श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते / अध्याय 6 / 'हरिऔध'

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पंचमांक

( स्थान-राजभवन)

( महारानी रुक्मिणी शोकाकुल एक सिंहासन पर बैठी हैं और अनामा , अनाभिधाना पास खड़ी हैं)

अनामा- राजकन्यके! आज विवाह का पहिला दिन है, नगर निवासियों का हृदय प्रफुल्ल शतदल समान सुविकसित है। पर हाय! तुमारी यह दशा देखकर हम दोनों का हृदय दाड़िम की भाँति विदीर्ण हो रहा है, हर्ष का लेशमात्र भी नहीं है।

श्रीरु.- सखी! क्या मेरी यह दशा कभी ईर्षा छोड़ सकती है? अभी तो केवल प्राणनाथ के न आने के समाचार को पाकर मन अर्ध मृत सर्प समान तड़प रहा है, न जाने इसकी उस समय क्या गति होगी, जब इसको प्रियतम के वियोग का पूरा भय हो जावेगा।

अनामा- राजतनये! ऐसा क्यों होगा, क्या किसी ने हिमगिरिनन्दिनी का विवाह बलात् पुरन्दरादि से कर दिया? किन्तु भगवान श्रीकृष्ण पर अपनी इस धर्म संकटापन्न अवस्था को तुम्हें प्रथम ही प्रगट करना योग्य था।

श्रीरु.- सखी! तुमसे क्या दुराव है, मैंने कई दिन हुआ एक ब्राह्मण द्वारा अपनी अवस्था प्राणप्यारे पर प्रगट कर दी है। पर हाय! प्राणनाथ ने उसका स्वल्प ध्यान भी नहीं किया।

अनामा- ऐसा कहना कदापि योग्य नहीं है, वे अन्तर्यामी हैं, बिना आये न रहेंगे।

श्रीरु.- यदि प्रचण्ड विक्रम सिंह की शरण में जाने पर भी श्रृंगाल का भय हुआ, तो सिंह के शरण में जाने ही से क्या लाभ है? जिस तृषार्त ने जल की अप्राप्ति में अपना प्राण त्याग दिया, उसको फिर समुद्र ही मिले तो क्या प्रयोजन? यदि मुझको शिशुपाल का मुख देखना ही पड़ा, और मैंने अपना प्राण त्याग ही दिया, तो प्राणप्यारे आ ही के क्या करेंगे।

अनामा- ऐसा कब हो सकता है। क्या सन्ध्या समागम से निशाकर अपनी कम शोभा समझता है? क्या ऊषा से सम्मिलित होने के लिए दिनेश कम आकुल होता है?

श्रीरु.- यदि ऐसा है तो प्राणनाथ अब तक क्यों नहीं आये? क्या मुझको कुरूपा समझा, अथवा ब्राह्मण वहाँ नहीं पहुँचा, अथवा गुरुजनों ने उनको न आने दिया, क्या कारण है, सखी इस काल मेरी वही दशा है, जैसी मयूरी की घनागम की प्रत्याशा में ग्रीष्म ऋतु के अन्त में होती है।

अनामा- कल्पना किया भगवान श्रीकृष्ण किसी कारण से आज न आये, तो क्या रुक्म अम्बालिका की कथा नहीं जानता, जो बलात् शिशुपाल से तुमारा पाणिग्रहण करेगा।

श्रीरु.- किसी विषय के जानने पर किसी कार्य का भार नहीं है, यदि उसके विषय में विवेचना न की जावे। चन्द्रमा जानता था कि गुरुपत्नीगमन करने से महापाप होता है, फिर उसने ऐसा क्यों किया?

अनामा- राजकन्यके! रुक्म के जानने और न जानने से क्या प्रयोजन है? मेरा मन साक्षी देता है कि भगवान श्रीकृष्ण बिना आये न रहेंगे।

श्रीरु.- यदि न आये तो क्या मैं अम्बालिका की भाँति एक की होकर दूसरी की बनूँगी, और अपने को कलंकिनी बनाने में बाध्य हूँगी, कदापि नहीं। मैं अपने प्राण को शरीर से ऐसे निकाल दूँगी जैसे पक्षी पिंजरे से निकल जाता है, और उसका उसको कुछ स्नेह नहीं होता।

अनामा- ऐसा मत कहो। शरीर रहेगा तो बहुतेरे उपयुक्त वर मिल रहेंगे। केतकी के सुगन्धित रहते अनेक चंचरीक उसके दृष्टिगोचर हो रहते हैं।

