संकल्प / दीप्ति गुप्ता

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“आज हमारा यह ‘जीवनदीप’ 50वीं वर्षगाँठ मनाकर पहले से अधिक खूबसूरत, सक्षम और तेजस्वी नजर आ रहा है।” पावस ने बड़ी ही भावुकता और आह्लाद से भरे हुए केतकी से कहा। खुशी से गद्‌गद्‍ केतकी, पावस के सीने से लग, ‘जीवनदीप’ को गर्व से निहारती, छलछलाई आँखो से कहीं दूर अतीत में उतरती चली गई। ‘जीवनदीप’ अपने ढंग का एक अनूठा एवं अद्वितीय शिक्षण संस्थान, पावस और केतकी के सधे हुए हाथों से सँवरता हुआ, शैशवावस्था और किशोरावस्था को पार कर, बड़ी गरिमा के साथ इस प्रौढ़ावस्था को पहुँचा था।

पावस ने जब ‘मानव संसाधन’ में विशेष योग्यता के साथ एम.बी.ए. किया तो उसके पिता, शहर के प्रसिद्ध एडवोकेट शम्भुदयाल चाहते थे कि वह मल्टीनेशनल कम्पनी में ऊँचे पद को सम्हाले। पर पावस को यह मंजूर न था। उसने एम.बी.ए. पूरा करते-करते अपने दिलो दिमाग में ‘मानव संसाधन’ का सही सदुपयोग करने का एक बेहतरीन ख्वाब बुन लिया था। उसके ताने बाने, वह किसी भी कीमत पर नहीं तोड़ सकता था। शम्भुदयाल जी उसकी भावना समझ कर भी समझता नहीं चाहते थे और पावस न चाहते हुए भी, उनका दिल तोड़ने के लिए विवश था। पहले तो माँ, पिताजी, बड़े भाई, दीदी, भाभी सभी ने उसे समझाने में एड़ी चोटी का पसीना एक कर दिया। किन्तु जब वह किसी भी तरह अपने संकल्प से नहीं डिगा तो, माँ को छोड़कर, सबने उसका घोर विरोध शुरू कर दिया। माँ को अपना बेटा दुनिया की हर चीज से प्यारा था। हालाँकि सबके कहने पर, उसने भी पावस को समझाने का कर्तव्य निभाया था, लेकिन उसके न मानने पर वह औरों की तरह ज़िद पर अड़ी न रह सकी और उसकी ममता ने बेटे के आगे समर्पण कर दिया। बेटे के लिए उसकी माँ का यह समारात्मक ममतापूर्ण रवैया ही, उसका मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत बड़ा सहारा था। किन्तु यह भावनात्मक सहारा, पावस के दुर्गम रास्ते के पत्थरों और काँटों को हटाने में सक्षम नहीं था। आगे की जंग तो उसे खुद ही बड़े धैर्य और समझदारी से लड़नी थी। ऐसे विकट संकट के समय में - एक दिन ईश्वरीय दुआ के रूप में केतकी उसके जीवन में आई। एक साधारण परिवार की सुन्दर, सलोनी, बुद्धिमत्ता और प्रखरता के तेज से भरपूर केतकी पावस के उन उलझे, कमजोर क्षणों में एक अनूठा सम्बल सिद्ध हुई।

