श्री शंकराचार्य और गुरु नानकदेव / बालकृष्ण भट्ट
ये दोनों हिंदुस्तान के प्रसिद्ध पुरुषों में अग्रगण्य और बड़े महात्मा हो गए हैं। पंजाब में जैसा गुरु नानकदेव माननीय हैं वैसा ही दक्षिण तथा महाराष्ट्र देश में भी शंकराचार्य माने जाते हैं। प्रतिमा पूजन के सिद्धांतों को काटने वाले और ईश्वर की निर्गुण उपासना के पोषक दोनों थे। किंतु शंकराचार्य जाति के ब्राह्मण थे, इसलिए ब्राह्मणों के उकसाने से, जिसमें ब्राह्मणों की जीविका में बाधा न पहुँचे, पंचायतन-पूजा अर्थात् विष्णु शिव, गणेश, सूर्य और शक्ति की पूजा और आराधना फिर से स्थापित की और बौद्धों को इस देश से निकलवा दिया। इसके विरुद्ध नानकशाह ने ब्राह्मणों का जोर बहुत ही बहुत तोड़ा और नाम के माहात्म्य को अधिकाधिक बढ़ाया। सच भी है, नाम संकीर्तन में लगा हुआ, चित्त का शुद्ध, सीधा सादा मनुष्य कुटिलचित्त, त्रिवेदज्ञ ब्राह्मण से श्रेष्ठ है। शंकर पूर्ण विद्धान तथा वेदांत दर्शन के प्रवर्तक थे। ये उस समय हुए जब मुसलमानों का जोर न बढ़ने से संस्कृत का पठन-पाठन देश में पूरी तरह जारी था और देश के हर एक प्रांत में मंडन मिश्र के से नामी पंडित विद्यमान् थे। उस समय शंकर ही का सा विद्वान् प्रतिष्ठा पा सकता और सर्वग्राहा हो सकता था। दूसरे यह कि बौद्ध लोग, जिनके मुकाबले शंकराचार्य उठ खड़े हुए, बड़े दार्शनिक थे। शंकर ही का सा सुयोग्य पंडित उनसे पार पा सकता था। इधर नानक जिस समय और जिस देश में हुए उस समय और उस देश में मुसलमानों का बड़ा अत्याचार था, चाल चलन, रीति बर्ताव, रहन-सहन लोगों का यावनिक हो गया था, बोली और पहनावे तक में मुसलमानी छा गई थी। उस समय संस्कृत के पढ़ने-पढ़ाने से कहीं सरोकार न रह गया था। संस्कृत की जगह लोग अरबी फारसी के बड़े मुल्ला और आलिम होने लगे। ऐसे समय नानक ही ऐसे अल्पविद्य किंतु कुशाग्रबुद्धि का काम था कि वे खान-पान के अनेक आचार विचार पर ध्यान न दे एक निर्गुण की उपासना के द्वारा हिंदू और मुसलमान दोनों को एक करें। आपस की सहानुभूति और हमदर्दी लोगों में आ जाने की बहुत कुछ उन्होंने चेष्टा की। उसी समय के लगभग जैसा बंगाल में कृष्णचैतन्य महाप्रभु भक्ति और परस्पर के प्रेम के पोषक हो रहे थे और जाति-पाँति के झगडे़ को तोड़ रहे थे वैसा ही पंजाब में गुरु नानक ने जाति-पाँति को फूट की बुनियाद समझ वर्ण-विवेक को यहाँ तक घटाया कि हिंदू मुसलमान दोनों को एक कर दिया। हिंदुस्तान के दो प्रांत बंगाल और पंजाब जो कुछ-कुछ आगे को बढ़ रहे हैं यह महाप्रभु कृष्णचैतन्य और गुरु नानक इन्हीं दो महात्माओं के उपदेश का फल है। सारांश यह है कि नानक यद्यपि शंकर के से विद्वान न थे किंतु चरित्र की पवित्रता, सौजन्य, आस्तिक्य बुद्धि में शंकर से किसी अंश में कम न थे।
