श्री राधाकृष्णदास / भाग 1 / रामचन्द्र शुक्ल

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मनुष्य के जीवन की शक्ति उसके कार्य के फल के विस्तार और स्थायित्व में देखी जाती है। उसके कर्मों से कितने मनुष्य सुखी वा दुखी हुए हैं तथा कितने काल तक उनसे मनुष्य सुखी वा दुखी होते जायँगे इसका एक साधारण अटकल बाँध कर हम उसके महत्तव का विचार करते हैं। क्योंकि सृष्टि के बीच मनुष्य की स्थिति इस प्रकार की है कि उसकी प्रसन्नता वा अप्रसन्नता का अधिक भाग औरों की क्रिया वा अवस्था पर अवलम्बित है। यह विस्तार और स्थायित्व उस श्रम के प्रभाव को नहीं प्राप्त होता जो शरीर-पोषण व कुटुम्बपालन के हेतु किया जाता है। जब किसी असाधारण जीव के कृत्यों का प्रभाव उससे कई सौ कोस दूर वा कई पीढ़ियों के आगे जा पहुँचता है तब लोग मोहित होकर कर्ता से घनिष्टता प्राप्त करने के हेतु उसकी एक एक बात से परिचित होना चाहते हैं। उसके कार्य के क्रम, उसके चित्त की प्रवृत्ति तथा भिन्न भिन्न अवस्थाओं में उसकेर् कर्तव्या को देख कर हम यह भी पता लगाना चाहते हैं कि किस विशेषता के कारण वह अपने प्रभाव में समर्थ हुआ और किन किन बातों ने उसके मार्ग में बाधा डाली। अतएव हम हिन्दी भाषा भाषी स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास के विषय में चाहे जितनी जिज्ञासा करें अनुपयुक्त नहीं। कोई यह नहीं कह सकता कि तुम्हें क्या करनाहै।

वंश परिचय

बाबू राधाकृष्णदास के पूर्वजों की निवास भूमि मथुरा थी। वहाँ से वे किसी कारणवश आरे चले आए। इनके वृध्द प्रपितामह बाबू रामचन्द्र तक आरे ही में स्थित रहे। बाबू रामचन्द्र से लेकर इस वंश का विस्तार इस प्रकार है।

बाबू रामचन्द्र

बाबू सुबंश लाल बाबू हरिवंश लाल बाबू सुक्खू लाल

मानकी बीबी

बाबू श्यामबिहारी लाल बाबू बनवारी लाल

बाबू कल्याण बाबू बांकेबिहारी मनीदेई जानकी बाबू पुरुषोत्ताम

दास लाल बीबी दास

बाबू जीवन बाबू राधाकृष्ण कन्या कन्या

दास दास (लक्ष्मीदेई)1 (विंध्यवासिनी बीबी)

बाबू बालकृष्ण नवलमणि कन्या

दास (श्यामप्यारी)

पुत्र कन्या

(बटकृष्ण) (रामप्यारी)

बाबू राधाकृष्णदास के परदादा बाबू हरिवंशलाल आरे से सैदपुर आकर रहे। बाबू हरिवंशलाल के पुत्र बाबू श्यामबिहारी लाल हुए जो कि गाजीपुर के चीनी के प्रसिध्द व्यापारी बाबू शिवसहाय के मुनीम थे। बाबू श्यामबिहारी के बाबू कल्याणदास2 हुए। बाबू कल्याणदास का विवाह काशी के प्रसिध्द धनिक काले हर्षचन्द्र की पुत्री और हिन्दी के प्रसिध्द कवि बाबू गोपालचन्द्र की भगिनी श्रीमती गंगाबीबी से हुआ। यह सम्बन्ध बाबू गोपालचन्द्र के द्वारा स्थिर हुआ था। बाबू गोपालचन्द्र और बाबू कल्याणदास में परस्पर बड़ा स्नेह था। एक बार बाबू कल्याणदास ने अपना प्राण संकट में डाल कर बाबू गोपालचन्द्र को गंगाजी में डूबने से बचाया था। इस स्नेह के कारण दोनों आदमी एक दूसरे से पृथक् रहना नहीं सहन कर सकते थे।

1. लक्ष्मीदेई एक विदुषी कन्या थीं। इनका विवाह बाबू दामोदरदास बी.ए. के साथ हुआ था।

2. बाबू कल्याणदास की माता बाल्यावस्था में ही इन्हें छोड़कर परलोकगामिनी हुई। इनका लालन पालन इनकी चाची, बाबू बनवारीलाल की स्त्रील, ने बड़े यत्न और स्नेह के साथ किया। अपनी पहली भार्या की मृत्यु के पीछे बाबू श्यामबिहारीलाल ने दूसरा विवाह किया जिससे बाबू पुरुषोत्तामदास हुए जो हमारे चरित्रनायक के चचा और उनकी सम्पत्ति के प्रबन्धकर्ता हैं।

बाबू गोपालचन्द्र बाबू कल्याणदास से काशी में ही आकर रहने के लिए अनुरोध करने लगे। अन्त में ये काशी चले आए और चौखम्भे में बाबू गोपालचन्द्र ही के परिवार में सम्मिलित होकर रहने लगे। बाबू कल्याणदास के दो पुत्र और एक कन्या हुई। बड़े पुत्र का नाम जीवनदास और छोटे का राधाकृष्णदास हुआ। इन्हीं राधाकृष्णकेकृत्यों को हम अंकित करने बैठे हैं।

बाबू राधाकृष्णदास का जन्म संवत् 1922 श्रावण 15 (राखी पूर्णिमा) (सन्1865 ई.) को हुआ। जीवनारम्भ ही में परमात्मा ने इन्हें पिता के लालन पालन से वंचित कर दिया, उनके चरित्रभास को इनके जीवन पर से हटा दिया। जब ये दस महीने के थे और अपने पराए की पहचान ही आरम्भ कर रहे थे तभी इनके पिता बाबू कल्याणदास संवत् 1923 ज्येष्ठ शुक्ल ( मई 1866 ई.) को इस लोक से चल बसे। उस समय ये ही दोनों पुत्र अपनी माता के धैर्य के कारण हुए। किन्तु यह अवस्था भी स्थिर न रहने पाई। बड़े पुत्र जीवनदास ने भी पिता की मृत्यु के थोड़े ही दिन पीछे शीतला रोग से 10 वर्ष की अवस्था में इस संसार से मुँह फेर लिया। अब रह गए केवल बालक राधाकृष्ण्दास और उनका मुँह देखती हुई दुखिनी माता।

शिक्षा

ठीक इसी समय भारतेन्दु का प्रकाश फैल रहा था; भाषा रसिक लोग उसकी ओर झुक रहे थे और हिन्दी के लिए राह निकल रही थी। बाबू हरिश्चन्द्र के ये फुफेरे भाई थे। वे अपने सगे छोटे भाई ही के समान इन्हें मानते थे और प्यार से 'बच्चा' कह कर पुकारते थे। 1 इसी से काशी में अधिकांश लोग इन्हें 'बच्चा बाबू' कहते

1. पत्रों में भी वे इन्हें बच्चा ही सम्बोधन करके लिखते थे-जैसे-

(क) प्रिय बच्चा।

10 अगरवालों को उत्पत्ति भेज दीजिए।

हरिश्चन्द्र।

(ख) अज़ीज़ अज़ जान मन बच्चा बहादुर।

मेरे दिल के सदफ के वे बहादुर।।

बहुत ही जल्द भेजो नीलदेवी।

इसी दम चाहिए इक उसकी कापी।।

हरिश्चन्द्र।

(दे. पत्रबोधा)

(ग) बच्चा। 1. आज शाम को गोपाल बाबू को कुछ जरूर मिलेगा।

2. डाक में कोई खत आया हो तो भेज देना।

3. जो रुखसतनामा बाबू बालेश्वरप्रसाद को मिला है वही बाबू दामोदरदास को भी मिलेगा।

4. अलबम सब गाड़ी पर रखवा कर भिजवा दो। हरिश्चन्द्र।

थे। भारतेन्दुजी इनपर कैसा स्नेह रखते थे यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। सारा संसार जिसकी दया और प्रीति का पात्र था उसका भाव अपने पितृविहीन फुफेरे भाई के प्रति कैसा रहा होगा यह स्वयं समझने की बात है। बाबू हरिश्चन्द्र कौतूहलप्रिय मनुष्य थे, इससे ये बराबर उन्हीं के साथ रहते थे और उनकी एक एक बात को ध्यामनपूर्वक देखते थे। बाबू साहब भी एक न एक युक्ति लड़कों को प्रसन्न करने के लिए निकाला करते थे। इनकी शिक्षा की ओर बाबू हरिश्चन्द्र का बहुत ध्यानन रहा और इसके लिए वे निरन्तर यत्न करते रहे। किन्तु ये प्राय: रोगग्रस्त रहा करते थे। जहाँ दो एक महीने जमकर पढ़ते कि बीमार पड़ जाते और क्रम टूट जाता। उन दिनों शिक्षा के प्रचार में बाबू हरिश्चन्द्र और उनके छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र तन मन से लगे थे। अपने घर पर लड़कों को बुलाकर पढ़ाते थे। लड़कों को कुछ फीस नहीं देनी पड़ती थी। उनको पुस्तक और स्लेट आदि भी बिना मूल्य दी जाती थी। बाबू राधाकृष्ण की शिक्षा का आरम्भ यहीं से समझना चाहिए। इनका स्वास्थ्य इनकी पढ़ाई में बड़ा भारी बाधाक था। किन्तु विद्या की ओर इनकी स्वाभाविक अभिरुचि थी। इससे इस अशक्तता के रहते हुए भी ये उससे अधिक उन्नति करते गए जितनी साधारण बालक नियमित रूप से शिक्षा पाकर करते हैं। स्कूल में भरती होने पर भी इनका नम्बर सदैव अपने दरजे में अच्छा रहता था यह बात नीचे दिए हुए पत्र से स्पष्ट ज्ञात होती है जिसे बाबू दामोदरदास बी.ए.1 ने इन्हें लिखा था-

AJAIGARH

The 31st Dec. 1881

My Dear Radha Krishna,

I received your letter and was very glad to hear you stand second in order of merit in your class...