एक दिन पावस शहर की प्रसिद्ध टैगोर लाइब्रेरी में मानव संसाधन पर विशेषज्ञों की पुस्तकें उलट-पलट कर कुछ खोज रहा था, और पास ही कुर्सी पर बैठी केतकी विकलांगों के प्रशिक्षण एवं उत्थान पर, प्रसिद्ध समाजशास्त्री देवाशीष सेन की पुस्तक बड़े ध्यान से पढ़ रही थी। पावस पुस्तकों में जो खोज रहा था, वह तो उसे नहीं मिला, किन्तु सामने विकलांगों पर पुस्तक पढ़ती केतकी के रूप में, उसके मन ने मानो कुछ खोज लिया था। अब वह सब कुछ छोड़कर, केतकी का पुस्तक से ध्यान हटने की प्रतीक्षा करने लगा। अनेक प्रश्न पावस के बेचैन मन में केतकी को लेकर उठने लगे। क्या यह लड़की विकलांगों पर शोध कर रही है? या किसी अपंग केन्द्र में पढ़ाती है? या ‘हैन्डीकैप्ड् स्पेशलिस्ट’ है या वह खुद विकलांग है? खड़ी होगी, उठेगी, चलेगी - यह तो तभी पता चलेगा... ! पर जो भी हो????? जो सपना बुना है, उसमें यह भी भागीदार बनाई जा सकती है। कितने ध्यान से, डूबकर, विकलांगों पर पन्ने पर पन्ने पढ़ रही है! जैसे-जैसे समय बीतता गया, पावस के मन की खलबली बढ़ती गई। अब उसे केतकी का इतनी देर तक किताब में डूबे रहना खटकने लगा। उसे लगा कि लड़की कुछ खब्ती भी है - पढ़ाकू लोग वैसे भी थोड़े खब्ती होते ही है, पर यह तो कुछ ज्यादा ही लगती है। तभी, केतकी ने एक लम्बी श्वास ली, शायद थक गई थी; हौले से उठी और पुस्तक को शेल्फ में यथास्थान रखकर, चल पड़ी। पावस भी लपक कर उसके पीछे हो लिया। पीछे-पीछे पावस, आगे-आगे केतकी। कुछ पल तक संकोच करता रहा, फिर अपने को साधकर, गला साफ करते हुए बोला - “एक्सक्यूज मी”, जरा सुनेगी आप... ? केतकी ने पीछे मुड़कर जैसे ही उसकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा, पावस हकबकाया सा, मूक रह गया। केतकी फिर चल पड़ी। पावस ने अपने सिर पर थपकी मारते हुए, फिर से कहा - “जरा रुकेगी आप?” इस बार केतकी ने पलट कर तेज डपटते स्वर में पूछा - “क्यों?” इस बार पावस ने पुनः सीलबन्द होते अपने मुँह को किसी तरह खोलते हुए कहा - “वो जरा कुछ बहुत ही जरुरी बात आपसे करनी थी।”

केतकी ने तेवर दिखाए और मन में तर्क वितर्क करने लगी - कि अनजान लड़की से बात नहीं - बल्कि “जरुरी बात”? आश्चर्य! या यह मुझसे बात करने का, उस लड़के का कोई बहाना है? यह सोचती, नापतौल करती वह बोली - “मुझसे और जरुरी बात?” यह सुनकर पावस हड़बड़ाया। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे अपने इरादे को सही ढंग से उसके सामने रखे? एकाएक उसे अपनी नाकामयाबी पर झुँझलाहट आई और एक झटके से वह अपनी हिचकिचाहट के झंगोले से निकल कर - आत्मविश्वास से भर कर, केतकी की आँखों में आँखें डालकर बोला - “ऐसा है मैडम, इस तरह चलते-चलते बात नहीं हो पायेगी। बात कुछ गम्भीर और सोच-विचार वाली है। अगर आपके पास समय हो तो, अभी पास ही किसी कॉफी शॉप में चलते है या फिर, दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि आप कल का कोई समय मुझे दे दीजिए और जहाँ आप कहेगी - वहाँ शान्ति से बैठकर बाते करेंगे।” इस पारदर्शी से प्रस्ताव पर केतकी को लगा कि लड़का गंभीर और सरल है - सच ??? कुछ काम की बात करना चाहता है। उसने मन में सोचा - समय तो अभी भी दे सकती हूँ। फिर भी, क्या मालूम नाटक कर रहा हो - गम्भीरता का, सरलता का। उसको माँ का वाक्य याद आ गया - “भोली भाली शक्ल वाले होते हैं जल्लाद भी...।” वैसे भी एक अनजान लड़के की एकदम बात नहीं माननी चाहिए। लड़के बड़ शातिर होते है। जनाब को थोड़ा इन्तजार करवाना ही ठीक रहेगा। यह सोचकर केतकी ने उत्तर दिया - “ठीक है, कल 5 बजे एम.जी.रोड पर ‘एलचिको’ रेस्ट्रां में मिलते है।”