श्रीरु.- आह सखी! तू इतनी मूढ़ है। यह भी नहीं जानती कि त्रिलोक में भगवान श्रीकृष्ण समान और कौन हो सकता है।

छन्द

कब मिलि अमित खद्योत रविसम होंहिं कहहिं बिचारि कै।

मिलि अधिक उडुगण होंहि कब सम चन्द पेख निहारि कै।

नहिं होय कबहुँ अनेक लघु नद मिलि नदीस समान कै।

तिमि मिलि अमितजगनृपति कब सम होंहिं प्रियतम प्रान कै।

इसके अतिरिक्त क्या केतकी की भाँति मैं अनेक की प्रत्याशा कर सकती हूँ? त्रहि। इस बात के तो सुनने से भी पाप लगता है।

अनामा- राजात्मजे! इतना बिकल होने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि कोई शीघ्र आकर इस वाक्यरव से कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये, तुमारे मन को वैसा ही प्रसन्न किया चाहता है, जैसा जनकनन्दिनी का मन धनुषभंग के शब्द को सुनकर प्रसन्न हुआ था।

श्रीरु.- सखी! कोई वह समय भी होगा, जिस समय मेरे श्रवणों में यह शुभ समाचार सीपी में स्वातिबुन्द समान पड़कर सुखद होगा।

छन्द

कोउ होयगो वह समय जब प्रियप्रान की सु धि पाइहौं।

हिय हरषि निरखन हेत छबि जिय अमित मोद बढ़ाइहौं।

बदि ताप उपतापादि को दुख सकल दूर बहाइहौं।

व्रत नेम तप उपवास को यह अमल फल इक पाइहौं।

पै होत नहिं विस्वास कबहुँ कि त्यागि हठ बिध देयगो।

करि काज बिरहिन की सकल जग सुजस अनुपम लेयगो।

( ब्राह्मण आकर उसी सुर में पढ़ता हुआ)

लखि कोप तव बि धि सहमि निज हठ कबहिं दीनो त्यागि है।

अब छाड़ि निद्रा मोह की तव भाग अनुपम जागि है।

जिमि रैन कारो अन्त मैं जग बिमल होत प्रभात है।

तिमि निवरि दुख अब होयगी सुख कहत साँची बात है।

अनामा- (स्वगत) अहा! घन के गम्भीर निनाद से मयूरी समान राजनन्दिनी द्विजदेव के वाक्यों को श्रवण कर कैसी प्रसन्न हो गयी है, शरीर जो कुम्हलाये हुए फूल के समान था, अब कैसा प्रफुल्लित हो गया है। निर्वाणोन्मुख दीपक समान कैसा प्रज्वलित हो उठा है। सत्य है। “परमेश्वर की परतीति यही मिली चाहिए ताहि मिलावत है।”

अनामा- (श्रीरुक्मिणी का भाव समझकर) द्विजदेव! राजनन्दिनी द्वारिका का समाचार पूछती हैं?

ब्रा.- जब मैं राजनन्दिनी से बिदा होकर नगर बाहर गया, उस काल मेरे में वायु से अधिक शशांक को मृगों से विशेष खगराज तुल्य गति हो गयी है, और मैं अल्पकाल में द्वारिका पहुँच गया।

अनामा- तब क्या हुआ?

ब्रा.- देखते-ही-देखते कुछ काल में वहाँ पहुँचा, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण कोटि कन्दर्पदर्पशमन करके सिंहासन पर शोभायमान थे।

अनामा- फिर क्या हुआ?

ब्रा.- भगवान ने मेरा बड़ा सम्मान किया, और मुझसे सस्नेह राजनन्दिनी का सकल समाचार पूछ-पूछ कर बड़े प्रेम से सुना, और राजतनया का निवेदनपत्र पढ़कर ऐसे गद्गद हुए कि नेत्रों से निर्झर समान नीर झरने लगा, और उनको जनक की भाँति विदेहता हो गयी।

श्रीरु.- (स्वगत) मन! धीरज धर! बहुत दिनों पर तेरी अभिलाषा की बेलि में इष्ट प्राप्ति का फूल लगा है। फिर इतना क्यों आकुल होता है, यदि प्राणेश ऐसे आर्द्रहृदय हैं तो संयोग का फल लगने में क्या विलम्ब है।

अनामा- हाँ। तब क्या किया?

