श्रीशैलम: बांध लेता है यह छंद मुक्त-2 / इष्ट देव सांकृत्यायन
मंदिर से बाहर निकले तो धूप बहुत चटख हो चुकी थी। जनवरी के महीने में भी हाफ शर्ट पहन कर चलना मुश्किल हो रहा था। फुल मस्ती के मूड में बच्चे न जाने किसे शो ऑफ करने में लगे थे। उधर साथ की देवियां ख़रीदारी के मूड में थीं और मंदिर के चारों तरफ़ फैले बाज़ार की एक-एक दुकान पर सामान देखने व मोलभाव का मौक़ा हाथ से निकलने नहीं देना चाहती थीं। भला हो बच्चों का, जिन्हें एक तो डैम देखने की जल्दी थी और दूसरे भूख भी लगी थी। इसलिए बाज़ार हमने एक घंटे में पार कर लिया। बाहर गेस्ट हाउस के पास ही आकर एक होटल में दक्षिण भारतीय भोजन किया।
विषय सूची
- 1 श्रीशैलम की मनोरम पहाड़ियां
- 2 बंद डैम का आनंद
- 3 डैम पर खाद्य सामग्री की ताक में लगे बंदर
- 4 मेरे अनुज अभीष्ट, राढ़ी जी और मैं
- 5 मल्लिकार्जुन मंदिर का रात्रिकालीन दृश्य
- 6 राजा का सम्मान
- 7 जंगल में सेही
- 8 बादशाह की सवारी
- 9 थोड़ा और वक़्त होता तो
- 10 नदी, पहाड़ और जंगल से गुज़रता रास्ता
- 11 कहां ठहरें
- 12 खाना-पीना
- 13 कब जाएं
- 14 धरती उत्सवों की
श्रीशैलम की मनोरम पहाड़ियां
बच्चे डैम देखने के लिए इतने उतावले थे कि भोजन के लिए अल्पविश्राम की अर्जी भी नामंजूर हो गई और हमें तुरंत टैक्सी करके श्रीशैलम बांध देखने के लिए निकलना पड़ा। श्रीशैलम में एक अच्छी बात यह भी थी कि यहां तिरुपति की तरह भाषा की समस्या नहीं थी। वैसे यहां मुख्य भाषा तेलुगु ही है, लेकिन हिंदीभाषियों के लिए कोई असुविधा जैसी स्थिति नहीं है। हिंदी फिल्मों के गाने यहां ख़ूब चलते हैं। जिस टैक्सी में हम बैठे उसमें 'बजावें हाय पांडे जी सीटी’ पहले से ही जारी था। मैंने ड्राइवर से पूछा, 'इसका मतलब समझते हो?’
'मतलब? हां, मतलब टीक से समझता हाय’ उसने दोनों तरफ़ सिर हिलाते हुए कहा, ‘यहां टूरिस्ट लोग ख़ूब आता रहता है न, तो हम लोग हिंदी अच्चे से जानता है।’ आगे तो उसने पूरा वृत्तांत बताना शुरू कर दिया। यहां कब-कब किस-किस फिल्म की शूटिंग हुई, विशेषकर श्रीशैलम मंदिर के माहात्म्य को ही लेकर कौन-कौन सी फिल्में बनीं। कौन-कौन से मशहूर लोग यहां अकसर मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन के लिए आते हैं... आदि-आदि। क़स्बे से डैम तक पहुंचने में केवल आधे घंटे का समय लगा, वह भी तब जबकि रास्ते में हमने साक्षी गणपति का भी दर्शन कर लिया। ऐसी मान्यता है कि मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन-पूजन के लिए जो लोग आते हैं, उनका हिसाब-किताब गणपति ही रखते हैं और यही उनका साक्ष्य देते हैं। इसीलिए इनका नाम साक्षी गणपति है।
जल विद्युत परियोजना
बंद डैम का आनंद
