श्वांस संचालित संगीत-वाद्ययंत्र / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 नवम्बर 2017
यह सुखद आश्चर्य है कि इंदौर में सेक्सोफोन नामक वाद्य यंत्र के प्रेमियों की एक संस्था है, जो विगत तीन वर्षों से छह नवंबर को सेक्सोफोन वादन का कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इस दिन को अंतरराष्ट्रीय सेक्सोफोन दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी तरह से अहमदाबाद में महेश भाई और उनके साथियों ने ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स सुनने वालों की एक संस्था बनाई है, जो नियमित रूप से सालाना कार्यक्रम करती है। इस तरह के प्रयास आशा जगाते हैं कि अभी तक हर किस्म का बेसुरापन पूरी दुनिया में छाया नहीं है। यहां बेसुरापन से तात्पर्य मूल्यहीनता एवं भ्रष्ट आचरण से है। संगीत महज, लय, तान और ध्वनि नहीं है, वह आत्मा की आवश्यकता एवं खुराक है। शेक्सपीयर ने लिखा कि अगर संगीत प्रेम की आवश्यकता है तो सदैव बजाते रहना चाहिए।
आयोजक संजय वर्मा ने बताया कि 1840 में इस वाद्ययंत्र को बनाया गया था और प्राय: फौज के बैंड में बजाया जाता था। भारत में राहुल देव बर्मन के सहयोगी मनोहरी ने इसका आयात किया और निरंतर अभ्यास से इसे साधा। सभी संगीतकारों ने सेक्सोफोन का इस्तेमाल किया है परंतु सचिन देव बर्मन और राहुल देव बर्मन ने अधिक किया है। शंकर जयकिशन ने भी इसे इस्तेमाल किया है और उनके लोकप्रिय गीत 'बदन पे सितारे लपेटे हुए ओ जाने तमन्ना किधर रही हो' तथा 'आरजू' के गीत 'बेदर्दी बालमा' में जमकर इस्तेमाल हुआ है। इस गीत की अन्य पंक्तिया हैं, 'वही है झील के मंजर, वही किरणों की बरसातें, जहां हम तुम किया करते थे पहरों प्यार की बातें, तुझे इस झील का खामोश दर्पण याद करता है, उमड़ता है आखों में जो सावन, वह सावन याद करता है।'
इस कार्यक्रम में एक वादक जबलपुर से आया था। अरसे पहले संगीतकार सचिन देव बर्मन के विवाह की बात जबलपुर में रहने वाली बंगाली महिला से प्रारंभ हुई थी परंतु सचिन दा तो मीरा से प्रेम करते थे, अत: वह रिश्ता नहीं हुआ। कुछ वर्षों बाद सचिन दा को ज्ञात हुआ कि उस महिला ने विवाह ही नहीं किया और वह बीमार है। सचिन दा ने उसे मुंबई बुलाया, अस्पताल में सेवा की परंतु वह नहीं बच पाई। उसने सचिन दा से कहा कि उसके भाई सपन चक्रवर्ती का ख्याल रखें। सचिन दा ने उसे अपनी टीम में शामिल किया और सपन चक्रवर्ती की जन्मजात प्रतिभा को विकास का अवसर मिला। सचिन दा की मृत्यु के पश्चात राहुल देव बर्मन ने सपन चक्रवर्ती को अपने सगे भाई की तरह रखा और अपने मेहनताने का आधा हिस्सा हमेशा उसे देते रहे। खून से परे मुंहबोले रिश्तों को इस शिद्दत और गहराई से निभाना भी संगीत ही है।
कुछ वाद्य यंत्र हाथ से बजाए जाते हैं जैसे तबला, ढोलक, मृदंग इत्यादि। कुछ वाद्य यंत्रों को श्वांस से संचालित किया जाता है जैसे बांसुरी, सेक्सोफोन इत्यादि। श्वांस संचालित वाद्य यंत्र मनुष्य के फेफड़ों के दम पर बजाए जाते हैं। श्वांस चलते रहना ही जीवित होने का प्रमाण है। आज प्रदूषण के कारण फेफड़े कमजोर हो रहे हैं। इस तरह प्रदूषण का बुरा प्रभाव संगीत पर भी पड़ रहा है। संगीत के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि जब पूरी तरह खामोशी छायी रहती है तब खामोशी की सिम्फनी गूंजती है, जो दुनियादारों को सुनाई नहीं पड़ती। मनुष्य के कान भी स्वार्थी होते हैं। उन्हें अपने लाभ की बात सुनाई देती है और कड़वी आलोचना अनसुनी कर दी जाती है। प्राय: हुक्मरान यही करते हैं।
प्रारंभिक दशकों में अधिकांश वादक गोवा के रहने वाले थे, जहां वाद्ययंत्र बजाना एक परम्परा रही है। संगीतकार प्यारेलाल (लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल) के पिता ने वादकों का प्रशिक्षण प्रारंभ किया, क्योंकि इस क्षेत्र पर गोवा का वर्चस्व उन्हें चुभता था। इस स्कूल से अनेक वादक प्रशिक्षित होकर आए। बहरहाल, कार्यक्रम में राजू कुलपारे, मनोज बेन और योगेश कुलपारे ने भाग लिया। तीनों ही पारंगत हैं। कुछ गीत तीनों ने मिलकर प्रस्तुत किए। सुखद आश्चर्य यह रहा कि मिलिट्री व पुलिसबैंड में बजाए जाने वाले सेक्सोफोन पर करुणा के स्वर भी निकाले गए अत: किसी वाद्य यंत्र को परिभाषाओं से नहीं बांधा जा सकता। संगीत के इस कार्यक्रम में 1940 में प्रदर्शित एक फिल्म की पंक्तियां याद आई, 'विरह ने कलेजा यूं छलनी किया, जंगल में जैसे कोई बांसुरी पड़ी हो।' सेक्सोफोन के ईजाद के ठीक सौ वर्ष बाद का यह गीत है।
ज्ञातव्य है कि 1949 में महान उपन्यासकारग्राहम ग्रीन की पटकथा पर 'द थर्ड मैन' बनी थी। लोकेशन की तलाश में इटली के एक कस्बे में उन्होंने सेक्सोफोननुमा वाद्ययंत्र पर एक धुन सुनी जो उन्हें इतनी पसंद आई कि फिल्म के पूरे पार्श्व संगीत में वह ध्वनि सुनाई देती है। ज्ञातव्य है इसी ध्वनि का परिमार्जित रूप कालांतर में जेम्स बॉन्ड फिल्मों की सिग्नेचर ट्यून बनी। यह भी मजे की बात है कि इसी फिल्म की प्रेरणा से महेश भट्ट ने संजय दत्त और कुमार गौरव अभिनीत 'नाम' बनाई परंतु मूल फिल्म के संगीत का इस्तेमाल नहीं किया गया। ज्ञातव्य है कि संसार नष्ट हो सकता है परंतु ध्वनि कभी नहीं मरती। वह सदैव वातावरण में मौजूद रहती है।