अर्थात्

अजयगढ़

31 दिसम्बर, 1881

"प्रिय राधाकृष्ण,

आपका पत्र मिला। मुझे यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप अपने दरजे में दोयम हुए हैं।... ... ..."

वे इनके लिखने पढ़ने की प्रवृत्ति और धारणा शक्ति की प्रशंसा एक और पत्र में इस प्रकार करते हैं-

 ये बाबू राधाकृष्णदास के बहनोई थे। उनकी बहिन लक्ष्मीदेवी का विवाह इनसे हुआ था। बाबू दामोदरदासजी भी बड़े उत्साही पुरुष थे। जब ये बनारस के लंडन मिशन कॉलेज में विज्ञान(Physical-Science) के अधयापक थे तब इन्होंने हिन्दी में विज्ञान विषय की एक पुस्तकमाला निकालने की तैयारी की थी पर शायद कोई नम्बर निकाल नहीं सके।

"अब हमको आपका पढ़ाना याद आता है। अगर आप से लड़के पढ़ाने को मिलते तो फिर क्या रहा? बिला तनखाह भी पढ़ाने को एक बार जी चाहता।" स्कूल में ये जो कुछ पढ़ते थे उसके अतिरिक्त बाबू हरिश्चन्द्र इन्हें बंगला आदि भी पढ़ाते थे। बाबू साहब की कन्या विद्यावती इनसे बहुत हिली मिली थी। ये लोग एक दूसरे को कभी कभी चिढ़ाया भी करते थे। इस कार्य के भी भारतेन्दुजी ही उत्तेनजक थे। उन्होंने इन लोगों को परस्पर चिढ़ाने के लिए दोहे बना दिए थे। बाबू राधाकृष्णदास विद्यावती को यह कहकर चिढ़ाते थे-

विद्या तुम्हारे नाम पै मूरखता की खानि।

पढ़त लिखत कछु नाहि तुम निज सरूप पहिचानि।।

विद्या विद्या नहिं पढ़ै तो झूठौ है नाम।

तासों तोहिं पढ़नो उचित छोड़ि और सब काम।।

सरस्वती की ह्नै बहिन विद्या नाम कहाइ।

पढ़ति नहीं खेलत फिरत नीचे ऊपर धाइ।।

विद्या तुम धूमिन भई खात बहुत हौ पान।

जात नहीं स्कूल को बात लेति नहिं मान।।

नाक बहत मैली रहत, झारत नाहीं बार।

इत ते उत दौरी फिरत, करत न कछू विचार।।

विद्यावती भी इन्हें यह कह कर चिढ़ाती-

कक्का तुम इतने बड़े ढोढक भये सयान।

पै कुछ भी अक्किल तुम्हें आई नहीं सुजान।।

हिन्दी की चिन्दी करी अंगरेजी की धूर।

लगे पढ़न अब फारसी, आयो कछु न सहूर।।

बाबू हरिश्चन्द्र प्राय: इन्हें अपने साथ रखते थे। कहते हैं कि जब ये दस वर्ष के थे तब एक दिन बाबू साहब के साथ उनके रामकटोरा बाग में गए थे। वहाँ लल्लू नाम का एक लड़का छत पर उछलता कूदता फिरता था। संयोग वश वह नीचे गिर गया। यह देख कर तुरन्त बालक राधाकृष्णदास ने यह दोहा कहा-

लल्लू से मल्लू भये, मल्लू चढ़े अटारि।

अटा कूदि नीचे गिरे, रोवत हाथ पसारि।।

इनकी ऑंखें लड़कपन ही से कमजोर थीं। अपनी इस अशक्तता के विषय में आप स्वयं एक उर्दू की चिट्ठी में खेद के साथ लिखते हैं-

"एक बड़ी भारी वजह जो मेरे लिखने पढ़ने व काम करने में हारिज है वह ऑंख है। ऑंखों की यह कैफियत है कि घंटे दो घंटे पढ़ने से दर्द होता है, पानी भर आता है और पढ़ने में बड़ी दिक्कत होती है। इसके सिवा कम रोशनी में हरूफ बिलकुल मालूम नहीं होते। ज्याद: गौर करके चीज को देखने से ऑंखों के सामने धुंध मालूम होता है। एक घंटा भी रात में पढ़ने से सर में दर्द होने लगता है और उस रोज रात भर और दूसरे रोज दिन भर कदरे बना रहता है। बस इस सबब से मैं न बखूबी पढ़ सकता हूँ न लिख सकता हूँ। क्योंकि काम का वक्त रात है। बस काम के नाम से डर लगता है। जब कि मेरी यह सूरत है तो क्योंकर कोई बड़ा काम अंजाम कर सकता हूँ?"

कहना नहीं होगा कि इन शारीरिक दुर्वव्य वस्थांओं के रहते भी इनके द्वारा अच्छे अच्छे काम होते ही गए। किन्तु वे इनकी इच्छा से कहीं कम थे। इसी से इन्हें कष्ट होता था।

विवाह

इनका विवाह 17-18 वर्ष की अवस्था में काशी के राजा दरवाजा मुहल्ले में बाबू बुलाकीदास की लड़की अर्थात् बाबू जगन्नाथ दुर्रानी (कलकत्ता) की भांजी से हुआ था जो थोड़े ही दिन इस संसार में रहीं।

इनका दूसरा विवाह पटना (मुहल्ला मारूगंज) निवासी बाबू लेखराज की कन्या अर्थात् वर्तमान बाबू रघुनन्दनप्रसाद और हरनन्दनप्रसाद की बहिन से हुआ।

मानसिक संस्कार, हिन्दी लिखने की ओर प्रवृत्ति

इनका उठना बैठना बाबू हरिश्चन्द्र ही के पास होता था। अत: एक प्रकार से इनकी शिक्षा हर घड़ी हुआ करती थी। विद्या ही की चर्चा इन्हें अधिक सुनने को मिलती थी। जिस भारतेन्दु की सभा में विद्वानों का सम्मान और उनके गुणों की परीक्षा होती थी उसमें ये भी जा बैठते थे। जहाँ देश की दुरवस्था पर शोक प्रकट किया जाता था; समाज की अधाम गति की आलोचना होती थी, हिन्दी की उन्नति के उपाय सोचे जाते थे वहाँ रह कर बालक राधाकृष्ण बूढ़ों के भी कान काटने लगे। भारतेन्दु के कारण बाल्यावस्था में इनका उठना बैठना अधिकतर अपने से वयोवृध्द लोगों में रहा इससे चंचलता और कौतूहल-प्रियता आदि बालोचित गुण इनमें धीमे पड़ गए। लड़कपन ही से ये बुङ्ढों की सी बातचीत करने लगे। इनकी अभिलाषाएँ साधारण बालकों की अभिलाषाओं से कुछ भिन्न होने लगीं। बड़े होने पर लोग जिन बातों में अपनी प्रशंसा कराना चाहते हैं ये छोटी अवस्था में ही उन बातों में अपनी प्रशंसा चाहने लगे। मेरी यह धारणा है कि इनकी यह प्रवृत्ति भी इनके विद्याध्यगयन में कुछ बाधाक हुई। ज्ञान-संचय के पीछे जिन कार्यों द्वारा लोग अच्छा नाम पैदा करते हैं उनकी ओर विद्याभ्यास की अवधि के भीतर ही ये लपकने लगे।

ज्यों ज्यों अवस्था बढ़ने लगी सर्वसाधारण-सम्बन्धी कार्यों की धूमधाम की ओर इनका मन खिंचने लगा, समाज की दशा पर शिक्षितों के प्रचलित विचारों की ओर इनका ध्यायन जाने लगा और साहित्य चर्चा इन्हें अच्छी लगने लगी। सबसे पहिले समाज की कुरीतियाँ इनके मन में खटकीं और उनके शोचनीय परिणामों से इनका कोमल चित्त व्यथित हुआ। 15 वर्ष की छोटी अवस्था में इन्होंने 'दु:खिनी बाला' नामक एक छोटा सा रूपक 'बाल्यविवाह विधवाविवाहनिषेधा और जन्मपत्र विवाह के अशुभ परिणाम' दिखाने को लिखा। यह पुस्तक पहिले-पहिल संवत् 1937 में बनारस के लाइट छापेखाने में छपी। इस पुस्तक के निकलने के पीछे लाला काशीनाथ खत्री ने 'बालविधवा संताप' लिखा जिसको देखकर इन्होंने एक लेख इसी विषय पर हरिश्चन्द्रचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका की भाद्रपद संवत् 1938 की संख्या में बड़े आवेग के साथ लिखा। उसका कुछ अंश नीचे उध्दृत किया जाताहै-