डैम पहुंच कर बच्चे अभिभूत थे। हालांकि इस समय यहां पानी कुछ ख़ास नहीं आ रहा था और पानी के अभाव में न तो कोई टर्बाइन चल रही थी, न कोई और ही गतिविधि जारी थी। लेकिन, चारों तरफ़ पहाड़ों से घिरी नदी की गहरी घाटी, उस पर बनी विशाल बांध परियोजना और दूर-दूर तक ख़तरनाक मोड़ों वाली बलखाती सड़क... बच्चों के लिए यह सौंदर्य ही काफ़ी था। वहां हमारे जैसे और भी कई पर्यटक मौजूद थे और सबके नैसर्गिक मनोरंजन के लिए बंदरों के झुंड भी। व्यू प्वाइंट पर ही कुछ स्थानीय लोग मूंगफली बेच रहे थे और चाय की भी एक दुकान थी। चारों तरफ़ पहाड़, सामने नदी, पेड़ों की छाया और आसपास उछलते-कूदते बंदरों के झुंड, कहीं गिलहरियां और कहीं तरह-तरह के पक्षियों की चहचहाहट, बीच-बीच में आ जाती गाय... कुल मिलाकर यह माहौल अत्यंत मनोहारी हो गया था। बच्चे अपनी प्रकृति के अनुकूल एक साथ बहुत कुछ जान लेना चाहते थे। मसलन यह कि यह पानी बिजली कैसे बना देता है, यह पहाड़ कितनी दूर तक फैला है और यहां कोई बंदर से डरता क्यों नहीं है? अरे, हां वाक़ई। हम तो वहां से आए थे जहां लोग मंगल को बंदर को भोग भी खिलाते हैं और बाक़ी दिन उसे देखकर उनकी जान भी निकल जाती है। यहां लोग अपने हाथों में मूंगफली दिखा रहे थे और बंदर उसे निकाल-निकाल कर खा रहे थे। बच्चों ने ऐसा करना चाहा, पर उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। यहां तक कि हमारे ख़ुद करके दिखाने पर भी। यह शायद वन्य जीवों के स्वभाव से उनके अपरिचय का प्रभाव था।
डैम पर खाद्य सामग्री की ताक में लगे बंदर
डैम पर हालांकि इस समय उत्पादन बंद था, लेकिन इसकी भव्यता से इसकी महत्ता को समझा जा सकता था। नल्लामलाई (श्रेष्ठ पर्वतशृंखला) पर्वतशृंखला में कृष्णा नदी पर बना यह डैम देश का तीसरा सबसे बड़ा जलविद्युत उत्पादन केंद्र है। समुद्रतल से 300 मीटर ऊंचाई पर बने इस बांध की लंबाई 512 मीटर और ऊंचाई करीब 270 मीटर है। इसमें 12 रेडियल के्रस्ट गेट्स लगे हैं और इसका रिज़र्वायर 800 वर्ग किलोमीटर का है। इसके बाएं किनारे पर मौजूद पावर स्टेशन में 150 मेगावाट के छह रिवर्सिबल फ्रांसिस पंप टर्बाइंस लगे हुए हैं और दाहिने किनारे पर 110 मेगावाट के सात फ्रांसिस टर्बाइन जेनरेटर्स हैं। इसकी उत्पादन क्षमता 1670 मेगावाट बताई जाती है। इसके अलावा यह कुर्नूल और कडप्पा जिले के किसानों को सिंचाई के लिए पानी भी उपलब्ध कराता है। यह तब है जबकि इसमें बाढ़ के दौरान आने वाला बहुत सारा पानी इस्तेमाल किए बग़ैर छोड़ दिया जाता है। वजह यह है कि अगर बाढ़ के समय इसे रोकने की कोशिश करें तो आफत आ जाए। इसके अलावा पहाड़ों का
मेरे अनुज अभीष्ट, राढ़ी जी और मैं
बेतहाशा खनन और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, जिसमें से अधिकतम काम अवैध तरीक़े से माफियाओं के संरक्षण में हो रहा है, के चलते इसके रिज़र्वायर में शिल्ट भरती जा रही है। जिसे अभी तो ऑफ सीज़न में साफ़ कर लिया जाता है, लेकिन बाद में यह भी नहीं हो सकेगा और यह बेहद ख़तरनाक स्थिति होगी। अगर यहां उपलब्ध जलस्रोत का पूरा इस्तेमाल किया जा सके तो दक्षिण में पेयजल, सिंचाई और बिजली कोई समस्या ही न रहे। सब जानकर लगा कि अपने देश में कहीं भी चले जाएं, वस्तुस्थिति जानने के बाद दुखी होने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। यह सब जानते-देखते शाम के पांच बज गए थे और अब लौटना ज़रूरी था। लिहाज़ा हम वापस श्रीशैलम लौट चले।
जागता है शहर
मल्लिकार्जुन मंदिर का रात्रिकालीन दृश्य