यह सुनते ही पावस बड़ा कृतज्ञ सा हो गया।

अगले दिन पास पाँच बजे से पहले ही ‘एलचिको’ पहुँच गया। ठीक पाँच बजे केतकी भी वहाँ पहुँच गई। पावस ने खड़े होकर बड़ी शालीनता से उसका स्वागत किया और केतकी ने भी एक सौम्य मुस्कान से अभिवादन कर, उसके स्वागत का खूबसूरत सा जवाब दिया। पावस ने केतकी से पूछ कर दो कॉफी और ‘चीज स्नैक्स’ का आर्डर दिया। केतकी बोली -

“कहिए क्या जरुरी बात थी, जो आप मुझसे कहना चाहते थे?”

पावस ने उत्तर में बड़ी सहजता से अपना परिचय देना जरुरी समझते हुए कहा - “मेरा नाम पावस है; क्या मैं आपका नाम और परिचय जान सकता हूँ?”

‘केतकी’- मुस्कुरा कर केतकी ने उत्तर दिया। फिर कुछ रुक कर बोली - “सीधी-सादी माँ की अकेली बेटी हूँ। पिता पाँच वर्ष पूर्व एक दुर्घटना में चल बसे। इसी वर्ष बम्बई विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एम.ए. किया है। और आपका परिचय?”

पावस बोला - “आपके पिता के बारे में जानकर दुख हुआ। तो आप समाजशास्त्र में एम.ए. है यह तो मेरे लिए ‘सोने में सुहागे’ वाला सुखद इत्तेफाक है। मैं, शायद आपने नाम सुन रखा हो - एडवोकेट शम्भुदयाल जी का बेटा हूँ और इसी वर्ष अहमदाबाद से मैंने एम.बी.ए. किया है। अपनी डिग्री का सदुपयोग मैं एक ‘विशिष्ट शिक्षण संस्था’ स्थापित करके करना चाहता हूँ केतकी जी - और इसी सन्दर्भ में आज आपसे बात करना चाहूँगा।”

इतने में कॉफी और स्नैक्स भी आ गए। पावस ने कॉफी पीते हुए कहा – “मैं सोचता हूँ कि आप मेरी ‘जरुरी बात’ की जरुरत को अब तो बहुत ही अच्छी तरह समझेगी क्योंकि आप समाजशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण विषय में एम.ए. है।”

केतकी बीच में ही उसे टोकती हुई बोली - “ना ना सिर्फ एम.ए. ही नहीं बल्कि सर्वाधिक अंको के लिए स्वर्णपदक भी प्राप्त किया है और विषय को मन से गुना है।”

यह सुनकर पावस उछलता सा बोला - “एक्सेलैन्ट, आप तो बेहद जहीन है और विषय की भरपूर ज्ञाता भी है।”

तभी केतकी तपाक से बोली - “लेकिन आपकी जरुरत सच्चे अर्थों में तभी समझूँगी, जब वह ‘जरुरी बात’ आप मुझे बताने का कष्ट करे- जिसका ज़िक्र आप कल से करते आ रहे है।”

पावस ने बिना किसी देरी के एकदम कहा - “ऐसा है केतकी जी कि मैं विकलांग युवाशक्ति के बहुआयामी उत्तम शिक्षण एवं प्रशिक्षण की एक ऐसी ‘अनूठी संस्था’ खोलना चाहता हूँ, जहाँ एक ही छत के नीचे उन्हें मूलभूत स्तर से लेकर उच्चस्तर तक - विविध, अपेक्षित विषयों को पढ़ने और ज्ञान प्राप्त कर, अपनी क्षमताओं व प्रतिभाओं को मुखर करने की सुविधा सुलभ हो। मैंने देखा है कि अक्सर ऐसे बच्चों और युवाओं की प्रतिभा उचित अवसरों व संसाधनों के अभाव में अँधेरों में खो जाती है और वे कुंठाओं का शिकार होकर रह जाते है। बहुत कम प्रतिशत है ऐसे युवाओं का, जिन्हें आगे बढ़ने व भरपूर शानदार जीवन जीने का मौका मिल पाता है। कई बार तो माँ-बाप आर्थिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से समर्थ होते हुए भी, ऐसे बच्चों के समयोचित प्रशिक्षण के बारे में पूरी जानकारी न होने के कारण उनके पूर्ण विकास में अपेक्षित सहयोग नहीं दे पाते। अतः बच्चों के साथ माँ-बाप भी कुंठित सा महसूस करते है और एक अधूरा सा जीवन जीने के लिए विवश होते है। तो मैं ऐसे असमर्थ बच्चों युवाओं व उनके निराश माँ-बाप को ऐसी विवशता और अधूरेपन से निकाल कर, उन्हें समाज व देश के विकास की एक महत्वपूर्ण इकाई बनाना चाहता हूँ। मेरी ओर से यह विकलांगों के उत्थान और सम्मान में एक छोटा सा प्यार भरा प्रयास होगा, जो अपने समाज व देश से होता हुआ समूचे विश्व की प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है। क्या ख्याल है आपका?”

