श्री आरश्रण-विरोधी जनेऊधारी कंप्यूटर विशेषज्ञ / किशन पटनायक
गांधी का व्यवहार सन्तुलित था, किन्तु उनमें वैचारिक सन्तुलन नहीं था। दूसरे लोग जब आधुनिक सभ्यता से टकराते हैं, अक्सर दोनों स्तर पर सन्तुलन खो देते हैं। प्राचीन सभ्यता के कुछ प्रतीकों को ढ़ूँढ़ कर वे एक गुफा बना लेते हैं और उसमें समाहित हो जाते हैं। उनके लिए समस्या नहीं रह जाती है, संघर्ष की जरूरत नहीं रह जाती है। अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी यह नहीं जानते कि हमारी 'सभ्यता का संकट' क्या है? उनका एक वर्ग आधुनिक पश्चिमी सभ्यता को नकार कर या उससे घबराकर प्राचीन सभ्यता के गर्भ में चला जाता है। योग, गो-सेवा या कुटीर उद्योग उनके लिए कोई नवनिर्माण की दिशा नहीं है बल्कि एक सुरंग है, जिससे वे प्राचीन सभ्यता की गोद में पहुँचकर शान्ति की नींद लेने लगते हैं। बुद्धिजीवियों का दूसरा वर्ग पश्चिमी सभ्यता से आक्रांत रहता है, या घोषित तौर पर उसे अपनाता है। उसको अपनाने के क्रम में पश्चिमी सभ्यता का उपनिवेश बनने के लिए वह अपनी स्वीकृति दे देता है।
लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। हम सब कमोबेश आधुनिक सभ्यता से आक्रांत हैं। उसको आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से स्वीकारने की कोशिश करते हैं। लेकिन हमारी रगों में प्राचीन भारतीय सभ्यता का भूत भी बैठा हुआ है। उसके सामने हम बच्चे जैसे भीत या शिथिल हो जाते हैं। वह हमें व्यक्ति या समूह के तौर पर निष्क्रिय, तटस्थ और अप्रयत्नशील बना देता है। जो लोग पश्चिमी सभ्यता को बेहिचक ढंग से अपनाते हैं, वे भी साईं बाबा के चरण-स्पर्श से ही अपनी सार्थकता महसूस करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश वी.आर. कृष्ण अय्यर मार्क्सवादी रहे हैं और महेश योगी के भक्त भी हैं। नाम लेना अपवाद का उल्लेख करना नहीं है। यह अपवाद नहीं, नियम है। यह विविधता का समन्वय नहीं है, यह केवल वैचारिक दोगलापन है।
दोगली मानसिकता की यह प्रवृत्ति होती है कि वह किसी पद्धति की होती नहीं और खुद भी कोई पद्धति नहीं बना सकती। दूसरी विशेषता यह होती है कि वह केवल बने-बनाये पिंडों को जोड़ सकती है, उनमें से किसी को बदल नहीं सकती। तीसरी विशेषता यह है कि वह आत्मसमीक्षा नहीं कर सकती। आत्मसमीक्षा करेगी, तो बने-बनाए पिंडों से संघर्ष करना पड़ेगा। इसलिए बाहर की तारीफ से गदगद हो जाती है और आलोचना को अनसुना कर देती है। इसकी चौथी विशेषता यह है कि वह मौलिकता से डरती है। एक दोगले व्यक्तित्व का उदाहरण होगा - 'श्री आरक्षण-विरोधी जनेऊधारी कम्प्यूटर विशेषज्ञ'! इस तरह के व्यक्तित्व को हम क्या कहेंगे - 'विविधता का समन्वय ?'
तो भारतीय बुद्धिजीवी को जब पश्चिमी सभ्यता अधूरी लगती है, तब वह प्राचीनता की किसी गुफा में घुस जाता है और जब वह अपनी सभ्यता के बारे में शर्मिन्दा होता है तब पश्चिम का उपनिवेश बन कर रहना स्वीकार कर लेता है। दोनों सभ्यताओं से संघर्ष करने की प्रवृत्ति भारतीय बुद्धिजीवी जगत में अभी तक नहीं विकसित हुई है या जो हुई थी, वह खत्म हो गई है। गांधी के अनुयायी गुफाओं में चले गये। रवि ठाकुर के लोग अंग्रेजी और अंग्रेजियत के भक्त हो गये। गांधी के एक शिष्य राममनोहर लोहिया ने 'इतिहास चक्र' नामक एक किताब लिखी। एक नई सभ्यता की धारा चलाने के लिए आवश्यक अवधारणाएं प्रस्तुत करना इस किताब का लक्ष्य था। अंग्रेजी में लिखित होने के बावजूद बुद्धिजीवियों ने उसे नहीं पढ़ा। औपनिवेशिक दिमाग नवनिर्माण की तकलीफ को बर्दाश्त नहीं कर सकता। ज्यादा-से-ज्यादा वह प्रचलित और पुरानी धाराओं को साथ-साथ चलाने की कोशिश करता है और दोनों के लिए कम-से-कम प्रतिरोध की रणनीति अपनाता है। आम जनता पर दोनों प्रतिकूल सभ्यताओं का बोझ पड़ता है और वह अपनी तकलीफ के अहसास से आन्दोलित होती है। सभ्यताओं से संघर्ष की इच्छा शक्ति के अभाव में देश के सारे राजनैतिक दल अप्रासंगिक और गतिहीन हो गए हैं। जनता के आन्दोलन को दिशा देने की क्षमता उनमें नहीं रह गई है। जन-आन्दोलनों का केवल हुंकार होता है, आन्दोलन का मार्ग बन नहीं पाता। जहाँ क्षितिज की कल्पना नहीं है, वहाँ मार्ग कैसे बने? इस कल्पना के अभाव में क्रान्ति अवरुद्ध हो जाती है।
('सभ्यता का संकट और भारतीय बुद्धिजीवी' लेख से)