थोड़ी देर विश्राम के बाद शाम सात बजे फिर निकल पड़े, नगर दर्शन के लिए। थोड़ी देर मंदिर के मुख्यद्वार के सामने बैठे रहे। गोपुरम वहां से साफ़ दिखाई दे रहा था और उसकी रात्रिकालीन सज्जा भी अद्भुत थी। झिलमिलाती लाइटों से सजे गोपुरम की छटा देखते ही बनती थी। पूरे दिन गर्मी झेलने के बाद अब शाम की ठंडी-ठंडी हवा हमें बेहद सुकून दे रही थी। थोड़ी देर बैठने के बाद हम नगर दर्शन के लिए निकल पड़े। छोटे क़स्बे के लिहाज़ से देखें तो बाज़ार बड़ा है, लेकिन अन्य धार्मिक स्थलों की तरह यहां भी पूरा बाज़ार केवल पूजा सामग्रियों से ही अटा पड़ा है। दुकानों पर मोमेंटोज़ ख़ूब मिलते हैं, लेकिन इनका मूल्य काफ़ी अधिक है। ख़रीदने लायक चीज़ों में यहां जंगल का असली शहद और काजू की गजक है। शहद के बारे में एक स्थानीय व्यक्ति ने पहले ही बता दिया था कि इसमें धोखाधड़ी बहुत है। बताया जाता है कि यह जंगल से वनवासियों का निकाला हुआ शुद्ध शहद है, लेकिन होता मिलावटी है। अगर आपको असली शहद लेना हो तो उसे म्यूजि़यम (चेंचू लक्ष्मी ट्राइबल म्यूजि़यम) से ही लें। गजक भी 400 रुपये किलो था। घूमने से इतना तो मालूम चला कि यह देर रात तक जागने वाला शहर है।
राजा का सम्मान
रात का भोजन हमने फिर एक रेस्टोरेंट में लिया और इसके बाद सो गए। अगली सुबह हमारा इरादा नागार्जुनसागर टाइगर रिज़र्व घूमने का था। हम सब आठ बजे तैयार हो गए। टाइगर प्रोजेक्ट जाने का उपाय पता किया तो मालूम हुआ कि यहां से सुन्नीपेंटा तक आपको कोई टैक्सी लेनी पड़ेगी। टैक्सी लेकर हम सुन्नीपेंटा पहुंचे। पहुंचने पर मालूम हुआ कि यह तो उसी रास्ते पर है, जिससे हम पिछले दिन डैम देखने आए थे। वहां प्रवेश शुल्क तो केवल 10 रुपये है, लेकिन अपने वाहन से आप जंगल के अंदर नहीं जा सकते। जंगल के भीतर सैर-सपाटे के लिए जीप सफारी लेनी थी, जो हमें उस दिन 10 बजे के बाद ही उपलब्ध होती। इसका शुल्क 800 रुपये है। थोड़ी देर इंतज़ार के बाद हमें सफारी उपलब्ध हो गई और हम चल पड़े। जंगल के भीतर थोड़ी दूर ही अच्छी सड़क है। इसके बाद कच्चा रास्ता और वह भी थोड़े दिन पहले बारिश होने के नाते कई जगह कीचड़ से भरा हुआ था। इस रास्ते पर चलना सधे हुए ड्राइवरों के ही बस की बात है।
जंगल में सेही
बीच-बीच में पहाड़ों और तरह-तरह की झाडिय़ों से भरा यह जंगल कहीं-कहीं इतना घना है कि दोपहर में ही घुप्प अंधेरा जैसा लगता है। ऐसी जगह आने से पहले ही ड्राइवर-सह-गाइड महोदय हमें आश्वस्त कर देते थे, 'डरने का तो कोई बात नहीं। जानवर लोग कोई हमला नहीं करता, बस ये रहे कि आप लोग चीखना मत। जानवर ऐसे ई घूमता, कुछ नहीं बोलता।’ हम भी आश्वस्त थे। जानवर अगर बोलेगा तो क्या बोलेगा? बहुत होगा तो एंट्री पास मांगेगा, तो वो दिखा देंगे। बाक़ी भाषा तो न हमारी वह समझेगा और न उसकी हम। खुले में घूमते और अपने-आप में मस्त जानवरों को देख-देख कर बच्चे मन ही मन ख़ुश हो रहे थे। चूंकि उन्हें पहले ही समझा दिया गया था कि यहां हल्ला मचाना जीवन के लिए ख़तरनाक हो सकता है, इसलिए वे अपनी प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से प्रकट नहीं कर पा रहे थे। इशारों-इशारों में एक-दूसरे से काफ़ी बातचीत कर ले रहे थे। अगर कभी कोई ज़ोर से बोल देता तो होंठों पर उंगली रख उसे समझाना पड़ता। ऐसी नौबत अकसर तब आती जब कहीं जंगल का राजा दिख जाता। बहरहाल, बच्चे ऐसे समय में सिर्फ़ इशारा कर देने पर जैसी समझदारी दिखाते, उससे इतना तो एहसास हुआ कि कुछ भी हो राजा की इज़्ज़त सभी करते हैं। भले देश में लोकतंत्र आ गया हो।
