श्री हिमांशु की कृतियों का सौन्दर्य / कविता भट्ट
किसी वरिष्ठ, वरेण्य एवं विधा-वैविध्य से युक्त अनुभवी साहित्यकार की साहित्यिक यात्रा का सही-सही आकलन तथा उसका अनुशीलन रोचक साहित्यिक प्रक्रिया है। इसमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पूर्वाग्रहों से मुक्त होने पर ही कोई अनुशीलनकर्त्ता इस धर्म का यथोचित निर्वहन कर सकता है। तटस्थता की द्योतक होने के साथ ही यह प्रक्रिया साहित्यिक गतिविधियों की परिपोषक भी है; परन्तु एकाग्रता के साथ सम्बद्ध साहित्यकार के व्यक्तिपरक, साहित्यिक व सामाजिक अवदानों का अध्ययन वस्तुतः अत्यंत कठिन होता है। श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के साहित्यिक अवदान का अनुशीलन करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। ध्यातव्य है कि श्री हिमांशु एक आदर्श अध्यापक रहे तथा केन्द्रीय विद्यालय में प्राचार्य रहते हुए आपने विभिन्न राज्यों में अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा से अध्ययन-अध्यापन की परम्परा को आगे बढ़ाया। आपका जीवन राजकीय सेवा में बीता; आप चाहते, तो केवल अध्यापन करके किसी प्रकार अपनी सेवाओं को पूर्ण करके ही अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर देते; किन्तु आपने ऐसा नहीं किया; अपितु सेवाकाल में भी आप निरन्तर साहित्यिक व सामाजिक गतिविधियों की गंगा प्रवाहित करते रहे।
उपर्युक्त तथ्यों को लिखने में मेरा तनिक भी पूर्वाग्रह नहीं है। उल्लेखनीय है कि श्री हिमांशु के साथ मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं है; किन्तु कुछ वर्षो के ही साहित्यिक सान्निध्य से मुझे आपके सम्बन्ध में जो साहित्यपरक एवं व्यक्तिपरक विशेषताएँ प्रभावित करती रही हैं और जो प्रायः मैं कहती भी हूँ; उनका उल्लेख यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है। पहले कुछ साहित्यपरक विशेषताओं का उल्लेख करना प्रासंगिक है।
पहली बात इस सम्बन्ध में पाठकों को यह जानना अनिवार्य है कि जब मुझे श्री हिमांशु की नवीनतम काव्यकृति 'बनजारा मन' को पढ़ने तथा उसकी समीक्षा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ; तब मैंने यह पाया कि आपका जीवन वस्तुतः सामाजिक व साहित्यिक गतिविधियों में निरन्तर समर्पित रहा। आपके सेवाकाल के समय आपके द्वारा रची गयी एवं प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा अनेक आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित रचनाओं को भी इस संग्रह में संगृहीत किया गया है। यह काव्य-संग्रह पढ़कर ही आपकी साहित्यिक यात्रा के सम्बन्ध में मेरी निष्ठा और भी अधिक प्रगाढ़ हुई। यह प्रमाणित करता है कि विभिन्न केन्द्रीय विद्यालयों में एक कुशल मूर्तिकार की भाँति विद्यार्थियों के भविष्य को गढ़ते हुए भी आप निरन्तर अपने द्वारा की गई साहित्य सेवा से समाज को एक दिशा देते रहे। आपकी कर्त्तव्यनिष्ठा, कर्मठता एवं सत्यनिष्ठा वस्तुतः उदाहरण योग्य रही; ऐसा आपके साथ सेवा देने वाले अध्यापकों, कर्मचारियों एवं आपके विद्यार्थियों का मत है। आपके द्वारा शिक्षित एवं प्रशिक्षित विद्यार्थी आज देश-विदेश में विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सेवाएँ देते हुए आपके आदर्शों को गति दे रहे हैं।
दूसरी बात काव्य की विविध विधाओं के साथ ही आपने हिन्दी साहित्य में लघुकथा, आलेख, व्यंग्य, बाल साहित्य तथा भाषा के व्याकरण पर अपनी इन्द्रधनुषी व सारगर्भित लेखनी चलाई। वस्तुतः कम ही ऐसा होता है कि साहित्य की विविध विधाओं पर समान रूप से अधिकार हो और उन पर उतनी ही गम्भीरता से कार्य किया गया हो। श्री हिमांशु ने ऐसा किया है; यह अति सराहनीय है।
