संगठनों की हरियाली में सूखते हुए उद्योग / जयप्रकाश चौकसे

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संगठनों की हरियाली में सूखते हुए उद्योग
प्रकाशन तिथि :27 जून 2017


फिल्म उद्योग में निर्माताओं, निर्देशकों, वादकों और कामगारों के संगठन हैं और फिल्म फेडरेशन शिखर संस्था है। इसी तरह वितरकों और सिनेमा मालिकों के भी विविध संगठन हैं। विगत कुछ वर्षों से मुंबई में सक्रिय कुछ संगठन शूटिंग में बाधाएं डालते हैं और बहुत छोटी-सी बात पर बड़ी फिल्म की शूटिंग रोक दी जाती है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रांतों में जातियों व अन्य समूहों के संगठन भी हैं, जो शूटिंग रोक देते हैं। कुछ ही समय पूर्व संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्‌मावती' की शूटिंग राजस्थान में रोक दी गई और महाराष्ट्र में भी इस फिल्म की शूटिंग रोक दी गई। बनी हुई फिल्मों में लगी लागत के बराबर ही धन उन फिल्मों में नष्ट होता है, जिनकी शूटिंग में अड़चनें पैदा की जाती हैं। दुनिया में केवल भारत ही ऐसा देश है, जहां सड़कों पर ही स्पीड ब्रेकर नहीं लगे हैं वरन हर क्षेत्र में स्पीड ब्रेकर हैं और चलते हुए भी देश रुका-रुका-सा लगता है। बच्चों के द्वारा घुमाए गए लट्‌टू की तरह चीजें चलने का भ्रम बनाती हैं। लट्‌टू को लोग हथेली पर भी उचका लेते हैं। जिसकी हथेली पर लट्‌टू घूम रहा है, कई बार उसे भ्रम हो जाता है कि विश्व भी उसकी हथेली पर घूम रहा है। हमारे शिखर नेता इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। वे स्वयं भी घूमते रहते हैं और हथेली पर लट्‌टू की तरह विश्व को घुमाए रखने का भ्रम भी पाले हुए हैं। विदेशों में अनेक अनुबंध किए गए हैं परंतु एक भी यथार्थ में काम नहीं आया। हर देश अपने संसाधनों और अपने परिश्रम से बनता है। ऐसा लगता है कि अधिकतम संगठनों वाला देश स्वयं ही बिखराव की कगार पर खड़ा है।

गीत की रिकॉर्डिंग पर वादकों के संगठन की दादागिरी चलती थीं परंतु कंप्यूटर जनित ध्वनियों के आगमन के कारण अब गीत रिकॉर्डिंग में वादकों की आवश्यकता ही नहीं रही। पहले भव्य रिकॉर्डिंग हॉल होते थे, जहां सौ साजिंदे काम करते थे,अब दस बाय दस के एक कमरे में कंप्यूटर जनित ध्वनियों से गीत रिकॉर्ड हो जाता है। उस यंत्र से इतने तार जुड़े होते हैं कि कंपोजर एक इलेक्ट्रिशियन लगता है।

हर संगठन में चुनाव होते हैं और पदाधिकारियों का दल चुनाव जीतने में महारत हासिल कर लेता है। ऐसा लगता है कि पूरे देश में हम सारा समय चुनाव-चुनाव खेलने में लगे रहते हैं। भारत में गणतंत्र व्यवस्था का अपना मॉडल बनाया है, जो सामंतवादी तौर-तरीकों से चलता है। कानूनी रूप से समाप्त किए जाने के बाद भी सामंतवाद देश में मौजूद है। हमारी मायथोलॉजी ने सामंंतवाद के लिए हमारे मन में असीम आदर पैदा किया है। हमारी भाषा पर भी सामंतवाद का प्रभाव है। हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति फलां उद्योग का राजा है। क्रिकेट और सिनेमा में कोई राजा है, कोई स्वयं को बादशाह कहता है।

अदूर गोपाल कृष्णन की एक फिल्म में क्रांति के बाद सेवक के हाथ में तलवार है और ताउम्र उसका शोषण करने वाला जमींदार डरा हुआ है परंतु सदियों से सोच में जमे सामंतवादी प्रभाव के कारण सेवक उसे नहीं मारता और तलवार फेंककर दूर चला जाता है। इस समय देश का अवाम भी अदूर की फिल्म की तरह तलवार फेंककर पलायन कर गया है। विकास का लट्‌टू भी पूंजीवादी हथेली पर ही घूम रहा है।

निर्माता और सिने कामगार संबंध की एक घटना कुछ इस तरह है कि किशोर कुमार ने सवा छह बजे काम खत्म किया। कामगार संगठन का कहना था कि शिफ्ट 6 बजे समाप्त होती है और 10 मिनट अधिक काम होने पर कामगार संगठन नियम के तहत कागारों को डेढ़ शिफ्ट का भुगतान करना होगा। आठ घंटों की शिफ्ट की मजदूरी सौ रुपए होती है तो दस मिनट के कारण डेढ़ शिफ्ट के नियम के तहत एक सौ पचास रुपए देना होता है। किशोर कुमार का कहना था कि आठ घंटे के सौ रुपए तो उसी मानदंड से दस मिनिट के पैसे लेने चाहिए।

बहरहाल, किशोर कुमार ने इसका बदला अपने ढंग से लिया। उन्होंने एक आउट डोर शूटिंग ऐसी जगह तय की जहां एक वृक्ष भी नहीं था और डेढ़ शिफ्ट का मेहनताना कामगारों को एक दिन पहले ही दे दिया। सारे लोग उस स्थान पर पहुंच गए परंतु किशोर कुमार नहीं आए और कोई शूटिंग नहीं की गई। कामगारों को नियमानुसार पैसे तो मिले परंतु धूप में बैठना पड़ा। उस स्थान पर पानी भी उपलब्ध नहीं था।

दरअसल, संगठन सामूहिक हित के लिए बनाए जाते हैं परंतु उनमें कुछ लोग नेता चुने जाने पर दादागिरी करने लगते हैं। कुछ लोग स्पीड ब्रेकर रचने में कुशल होते हैं। अब सारे व्यवसायों पर जीएटी लगाकर कागजी कार्रवाई बढ़ाई जा रही है और व्यवसाय चौपट हो रहे हैं। एकल सिनेमा को बचाने के लिए प्रांतीय सरकारें सिनेमा मालिक को सिनेमा रखरखाव के लिए टिकट के दाम से पंद्रह रुपए लेने का प्रावधान करना चाहिए, क्योंकि यह धन सरकार की जेब से नहीं जा रहा है। इसका यह अर्थ है कि दर्शक ही एकल सिनेमाघर को बचा रहा है परंतु प्रांतीय सरकारें वह नियम भी जारी नहीं कर पा रही हैं,जिसमें उनकी जेब से कुछ नहीं जाता। सबसे अजीब बात यह है कि जीएसटी अधिनियम की घोषणा रात 12 बजे की जाएगी, जिसका अर्थ है सांसदों को अधिक भत्ता और राष्ट्रीय संपदा का अपव्यय।

नेहरूजी ने रात 12 बजे संसद में स्वतंत्र भारत की घोषणा की थी कि जब दुनिया सो रही है तब भारत एक नवयुग में जाग रहा है। नेहरू के खिलाफ विषाक्त प्रचार किया जा रहा है परंतु उनके अनुसरण की तीव्र इच्छा से उबर नहीं पा रहे हैं।