बादशाह की सवारी
मुश्किल तब हुई, जब चौकड़ी भरता हिरनों का एक समूह हमारे सामने ही सड़क पर भागने लगा। ड्राइवर ने जीप रोकी और तुरंत मुड़कर इशारा किया। उसके चेहरे पर जैसा ख़ौफ़ दिखा, उसने बच्चों की सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी। अब कोई बोल नहीं रहा था। आगे बैठे होने के नाते उसने मुझे कोहनी मार कर समझा दिया था कि ये नाटक है। लेकिन धीरे से उसने यह भी बताया, 'अब्बी, एकदम अब्बी कहीं से राजा आएगा। बोलने का नईं, एकदम नईं। बस देखो, चुपचाप देखो।’ और हम ठहरे रहे। क़रीब बीस मिनट बाद जंगल में बाईं तरफ़ इशारा किया। घने जंगल में वाक़ई महाराजाधिराज सपरिवार चले जा रहे थे और वे बड़े इत्मीनान से जा रहे थे। इसके पहले कि बच्चे कुछ बोलें, उन्हें एक बार फिर चुप रहने का इशारा कर दिया गया। क़रीब दस मिनट तक हम सब उन्हें जाते हुए निहारते रहे और जब वे घने जंगलों में गुम हो गए तो हम भी आगे बढ़ गए। वाक़ई चलता तो शेर ही है।
जंगल की एक-एक गतिविधि पर नज़र गड़ाए कब फरहाबाद व्यू प्वाइंट पहुंच गए, पता ही नहीं चला। काफ़ी ऊंचाई पर मौजूद इस जगह से जंगल की गतिविधियां देखी जा सकती हैं। बेहतर हो कि अपने साथ दूरबीन रखें, जो हमारे पास नहीं थी। सागौन और गूलर के पेड़ तो इस जंगल में ख़ूब हैं और जानवरों की भी हज़ारों प्रजातियां हैं। सौ से ज्य़ादा प्रजातियां तो केवल तितलियों की हैं। पतंगे भी कई तरह के हैं। चिडिय़ों के मामले में यह जंगल काफ़ी धनी है। परिंदों की 200 से अधिक प्रजातियां यहां हैं। इसके अलावा सांभर, भालू, चीते, लकड़बग्घे, सियार, हिरन, चौसिंघा हिरन, ढोल, सेही, नीलगाय सभी यहां पर्याप्त संख्या में हैं। बताया गया कि यहां हनी बैजर भी पाया जाता है, हालांकि हम देख न सके।
जंगल घूम कर हम दो बजे तक वापस एंट्री गेट पर थे। टैक्सी ली और फिर श्रीशैलम पहुंचे। अब हमारे पास और घूमने का वक़्त नहीं था, क्योंकि अगले दिन हैदराबाद से दिल्ली के लिए ट्रेन पकडऩी थी और यह तभी संभव था जब आज ही निकल चलते।
थोड़ा और वक़्त होता तो
हालांकि घूमने के लिए यहां और भी कई जगहें हैं। इनमें पंचमठम का श्रीशैलम के इतिहास और संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उच्च अध्ययन को समर्पित इन मठों में घंट मठम, भीमशंकर मठम, विभूति मठम, रुद्राक्ष मठम और सारंगधारा मठम शामिल हैं। इन मठों का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू होता है। तब यहां कई मठ थे। अब केवल यही पांच बचे हैं और वह भी जीर्ण हालत में हैं। ये मठ श्रीशैलम मुख्य मंदिर से क़रीब एक किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में स्थित हैं।