केतकी तो पावस के इस उदात्त इरादे से इतनी इतनी प्रभावित हुई कि मूक सी, किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रही; कुछ कहते ही नहीं बन पड़ा उससे। उसे पावस के इस खूबसूरत ख्याल के आकाश में मानो एक साथ कई सूरज साथ-साथ चमकते दिखाई देने लगे। पावस ने पुकारा - “केतकी जी ! कहाँ है आप? क्या मेरा इरादा इतना बोगस लगा कि आपसे उसकी आलोचना में दो शब्द भी नहीं कहे जा रहे ? या आप बोर होकर किसी दूसरे ख्याल में डूबी हैं?”

केतकी प्रफुल्लता से भरी बोली - “नहीं पावस जी मैं तो आपके इरादे की ऊँचाई, ख्यालों की खूबसूरती से अभिभूत और आपकी व अपनी सोच की समानता से इतनी चकित हूँ, और उससे भी अधिक, बेइन्तहा खुश कि बता नहीं सकती। आपकी इस परियोजना के साथ-साथ मेरी इच्छा को भी साकार रूप मिलेगा। क्योंकि मैं गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारों में जन्मने वाले अपंग बच्चो की शिक्षा- दीक्षा के लिए कुछ करना चाहती थी। आपके इस प्रोजैक्ट में शत प्रतिशत अपने सहयोग का आश्वासन मैं अभी से आपको दे रही हूँ - तन-मनसे आपकी योजना को समर्पित होऊँगी पर - धन से नहीं, क्योंकि वह मेरे पास है ही नहीं।”

पावस तुरन्त बोला - “अरे, उसकी चिन्ता आप न करे, वह तो ऋण द्वारा हासिल किया जा सकता है, लेकिन निष्ठा, लगन और समर्पण का ऋण किसी भी बैंक या वित्तीय संस्था से नहीं मिल सकता। इसलिए जो सच्ची सहायता आप करने के लिए तैयार है, उसके लिए मैं आपका अभी से तहे दिल से आभारी हूँ। मुझे तो इस भावभीने उद्देश्य में दिल से समर्पित होकर काम करने वाले सहयोगी चाहिए। मेहनत तो रंग लाती ही है !”

पावस और केतकी ने काफी देर बैठकर अपनी इस योजना पर चर्चा की और आगे की रूपरेखा, अगली बैठक में निश्चित करने के इरादे से खुशी-खुशी एक दूसरे से विदा ली।

अपनी योजना की शुरुआत के लिए पावस को धन के साथ-साथ जगह की भी जरुरत थी। आखिरकार, खोजबीन और दौड़भाग के बाद उसे कान्देविली में अपने धनी मित्र अजिताभ की सहायता से 5 कमरों का एक पुराना बंगला कम किराए पर मिल गया। उसने अपेक्षित कार्यवाही पूरी कर, वहाँ विकलांग शिक्षा एवं पॉलीटेक्नीक की शुरुआत की। नाम रखा गया ‘जीवनदीप’ अखबारों में इश्तहार और पैम्फलैट आदि के माध्यम से इस छोटे से संस्थान की जानकारी प्रसारित की। फलस्वरूप, लोग आते और संस्थान देखकर जानकारी हासिल करके चले जाते। पावस और केतकी ने कम तनख्वाह पर, योजना को आगे बढ़ाने वाले ऐसे प्रशिक्षक भी ढूँढ लिए, जो हुनर व शिक्षा-दीक्षा होने के बावजूद भी खाली थे। इस प्रस्ताव से उन्हें भी जीवन में आशा की किरण नजर आई।