"विधवाविवाह न होने से जो कुछ समाज की हानि है और जैसा दुष्कर्म होता है और भारतवर्ष की जैसी अपकीर्ति है उसके वर्णन की कोई आवश्यकता नहीं है, आप लोग जानते ही हैं। अब इस बात का उद्योग करना हम लोगों का मुख्य कर्तव्यथ है कि यह अपकीर्ति देश से उठ जाय। यदि सच पूछिए तो यह है कि हम लोगों के जीवन को धिक्कार है कि हम लोगों के जीते ही हमारे यहाँ की विधवा स्त्रियाँ इतना दु:ख सहें और हम लोगों के इस मिथ्या धर्म को धिक्कार है जिसके कारण लाखों अबलाओं को यह सबल दु:ख भोगना पड़े। धिक्कार है उन पाखंडी ब्राह्मणों को जो ऐसे सत्कर्म नहीं होने देते और वृथा लाखों जीवों को सताते हैं। धिक्कार है उन पुराने लोगों की बुध्दि को जो कहते हैं कि 'जो बाप दादे करते रहे यों ही होइ है'। निदान यह कि हम लोगों की सभी वस्तुओं को धिक्कार है।"

इस लेख को देख कर लाला काशीनाथ खत्री बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने 'दु:खिनी बाला' को अपने लेख 'बालविधवा संताप' और 'विधवा विवाह कर्तव्य्धर्म है' के साथ छपाकर प्रकाशित करने की इच्छा प्रगट की।

एक 15-16 वर्ष के बालक का विधवाओं की व्यथा वर्णन करने बैठना स्वांग-सा मालूम होता है। कभी कभी लड़के गम्भीर आकृति बनाकर बड़ों के मुँह से सुनी हुई बातों की नकल करते हैं। यही बात यहाँ बाबू राधाकृष्ण्दास ने की है। जिन बातों को लेकर बाबू राधाकृष्णदास पहिले-पहिल लेखक के रूप में आए वे अनुभूत नहीं, अनुकृत थीं। इसी से इनकी आरम्भ की रचनाएँ अनुकरण मात्र हैं। उनमें इनके हृदय से उमड़े हुए नहीं बल्कि ऊपर से ओढ़े हुए भाव हैं। इसी सोलह वर्ष की छात्राावस्था में इन्होंने 'निस्सहाय हिन्दू' नाम का एक सामाजिक वियोगान्त उपन्यास भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के आज्ञानुसार लिखा जो कई वर्षों के अनन्तर सन् 1885 में 'भारतोदय' में प्रकाशित हुआ और 1890 में पुस्तकाकार छपा। इसके निवेदन में आप स्वयं लिखते हैं-'मेरी अवस्था अभी केवल सोलह वर्ष की है और इस अवस्था के लोग बालक कहे जाते हैं, इसीलिए यह लेख भी बालक है'। 'स्वर्णलता' और 'रामेश्वर का अदृष्ट' के अनुवाद भी इसी झोंक में इनकी लेखनी से निकले।

इनके इन विचारों की तरह तरह की आलोचनाएँ लोग करने लगे। बहुत लोगों ने तो इन्हें दयानन्दी कहना आरम्भ कर दिया। पंडित राधाचरण गोस्वामी ने 17 सितम्बर, सन् 1887 में 'विदेश यात्रा' नामक एक लेख पर इनसे सम्मति माँगी। उसकी आपने आलोचना लिख कर भेजी। उसे देख कर गोस्वामीजी ने इनको लिखा-'विदेश यात्रा विचार' की जो समालोचना आपने लिखी है उसमें एक बात पर मुझे बड़ी हँसी आई। उसमें दयानन्दी बू आती है।' हरिश्चन्द्र की बड़ी जीवनी के लेखक ने भी इनके विषय में लिखा है कि पहिले कुछ दिनों तक ये आर्यसमाजी रहे, पीछे से सँभल गए। पर इसका कोई भी प्रमाण नहीं मिलता। इनके उस समय के किसी कथन व आचरण में उस मत के सिध्दान्तों का आभास नहीं मिलता। 'दु:खिनी बाला' सन् 1881 में निकली। इसके पीछे सन् 1884 ही में ये तीर्थयात्रा के निमित्ता निकले और बड़े भक्ति-भाव से सब देव-स्थानों का इन्होंने दर्शन किया। यदि कहा जाय कि सम्भव है कि 3 वर्षों में इन्होंने अपने सिध्दान्त बदल डाले हों तो पंडित राधाचरण गोस्वामी का 1887 का पत्र इस अनुमान में बाधा डालता है। इसके अतिरिक्त इनके उस समय के अनेक पद और कवित्ता आदि मिलते हैं जिनसे राधा और कृष्ण के प्रति इनकी भक्ति और प्रीति टपकी पड़ती है। अत: इनका आर्य समाज की ओर झुकना किसी प्रकार से सिध्द नहीं होता। विधवा विवाह को अच्छा कहने और बाल्य विवाह को बुरा कहने ही से कोई आर्यसमाजी नहीं कहा जा सकता। यह बात वास्तव में उन लोगों के पेट से निकली जो किसी को खड़े खड़े पानी पीते देखकर कहने लगते हैं कि यह कृस्तान हो गया।

पुस्तक रचना में बाधा

उस समय भारतेन्दु उस धन को जिसने उनके पूर्वजों को खाया था खा चुके थे। उनके हिस्से की सारी पैतृक सम्पत्ति सड़ चुकी थी। अर्थोपासकों की मंडली से उन्हें 'नालायक' की पदवी भी मिल चुकी थी। उनके छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्रजी बड़ों का नाम निशान रखने के लिए जी जान से लगे हुए थे। बाबू राधाकृष्ण पर दोनों भाइयों की समान दृष्टि रहती थी। इधर बाबू हरिश्चन्द्र चाहते कि इन्हें अपने रंग में रंगे और हाथ में कलम देकर सांसारिक झंझटों से न्यारे कर दें और उधार उनके छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्रजी इस चेष्टा में रहते कि इन्हें संसार में अपने पैरों के बल खड़े होने के योग्य बना दें। स्वभावत: बाबू गोकुलचन्द्रजी की ओर सारा परिवार और इष्ट-मित्र-समुदाय था इससे उनका बल इन पर अधिक था। वे सदा इन पर कड़ी दृष्टि रखते कि ये लेखनी हाथ में न लेने पावें। अपने पास बिठा कर वे व्यवसाय की ओर इनका मन ले जाते थे और उसके दाँव-पेंच इन्हें बतलाते थे। जब बाबू गोकुलचन्द्र ने देखा कि उनकी बातें इनके मन में कुछ धँसने लगी तब वे इन्हें चिढ़ाने भी लगे। कभी कभी ऐसा होता कि बाबू गोकुलचन्द्र तथा दो चार और आदमी बैठे हैं और ये वहाँ पहुँच गए। उस समय बाबू साहब इनसे पूछते-'क्यों बच्चा बाबू। दु:खिनी बाला और स्वर्णलता न लिखी जायगी।' ये सुनकर कुछ न बोलते और मुँह लटका कर चले जाते। इससे यह न समझिए कि लिखने की ओर से इनका मन हट गया। बात यह हुई कि बाबू गोकुलचन्द्र की बातों पर भी ये इतना अधिक ध्याेन देने लगे कि उन्हें कुछ कहने सुनने की जगह न रही। लिखने की ओर तो इनकी प्रवृत्ति हो ही चुकी थी। पहरा चौकी रहने पर भी ये कुछ न कुछ लिख ही डालते थे, पर उनकी दृष्टि बचा कर। कभी रात को उठ कर लिखते कभी कहीं बाहर जाकर। एक दिन एक रूई का बोरा रक्खा हुआ था और आप उसी की आड़ में कलम चला रहे थे। इतने में बाबू गोकुलचन्द्र पहुँच गए और ये पकड़े गए। इस रोक टोक और शिक्षा का आगे चलकर इनके जीवन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। साहित्यसेवा का गौरव भी इनके हृदय में समाया और द्रव्य का माहात्म्य भी इन पर प्रकट रहा। ये दोनों ओर दो रूपों से ढल पड़े। एक बाबू राधाकृष्णदास के दो बाबू राधाकृष्ण हो गए। एक तो साहित्य सेवा में तत्पर राधाकृष्णदास, दूसरे व्यवसाय में लिप्त राधाकृष्णदास। लेख और पुस्तकें लिखने में इनके आदर्श हुए बाबू हरिश्चन्द्र और सांसारिक व्यवहार में बाबू गोकुलचन्द्र।

इतिहास की ओर रुचि

भारतेन्दु की आभा इनके हृदय पर पूरी-पूरी पड़ी। जातीयता की ज्योति इनके हृदय में जगमगाने लगी, प्राचीन भारतवर्ष का गौरव इन्हें स्मरण आने लगा, पृथ्वीराज, बाप्पा रावल, महाराणी पर्ािंवती आदि का समय प्रत्यक्ष करने के लिए इनका मन यत्न करने लगा। सोमनाथ का टूटना, मथुरा का लूटा जाना, थानेसर का युध्द, ये सब घटनाएँ एक-एक करके इनकी ऑंखों के सामने फिरने लगीं। हिन्दू जाति के सहस्रों वर्ष पूर्व दिखलाए हुए पराक्रम पर आनन्द और सहे हुए अपमान पर क्रोध और ग्लानि ये अनुभव करने लगे। कभी ये महाराणी पद्मावती आदि वीर क्षत्राणियों के कृत्य को स्मरण कर पुलकित और उत्तोजित होते और गाते-

धानि धानि भारत की छत्रानी।

वीर कन्यका, वीरप्रसविनी, वीरबधू जगजानी।

सती शिरोमणि, धर्म धुरन्धर, बुधि बल धीरज खानी।

इनके यश की तिहूँ लोक में अमल ध्वणजा फहरानी।।

कभी ये पृथ्वीराज-पराजय और चित्तौर-धवंस आदि का स्मरण कर शोक और ग्लानि से परिपूर्ण होते और कहते-

हाय पंचनद! हाय पानीपत!