तीसरी बात, जिस आयुवर्ग में आप हैं उस आयु में साहित्य के साथ तकनीक का सम्मिश्रण बहुत कम ही देखने का मिलता है। आप जितनी सुन्दरता से भाषा के विविध पक्षों पर अधिकार रखते हैं, उतनी ही तीव्र और गहन जानकारी कम्प्यूटरीकृत गतिविधियों पर भी रखते हैं। यह सुखद और आश्चर्यजनक है कि आपकी तकनीकी सक्रियता के फलस्वरूप ही प्रत्यक्ष रूप से हिन्दी चेतना (अन्तर्राष्ट्रीय वेब तथा मुद्रित) , लघुकथा डॉट कॉम, त्रिवेणी, हिन्दी हाइकु व सहज साहित्य इत्यादि जैसी लोकप्रिय तथा परोक्ष रूप से अनेक साहित्यिक वेबसाइट्स व पत्रिकाएँ नैरन्तर्य व प्रवाह के साथ गतिमान हैं। साहित्य तथा तकनीकी कर्म का ऐसा मणिकांचन संयोग इस पीढ़ी के साहित्यकारों में वस्तुतः स्तुत्य है।
चौथी बात आजकल अन्य क्षेत्रों के समान ही साहित्य-जगत् में भी एक विचित्र अंधी दौड़ चल रही है; जिसके कारण कोई वरिष्ठ साहित्यकार नए रचनाकारों को कम ही प्रोत्साहित करता है। साथ ही आत्म-प्रशंसा / मुग्धता में वह ऐसा लीन है; मानों 'न भूतो न भविष्यति'। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ साहित्य ही नहीं किसी भी क्षेत्र में घातक है। साहित्य की प्रस्फुटन-प्रक्रिया हेतु वरिष्ठ साहित्यकारों को अनुगामियों हेतु यथोचित व यथापेक्षित धूप, उर्वरक, छाँव तथा अभिसिंचन जैसे गुणों को अपनाना अनिवार्य है। श्री हिमांशु ने हमेशा नवांकुरों को भरपूर मात्रा में यथासम्भव ये सभी कुछ प्रदान किया; इसलिए वे सभी की दृष्टि में एक अलग स्थान व सम्मान रखते हैं।
पाँचवी बात देश-विदेश में हिन्दी भाषा को संवर्धित करने का जो प्रयास आपने किया, वह भी श्लाघ्य व अनुकरणीय है। वास्तव में आप नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने जितनी सुन्दरता से अपने शिक्षण-व्यवसाय को अन्य लोगों के लिए अनुकरणीय बनाया, उतनी ही सुन्दरता से आपने साहित्य क्षेत्र में भी नए आयाम स्थापित किए।
व्यक्तिपरक मापदण्डों की दृष्टि से देखा जाए, तो आप एक व्यावहारिक, वाक्पटु, मृदुभाषी, कुशल संयोजक तथा अनेक मानवीय मूल्यों के साथ सादा जीवन जीने वाले व्यक्ति हैं। सामान्य ग्रामीण पृष्ठभूमि में जन्मे तथा निरन्तर संघर्षों के द्वारा साहित्य-जगत् में अपना विशिष्ट स्थान बनाने के हेतु आप वस्तुतः साधुवाद के पात्र हैं। आप आजीवन उपर्युक्त साहित्यपरक व व्यक्तिपरक मूल्यों को अभिसिंचित करते हुए साहित्य-जगत् को समर्पित अन्य साहित्यकारों हेतु भी प्रेरक बने रहेंगे; ऐसा विश्वास, अपेक्षा तथा शुभकामनाएँ सम्प्रेषित हैं।
उपर्युक्त तथ्यों के पश्चात् अब इस अनुशीलन ग्रन्थ के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहती हूँ। इसमें विभिन्न आयुवर्ग के तीस सुप्रतिष्ठित व प्रज्ञ साहित्यकारों द्वारा श्री हिमांशु के साहित्यकर्म की समीक्षाएँ सम्मिलित की गई हैं। सौभाग्य से इन साहित्यकारों में मैं भी सम्मिलित हूँ। मेरे अतिरिक्त साथ ही आपकी विभिन्न कृतियों के सम्बन्ध में इन साहित्यकारों के मत व अवधारणाओं को प्रमाणित व परिपुष्ट करने हेतु अन्त में श्री हिमांशु के ही द्वारा लिखित चार आलेखों को भी सम्मिलित किया गया है। ऐसा करने से पाठक उनकी रचनाधर्मिता के बहुपक्षीय आयामों तथा गुण-वैविध्य का स्वयं साक्षात्कार कर सकेगा।
हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या?
