंत महंगी 'एजेंट विनोद' बनाई जो असफल रही। संभवत: इसलिए कि निर्माता-सितारे सैफ इस फिल्म के माध्यम से स्वयं को सलमान खान की सितारा श्रेणी में ले जाना चाहते थे। बहरहाल, समर्पित फिल्मकार श्रीराम राघवन 'एजेंट विनोद' के हादसे से उभरकर 'बदलापुर' बना पाए जो कल प्रदर्शित होने जा रही है। फिल्म की भाषा और ग्रामर पर उनकी पकड़ गहरी है। फिल्म में मसाला फार्मूला के डेविड धवन के साहबजादे वरुण, 'रोम कॉम' और 'स्टूडेंट' के लिजलिजेपन से उभरने के लिए यथार्थवादी 'बदलापुर' द्वारा अपनी चाकलेटी छवि से उभरने का प्रयास कर रहे हैं। राघवन का सिनेमा धवन के सिनेमा से अलग है। साथ में नवाजुद्‌दीन के होने का अर्थ यह है कि वरुण, करण जौहर की परीकथाओं से भी बाहर आने को बेकरार हैं। सितारे में बेकरारी शुभ हैं।

बहरहाल, इस फिल्म के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं मिली हैं परंतु नाम 'बदलापुर' कुछ संकेत करता है। सच तो यह है कि हमारा अधिकांश सिनेमा ही बदला केंद्रित है। इतना ही नहीं तमाम आख्यानों का आधार भी बदला ही है। लगभग सभी धर्मों से जुड़े आख्यानों का सतही आधार बदला हैं जबकि धर्म का आधार प्रेम है। मनुष्य और ईश्वर के बीच प्रेम से प्रेरित प्रार्थना द्वारा बनाया रिश्ता महत्वपूर्ण है। कृष्ण के एक हाथ में सुदर्शन चक्र और दूसरे में बांसुरी संपूर्ण तस्वीर बनती है परंतु प्राय: दिव्य पात्रों को हथियारों के साथ लोकप्रिय तस्वीरों में प्रस्तुत किया जाता है। प्राय: बच्चों के लिए बनाए खिलौने हथियार नुमा होते हैं। मनुष्य आदिम अवस्था से ही डर लगने पर हिंसात्मक होता रहा है। डर की जड़ में हमेशा अज्ञान होता है। सारी हिंसा अज्ञान से उपजती है। तमाम देशों के धार्मिक आख्यानों में बदले की कहानियां हैं, जिनका मूल उद्‌देश्य सत्य, ज्ञान प्रेम को स्थापित करना है परंतु औंधी खोपड़ी वाले मनुष्य बदले की कहानी पर अटक जाते हैं और जाने क्यों प्रेम और प्रकाश से डरते से नजर आते हैं?

जाने क्यों दर्शक को रक्तरंजित सिनेमाई परदा अच्छा लगता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके लालन-पालन से लेकर सारी बाह्य परिस्तिथियां भी उसे रक्त केंद्रित सोच वाला बना देती हैं। यह भी अजीब है प्रेम की आकांक्षा तीव्र होने के बावजूद उसकी शिक्षा-दीक्षा ने उसे प्रेम और उसके प्रयास से भयभीत होना सिखा दिया है। इस प्रवृत्ति के मूल में भी प्रेम और सेक्स विषयों का अज्ञान ही असल कारण है। हजारों वर्ष के 'विकास' के बाद हमने सारे रिहाइशी स्थानों को कमोबेश 'बदलापुर' ही बना दिया गया है और इन्हें कुछ फिल्मकार तंग नजरिए कारण 'वासेपुर' और 'आजमगढ़' भी कहते हैं।

बहरहाल, यह फिल्म लिखने से पहले श्रीराम राघवन हॉलीवुड की 'डैड मैन वॉकिंग' देख रहे थे और संभवत: उन्हें मृत्यु को पात्र के रूप में गढ़ने का विचार आया। ऐसी कुछ फिल्में विदेशों में बनी हैं और एक फिल्म में नायक मेहमान मृत्यु से कहता है कि वह एक सप्ताह रुक जाए उसे कुछ जरूरी काम करने हैं। मृत्यु उस सप्ताह उसके साथ रहते हुए उसके जुझारूपन और अपने प्रियजनों के प्रति उसकी लगन को देखकर इतनी प्रभावित होती है कि उसे नहीं मारने का फैसला करती है।

हम जब भी जीवन का चित्रण कर रहे होते हैं तब मृत्यु मनुष्य की परछाई की तरह साथ मौजूद रहती है। हमारे जन्म के समय ही हमारी मृत्यु का भी जन्म होता है और हम साथ-साथ बड़े होते हैं। हम अपने बुरे कामों से इस अदृश्य हमसफर को मजबूत बनाते चलते हैं और स्वयं दिन-ब-दिन कमजोर होकर उसकी किश्तनुमा खुराक बनते रहते हैं। जीवन की इस सतत् चलने वाली दावत का अंत होता है जब हमारे पास अपने अदृश्य मेहमान को कुछ और खिलाने को नहीं होता (मैं यह नहीं जानता कि राघवन की फिल्म में यह सब है या नहीं, यह एक व्याख्या है)।