अजहुँ रहे तुम धारनि विराजत!!

हाय चित्तौर निलज तू भारी।

अजहुँ खरो भारतहि मझारी।।

जा दिन तुव अधिकार नसायो।

ता दिन क्यों नहि धारनि समायो।।

हिन्दी में उन दिनों कोई अच्छा इतिहास न था विशेष कर ऐसा जिसमें हिन्दुओं की धीरता औरर् कर्तव्यारक्षा आदि का यथार्थ रीति से वर्णन हो। यह बात बाबू राधाकृष्ण को 16-17 वर्ष की अवस्था ही में खटकी। 'आर्यचरितामृत' के नाम इन्होंने प्राचीन पुरुषों का जीवनचरित्र क्रम से निकालना चाहा और बाप्पारावल का चरित्र निकाला भी। उसके उपक्रम में आपने लिखा है,-'हमारे यहाँ क्रम पूर्वक इतिहास नहीं है। इससे हमारे देश की कैसी कुछ हानि होती है। जो कोई नए इतिहास मिलते भी हैं सो मुसलमानों के समय के जिन्होंने मुसलमानों की स्तुति और हिन्दुओं को गाली प्रदान की कसम खाई है। सम्प्रति जितने इतिहास प्रचलित हैं उनकी प्राय: यही दशा है। उन्हें पढ़ कर सुकुमार-मति बालकों के हृदय में ऐसा संस्कार जम जाता है कि वे अपने को तुच्छ और सदा गुलाम समझने लगते हैं।... ... महात्मा टाड ने इस अभाव को दूर करने के लिए बड़ा परिश्रम करके 'राजस्थान' बनाया। इसका अनुवाद बंगला इत्यादि कई एक भाषाओं में हुआ किन्तु दु:ख का विषय है कि अभागिनी हिन्दी में उसका अनुवाद किसी 'माई के लाल' ने न किया। सन् 1882 में इन्होंने 'टाड राजस्थान' का हिन्दी अनुवाद करने को विचार किया। 'भारत मित्र कार्यालय' ने उसके छापने और प्रकाशित करने का भार अपने ऊपर लिया और इस विषय का एक विज्ञापन 'भारत मित्र' में प्रकाशित किया। इस विज्ञापन को देख कर क्षत्रिय पत्रिका वा खड्गविलास प्रेस के अधयक्ष को खलबली पड़ी और उन्होंने चटपट अपने धार्मानुसार इस कार्य में बाधा डाली। ता. 10 फरवरी 1882 को बाबू राधाकृष्ण के पास 'भारत मित्र' सम्पादक का यह पत्र आया:-

भारतमित्र कार्यालय

60 नं. क्रास स्ट्रीट, कलकत्ता।

यथा विहित सम्मानपुरस्सर निवेदनमिदं

'राजस्थान' का विज्ञापन भारत मित्र में देख कर क्षत्रिय पत्रिका के अधयक्ष ने इस विषय का एक पत्र हमको लिखा कि उन्होंने 'टाड्स राजस्थान' का अनुवाद अपने पत्र के लिए कराया है और उस काम में उनके 1000 रुपए खर्च हो चुके हैं अब यदि हम लोग इसको पुस्तकाकार छापेंगे तो उनका सब परिश्रम और रुपया व्यर्थ जायगा। बल्कि हम लोग इस ग्रन्थ को न छापें इसके लिए उन्होंने बहुत अनुरोध भी किया है। उनके कई पत्र खेदपूर्ण आए जिनको देख कर हम लोगों ने इस पुस्तक के छापने का उद्देश्य छोड़ दिया। जिस तरह हो पुस्तक हिन्दी में छपनी चाहिए और जब एक आदमी पहिले से इसमें प्रयत्न करता है और रुपए भी खर्च चुका तब उनको निराश करना हम लोगों ने उचित नहीं समझा। आपने जो इस कार्य में हमारे लिए परिश्रम किया और हम लोगों को उत्साह प्रदान किया उसके लिए हम आपको बहुत धन्यवाद देते हैं।

... ग्राहक श्रेणी प्राय: 200 के अंदाज हो गई थी, परन्तु ऊपर लिखे हुए सबब से 'राजस्थान' के छापने का प्रयत्न छोड़ दिया।

कलकत्ता

आपका अनुग्रहाकांक्षी

10-2-82 छोटूलाल मिश्र

17 या 18 वर्ष ही की अवस्था में इन्होंने 'महारानी पर्वती' नामक ऐतिहासिक रूपक लिखा।

इनकी यह ऐतिहासिक रुचि जीवनपर्यन्त बनी रही। ये बराबर ऐतिहासिक छानबीन में लगे रहे। इस बात में इन्हें बाबू हरिश्चन्द्र के सरस्वती भांडार से, जिसमें प्राचीन पुस्तकों का बहुत अच्छा संग्रह है, बहुत कुछ सहायता मिली। वैष्णव कवियों के विषय में इन्हें बहुत जानकारी हो गई। इनकी रची पुस्तकों में से अधिकांश इतिहास तथा पुराने कवियों और महात्माओं के जीवनचरित सम्बन्धी हैं। इनको इन्होंने बड़ी खोज और सावधनी के साथ लिखा है।

धर्म सम्बन्धी संस्कार

अपने हिन्दू धर्म पर इन्हें आरम्भ से ही अटल श्रध्दा थी। उसकी शोचनीय अवस्था देख कर ये 17 वर्ष की अवस्था ही से दु:खी रहा करते थे। अन्धापरम्परा के लिए पुरानों को कोसते और उदासीनता के लिए नवीनों को धिक्कारते थे। एक लेख 'हिन्दू धर्म की अवनति का कारण और उन्नति का सीधा उपाय' इन्होंने बड़ा लम्बा-चौड़ा और बड़ी धूमधाम से लिखा जो 'सारसुधानिधि' के दो अंकों (24 और 31 जुलाई1882) में प्रकाशित हुआ।

इसमें इन्होंने हिन्दू धर्म की घटती पर बड़ा विषाद किया है, ईसाइयों द्वारा जो धर्म की हानि होती है उसका उल्लेख करते हुए धर्मसम्बन्धी शिक्षा की आवश्यकता बतलाई है और हिन्दू धर्म की रक्षा के मुख्य उपाय स्थिर किए हैं। इन उपायों में से कुछ ये हैं:-

(1) जो हिन्दू जाति भ्रष्ट हो जाय वह प्रायश्चित करा के फिर हिन्दू किया जाय। चाहे उन लोगों की जाति ही दूसरी बना दी जाय चाहे वे फिर अपनी जाति में हो जायँ-चाहे जो हो हिन्दू कहलाएँ।

(2) पाठशाला नियत हो जिसमें अंगरेजी संस्कृत पढ़ाई जाय।

(3) ईसाइयों की पुस्तकों के खंडन और (अपने) धर्म के मण्डन की पुस्तक छापी जायँ और अत्यन्त सस्ती पैसे पैसे धोले धोले बेची जायँ।

(4) दस-बीस ब्राह्मण पंडित विद्वान् लोग नौकर रखे जायँ जो पादरियों की तरह घूम घूम कर व्याख्यान दें और पादरियों से वाद विवाद करें।

(5) धर्मशाला बनाई जायँ जिनमें दरिद्र लोग रखें और पढ़ाए जायँ।

(6) एक बाला पाठशाला नियत हो जिसमें लड़कियों की धर्म शिक्षा हो और उन्हें सीना पिरोना आदि गृहस्थी के काम सिखाए जायँ।

(7) एक मासिक, पाक्षिक व साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुआ करे जिसमें धर्म विषयक प्रस्ताव और ईसाइयों आदि का खंडन भी छपा करे।

(8) इन सब बातों के प्रबन्ध के लिए सभा होनी चाहिए।

(9) इन सभाओं में धर्म सम्बन्धी सब बातें हों, मतों का विवाद ही न हो।

(10) एक मूल सभा किसी नगर में नियत की जाय और उसकी शाखा सभाएँ सारे भारतवर्ष में हों।