सर्व सुश्री प्रो. स्मृति शुक्ला, कृष्णा वर्मा, डॉ. पूर्वा शर्मा, डॉ. सुषमा गुप्ता, अनिता मंडा तथा डॉ.मंजुला गिरीश उपाध्याय आदि जैसी सुप्रतिष्ठित महिला साहित्यकारों ने श्री हिमांशु के साहित्यकर्म को आधार बनाकर जो समीक्षाएँ की हैं, वे इस अनुशीलन पुस्तक में समाहित की गई हैं। सर्वश्री डॉ. शंकर पुणताम्बेकर, मनमोहन गुप्ता मोनी, डॉ. राजा राम जैन, जवाहर चौधरी, सुकेश साहनी, सुभाष नीरव, स्वराज सिंह-जैसे पुरुष साहित्यकारों द्वारा की गई श्री हिमांशु के साहित्यकर्म की समीक्षाओं को इस अनुशीलन पुस्तक में समाहित किया गया है।
इस अनुशीलन कृति के माध्यम से पाठक को श्री हिमांशु के कृतित्व सम्बन्धी आयामों से परिचित होने का सुअवसर प्राप्त होगा। व्यंग्य, लघुकथा, बालसाहित्य तथा व्याकरण इत्यादि पर श्री हिमांशु का श्लाघ्य साहित्यकर्म एक ही स्थान पर उपलब्ध होना इस अनुशीलन पुस्तक को विशिष्ट बनाता है। साथ ही जिन पुस्तकों की समीक्षाएँ इस अनुशीलन कृति में हैं; उन पुस्तकों के प्रति श्री हिमांशु के नियमित पाठकों की समझ गहरी होने के साथ ही नए पाठकों के मन में आपकी इन पुस्तकों को पढ़ने के प्रति ललक उत्पन्न होगी।
खूँटी पर टँगी आत्मा जैसे लोकप्रिय एवं सारगर्भित व्यंग्य-संग्रह के माध्यम से व्यंग्यकार श्री हिमांशु ने जिन सामाजिक विसंगतियों को उकेरने का प्रयास किया है; उसमें आप कितने सफल रहे हैं; यह समझना अनेक विसंगतियों से उबरने का विचार प्रस्फुटित करेगा। असभ्य नगर इत्यादि लघुकथा संग्रहों में संगृहीत विभिन्न लघुकथाओं द्वारा समाज को आपने जो दर्पण दिखाया, वह भी सामाजिक चिंतन-मनन का उत्कृष्ट उदाहरण है। देश-विदेश में प्रसारित आपकी लघुकथाओं के ऑडियो और वीडियो जिस प्रकार से लोकप्रिय हुए; उनकी लोकप्रियता का आधार भी यहाँ पाठक ग्रहण कर सकेगा। हरियाली और पानी जैसी कृति बालसाहित्य की दृष्टि से उत्कृष्ट है। सरल व सुग्राह्य भाषा में आपने पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन जैसे गूढ़ विषय को किस प्रकार स्पष्ट किया यह प्रशंसनीय है और पाठक भी इसे पढ़कर इसमें समाहित शिक्षा को अपने जीवन में समाहित कर सकेंगे। विभिन्न गद्य विधाओं के अतिरिक्त इस अनुशीलन कृति में हाइकु विधा पर केन्द्रित कृतियों की समीक्षाएँ भी सम्मिलित हैं। श्री हिमांशु की हाइकु कृतियों का सार समझने का अवसर भी पाठक का प्राप्त होगा। अच्छी बात यह भी है कि श्री हिमांशु ने बालभाषा व्याकरण पर जो कार्य किया, वह अभिनव प्रयास रहा। सामान्य रूप से सामान्य व्याकरण पर तो लेखन किया गया; किन्तु बालभाषा व्याकरण को समझाने का प्रयास सराहनीय कहा जाएगा। बालमन कोरी पट्टी के समान होता है; उस पर अंकित कोई भी विषयवस्तु आजीवन स्मरण रहती है और अपनाई भी जाती है। हम सभी जानते हैं कि आज हिन्दी भाषा लोकप्रिय होते हुए भी वैश्विक ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। आंग्लभाषा के माध्यम से चलने वाले विद्यालयों का बोलबाला, निज अस्मिता के प्रति उपेक्षा-अनभिज्ञता तथा हिन्दी भाषा का यथोचित ज्ञान न होना इत्यादि इसके प्रमुख कारण कहे जा सकते हैं। यदि बालपन से ही हिन्दी भाषा का व्याकरण पढ़ा व पढ़ाया जाए, तो हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर खड़ा संकट कुछ सीमा तक कम हो जाएगा। इस प्रकार श्री हिमांशु ने बालभाषा व्याकरण पर जो लेखनकर्म किया, वह विशिष्ट है।