अब देखना चाहिए कि राजनैतिक विषयों में और मुल्की मामलों में इन दोनों के उपदेश और शिक्षा का क्या फल हुआ। शंकर ने बौद्धों को यहाँ से निकाल शासन की स्थिर शैली में बड़ी खलबली मचा दी और बहुत चाहा कि भारत फिर वैसा ही हो बटेर हो गया। अब इस समय हम लोगों में कर्मकांड-कलाप और यज्ञोपवीत, विवाह आदि की जो पद्धतियाँ प्रचलित हैं वे सब उस समय की बनी है जब शंकर ने हिंदुस्तान को बौद्धों के हाथ से छुटा कर इसका पुन: संस्कार किया और ब्राह्मणों को फिर पूरी ताकत मिली। बौद्धों के उच्छिन्न हो जाने से अपनी मनमानी करने में उनकी रोक-टोक करने वाला अब कोई न रहा। दूसरे शैव और वैष्णवों का ऐसा विरोध बढ़ा कि फूट को फैलने के लिए पूरा मौका और स्थान मिल गया। इसका फल यही हुआ कि मुल्क में अब तक इतनी कमजोरी छाई हुई है कि अंगरेजी शासन की शांति और अंगरेजी शिक्षा के प्रचार से भी लोगों के कुसंस्कार बदलते ही नहीं संशोधन का बीज जमने में वही बात याद आती है कि 'जनम का कोढ़ कहीं एक एतवार से दूर हुआ है।'
शंकर तथा रामानुज न हुए होते तो मुसलमानों को यहाँ कदम जमाने में इतनी सुगमता न होती और न मुल्क में इतनी कमजोरी फैल जाती। सब से बड़ी हानि शंकर से वेदांत दर्शन को हुई जिसके सिद्धांत बदल कर और हो गए। वेदांत के प्रवर्तक व्यासदेव का प्रयोजन वेदांत सूत्रों के बनाने का कुछ और ही था। शंकर उन्हें और ही मतलब पर झुका लाए। व्यासदेव का यह कभी तात्पर्य वेदांत के प्रचलित करने से न था कि इस प्रकार अकर्मण्यता देश में छा जाय और संसार को मिथ्या मान हम स्वयं ब्रह्म बन बैठे। वरंच उनका तात्पर्य यह था कि हम सुख-दु:ख को एकसा समझ अपना काम करने में न चूकें तथा स्थिर अध्यवसाय, दृढ निश्चय, व्यवसायात्मिका बुद्धि को चित्त में हर समय अवकाश देते रहें, दु:ख में घबड़ा न उठें और सुख में मारे घमंड के फूल न जाएँ, संसार को स्थिर अनश्वर मान कर्मयोग में सदा लगे रहें इत्यादि। गुरु नानक के बुद्धिमान ने इन सब बातों को सोच विचार कबीर के सिद्धांतों को विशेष आदर दिया। किसी एक खास मजहब या धर्म में जकड़े रहना राजनैतिक तरक्की का बड़ा बाधक है। जब तक किसी खास धर्म की पाबंदी हम में लगी रहेगी तब तक मनुष्य जाति में साधारण जाति में साधारण प्रेम, जाति-वात्सल्य, मुल्की तरक्की के उद्योग में सबों के साथ सहमति कभी हो ही नहीं सकती। इसलिए नानक ने हर एक धर्म के Forms and ceremonies (बाहरी बनावट) को तुच्छ समझ तथा नाम संकीर्तन आदि के द्वारा ईश्वर की ओर भक्ति भाव और आस्तिक्य बुद्धि को मुख्य समझ, उसी के अनुसार अपने अनुयायियों को चलने के लिए कहा और अपने शिष्यों को वैसी ही शिक्षा दी। अंत को इसका परिणाम यह हुआ कि गुरु गोविंद सिंह और रणजीत सिंह ऐसे नररत्न पंजाब में पैदा हुए, और अब तक भी सिक्खों में जैसा कौमी जोश है वैसा तमाम हिंदुस्तान के किसी प्रांत के लोगों में नहीं है।
शंकराचार्य ने पक्षपात और अपने मत की खींच यहाँ तक रखी कि वे सर्वसम्मत न हो सके। गुरुनानक के उदार चित्त में न पक्षपात था और न किसी से विरोध या अपने मत की खींच थी। इसलिए न केवल पंजाब भर में वरन् और प्रांत के लोगों में भी वे सर्वसम्मत हुए। अस्तु, ये दोनों महात्मा जैसे रहे हों सर्वथा माननीय हैं, किंतु इन दोनों के मत फकीर संन्यासी और उदासी देश के अकल्याण के बड़े भारी द्वार हैं। अब भी कहीं-कहीं दो एक संन्यासी ऐसे देखे जाते हैं जो विरक्ति, त्याग