इन बातों को पढ़ते समय पाठकों को ध्याकन रखना चाहिए कि उस समय तक 'भारत धर्म महामंडल' का आडम्बर नहीं खड़ा हुआ था। ईसाइयों के खंडन की गली गली धूम थी। इतनी छोटी अवस्था में जबकि प्राय: लोग अपना समय हँसी ठट्ठे में बिताते हैं इनका धर्म की चिन्ता में लीन होना अवश्य ध्यालन देने योग्य है।

धर्म में इनकी पूरी निष्ठा थी। ये पूरे भगवभक्त थे। पर ये आडम्बरप्रिय और दुराग्रही न थे। यथार्थ में ईश्वर की भक्ति को ही ये मुख्य समझते थे। मत मतान्तरों का झगड़ा इन्हें पसन्द न था। 20 वर्ष की अवस्था में (संवत् 1942 में) इन्होंने 'धर्म्मालाप' के नाम से भारतीय नाना धर्मों का वार्तालाप कराया जिसके अन्त में एक प्रेमी भक्त के मुख से अपने हृदय की बात इस प्रकार कहलाई-

'हमको तो यह सब बखेड़ा ही सा प्रतीत हुआ। हमारी समझ में तो जाति पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।' व्यर्थ सब सिर फोड़ते हैं।

नाहिं इन झगरन में कुछ सार।

क्यों लरि लरि के मरो बावरे बादन फोरि कपार।

कोइ पायो कै तुमहीं पैहो सो भाखौ निरधार।

हरीचंद इन सब झगरन सों बाहर है वह यार।

प्यारे भाइयो! इन सब बखेड़ों को छोड़ो। जरा शान्त भाव धारण करो। भगवान् के श्री चरणों में चित्त लगाओ।

ऊँचे भुज करि टेरि कै, कहत पुकारि पुकारि।

बिनु हरि काम न आइहै, कछू धर्म धन नारि।।

इसी समय के लगभग इन्होंने 'स्वर्ग की सैर' के नाम से एक स्वप्न लिखा। उसमें भी आपने मत मतान्तरों के दुराग्रह की अच्छी धूल उड़ाई।

राम और कृष्ण के प्रति इनका प्रेम भाव बहुत बढ़ा चढ़ा था। उनके विषय में कोई बात सुनते तो ये तुरन्त प्रेम से गद्गद् हो जाते। काशी में नाटी इमली एक स्थान है जहाँ प्रतिवर्ष रामलीला होती है। यहाँ का भरत मिलाप प्रसिध्द है। बड़ी भीड़ होती है। सारी काशी उलट पड़ती है। ये भी देखने जाते थे। 19 अक्टूबर, सन् 1885 के दिन वहाँ राम और भरत का प्रेम से मिलना देख कर आप लिखते हैं-'कहते हैं कि आज के दिन साक्षात् पूर्ण परब्रह्म राम की छाया पड़ जाती है। चाहे नेत्राविकार ही सही, चाहे पुराने ख्यालात की बीमारी ही सही, चाहे और कोई कारण सही, पर कोई विशेष बात अवश्य है।'

ये जब तक इस संसार में रहे धर्म का ध्याअन बराबर बनाए रहे, अपने चित्तकी बराबर चौकसी करते रहे कि वह इधर उधर भटकने न पावे। इनका नियम था कि वर्ष की समाप्ति पर उस वर्ष के अपने समस्त सांसारिक कार्यों और उलटफेरोंकी आलोचना करते और साथ ही इस बात का भी लेखा लगाते कि धर्मभाव में घटती हुई कि बढ़ती। दीक्षा आपने वल्लभाचार्य के मतानुकूल वैष्णव धर्म की ली थी।

शृंगार रस की ओर प्रवृत्ति

बाबू हरिश्चन्द्र ऐसे प्रेमरस मग्न मनुष्य के पास रहने पर भी यदि उस रस का संचार इनके हृदय में न होता तो आश्चर्य ही था। 16-17 वर्ष की अवस्था ही से प्रेम की रंगत भी इन पर चढ़ने लगी, शृंगार रस की कविता का भी चसका इन्हें लगा। 'कविवचनसुधा' में इनके चुहचुहाते फुटकर पद, दोहे, कवित्ता और सवैये, प्रकाशित होने लगे दो एक नमूने लीजिए-

दोहा

लागे पै मानत न कछु, करहु जु लाख उपाय।

इत उत चितवैं नहिं तनिक, नैन निगोरे हाय।।

मन सों मन अरु हार सों, हार उरझि रहि देह।

धानि उरझनि यह प्रेम की, धान्य धान्य यह नेह।।

रात जगी संग लाल के, भै दृग दोऊ लाल।

मानहुँ होन प्रभात सों, भई क्रुध्द अति बाल।।

(कविवचनसुधा 1882)

बिरह पलेटयो तन दसा, मन गतिहू बदलानि।

निज प्रतिबिंबहिं लखि चकित, दूजी तिय जिय जानि।

प्रेम पंथ कछु और, प्रीतम बिछुरे सुख बढ़ै।

प्रिय लखात सब ठौर, भेंटे इक प्रिय भेंटहीं।।

(अप्रकाशित)

'राधा' और 'कृष्ण' के दास तो ये हो ही गए थे। फिर उनकी लीला वर्णन करने से ये क्यों चूकने लगे। पावस ऋतु में राधा और कृष्ण एक साथ बैठे झूला झूल रहे हैं। उसकी शोभा आप यों कहते हैं-

कवित्ता

झीनी झीनी बूंदनि परति, बड़ी सोभा अति चमकि विज्जु जिय डरपावै है।

लाल मखमली बीरबहू भूमि डोलैं मानों बूँद अनुराग नेह मेह बरसावै है।

भरे अनुराग बैठे प्यारे प्यारी झूले माहिं, सखी जन गावत बजावत झुलावै हैं।

दास देखि सोभा यह भूलि जात दु:ख सबै प्यारी जू डरति, प्यारो अंग लपटावैहै।।

(कविवचन सुधा 1882)

वर्षा की रात्रि में चन्द्रमा के बादलों से छिपने और मेह के बरसने पर बालक राधाकृष्णदास ने कैसी उक्ति बँधी है, देखिए और आश्चर्य कीजिए-

देखि लाड़िली की दसा, चन्दा गयो लुभाय।

बदरी में मुँह ढाँकि के, नीर बहावत हाय।।

यदि यह भाव कहीं और से लिया गया हो तो बात दूसरी है। एक सखी दूसरे को चौथ का चन्द्रमा देखने से रोकती है, इस पर वह कहती है-

हमारो चौथ चन्दा का करिहै?

श्री ब्रजचन्द चन्दमुख प्रेमी औरन सों का डरिहै।

कुलबोरनि सब कहत गाँव में और नाम का धारिहै?

'दास' कलंकहु हम प्रेमिन के ढिग आवत थरहरिहै।

(अप्रकाशित)

समस्यापूर्ति भी आप इसी छोटी अवस्था में बहुत अच्छी करते थे। 'मंद करै चंदहि अमंद दुति प्यारी को' देखिए इसकी कैसी अच्छी पूर्ति इन्होंने की थी-

'जनम लियो है ब्रज प्रेमसुधासागर, वह वापुरो मयंक प्रगटयो है जल खारी को।

घटत बढ़त तेजहीन तेजमान होत, बाढ़ै दिन दूनो तेज कीरति कुमारी को।।

वह सकलंक 'दास' दुखद चकोर, यह मेटत कलंक भव पोषत बिहारी को।

घन में छिपत, यह घनश्याम संग सदा मंद करै चन्दहि अमंद दुति प्यारी को।।

सामयिक विषयों पर लेख

सन् 1882 ही से इनके लेख समाचार पत्रों में निकलने लगे। पहिले कविवचन सुधा ही में इन्होंने लिखना आरम्भ किया। इसके उपरान्त बराबर 'सारसुधानिधि' 'भारत मित्र' 'उचितवक्ता, ' 'भारतबन्धुर,' 'भारतोदय' आदि संवादपत्रों में ये बराबर लिखते रहे।

30 मई, 1881 के कविवचनसुधा में अपने अपने राज्य की पृथक् पृथक् उपाधि प्रचलित करने के लिए इन्होंने 'भारतवर्षीय राजा महाराजाओं के प्रति सविनय निवेदन' किया और उसके लाभ बतलाए। उसी वर्ष 'सारसुधानिधि' में गोरक्षा के ऊपर भी कई लेख लिखे जिनका फल यह हुआ कि पंडित राममिश्र शास्त्रीा ने 'ब्रह्मामृतवर्षिणी सभा' में इस विषय का प्रस्ताव किया। बाबू हरिश्चन्द्रजी भी उस सभा में सम्मिलित थे। बहुत कुछ चन्दा हुआ। इसके अनन्तर पंडित राममिश्र शास्त्रीर गोरक्षिणी सभाएँ स्थापित करने के अभिप्राय से लखनऊ, बरेली, आगरा और मथुरा आदि कई नगरों में गए।

