श्री देवी और गरुड़ पुराण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :24 नवम्बर 2014

यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि तमिल आैर तेलुगू क्षेत्रीय भाषाएं होते हुए भी उनकी फिल्मों के बजट आैर आय दोनों ही बंबइया फिल्मों से अधिक हैं आैर सितारों के लिए जुनून भी वहां अकल्पनीय है। मल्टीप्लैक्स की संख्या उत्तर भारत में अधिक है परंतु एकल सिनेमा की संख्या दक्षिण एवं मध्यप्रदेश में सबसे अधिक है। टिकिट दरें दक्षिण में कम होने के कारण संभवत: अधिक दर्शक फिल्में देखते हैं। मल्टीप्लैक्स के मालिक जानते हैं कि टिकिट दर कम करने पर उनकी दर्शक संख्या बढ़ेगी। अभी आैसत दर्शक संख्या तीस प्रतिशत से भी कम है परंतु मल्टी वालों की सोच संभवत: यह है कि उन्हें कम टिकिट दर पर अधिक दर्शकों के आने से अधिक लाभ ऊंची दर देने वाले कम संख्या के वे दर्शक चाहिए जो पॉपकोर्न, सैंडविच आैर शीतल पेय पर बेहिसाब धन खर्च करते हों क्योंकि उनका असल मुनाफा टिकिट की बिक्री नहीं वरन खान-पान के सामान की बिक्री पर निर्भर करता है। उनका यह विचार भी संभव है कि कम दर पर भीतर आया गरीब ग्राहक खाने-पीने की सामग्री नहीं खरीदेगा आैर गंदगी फैला देगा तथा उनके श्रेष्ठि वर्ग के ग्राहकों को अवाम की संगत अच्छी भी नहीं लगेगी। अनेक एयरलाइंस बिजनेस क्लास रखती है, भले ही उनके लगभग दोगुने दाम के ग्राहक कम आएं आैर उसी स्पेस में इकॉनामी के यात्री बढ़ाए जा सकते हैं परंतु अनेक कॉरपोरेट हाउस उन एयरलाइंस पर अघोषित प्रतिबंध लगा देते हैं जिनके पास बिजनेस क्लास नहीं है।
विगत सौ वर्षों के इतिहास में लगभग 90 वर्ष सिनेमा को गरीब एवं मध्यम वर्ग दर्शक ने जीवित रखा परंतु अब खेल बदल चुका है। अगर इस तरह के सारे समीकरण केवल मनोरंजन क्षेत्र तक सीमित रहते तो कोई खास चिंता की बात नहीं थी परंतु इसी तरह की सोच सरकारों आैर समाज की भी हो गयी है आैर सुविधा सम्पन्न इंडिया का प्रभाव क्षेत्र सुविधाहीन भारत पर भारी पड़ रहा है। सारी नीतियां उसी वर्ग को दृष्टिकोण में रखकर बनाई जा रही है। सच तो यह है कि धरती इतना देती है कि गरीबी का अस्तित्व ही नहीं हो आैर गरीबी कोई स्वाभाविक रूप से जन्मीं हो- यह भी नहीं है। गरीबी तो अत्यंत चतुराई से गढ़ी गई है। धरती माता की देन को हड़प लिया गया है आैर शासक को सेवक चाहिए, उसके बिना उसका साम्राज्य नहीं चल सकता, इसलिए अस्वाभाविक रूप से गरीबी को रचा गया है। कुछ देशों में गरीबी के कुटीर उद्योग हैं आैर कुछ देशों में बड़े पैमाने पर 'गरीबी' नामक उत्पाद की रचना होती है। यह खेल इतना विराट हो गया कि मजबूर होकर निदा फाजली को लिखना पड़ा कि 'आवारा बादल जानता है कि किस छत को भिगोना है'।
बहरहाल दक्षिण में श्री देवी आैर विजय को लेकर 'गरुड़' नामक फंतासी रची जा रही है जिसका बजट ही 120 करोड़ रुपए है आैर 27 वर्ष बाद श्री देवी की दक्षिण फिल्मों में वापसी वाली फिल्म में उनके लिए बनाई पोशाकों का मूल्य मात्र एक करोड़ रुपए हैं। वे उन पोशाकों में अत्यंत सुंदर लग रही हैं। फिल्म की शूटिंग संभवत: जनवरी में समाप्त होगी। ज्ञातव्य है कि माइथोलॉजी में, जिसे शीघ्र ही इतिहास का दर्जा दिलाने को शासन कटिबद्ध है, गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है आैर यह भी मान्यता है कि सद्कर्म करने वालों की आत्मा गरुड़ पर सवार होकर स्वर्ग की यात्रा करती है। शायद इसीलिए मृत्यु के समय गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है। यह फिल्म माइथोलॉजी आधारित नहीं वरन् एक फंतासी है आैर शायद गरुड़ किसी विचार का प्रतीक मात्र हो। इस फिल्म की शूटिंग के बाद फरवरी में श्री देवी की हिंदी फिल्म की शूटिंग होने जा रही है। उन तमाम शिखर सितारा रहीं महिलाएं जैसे माधुरी, जूही इत्यादि ने वापसी के प्रयास किए लेकिन केवल श्री देवी ही सफल रही। उनकी 'इंग्लिश विंग्लिश' जापान इत्यादि अनेक देशों में सफल रही। सच तो यह है कि पुरानी शराब की तरह वह पहले से अधिक मादक हो गई हैं।