एक माह बीत गया लेकिन कोई दाखिले के लिए नहीं आया । दूसरा महीना भी ऐसे ही निकल गया। पावस जब-जब निराशा के बादलों से घिरता केतकी अंदर से चिंतित होते हुए भी, उसकी हौसला आफजाही करती। पावस को लगता कि भगवान उसके धैर्य व इरादे की दृढता की परीक्षा ले रहा है शायद, अत: वह भी ढहते ढहते जैसे एकाएक उठकर, कमार्कासके बैठ जाता । तभी अगस्त माह में एक दिन दो विकलांग लडके अपने अभिभावकों के साथ आए और उन्होंने सिर्फ जानकारी ही हासिल नहीं की अपितु दाखिला लेकर भी गए । पावस, केतकी और उनके अन्य साथियों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । दस दिन बाद एक अपंग लड़की ने दाखिला लिया और उसके एक सप्ताह बाद तीन छात्रों की और बढोतरी हुई । इसके बाद लगातार तीन-चार दिन तक एक-दो, एक-दो लड़के-लडकियां दाखिला लेने आते रहे । ये वे बच्चे थे, जिन्हें कहीं शरण नहीं मिली थी याँ जो भारी फीस न दे पाने के कारण शिक्षा से वंचित थे । इस तरह कुल मिला कर दस छात्र हो गए ।

पावस और केतकी के साथ, अन्य प्रशिक्षकों ने इतनी मेहनत और लगन से छात्रों को प्रशिक्षित किया कि जब वे दूसरे स्थानीय केन्द्र से परीक्षा में बैठे तो – लगभग सभी ने अप्रत्याशित रूप से उत्तम अंक प्राप्त किए । उन सभी दस युवाओं को धीरे-धीरे प्रशिक्षण पूर्ण होने पर, ‘जीवनदीप’ की मदद व प्रयासों से अच्छे स्थानों पर नौकरी मिल गई । उनका आत्मविश्वास जागा,मनोबल बढ़ा और अपने-अपने स्थानों पे मेहनत से काम करके उन्हें इतनी सराहना मिली कि उससे ‘जीवनदीप’ की ख्याति बढ़ने लगी । अध्यापकों, कार्यकर्ताओं की संख्या भी बढती गई । संचालक निदेशक, शिक्षक अपनी लगन, मेहनत और विकलांगों के उत्थान की भावना के लिए जाने जाने लगे ।लगातार बेहतर परिणाम व उन्नति, प्रगति करने वाले इसा संस्थान ने कुछ ही वर्षों में राज्य सरकार द्वारा वित्तीय सहायता भी प्राप्त करा ली । इतना ही नहीं, इस संस्थान के काम से खुश होकर सरकार ने कई एकड़ ज़मीन भी भवन निर्माण के लिए दान में दे दी । पावस और केतकी से मानो खुशी समेटे नहीं पडती थी । लेकिन वे स्वयं को साध कर, धैर्य से खूब सोच समझ कर, ज़मीन के स्पर्श को महसूसते हुए – निरंतर आगे बढ़ते गए । सफलता से ज़रा भी नहीं डगमगाए । आने वाले वर्षों में उनके सफल परिणामों व समर्पण को देख, ‘यूनाइटेड नेशंस हैंडीकैप्ड फंड्स’ से भी उन्हें अतिरिक्त आर्थिक सहायता मिलने लगी ।