सन् 1882 तक तो इनके न जाने कितने ही लेख प्रकाशित हो चुके थे और ये उस समय हिन्दी के अच्छे लेखकों में गिने जाते थे। 16 जनवरी, 1882 के 'सारसुधानिधि' में इन्होंने 'हिन्दी भाषा के पत्र' शीर्षक एक लेख लिखा जिसमें उस पत्र की प्रशंसा इस प्रकार की, 'सम्प्रति हिन्दी भाषा में कई पत्र निकलने लगे हैं, पर उनमें से थोड़े ही तो अच्छे हैं और सब तो बस नाम के हैं। हिन्दी पत्रों में ऐसा एक ही पत्र है जो शुध्द हिन्दी में छपता है। इस पत्र का नाम 'सारसुधानिधि' है।' इस पर 26 जनवरी, 1882 के भारत मित्र में अलमोड़ा निवासी तारादत्ता ज्योतिर्विद ने बिगड़ कर एक चिट्ठी छपवाई जिसमें उन्होंने इन पर आक्षेप करते हुए 'सारसुधानिधि' के उसी नम्बर में व्याकरण सम्बन्धी कई भूलें बतलाई। ज्योतिर्विद के उत्तर में काशी के किसी महाशय ने फिर 4 फरवरी, 1882 के 'उचितवक्ता' में एक पत्र छपाया जिसमें और बातों के अतिरिक्त उन्होंने बाबू राधाकृष्णदास के विषय में लिखा कि 'हम लोगों ने बाबू राधाकृष्णदासजी के सैकड़ों लेख देखे परन्तु आश्चर्य नहीं कि तारादत्ता जी को घर बैठे ज्योतिष की गणना में अथवा स्वप्न में कोई भूल दिखाई दी हो।'

23 जनवरी, 1882 के 'सारसुधानिधि' में इन्होंने 'बनारसी गप की बानगी' अच्छी दिखलाई है।

बाबू हरिश्चन्द्र के सुयश सौरभ के प्रसार का इनको बड़ा ध्या न रहता था। उनकी कीर्तिकौमुदी को संसार के सम्मुख प्रत्यक्ष करने में ये निरन्तर लगे रहते थे। वास्तव में यदि ये उदयकाल ही से वायु के समान चंचल होकर समय समय पर भ्रम रूपी मेघों को न छाँटते रहते तो भारतेन्दु की शीतल किरणें बहुतेरे अन्धाकारमग्न हृदयों में न पहुँचती। यदि यह सच्चा परखने वाला न होता तो आज हम उस नर रत्न के बहुत से अलौकिक गुणों को न जान सकते। सन् 1882 में भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में जितनी लड़कियाँ अंगरेजी की परीक्षाओं में उत्तीखर्ण हुई थीं सबको शिक्षा विभाग द्वारा बाबू हरिश्चन्द्र ने साड़ियाँ दी थीं। कलकत्तो में बिथून कॉलेज की लड़कियों को लेडी रिपन ने अपने हाथ से उन साड़ियों को बाँटा था। कलकत्तो के अंगरेजी, बंगला और हिन्दी पत्रों ने जब इस प्रशंसनीय कार्य का उल्लेख और वर्णन न किया तब ये आकुल हो उठे और तुरन्त 30 मार्च, (1882) के भारत मित्र में इस विषय पर एक लेख भेजा जिसके अन्त में इन्होंने क्षोभ के साथ लिखा-हमको महान् आश्चर्य है कि कलकत्तो के हिन्दी अंगरेजी और बंगला अखबारवालों ने इस प्रसिध्द महात्मा के इस देशोपकारक कार्य का सविस्तार वर्णन अभी तक न लिखा।

नगर में जहाँ कहीं कोई सभा समाज होता वहाँ बाबू राधाकृष्णदास अवश्य पहुँचते और उसकी कार्रवाइयों की सूचना संवादपत्रों में लिख कर भेजते। काशी में जब आशु कवि पण्डित गोवर्धानलाल आए थे और अपनी छन्दरचनाशक्ति का अद्भुत चमत्कार उन्होंने दिखलाया था तब इन्होंने भारतवर्ष के गुणों की प्रशंसा करते हुए इसका सविस्तार विवरण 'सारसुधानिधि' में लिख कर भेजा था। कानपुर में पंडित प्रतापनारायण मिश्र ने जब अपने स्थापित नाटयसमाज द्वारा 15 अप्रैल, 1882 को 'नीलदेवी' और 'अन्धोर नगरी' का अभिनय किया था तब ये बड़े ही आधादित हुए थे और 'कविवचन सुधा' में पंडित प्रतापनारायण मिश्र के उद्योग की बड़ी प्रशंसा इन्होंने की थी।

उस समय इन प्रान्तों में कोई अच्छा अंगरेजी पत्र न था जो पक्षपातरहित होकर प्रजा की बात कहता हो। बाबू राधाकृष्णदास को यह बात खटकी और उन्होंने 29 मई, 1882 के 'सारसुधानिधि' में एक अंगरेजी पत्र की आवश्यकता दिखलाई और लिखा कि 'मेरी क्षुद्र बुध्दि में आता है कि एक अंगरेजी पत्र ऐसा हो जो हिन्दी पत्रों के लेखों का अनुवाद निकाला करें। बाबू रामकृष्ण वर्मा ने इस प्रस्ताव पर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और समय समय पर 'हिन्दू पैट्रिएट' में हिन्दी लेखों का अनुवाद देने का संकल्प किया।

राज्यप्रबन्ध आदि की ओर भी इनका ध्या न उस समय जा चुका था। 9 नवम्बर, 1882 के भारतमित्र में इन्होंने 'पुलिस कमीशन' बिठाने के लिए बड़ी योग्यता से लिखा जिसकी चर्चा कई महीनों तक पत्रों में रही।

31 मार्च, सन् 1883 के 'उचितवक्ता' में इन्होंने लिखा 'होली है'। यह बड़ी दिल्लगी का लेख है। इसका कुछ अंश नीचे उध्दृत किया जाता है-

'अहा हा! आज होली है। नहीं, नहीं, भारत की भिक्षा की झोली है। यह लाल लाल क्या उड़ रहा है? अजी हज़रत! गुलाल। यहाँ कभी लोग ऐसे थे कि थोड़ी थोड़ी बातों पर खून बहाते थे। फिर आप समझिए कि हमारे हिन्दुस्तानी लोगों की तो यह सदैव की चाल है कि बड़े लोगों की नकष्ल करना........। पर उतना पराक्रम कहाँ कि किसी विदेशी शत्रु से लड़कर खून बहावें? तब आपस में ही सही। पर भाई उसमें चोट चपेट लगती है; कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि चोट भी न लगे और बड़ों की चाल भी निभी जाय। तब गुलाल और लाल रंग निकाला गया।......। भाई, हम लोग तो अंगरेजों के भी गुरु हैं। अंगरेज लोग कहते हैं कि आदमी बन्दर की औलाद हैं। हम कहते हैं नहीं हम लोग स्वयं बन्दर हैं। विश्वास न हो तो हिन्दुस्तानियों का मुँह आज देख लो।.....भला ये कौन लोग हैं जो बड़ी सभ्यता से होली खेल रहे हैं? ये हिन्दी पत्र हैं। पर भाई ये लोग गाली तो नहीं बकते। वाह! वाह! गाली तो ऐसी बकते हैं जैसी कोई नहीं बकता। हिन्दुस्तानियों को अपनी उन्नति करने को कहते हैं! यह गालियों की परदादी है।'

आगे चल कर ताश के रंगों को लेकर विचित्र वाक्य रचना की है-'भाई आज 'ताशबादला' न पहिनना। सच पूछो तो आजकल 'बादशाहों' की बड़ी खराबी है, पर 'बीबियों' ने तो हर तरफ से 'रंगमार' रखा है। दाल की मंडी के कारण घर के 'गुलामों' को चैन है। अजी होली ऐसी मचाओ कि लोगों को 'दहला' दो, रंग इतना उड़ाओ कि सबको 'नहला' दो। खेल में ऐसी धूम मचाओ कि शरीर से 'सत्ता' जाती रहे और लोग 'छक्का पंजा' सब भूल जायँ। थोड़ी-सी अबीर लेकर मुँह में 'चौका' लगा दो। आजकल तो जो फल 'तिया' के जपने में है वह किसी फ़कीर की 'दुआ' में जरा भी नहीं। 'एक्का' पर चढ़ कर बहरी तरफ़ जाने और बूटी छानने में ही दुनिया का मजा है।

तीर्थयात्रा

अगस्त 1884 में तीर्थयात्रा की तैयारी हुई। बाबू हरिश्चन्द्र के परिवार के लोग तथा और कई सज्जन सकुटुम्ब हमारे चरित्रनायक के साथ हुए। बड़े आनन्द के साथ यात्रा आरम्भ हुई। पहिले ब्रजभूमि ही के दर्शन की सबको उत्कण्ठा थी। 'राधा' और 'कृष्ण' के दास हमारे चरित्रनायक के आनन्द का क्या कहना है। 26 अगस्त, सन् 1884 को संध्यार के समय सब लोग मथुरा पहुँचे। पहुँचते ही मालूम हुआ कि विश्रामघाट पर आरती का समय है। अब भला ये कब मानने वाले थे। सबको लिए दिए उसी समय वे वहाँ जा पहुँचे और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन करके तब इन्होंने दूसरा काम किया। मथुरा में कई दिन रहे। वहाँ के प्रत्येक प्रसिध्द मन्दिर और दर्शनीय स्थान का निरीक्षण किया। जिस स्थान पर गए उसका ऐतिहासिक वृत्ता भी कुछ जाना। वृन्दावन की शोभा पर मुग्ध होकर आप लिखते हैं 'यह स्थान बड़ा ही रम्य और श्रध्दा उत्पादक है'। कृष्ण के लीलास्थलों के दर्शन से इनके हृदय में अनेक भाव उत्पन्न होते। बरसाने में 'मानगढ़' नामक मन्दिर में पहुँच राधा की मानिनी मूर्ति पर इन्होंने यह पद बनाया-

