संकीर्णता का स्वर्ण काल / जयप्रकाश चौकसे

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संकीर्णता का स्वर्ण काल
प्रकाशन तिथि :13 जनवरी 2017


राहुल बोसअभिनीत 'शौर्य' 2008 में प्रदर्शित हुई थी। फिल्म का सारा कार्यकलाप एक फौजी के कोर्ट मार्शल का था और इस तरह की फिल्में पश्चिम में बहुत बनती रही हैं। ज्ञातव्य है कि सेना में अनुशासनहीनता या किए गए किसी अपराध का ट्रायल अफसरों की मौजूदगी में अदालतनुमा कक्ष में होता है। इसमें आरोपी अपना बचाव कर सकता है और इस कार्य में मदद ले सकता है। यह फिल्म हमारी दुखती रग पर हाथ रखती है और हमारी संकीर्णता की धज्जियां उड़ा देती है। इसे महज फौज से जुड़ा अपराध नहीं मानते हुए पूरी व्यवस्था की कमियों को उजागर करने वाली फिल्म माना जा सकता है। हमारे सदियों पूर्व जन्मे पूर्वग्रह और उन पर डटे रहने की क्षुद्रता इस फिल्म में ऐसी लगती है मानो प्रयोगशाला के माइक्रोस्कोप से देखे गए सूक्ष्म सामाजिक कीटाणु हम देख रहे हैं। बिना बेहोशी की दवा दिए की गई शल्यचिकित्सा-सा अनुभव दर्शक को होता है।

कश्मीर में अठारह अबोध किशोरों को अफसर गोली मार देता है और उनके शव के पास हथियार डाल देता है ताकि उन अबोध बच्चों पर हथियार तस्करी का आरोप लगाया जा सके। एक इस्लाम मानने वाला अफसर इस निर्मम हत्याकांड को उजागर करता है और यह सिद्ध किया जाता है कि एक आला अफसर इस तरह के हत्याकांड करता रहा है। वह पागल अपने बचाव में कहता है कि वर्षों पूर्व उनके घर के एक मुसलमान नौकर ने चोरी की थी और तभी से उसे उस धर्म को मानने वालों से नफरत है। भारत में सांप्रदायिकता का जहर सदियों से भीतरी सतह पर प्रवाहित है। भारत पर पुर्तगाली, फ्रांसीसी अंग्रेजों का शासन रहा है परंतु एक वर्ग केवल मुसलमान शासकों के खिलाफ है। यह सच है कि सारे मुगल शहंशाह इस्लाम को मानते थे परंतु हर इस्लाम परस्त मुगल नहीं होता। भारत पर आक्रमण तो अन्य धर्म के मानने वालों ने भी किए हैं और हमारे बीच हमेशा जयचंद रहे हैं। हमारे सबसे बड़े शत्रु हम स्वयं रहे हैं और आज भी हैं। अशिक्षा और षड्यंत्र के तहत बोए कट्‌टरता के बीज विदेशी आक्रमणकर्ता को सहयोग करते रहे हैं। लंबे समय तक विवेकानंद जैसे महान लोगों की परम्परा रही है, जिनके प्रभाव से हम अपनी संकीर्णता पर काबू रखते रहे हैं। वर्तमान शासक वर्ग ने हमें अपने ओछेपन और संकीर्णताओं को उजागर करना और उन पर गर्व करना सिखाया है। धर्मांधता हममें हमेशा से थी परंतु उसे परचम बनाकर सगर्व लहराते रहना वर्तमान शासक वर्ग ने सिखाया है। पहले व्यक्ति अपनी संकीर्णता को छिपाकर रखता था, क्योंकि असहिष्णुता का प्रदर्शन अखंडता माना जाता था और इसी आधारभूत भारतीय जीवन मूल्य को अब शर्म का पर्याय बना दिया गाय है गोयाकि अपने टुच्चेपन पर गर्व करें और व्यक्तिगत साहस के अभाव के कारण एक गुट में शामिल हो जाए। भीड़ बनने को शक्ति बना दिया गया है। यह सब तर्क आधारित जीवन को नष्ट करने का काम है और इसे आस्था कहकर बेशर्मी को साहस का नाम दे दिया गया है। आस्था हथियार कैसे हो सकती है? वह तो स्वयं को जानने की भीतरी यात्रा का पुरस्कार है।

याद आता है कि षड्यंत्रकारी कौरवों ने लाक्षागृह का निर्माण किया था। ज्वलनशील पदार्थ से बने इस घर को एक छोटी-सी चिंगारी पलक झपकते ही दावानल में बदल सकती थी। विदुर द्वारा सही समय पर सूचना मिलने के कारण पांडव एक सुरंग के जरिये बच निकले। आज नकारात्मक शक्तियों ने पूरे भारत को लाक्षागृह बना दिया है परंतु हमारे कालखंड मंे कोई विदुर नहीं है, जो हमें किसी सुरंग से भाग जाने का संदेश दें। पाकिस्तान से अधिक खतरा चीन से है परंतु इन दोनों से अधिक खतरा हमें अपने आप से है। हमारी सदियों से चली रही उदारता को नष्ट करके हमें संकीर्ण बनाया जा रहा है।

इन तमाम खतरों से लड़ने वाली सेना में भी सांप्रदायिकता का प्रवेश हो चुका है। बीएसएफ के एक जवान द्वारा अल्प भोजन दिए जाने की शिकायत पर उस पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह शिकायत वापस ले ले। जवानों को पौष्टिक भरपूर भोजन नहीं देकर उन्हें कमजोर भीरू बनाया जा रहा है। इस तरह की सारी हरकतें एक तरह से चीन को निमंत्रण पत्र है कि आइए और हमें अनुशासन समर्पण सिखाएं।