श्रीशैलम से 8 किमी दूर स्थित शिखरम समुद्रतल से 2830 फुट की ऊंचाई पर है। शिखरेश्वरम मंदिर में गर्भगृह और अंतरालय के अलावा 16 स्तंभों वाला मुखमंडपम भी है। यहां के इष्ट वीर शंकर स्वामी हैं, जिन्हें शिखरेश्वरम के रूप में पूजा जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार इसके शिखर के दर्शनमात्र से मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन का फल प्राप्त होता है। इसके वर्तमान स्वरूप का निर्माण रेड्डी राजाओं ने सन 1398 में कराया था।
सुंदर जलप्रपात फलधारा पंचधारा क़स्बे से पांच किलोमीटर और अक्क महादेवी की गुफाएं क़रीब 10 किलोमीटर दूर हैं। समय हो तो आप हटकेश्वरम, कैलासद्वारम, भीमुनि कोलानू, इष्ट कामेश्वरी मंदिर, कदलीवनम, नगालूती, भ्रमरांबा चेरुवु, सर्वेश्वरम और गुप्त मल्लिकार्जुनम को भी अपनी यात्रायोजना में शामिल कर सकते हैं। यहां आकर हमें एहसास हुआ कि इस छोटे से क़स्बे की घुमक्कड़ी का पूरा आनंद लेने के लिए कम से कम एक हफ़्ते का समय चाहिए। हम इकट्ठे तो इतना समय निकाल नहीं सकते थे, लिहाज़ा 4 बजे की बस से भारी मन लिए हैदराबाद के लिए रवाना हो गए। अपने आप से इस वादे के साथ कि फिर मिलेंगे, ज़रूर मिलेंगे। आगे बढ़ने पर तो श्रीशैलम से हैदराबाद के बीच प्रकृति की मनोरम झांकियों ने हमारे मन का भारीपन भी ख़ुद हर लिया।
नदी, पहाड़ और जंगल से गुज़रता रास्ता
कैसे पहुंचें जो रास्ता हमने चुना, वह चुनने की ग़लती आप न करें तो ही ठीक। हैदराबाद तक भारत के हर बड़े शहर से हवाई, रेल और सड़क सभी मार्गों का सीधा संपर्क है। लेकिन इसके बाद आपके पास एक ही रास्ता बचता है और वह है सड़क। आप चाहें तो अपने वाहन से भी जा सकते हैं, वरना साधारण और लग़्ज़री - सभी तरह की बसें नियमित रूप से उपलब्ध होती हैं। हैदराबाद से 215 किलोमीटर की यह दूरी तय करने में आम तौर पर चार से छह घंटे लगते हैं। स्थानीय भ्रमण के लिए आप टैक्सी या ऑटो कुछ भी ले सकते हैं।
कहां ठहरें
शहर में बड़ी संख्या में बजट होटल, गेस्ट हाउस और धर्मशालाएं हैं। कुछ में आप पहले से बुकिंग भी करा सकते हैं। न भी हो सके, तो चिंता न करें। वहां पहुंच कर भी ठहरने की व्यवस्था आसानी से हो जाएगी।
खाना-पीना
दक्षिण भारतीय शाकाहार आपको कहीं भी आसानी से मिल सकता है। रोटीप्रेमी उत्तर भारतीयों को थोड़ी समस्या हो सकती है, लेकिन थोड़े दिन स्वाद बदलने का भी अपना अलग मज़ा है। धार्मिक स्थल होने के नाते मांसाहार और सुरापान यहां वर्जित है।
कब जाएं
जा तो आप कभी भी सकते हैं, लेकिन अक्टूबर से फरवरी तक का समय बेहतर होता है। इसमें भी अक्टूबर-नवंबर में यहां बारिश होती है। बाक़ी समय सर्दी की फ़िक्र करने की यहां कोई ज़रूरत ही नहीं है। यहां का औसत तापमान 27 डिग्री सेल्सियस होता है। हां, गर्मी में यह चढ़कर 44 डिग्री तक चला जाता है।
धरती उत्सवों की
उत्सव यहां पूरे साल चलते रहते हैं, लेकिन फरवरी/मार्च में होने वाला महाशिवरात्रि का उत्सव विशिष्ट होता है। इस अवसर पर यहां बहुत बड़ा मेला लगता है, जो पूरे एक सप्ताह चलता है। मार्च/अप्रैल में मनाया जाने वाला तेलुगु नववर्ष उगाडि (संभवत: युगादि का बदला हुआ रूप) प्रमुख उत्सवों में है। इसके अलावा कुंभोत्सवम, संक्रांति उत्सवम, अरुद्रोत्सवम, कार्तिक महोत्सवम और श्रवण नामोत्सवम भी प्रमुख उत्सवों में हैं।