हौं बलि जाउँ मानिनी छवि पर।

बैठी भौंह चढ़ाय रिस भरी गोल कपोलनि कर धार।

नैन बंद, अलकावलि छूटी, अंचल पट खसक्यो सर।

लाल मनावत मानहिं रहि गये धारि के प्यारी के पग पैकर।

विह्नल देखि प्राण प्रीतम को मिली मान तजि प्यारे के गर।

बरनि सकै या छविहि 'दास' जो जग में ऐसा नाहिनकोउनर।।

बरसाने में लाड़िली जी के मन्दिर में पहुँच कर यह पद बनाया-

लाड़िली ऐसी मति मोहिं दीजै।

चरन छोड़ि नहिं जाउँ अनत कहुँ सरन आपनी दीजै।

नित उठि दरस करूँ पिय प्यारी, हृदय पखान पसीजै।

इतनी अरज 'दास' की सुनिए निज जन कृपा करीजै।।

मथुरा से फिर श्रीनाथद्वार की तैयारी हुई। यहाँ श्रीनाथजी की प्रसिध्द मूर्ति है जिसको औरंगज़ेब के उपद्रव के कारण गो. विट्ठलदास के पौत्रा दामोदरजी मथुरा से लाए थे। यहाँ पर श्रीनाथजी का बड़ा भारी वैभव है। लाखों रुपए वार्षिक भोग राग में व्यय होते हैं। वल्लभ सम्प्रदाय के लोग इस स्थान पर बहुत जाते हैं। 10नवम्बर, (1884) को सात बजे सबेरे इन लोगों ने श्रीनाथजी के भोगराग का दर्शन किया और आगे बढ़े। तीसरे पहर कांकरौली पहुँचे और वहाँ द्वारकानाथजी की झाँकी और संध्याय आरती देखी। संयोगवश यहाँ पर इनसे पण्डित दामोदर शास्त्रीय से भेंट हो गई जो बाबू हरिश्चन्द्र के मित्रों में से थे और हिन्दी के लेखक थे। शास्त्रीतजी उस रात को इन्हीं के डेरे पर रहे। बड़ी रात तक बातचीत होती रही। इस वार्तालाप में जो आनन्द आया उसके विषय में आप लिखते हैं-'सच है, अपने इष्ट मित्रों से विदेश में अकस्मात् मिलाप हो जाने से जो आनन्द होता है वह अकथनीय है।'

11 नवम्बर को ये लोग कांकरौली से आगे बढ़े। मार्ग जनशून्य था। चारों ओर पर्वत और पलाश के विस्तृत वन ही दिखाई देते थे। बस्ती बहुत दूर दूर पर मिलती थी। इस भयानक मार्ग में महाराणा साहब उदयपुर की ओर से चार चौकियाँ स्थापित थीं। किन्तु ये चौकियाँ ऐसी बेहिसाब बैठाई गई थीं कि चारों गाँवों के पास ही पास। जहाँ गाँव था वहाँ लूटमार की क्या आशंका थी, पर चौकियाँ वहीं बैठाई गई थीं। जहाँ निर्जन निविड़ वन था, जहाँ मनुष्य को कोई मार डाले तो भी पता न चले वहाँ चौकी पहरे का दर्शन नहीं। चौकियों पर भी चौकीदार दो ही चार, वे भी ऐसे बदरोब कि समय पड़ने पर एक ही घुड़की में सन्नाटा खींच लें। हिन्दुस्तानी प्रबन्ध इसी का नाम है। संध्याक होते होते ये लोग कांकरौली से सात कोस पर खंडेल गाँव में पहुँचे और रात को वहीं टिक रहे। दूसरे दिन तड़के तीन ही बजे उठकर ये लोग आगे की ओर बढ़े और दिन भर में नौ कोस चलकर दिन बैठते बैठते मँगरा गाँव में पहुँचे। यहाँ ब्राह्मणों की बस्ती अधिक देख पड़ी। एक चतुर्भुजजी की मूर्ति के भी दर्शन हुए जिसे लोगों ने महाराणा स्वरूप सिंहजी के समय की स्थापित बतलाया। जाड़े का दिन था, सर्दी पड़ रही थी। टिकने का स्थान माँगने के लिए ये लोग गाँव में गए। वहाँ ऐसे ऐसे महात्माओं से भेंट हुई जिन्होंने इनकी एक न सुनी। अन्त में एक पेड़ के नीचे सब लोगों ने रात काटी। रात भर सब लोग जागते और तापते ही रहे।

प्रात:काल तीन बजे उठकर ये लोग आगे बढ़े। दिन को तीन बजते बजते भीलवाड़ा पहुँचे। रेल का दर्शन करते ही सबका चित्त ठिकाने आया। दस बजे रात ट्रेन पर सवार हुए, दूसरे दिन अर्थात् 14 नवम्बर, 1884 को सबेरे अजमेर पहुँचे। वहाँ से फिर पुष्कराज की ओर प्रस्थान किया। पुष्कराज अजमेर से चार कोस पर है। सड़क बिलकुल ऊँची नीची पहाड़ों और जंगलों से होकर गई है। दो पहाड़ चढ़ने उतरने पड़ते हैं। पुष्कराज पहुँच कर इन लोगों ने तालाब में स्नान किया और सावित्रीजी का दर्शन करने गए जो अत्यन्त ऊँचे पहाड़ पर हैं।

अजमेर से मंडली लौट पड़ी। मार्ग में जयपुर आदि प्रसिध्द स्थानों की देखभाल करते ये लोग फिर मथुरा आए। वृन्दावन में जाकर ये पण्डित राधाचरण गोस्वामी से मिले। ऊपर लिख आए हैं इस यात्रा में कई घरों की स्त्रियाँ भी साथ थीं। इन लोगों ने आपस में कलह कर करके समय समय पर बहुत कष्ट पहुँचाया। देखिए, तंग आकर बाबू राधाकृष्णदास क्या लिखते हैं-'हम अपने मित्रों को उपदेश करते हैं कि कभी स्त्रियों को साथ लेकर यात्रा में न निकलें उसमें भी दूसरे घर की स्त्रियों को।' मथुरा से फिर लोग आगरा आए और ताजमहल देखने गए। ताजमहल के बाग में उस दिन लाट साहब के आगमन के उपलक्ष्य में रोशनी की तैयारियाँ हो रही थीं। पुरानी वस्तुओं को देखने की अभिलाषा तो इन्हें सदा बनी रहती थी। अत: किले के भीतर के महल देखने का विचार इन्हें हुआ। पर बड़े लाट साहब की अवाई थी इससे किले के भीतर जाने की अनुमति न मिली। उसी दिन साढ़े ग्यारह बजे रात को चलकर दूसरे दिन सबेरे लखनऊ पहुँचे। वहाँ अमीनाबाद, कैसरबाग, शाहीमहल, अजायबखाना, मच्छीभवन, चौक, इमामबाड़ा आदि जाकर देखा। इस नगर की गिरी दशा देखकर आप लिखते हैं-'लखनऊ की दशा देखकर रुलाई आती है। बिना पति के स्त्रीट की जो दुर्दशा होती है वही लखनऊ की है। हा! वही इमारतें जिनके बनने में लाखों रुपए लगे थे, जो लखनऊ की शोभा स्वरूप थीं और जो सैकड़ों वर्ष तक हिलनेवाली न थीं, आज तोड़ी जाती हैं-व्यर्थ, केवल किंचित धन के लोभ से। यह देखकर किस कठोर हृदय का चित्त न पिघलेगा?'