अब बात करते हैं श्री हिमांशु द्वारा लिखित कुछ आलेखों की; जो इस अनुशीलन ग्रन्थ में संकलित समीक्षाओं पर सत्यता की मुहर लगा देते हैं। आपके द्वारा लिखा गया आलेख 'भाषाः एक प्रवाहमान नदी' में भाषागत शिल्प को विवेचित किया गया है। इस विशिष्ट विश्लेषण के द्वारा पाठक रूप में उपस्थित हिन्दी भाषा का लेखक वर्ग भाषा की त्रुटियों तथा अवरोधों पर विजय प्राप्त कर सकता है। ऐसा होने से हिन्दी भाषा का मार्ग और भी अधिक प्रशस्त होगा। कनुप्रिया-राधा की विह्वलता का दर्पण नामक आलेख के कुछ अंश श्री हिमांशु के लेखन कर्म की उत्कृष्टता को समझने हेतु तथा पाठक के संज्ञानार्थ यहाँ उद्धृत करने अत्यावश्यक हैं; ये दो अंश अग्रांकित हैंः
1-प्रेम मनुष्य की सहज एवं शाश्वत पिपासा है। जीवन से उसके निष्कासन की बात भले ही सोची जाए; परन्तु उसे गरदनिया देकर बाहर नहीं निकाला जा सकता। यदि हममें मानवता का अल्पांश भी जीवित है, तो संघर्षरत रहकर भी हम प्रेम की उपेक्षा नहीं कर सकते। सत्य तो यह है कि संघर्ष की थकान को दूर करने के लिए प्रेम-भरा आँचल पाने की बेचैनी होती ही है, जो क्लान्त मन को मृगछौने की तरह आँचल में छुपाकर समूची थकान को सोख ले। भारती जी ने राधा के द्वारा नाट्य एकालाप में भाव-विह्वलता में कुछ भी कहलवाया हो; परन्तु माता, भगिनी आदि के रूपों को छोड़कर राधा का प्रेमाकुल और प्रेम-भरा जगत् समर्पित करने वाली राधा का रूप ही प्रमुख है।
2-राधा के प्रश्नों में सहजता है। वहाँ उसका समाधान भी सहजसाध्य है। बुद्धि के आयाम कृत्रिम और तर्क-वितर्क में गुँथे हुए हैं, जिनसे मानवता कि समस्याएँ नहीं सुलझाई जा सकतीं। सहज रागात्मक स्तर पर ही मानवता की समस्याओं का समाधान निकल सकता है। यही राधा कि प्रतीक्षा है-लहूलुहान हारे-थके विचारों के लौटने की प्रतीक्षा। कृष्ण का महान् विस्मयकारी और इतिहास-प्रवर्तक का रूप राधा तत्त्व से रहित होने पर 'शिव' नहीं हो सकता; अतः कनुप्रिया में राधा और कृष्ण के कालातीत और समष्टिवादी रूप (जो देशकाल से परे है) का ही महत्त्व है।
राधा प्रेम के मूल्य का अन्वेषण करती है, तो कभी उसे स्वय को ही नकार देना पड़ता है, तो कभी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिखाई देती है। 'मैं' की पुनरावृत्ति उसे स्वत्व का आभास तो कराती रहती है। रागात्मक सम्बन्धों की पृष्ठभूमि उसके मन में विगत स्मृतियाँ कभी फाँस की तरह गड़ती हैं, कभी उनकी मधुरता से राधा कि साँस-साँस सुरभित हो जाती है, तन खिल उठता है। कभी संशय (जो क्षणिक है) उसे झकझोर देता है, असहाय होने का बोध कराने लगता है। इस प्रकार सभी रस भिश्र रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं। फिर भी राधा के मादक क्षणों को भारती जी ने सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की है। भारती जी के शब्द चित्रों में वैष्णव संस्कार खोजना जिस प्रकार की भूल है, उसमें पश्चिमी संस्कार का आरोप करना भी उसी प्रकार की नासमझी है। रक्तरंजित इतिहास को मोड़कर प्रेम के चरणों में बिठाना क्या रोमानी संस्कार है? युधिष्ठिर इतिहास को न बदलकर स्वय को बदलने के लिए हिमालय पर चले गए। राधा ने मूल समस्या को ही स्पर्श किया है।
