श्रीलंका में धमाके और 'मद्रास कैफे' / जयप्रकाश चौकसे

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श्रीलंका में धमाके और 'मद्रास कैफे'
प्रकाशन तिथि : 23 अप्रैल 2019


शूजित सरकार की जॉन अब्राहम अभिनीत 'मद्रास कैफे' अत्यंत रोचक राजनीतिक थ्रिलर थी। लंदन स्थित मद्रास कैफे में राजीव गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचा जाता है। यह बोफोर्स विवाद के पहले के कालखंड की फिल्म है। जब भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पुन: सत्ता में आने के लिए चुनाव प्रचार की यात्राओं पर थे। लंदन स्थित मद्रास कैफे में रचे षड्यंत्र के क्रियान्वयन के लिए चेन्नई और सीलोन में केंद्र स्थापित किए गए थे। जॉन अब्राहम भारतीय सीक्रेट सर्विस एजेंट की भूमिका अभिनीत कर रहे थे और इस तरह का काम ब्रिटेन की एक पत्रकार भी कर रही थी, जो जॉन अब्राहम के साथ अपनी जानकारियां साझा करती है। इसकी पृष्ठभूमि यह थी कि श्रीलंका में लंबे समय से बसे तमिल भाषी लोगों के खिलाफ वहां के मूल निवासी एक संगठन बनाते हैं। दरअसल, दुनिया के तमाम देशों में अनेक देशों से आकर लोग बस जाते हैं। अमेरिका के मूल निवासी तो रेड इंडियंस कहलाते थे और उन्हें कुचल देने पर एक फिल्म भी बनी थी 'हाऊ द वेस्ट वॉज वन'।

मार्लन ब्रैंडो ने रेड इंडियंस पर किए गए अत्याचार के खिलाफ श्रेष्ठ अभिनय के लिए दिए जाने वाले ऑस्कर को भी अस्वीकृत कर दिया था। इतिहास चक्र में मूल निवासी और 'बाहरी' लोगों का आदिम विवाद आज भी उठाया जाता है। बरहाल, शूजीत सरकार से अपनी मित्रता के कारण सिद्धार्थ बासु ने भी एक भूमिका को विश्वसनीयता से अभिनीत किया था। भूतपूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश की जानकारी वे आला अफसरों को समय रहते देते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए विशेष दस्ते को बुलाने की बात भी करते हैं परंतु उन्हें कहा जाता है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री के लिए दस्ते को नहीं बुलाया जा सकता और चेन्नई की पुलिस के भरोसे रहा जा सकता है। नियम कायदे के अक्षरशः पालन के लाल फीते ने कई प्राण लिए हैं। सिद्धार्थ बासु अभिनीत पात्र स्वयं राजीव गांधी को उस रात 10:10 मिनट पर आयोजित सभा में नहीं जाने का इसरार भी करता है परंतु वे कार्यक्रम निरस्त नहीं करते।

जॉन अब्राहम अभिनीत गुप्तचर सभा स्थल पर राजीव गांधी की ओर जाने का भरपूर प्रयास करता है। परंतु भीड़ का रेला यह नहीं होने देता। फूलों का हार पहनाने के लिए प्रशिक्षित आत्मघाती मानव बम बनी महिला चरण स्पर्श करते हुए बटन दबा देती है और अपने साथ ही नेता की हत्या कर देती है। फिल्म के लिए गहरा शोध भी किया गया था और नेता द्वारा पहना स्पोर्ट्स शू भी एक क्लोज अप में दिखाया गया है। उस मानव बम के प्रशिक्षण के दृश्य रोंगटे खड़े कर देते हैं।

दरअसल, इस तरह के व्यक्ति के जीवन में अंतिम घंटों में उसके मन में क्या विचार उठते होंगे, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। मणिरत्नम की फिल्म 'दिल से' में भी मनीषा कोइराला ने ऐसी ही भूमिका निभाई थी। उस फिल्म में एआर रहमान ने माधुर्य रचा था। 'मद्रास कैफे' इस तरह की रूमानियत से साफ बचा ली गई फिल्म थी। फिल्म के अंतिम भाग में जाॅन अब्राहम पश्चाताप में डूबकर चर्च में मौन धारण किए बैठ जाते हैं। वे बुदबुदाते हैं कि वे अपने नेता को नहीं बचा पाए। वे षड्यंत्र का कच्चा चिट्ठा अपनी लंदन में रहने वाली पत्रकार मित्र को डाक द्वारा भेज देते हैं। वे रिपोर्ट अपने विभाग को नहीं देते, क्योंकि वे जानते हैं कि इस कच्चे चिट्ठे को फाइलों के अंबार में इस तरह रखा जाएगा कि बाद में खोजने पर भी नहीं मिलेंगे।

ज्ञातव्य है कि अमेरिकी फिल्मकार ओलिवर स्टोन पॉलिटिकल थ्रिलर बनाने के विशेषज्ञ रहे हैं। जॉन एफ कैनेडी की हत्या पर ओलिवर स्टोन ने अपनी फिल्म 'जेएफके' में साजिश रचने वाले तत्कालीन नेता पर दोष भी मढ़ा था और प्रमाण भी दिए थे। अमेरिकी सेंसर ने इस फिल्म पर कोई आपत्ति नहीं ली थी। हमारे देश में ओलिवर स्टोन की तरह साहसी फिल्में नहीं रची जा सकती। सेंसर एकमात्र रुकावट नहीं है।

प्रकाश झा ने 'दामुल', 'मृत्युदंड', और 'अपहरण' में राजनीतिक मुद्दे उठाए थे परंतु रणवीर कपूर, अजय देवगन और कैटरीना कैफ अभिनीत राजनीति 'गॉडफादर' से प्रेरित थी। इसके प्रदर्शन पूर्व भ्रामक प्रचार किया गया था। इस फिल्म ने सितारों के जमघट के कारण प्रदर्शन के पूर्व ही बहुत मुनाफा कमा लिया था। इस व्यावसायिक सफलता के बाद प्रकाश झा पटरी से उतर गए। क्या हम आशा करें कि वे 'दामुल' या 'मृत्युदंड' जैसी फिल्में फिर बनाएंगे?

एक जानकारी यह भी है कि बोफोर्स गन का कमीशन श्रीलंका में हथियार खरीदने पर खर्च किया गया। इस तरह की बातों के प्रमाण जुटाना कठिन है।

कहा जाता है कि रेडियो स्टेशन 'वॉइस ऑफ अमेरिका' श्रीलंका से प्रसारण करना चाहता था, जिसे रोकने के लिए रूस की सलाह पर तमिल दल को हथियार दिलाए गए थे, क्योंकि थोड़ी भी हिंसा से अमेरिका घबरा जाता है। यद्यपि 'कल्ट ऑफ वायलेंस' उसका इतिहास है। बहरहाल, श्रीलंका में हुए ताजे विस्फोट हमें 'मद्रास कैफे' पुन: देखने को प्रेरित करते हैं। वास्तविक दुर्घटनाओं को फिल्मी अफसानों से भी समझा जा सकता है।