लखनऊ से चलकर 22 नवम्बर (1884) को सब लोग अयोध्यार गए। वहाँ हनुमानगढ़ी, कोपभवन, जन्मभूमि, स्वर्गद्वार आदि समस्त दर्शनीय स्थानों का अवलोकन किया। जातीयता का भाव तो इनकी नस नस में भरा ही था। 'स्वर्गद्वार' और 'जन्मभूमि' से भिड़ी मसजिदों को देखकर आपने कहा-'ये मसजिदें दबी दबाई आग को कलेजे में सुलगाती हैं।' राम का विवाहोत्सव आदि देखकर 24 नवम्बर को वहाँ से ये लोग चल पड़े और दूसरे दिन पचीस नवम्बर को सबेरे काशी पहुँचे। इतने दिनों पर काशी को देख आप लिखते हैं-अहा! जन्मभूमि का स्नेह भी कैसा विचित्र होता है। बहुत दिनों पर अपनी मातृभूमि को देखकर जो आनन्द हुआ वह अकथनीय है। घर पर जाकर ये बाबू हरिश्चन्द्र और बाबू गोकुलचन्द्र से मिले। स्नेह से जी भर आया। भारतेन्दुजी को इन्होंने बहुत क्षीण और अशक्त पाया।

लार्ड रिपन का काशी आगमन

26 नवम्बर को काशी में भारतबन्धु् महात्मा लार्ड रिपन की अवाई थी। चारों ओर उत्साह और आनन्द उमड़ा पड़ता था। सारा नगर तैयारी में लगा था। संध्या को लाट साहब उतरने वाले थे। दो ही बजे से राजघाट के स्टेशन पर भीड़ जमने लगी। लोगों के साथ बाबू राधाकृष्णदास भी उस समय वहाँ आ पहुँचे। संध्याभ को लाट साहब राजघाट के पुल पर उतरे। घाटों पर बड़ी तैयारियाँ की गई थीं। पुल पर से उनकी शोभा विलक्षण ही देख पड़ती थी। स्वागतकारिणी कमेटी ने श्रीमान् को उतारा। श्रीमान् की काशीनरेश के साथ सवारी नदेसर की कोठी की ओर चली। मार्ग में फूलों की वर्षा होती थी, बाजे बजते थे, शंखध्वेनि के साथ साथ जयध्वेनि सुनाई पड़ती थी। नगर की सजावट का क्या कहना है। फूलों के अत्यन्त सुन्दर फाटक थोड़ी थोड़ी दूर पर बने थे जिन पर ‘Welcome’ (स्वागत) ‘God Bless Lord Ripon’ (ईश्वर लार्ड रिपन का कल्याण करे) आदि वाक्य चमक रहे थे।

एड्रेस देने की तैयारी टाउनहाल में हुई। बड़ा अच्छा समाज एकत्रित था। श्रीमान् को स्वागतकारिणी कमेटी और म्युनिसिपल कमेटी ने आगे बढ़कर लिया। ब्राह्मणों ने आशीर्वाद के श्लोक पढ़े। मार्ग में छोटे छोटे बालक फूल बिछाते और बरसाते जाते थे। श्रीमान् के बैठ जाने के उपरान्त राजा शम्भूनारायण सिंह ने एड्रेस पढ़ा। श्रीमान् ने उसका उत्तर दिया। जब श्रीमान् उठकर चलने लगे तब फिर लड़के उसी प्रकार फूल बिछाते चले। हमारे चरित्रनायक बाबू राधाकृष्णदासजी भी एक ओर खड़े थे। उनकी गोद में बालक कृष्णचन्द्र थे। श्रीमान् को देख बालक कृष्णचन्द्र ने बायें हाथ से सलाम किया। श्रीमान् बड़े प्रसन्न होकर खड़े हो गए और ‘Beautiful boy’ (क्या ही सुन्दर बालक!) कह कर बड़ी प्रसन्नता से सिर हिलाया। थोड़ी दूर आगे बढ़कर पुन: बालक की ओर फिर कर देखा और हँसे। लाट महोदय कैसे दयालु और कोमल स्वभाव के थे इसका कुछ अनुमान इस घटना से हो सकता है। वास्तव में ऐसे पुरुष अपनी जाति के गौरव स्वरूप हैं।

चार बजे संध्याi को श्रीमान् ने रेल पर सवार होकर काशी से प्रस्थान किया। रात को नगर में कई स्थानों पर रोशनी हुई। बाबू हरिश्चन्द्र के मकान पर भी बड़ी धूमधाम की सजावट और रोशनी थी। इधर यह सब हो रहा था उधार भारतेन्दु का अन्तिम दिन निकट आता जाता था। उनकी अशक्तता बढ़ती जाती थी और शरीर दिन दिन क्षीण होता जाता था।

भारतेन्दु का अस्त

सन् 1884 समाप्त हुआ। 2 जनवरी ही को बाबू हरिश्चन्द्र को एकाएक भयानक ज्वर आया। ज्वर आठ पहर तक रहा। ज्वर उतरने पर पसली में दर्द आरम्भ हुआ। इसी समय से निराशा लोगों के सामने नाचने लगी। किसी प्रकार यह कष्ट भी हटा। तीसरे दिन खाँसी बड़े वेग से उठी और अन्त में 6 जनवरी को पौने दस बजे रात अपनी शीतल किरणों की आभा संसार में छोड़ भारतेन्दु अस्त हो गए। हिन्दी प्रेमियों के हृदय में अन्धाकार छा गया।

जिन ऑंखों से बाबू राधाकृष्णदास उस भारतेन्दु के माधुर्य का विकास देखते थे उन्हीं से आज उन्हें इस संसार से विदा होते उन्होंने देखा। वह हँसती हुई माधुर्य-मूर्ति सब दिन के लिए इनकी ऑंखों के सामने से हट गई। अब रह गए बाबू राधाकृष्णदास और यह कठोर विस्तृत संसार! इस समय हमारे चरित्रनायक के हृदय पर कैसा आघात पहुँचा होगा पाठकगण स्वयं विचार लें। जिस छाया का ये आरम्भ से अनुसरण करते आएवह छाया अब इस लोक में न रही। महीनों तक इनका चित्त उचटा रहा; चेहरे पर उदासीछाई रही। कभी बैठे बैठे ध्यालन आ जाता और भाई साहब, भाई साहब! पुकार उठते।हमारे चरित्रनायक की तो यह सब दशा हुई, पर संसार को इससे क्या? वह तो अपने निशाने से चूकनेवाला नहीं, वह तो एक क्षण के लिए भी अपना चरखा बन्द करनेवाला नहीं।

भारतेन्दु को संसार छोड़े महीना भर भी नहीं होने पाया था कि उनकी पुस्तकों के कापीराइट आदि के विषय में लोगों को खलबली पड़ी। 'खड्गविलास प्रेस' के स्वामी बाबू रामदीन सिंह का पत्र आया कि स्वर्गीय भारतेन्दुजी अपने समस्त ग्रन्थोंका स्वत्व हमको दे गए हैं। घर पर अब बाबू गोकुलचन्द और बाबू राधाकृष्णदास हीथे। दोनों आदमियों की सम्मति से इस पत्र का यह उत्तर लिखा गया-

प्रियवर,

पत्र आपका रजिस्टर्ड पहुँचा। पुस्तकों के विषय में जो कुछ इन्तजाम स्वर्गीय भाई साहब कर गए होंगे वह सर्वथा हम लोगों को माननीय है। इसका विशेष वृत्तान्त मुझको कुछ मालूम नहीं। आपको यदि उसका स्वत्व प्राप्त हो तो आप अवश्य और लोगों को रोक सकते हैं। इसमें हमें कुछ आपत्ति नहीं और गवाही के लिए जो आप लिखते हैं तो जो बातें कि हमको विशेष रीति से मालूम नहीं उसमें क्या प्रयोजन?

और जो हमारे योग्य कार्य हो लिखिएगा। कृपा रखिएगा।

चैत्रा सु. 2 संवत् 1942 स्नेहाभिलाषी

गोकुलचन्द्र

इधर 'भारतजीवन' के अधयक्ष बाबू रामकृष्ण वर्मा भी पुस्तकों के छापने के लिए जोर मार रहे थे। गोरखपुर के राय दुर्गाप्रसादजी बाबू हरिश्चन्द्र के बड़े स्नेही मित्र थे। इन लोगों की समझ में उन्हीं को पुस्तकों के छपवाने का उचित अधिकार था। अतएव एक पत्र उनके पास इन लोगों की ओर से भेजा गया जिसमें और और बातों के अतिरिक्त ये बातें थीं-

.......(3) कॉपीराइट वा पुस्तकों का छपवाना। इसके विषय में मैं यह सोचता हूँ। सब छापेवाले चाहते हैं कि हमीं छापें। वरंच एक आधा लोगों ने तो छापना भी शुरू कर दिया और कुछ लोग यह भी कहते हैं कि हमको स्वर्गीय बाबू साहब कॉपीराइट दे गए हैं। इससे आप एक सूचना-पत्र सब प्रसिध्द सामयिक पत्रों में इस आशय का दिला दीजिए कि स्वर्गीय बाबू साहब के तमाम ग्रन्थों का स्वत्व अमुक तारीख के वसीयतनामा द्वारा हमको प्राप्त है, इससे कोई न छापे। छापने से हर्जा देना होगा। और फिर आप सबके छापने का प्रबन्ध कर दें। यदि एक ही मनुष्य द्वारा सब ग्रन्थ छपकर बिकैं तो अभी तो नहीं परन्तु बरस डेढ़ बरस में जब प्रबन्ध ठीक हो जायगा तब कुछ प्राप्ति भी होगी।

(ख) इस पत्र के साथ एक सूची उनके ग्रन्थों की भेजता हूँ....

(ग) जो ग्रन्थ अधूरे रह गए हैं भगवत् इच्छा से उनके पूर्ण करने का उल्लास रखता हूँ और छापने आदि के प्रबन्ध में जो मुझसे आप आज्ञा करेंगे सम्पूर्ण रीति से सहायता करने को उद्यत हूँ और मेरी समझ में इन सब का ऑफिस बनारस में ही रहना ठीक है।

(घ) 'चन्द्रिका' के निकलने का भी प्रबन्ध किया गया है। दिसम्बर का नम्बर आशा है कि कल परसों तक निकल जावे।

3-1-85 अनुगृहीत

गोकुलचन्द्र