तथा पांडित्य में संयास आश्रम की शोभा हैं। किंतु उदासी तो बहुधा ऐसे ही पाए जाते हैं, जो विषयाशक्ति में गृहस्थी के भी कान काटते हैं। उदासी बहुत बिगड़े हुए हैं, संन्यासी आववारगी में कुछ ही उनसे कम हैं। अब तो संन्यासी बनने के लिए केवल गीता की एक पुस्तक पास रहना आवश्यक है, और गुरु मुखी अक्षरों से परिचय रखना, जिससे ग्रंथ साहब का पाठ वह कर ले, उदासी के लिए योग्यता की कसौटी है। ग्रंथ साहब का पाठ करना आता हो मानो वह गुरु नानक का प्रतिनिधि हो गया। गुरु नानक का हेडक्वार्टर रणजीतसिंह का बनवाया अमृतसर का स्वर्ण मंदिर है। शंकराचारियों के प्रधान मठ चार हैं। उनमें से एक 'श्रृंगेरी मठ' है जिसके प्रधान हस्तामलकाचार्य थे। शंकर के दस शिष्यों में पुरी, भारती, सरस्वती नाम के इन तीन संप्रदाय वालों के अधिकार में यह मठ है। यह मठ श्रृंगगिरि पर्वत पर है जो रामेश्वर के रास्ते में मद्रास प्रांत में है। दूसरा 'शारदा मठ' है जो द्वारिका में है। शंकर के सब से मुख्य शिष्य पह्मपादाचार्य के अधिकार में यह मठ रखा गया है। तीर्थ और आश्रम दो संप्रदाय के संन्यासियों के अधिकार में यह मठ है। 'जोशी मठ' नाम का तीसरा मठ हिमालय में बदरी और केदार के रास्ते पर है। तोटकाचार्य इसके प्रधान किए गए। गिरि, पर्वत, सागर तीन संप्रदाय के संन्यासी इसके अधिकारी हैं। चौथा 'गोवर्धन मठ' है जो जगन्नाथपुरी में है। सुरेश्वराचार्य जो पहले मंडन मिश्र के नाम से प्रसिद्ध थे इस मठ के प्रधान किए गए। वन और अरण्य दो संप्रदाय के संयासी इसके अधिकारी हैं। इन-इन गद्दियों पर अब जो रहते हैं वे शंकराचार्य कहलाते हैं और जगद्गुरू की उपाधि उन्हें दी जाती है। मुख्य शंकराचार्य महराज की यह कभी इच्छा न हुई कि हम जगद्गुरू कहलाएँ, किंतु जो अब उस गद्दी पर बैठते हैं अपने को जगद्गुरू कहते और मानते हैं। मद्रास और बंबई प्रांत में जगद्गुरू शंकराचार्य का बड़ा जोर है। सामाजिक और धर्म संबंधी मामलों में बिना जगद्गुरू की व्यवस्था के कोई काम पंचद्रविड़ों में नहीं हो सकता।
'सौंदर्य-लहरी' आदि अनेक स्तोत्र शंकर के नाम से प्रचलित हैं पर वे मुख्य शंकर के बनाए नहीं हैं। इससे सिद्ध है कि ये जगद्गुरू शंकराचार्य उत्कृष्ट पंडित होते आए और हैं भी। 'तत्वमसि', 'अहंब्रह्मास्मि', 'प्रज्ञानमानंदं ब्रह्म', 'अयमात्मा ब्रह्म' ये चार महा वाक्य इन चार मठों के लग-अलग माने गए हैं। शंकराचार्य के प्रधान शिष्य पह्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वराचार्य, तोटकाचार्य, समित्पाणि, चिद्विलास, ज्ञानकंद, विष्णुगप्त, शुद्धकीर्ति, भानुमरीचि, कृष्णदर्शन, बुद्धिवृद्धि, विरंचिपाद, शुद्धानंत, आनंदगिर, सुधंवाराजा, कविराज राजशेखर इत्यादि थे। इसमें संदेह नहीं बौद्धों के उपरांत शंकराचार्य वर्तमान् हिंदू धर्म के बड़े पोषक हुए। यह न हुए होते तो देश का देश या तो बौद्ध मतावलंबी बना रहता या सब के सब यवन या मुसलमान हो जाते। गुरु नानक की भी तेरह गद्दियाँ हैं। उनके जुदे-जुदे पंथ हैं। दस इनके अवतार माने गए हैं। चेलों में सबसे मुख्य सुथरा था।