श्वेत-श्याम जीवन में रंगीन जूतों की पहल / जयप्रकाश चौकसे

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श्वेत-श्याम जीवन में रंगीन जूतों की पहल
प्रकाशन तिथि :14 मई 2016


क्रिकेट आईपीएल तमाशे में खेलने वाले कुछ खिलाड़ियों ने अलग-अलग रंग के जूते पहने हैं। सड़क पर भी कुछ युवाओं के दोनों पैरों में अलग-अलग रंग के जूते देखे हैं। बलदेवराज चोपड़ा की एक फिल्म में राजकुमार ने चमड़े के सफेद जूते पहने थे। फिल्म की सफलता के बाद अपनी सनक व निडरता के लिए प्रसिद्ध राजकुमार ने निर्माता को फोन किया और कहा, 'जॉनी सुना है आजकल आप हमारे जूतों की कमाई खा रहे हैं।' जूतों के पारम्परिक रंग-भंग करने से ये बातें दिमाग में आईं कि विभिन्न व्यक्ति विभिन्न विचार रखते रहे हैं परंतु आज एक ही व्यक्ति विपरीत विचारधारा से घिरा है। दुविधा है कि इधर जाऊं या उधर जाऊं और इसी दुविधा के कारण व्यक्ति एक ही जगह खड़ा रह जाता है। व्यक्ति का जस का तस खड़े रहना भी उसके जीवित होने का प्रमाण है, क्योंकि हमने कोई खड़ी हुई लाश नहीं देखी है। धरती पर गिरने पर ही मृत्यु होती है। चलने के लिए दोनों पैर एक दिशा में उठते हैं परंतु सरकार के विभिन्न विभाग एक-दूसरे के खिलाफ काम करते हैं। नेता की सफलता ही इस बात में है कि वह विभिन्न विभागों को एक-दूसरे से भिड़ाता रहे।

कभी-कभी जूते को लेकर कहीं कोई सामान्य-सी बात किसी के दिल में फांस की तरह चुभ जाती है। लड़कपन में ऋषि कपूर ने बोनी के फटेहाल जूतों को इंगित करके सामान्य-सी बात कही परंतु वह इस तरह फास की तरह चुभी कि धन आने पर बोनी कपूर ने दो दर्जन जूते की जोड़ियां खरीदीं। देव आनंद के साथ ऐसा कुछ नहीं घटा था परंतु उनके पास सात सौ जोड़ी जूते थे। जूते पर कहावतें बनी हैं कि नौकरी की तलाश में कई जोड़ी जूते फट गए। कभी-कभी संसद-विधानसभा में भी जूता फेंका जाता है। जूतों में दाल बंट रही है; यह भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है दल में फूट पड़ना। जूते बिना झुके पहनने के लिए शू-हार्न होता है। घोड़ों के पैरों में भी नाल ठोंकी जाती है, जो उसके जूते ही है।

राज कपूर की ख्वाजा अहमद अब्बास लिखित फिल्म 'श्री 420' में नायक लॉन्ड्री में काम करता है। एक दिन वह लॉन्ड्री के लिए आया सूट पहनकर प्रेमिका के घर जाता है परंतु उसके फटे जूतों से बाहर झांकते पैर देखकर नायिका मुस्कराती है। वह झेंपते हुए भाग जाता है। इसी फिल्म के गीत की पंक्तियां हैं, 'मेरा जूता है जापानी, सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।' इस तरह के दृश्य सबसे पहले चार्ली चैपलिन ने गढ़े हैं। 'गोल्ड रश' में सोने की तलाश में निकला एक दल दिशा खो जाता है। खाने-पीने की रसद खत्म हो जाती है। एक दृश्य है कि नायक अपने जूते उबालकर उसे मांस की तरह खा रहा है और वह जूते से कीलें निकालकर एेसे फेंकता है जैसे मांस से हड्‌डी निकाली जाती है। संदेश है कि अर्जित न किए गए सोने की तलाश में जूते खाने पड़ सकते हैं। जैक लन्डन का 1906 में लिखा उपन्यास है 'आयरन हील'। इसमें अमीर लोग गरीब सेवकों को नाल लगे जूतों से मारते हैं। जॉर्ज ऑरवेल की 1984 में लिखी किताब के कवर पर मनुष्य का चेहरा है, जिस पर जूते की लोहे की नाल ठुंकी हुई है। 'मिस्टर नटवरलाल' का खलनायक अमजद खान गुलामों की पीठ पर जूते की नाल की सील गरम करके दागता है।

उबाऊ फिल्म से उकताए हुए दर्शक भी परदे पर अपना जूता फेंकते हैं। कुछ दिन पूर्व ही एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी ने नेता पर जूता फेंका था और इस तरह की घटनाएं पहले भी हुई हैं। एक धार्मिक संगठन में गलती करने वाले सदस्य से बतौर सजा के जूते साफ कराए जाते हैं। बूट पॉलिश करके बच्चे रोटी कमाते हैं। भीख नहीं मांगना और जूते पॉलिश से रोटी कमाने पर राज कपूर ने बूट पॉलिश बनाई थी और डि सिका ने शू-शाइन बनाई थी। महिलाओं के लिए ऊंची एड़ी की सैंडल बनी, जिसे पहनकर चलने के लिए अभ्यास करना होता है परंतु इनके उपयोग से पिंडलियों की मांस-पेशियां सशक्त हो जाती है। महिलाओं के जूतों, सैंडलों इत्यादि के डिज़ाइन पुरुषोें के जूतों से अधिक हैं। किसी दौर में चीन में लड़कियों को लोहे के बने जूते पहनाते थे ताकि उनके पैर छोटे और सुंदर दिखंे। कहावत है कि 'सिर बड़ा सरदार का, पैर बड़ा गंवार का।' बहरहाल, दोनों पैरों में अलग रंग के जूतों के बहाने ही सही विविधता की तलाश जारी है और ऐसे दौर में जारी है, जब एक-सा सोचनेकी साजिश राजनीतिक दर्शन बन गई है।