पावस और केतकी ने अपने शिक्षकों के साथ एक ‘बैठक’ में सोच-विचार कर योजनाबध्द ढंग से, बेहतरीन आर्किटेक्ट्स के निर्देशन में भवन निर्माण का कार्य शुरू करवाया । विशेषज्ञों के परामर्श से विकलांगों की ज़रूरतों के अनुसार एक-एक कमरे, प्रयोगशाला, प्रशिक्षण कक्ष, सभागार शासकीय कार्यालय, फर्नीचर की विशेष बनावट, फर्शों की ऊँचाई, निचाई, सभी कुछ बड़े ढंग से तैयार करवाया। इस उदात्त परियोजना में दिलोजान से जुटे पावस और केतकी, एक दिन एक भावुक क्षण में - लम्बे समय से एक दूसरे की प्रेरणा और शक्ति बने- परस्पर जीवन साथी भी बन गए। मन्दिर में जाकर, अग्नि को साक्षी मानकर विवाह के पवित्र बन्धन में बँध गए। ‘जीवनदीप’ के सभी साथियों ने पावस और केतकी के इस स्नेहबंधन का भरपूर स्वागत किया और इस खुशी में एक छोटा सा जश्न मनाया।

‘जीवनदीप’ में चिकित्सा विभाग, इन्जीनियरिंग मैनेजमैन्ट विभाग, कलासंकाय में विविध विषयों के विभाग, आई.टी. की अधुनातम विकसित शाखाएँ, सी.ए., इलैक्ट्रिकल, इलैक्ट्रॉनिक्स, - कौन सा ऐसा विषय था - जिसकी जानकारी और गहन अध्ययन की सुविधा नहीं उपलब्ध थी। यह ‘एक ही छत के नीचे’ विविध महत्वपूर्ण अध्ययन शाखाओं वाला विशाल संस्थान था। डिप्लोमा पाठ्यक्रमों से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर व शोध स्तर के उत्तम अध्ययन के सभी संसाधन छात्रों की रुचि व क्षमता को ध्यान में रखकर संचालित किए गए थे। प्रशिक्षण हेतु , छात्रों की शारीरिक विरुपता व अक्षमता के अनुसार अपेक्षित सुविधाओं का ध्यान रखा गया था । पुस्तकालय भी उनके उठने, बैठने व पढ़ने की आधुनिक सुविधाओं से युक्त था। कम्प्यूटर, इन्टरनेट सभी कुछ उनके लिए उपलब्ध था।

पावस और केतकी की मेहनत रंग लाई और शरीरिक दृष्टि से अक्षम छात्र विभिन्न क्षेत्रों में सक्षम और योग्य बन कर अद्‌भुत क्षमताओं को समेट कर, समाज के विविध क्षेत्रों में कार्यरत हो, समाज की प्रगति का महत्वपूर्ण हिस्सा बनने लगे। अनेक छात्रों को विदेशी कम्पनियों ने निमंत्रण दिया और डेपुटेशन पर उनकी नियुक्ति की। वे विदेश से और भी बहुत कुछ सीखकर व अपनी योग्यताओं से उन्हें हतप्रभ कर स्वदेश लौट कर देश के उत्थान की अपरिहार्य इकाई बन गए। इन विकल अंगों वाले अद्‌भुत व विश्वास से भरपूर युवाओं ने कहीं मल्टीनेशलन कम्पिनयों को अप्रत्याशित ऊँचाई तक पहुँचाया, तो कहीं चिकित्सक की आयुर्वेदिक व होमयोपैथी शाखाओं को अपना कर, कमाल कर दिखाया। कहीं इल्कैट्रिक्ल, मिकेनिकल, मैटलर्जीकल, इलैक्ट्रॉनिक्स संबंधित कम्पिनयों को आशातीत लाभांश दिए। समाज, समूचा देश उन्हें नमन करने, उन पर गर्व करने के लिए विवश था और इस सबका श्रेय था पावस को और उसके बाद केतकी को व तदनन्तर उसके परिश्रमी, कर्मठ व समर्पित स्टॉफ को।