ब्रा.- जब भगवान का चित्त स्वस्थ हुआ, मुझे लेकर राजसभा में गये और महाराज उग्रसेन व पितृचरण वसुदेव को सकल समाचार सुनाकर कुण्डलपुर आने की आज्ञा चाही।

अनामा- हाँ। कहे जाइये।

ब्रा.- यद्यपि प्रथम उन लोगों की भगवान के वियोग की आशंका से वही दशा हुई जैसी महाराज दशरथ को भगवान रामचन्द्र के तपोधन विस्वामित्र के साथ जाने के समय हुई थी। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण को नितान्त उत्सुक देखकर उनको यहाँ आने की आज्ञा दी, और श्रीबलराम को बहुत सी सेना के साथ उनके संग कर दिया।

अनामा- (आकुलता से) क्या भगवान श्रीकृष्ण कुण्डलपुर में आ गये?

ब्रा.- हाँ। आ गये, मैंने महाराज भीष्मक पर इस भेद को प्रगट कर दिया है, भगवान राजबाड़ी में साग्रज सब सैन्य के विराजमान हैं, अनेक स्त्री पुरुष वहाँ जा जाकर उनके मुखमयंक की सुधा अपने नैन चकोर से पान कर रहे हैं, और प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! जैसे तूने दमयन्ती को नल से, शकुन्तला को दुष्यंत से और विदेहजा को रामचन्द्रजी से मिलाकर उनको सुखी किया वैसे ही हमारी राजनन्दिनी को भगवान श्रीकृष्ण के समागम से सुशोभित करके उसको सुखी कर।

दो.स.- हम दोनों की भी ईश्वर से यही प्रार्थना है।

ब्रा.- हमारी भी।

( महारानी रुक्मिणी लज्जा से सिर नीचा कर लेती हैं और फिर अनामा से कुछ कहती हैं)

अनामा- द्विजराज! राजनन्दिनी कहती हैं कि आप जाकर भगवान श्रीकृष्ण को इस विषय से अभिज्ञ कर दें कि आज दो घड़ी दिन शेष रहे नगर की पश्चिम दिशा में देवी का जो एक मन्दिर है वहाँ पूजा करने के लिए वह जावेंगी। भगवान को वहीं आकर कुमारी के प्रण की लज्जा रखने योग्य है।

ब्रा.- जो आज्ञा (जाना चाहता है)

श्रीरु.- (स्वगत) अहा! द्विजदेव ने भी मेरे साथ कितना उपकार किया है, उपकार क्या यदि सूक्ष्म दृष्टि से विवेचना की जावे तो प्राणदाता ये ही महाशय हैं, अतएव इनकी सेवा मैं यदि रोम-रोम से करूँ तो भी थोड़ी है। इनके लिए यदि मैं तन-मन-धन तीनों को निछावर कर दूँ तो भी इनसे उऋण होना कठिन है। इनका उपकार मेरे साथ ऐसा ही है जैसा घनागम में वायु का चातकी के साथ। (सकृपा दृष्टिपात)

(ब्राह्मण का प्रस्थान)

अनामा- सखी अनाभिधाने! यद्यपि राजनन्दिनी की मनोकामना पूरी होने से हम दोनों को इस काल वैसा ही आनन्द है जैसा प्रियंवदा और अनसूया को शकुन्तला और दुष्यंत के समागम से हुआ था किन्तु यह आनन्द स्वच्छ नहीं है, इसके साथ उद्वेग का अंश भी मिला हुआ है। क्योंकि राजकन्या की वियोगआशंका से हम दोनों की उन्हीं दोनों के उस समय की दशा समान दशा हो रही है जिस समय शकुन्तला के महात्मा कण्व से बिदा होकर राजभवन में जाने का समाचार तपोवन में फैल गया था।

अनामा- सखी! इस समय हम दोनों का दु:ख सुख कार्तिक अथवा चैत्र के दिवारात्रि की तरह समान है अतएव इस मंगलकार्योपलक्ष में खेद प्रकाश करना अनुचित जान पड़ता है।

अनामा- सत्य है।

(एक स्त्री का प्रवेश)

स्त्री.- राजनन्दिनी! अब चार घड़ी दिन और रह गया, अतएव आपकी माता ने गौरीपूजन निमित्त स्नान और शृंगारादि द्वारा आपको सज्जित करने के लिए बुलाया है।

श्रीरु.- बहुत अच्छा, आओे सखियो, चलैं।

दोनो.- चलैं। (सब जाती हैं)

(जवनिकापतन)