कृष्ण ने एक बार आग की लपटों से राधा को दोनों हाथों में फूल की थाली की तरह सहेजकर उठा लिया था और लपटों से बाहर ले आए थे। राधा ने खीझ में भले ही कहा हो कि कान्हा मेरा कोई नहीं है; पर 'घनघोर वर्षा के समय' राधा ने उसी कान्हा को आँचल में दुबका लिया था।
उपर्युक्त अंश सिद्ध करते हैं कि अहा! हिमांशु कृत 'कनुप्रिया-राधा की विह्वलता का दर्पण' कितना सुन्दर आलेख है।
इसी प्रकार 'शंकरदेव और उनकी कृष्णभक्ति' तथा 'जलसमाधि से पूर्व' अन्य दो आलेख आध्यात्मिकता तथा व्यावहारिकता का मणिकांचन संयोग सिद्ध होते हैं। प्रत्येक पाठक आध्यात्मिकता, भक्ति तथा व्यावहारिक प्रश्नों के उत्तर इन आलेखों के माध्यम से जानने में सफल हो सकता है। श्री हिमांशु द्वारा लिखित 'जलसमाधि से पूर्व' खण्डकाव्य पर केन्द्रित आलेख में भाषा का सौन्दर्य उद्धृत करना यहाँ प्रासंगिक है। इस आलेख का प्रारम्भिक अंक उद्धृत हैः
जल-समाधि के पूर्व बालकृष्ण मिश्र का भाव-प्रवण खण्ड काव्य है। इस खण्डकाव्य की विषयवस्तु का विस्तार इन सात सर्गों में किया गया है-स्मृति, अनुताप, अन्तर्दाह, संघात, ग्लानि, मंथन और विराम। इनमें संघात, ग्लानि और विराम बहुत छोटे (4-4-2) पृष्ठों के सर्ग हैं। जलसमाधि लेने से पूर्व राम का ग्लानि-भरा मन कहीं दूर खो जाता है। सम्पूर्ण दु:खमय जीवन उनके मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित हो उठता है।
इस काव्य के माध्यम से मिश्र जी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है, जो मर्यादावादी राम के द्वारा अनुत्तरित ही रहे हैं। इस कृति की उपादेयता इसलिए भी बढ़ जाती है कि ये उत्तर सामयिक सन्दर्भों को और अर्थवान् बना देते हैं। संशय की एक रात और प्रवाद-पर्व काव्यों में श्रीनरेश मेहता ने युद्ध के औचित्य और सीता वनवास को तर्क की मर्यादावादी महामानव की कसौटी पर कसा है। कुछ प्रश्न मेहता जी ने सम्भवः विषयान्तर के कारण नहीं समेटे। जल-समाधि के पूर्व में ज्वलन्त प्रश्नों के उत्तर बहुत मार्मिक हैं।
उपर्युक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि श्री हिमांशु एक कुशल शब्दशिल्पी एवं अनुभवी साहित्यकार हैं। आपके कृतित्व पर आधारित इस अनुशीलन कृति को संपादित करना मेरे लिए एक सुखद अनुभव है। साहित्य का जो फूलदान आपने समाज को उपहार स्वरूप दिया, उसके रंगों और सुगन्ध को व्यक्त करना यद्यपि शब्दों में सम्भव नहीं और श्री हिमांशु की कृतियों को पढ़कर ही इस फूलदान की सुन्दरता का साक्षात्कार किया जा सकता है। तथापि मुझ अल्पज्ञ ने एक वरिष्ठ, विद्वान्, वरेण्य एवं अनुभवी साहित्यकार के लेखन कर्म का अनुशीलन करने का यह प्रयास किया है। मैं आप सभी बुद्धिजीवी मित्रो तथा श्री हिमांशु को अपने शब्दों का पुष्पगुच्छ भेंट करते हुए अत्यंत सौभाग्यशालिनी अनुभव कर रही हूँ।
जिन वरिष्ठ, सह तथा कनिष्ठ साहित्यकारों के विचारों को इस अनुशीलन कृति में संकलित किया गया है; उन सभी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ और उनका हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ। साथ ही अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ने यथासमय इसे प्रकाशित किया; इस हेतु उनका भी आभार व्यक्त करना मेरा पुनीत संपादकीय कर्त्तव्य है; अस्तु हार्दिक आभार। आप सभी का मार्गदर्शन और लेखन समाज को नित उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करेगा ऐसी शुभकामना एवं विश्वास है।