पावस को इस अनूठे ढंग से देश के हित में अपनी सच्ची सेवाएँ देने हेतु कुछ वर्ष बाद ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया गया। ‘पद्मश्री’ की उपाधि लेने के लिए जब वह राष्ट्रपति के निकट पहुँचा, तो उसने विनम्रता से उनके पैर छूकर - दो शब्द कहने की अनुमति माँगी। भवन में उपस्थित सभी गणमान्यजनों की उपस्थिति में उसने बहुत विनीत भाव से निवेदन किया कि- “पद्मश्री की उपाधि मेरे लिए सच्चे मायनों में तभी सार्थक होगी जब ‘जीवनदीप’ संस्थान की सेवाएँ भारत के सभी राज्यों में उपलब्ध होगी। इसके लिए मैं भारत सरकार से प्रार्थना करूँगा कि वह देश के विभिन्न प्रान्तों में विकलांग युवाशक्ति के लिए जीवनदीप की शाखाएँ स्थापित कर - इसकी सेवाएँ उनके अधिकतम निकट पहुँचाने में मेरी मदद करें। यह पद्मश्री मेरी नहीं अपितु मेरे उस संथान और उसके सभी कार्यकर्ताओं व छात्रों की है जो जी-जान से देश की सेवा में संलग्न है।”

पावस के ये सलोने शब्द सभागृह में उठने वाली तालियों की गड़गड़ाहट में डूब गए और इतना ही नहीं राष्ट्रपति महोदय ने भी उसी समय पावस के निवेदन पर स्वीकृति की मुहर लगाते हुए उसे इस नेक कार्य में पूरी मदद देने का आश्वासन दिया।

सरकार द्वारा दिया गया आश्वासन, मात्र आश्वासन ही नहीं था, अपितु आने वाले समय में शनैः शनैः अन्य प्रान्तों में भी ‘जीवनदीप’ की शाखाएँ खुलती गई और अनवरत परिश्रम, जी तोड़ मेहनत व श्रेष्ठ परिणामों के कारण इस संस्थान की ख्याति देश की सीमाओं को पार कर दूर-दूर तक फैलने लगी। परिणामस्वरुप कुछ देशों ने अपने यहाँ भी ‘जीवनदीप’ की शाखाएँ खोलने का प्रस्ताव भेजा तो - उस निर्णय का सारा भार पावस ने सरकार पर छोड़ दिया। स्वयं तो वह संथान के कार्यों में जुटा रहा।

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आज ऐसे ऐतिहासिक संस्थान की 50 वीं वर्षगांठ पर यदि पावस और केतकी भावुक होकर अतीत में डूब गए तो कोई आश्चर्य नहीं था। स्वाभाविक ही था। एकाएक वे पुनः वर्तमान में लौटे। खुशी से नम अपनी आँखों को पोंछते हुए पावस, केतकी की पीठ पर प्यार से थपकी देते हुए बोला -

“ऐ कहाँ हो...? मंज़िलें और भी बाकी है। फाइल्स बाकी है, काम बाकी है - अभी पूरा नहीं किया तो - अगले जन्म में निबटाना पड़ेगा।” पावस की इस विनोद भरी चेतावनी पर केतकी मुस्कुरा पड़ी, और आँखों से ‘हामी’ भर कर बोली - “चलो...!”

और दोनों स्फूर्ति से कदम बढ़ाते मानो पुनः कर्त्तव्य पथ पर बढ़ चले। जैसे ही दोनों अपने आफिस में पहुँचे, फोन की घन्टी दनदना उठी- पावस ने ज्योंहि फोन उठाया दूसरी ओर से किसी ने सूचना दी कि “इस वर्ष - जब कि आपके संस्थान के 50 वर्ष पूरे हो रहे है - सरकार द्वारा आपको ‘भारत रत्न’ व केतकी जी को ‘पद्मविभूषण’ मिलने जा रहा है।”

पावस बोला - “पर किस लिए ? हम तो इन पुरस्कारों से परे है; हम इनसे ऊपर होना चाहते है। अगर सरकार चाहती है कि हम और उन्नति करे, देश के लिए और बेहतर कर दिखाए तो हमें इन पुरस्कारों से ऊपर उठने दीजिए - इन्हें हमारे मार्ग भी बाधा न बनाएँ। सच्चे काम पुरस्कारों से मोहताज नहीं होते।”

और इसके साथ ही पावस ने फोन रख दिया। पावस के इस सम्वाद का केतकी ने ताली से स्वागत कर उसे गर्व निहारा और दोनों काम में जुट गए।