संगीत और आदमी / कमलेश पाण्डेय
एक बड़ा ही मार्मिक गीत है- प्रकृति तेरे कण-कण में संगीत। कहीं और भी कुछ ऐसा ही कहा गया है कि ब्रम्हांड के रोम-रोम में संगीत है। ये विचार संभवतः रोम के किसी विद्वान ने उस वक्त व्यक्त किए होंगे जब रोम जल रहा था और उसका सम्राट बांसुरी बजा रहा था। इससे ज़ााहिर होता है कि संगीत न केवल पृथ्वी के जर्रे-जर्रे में, बल्कि बहुत प्राचीन काल से ही पाया जाता है। इसके प्रमाण सब ओर गूंजते मिल जाएंगे।
ब्रम्हांड के जन्म के बिग-बैंग सिद्धांत को ही लें। पहला संगीत और ताल का टुकड़ा ब्रम्हांड के साथ ही जन्मा था, जिसके आधुनिक साधक अपने बैंडों के जरिए आज भी जलजला पैदा करने की कोशिश में लगे रहते हैं। आगे चल कर धरती और उस पर तमाम जीव-जन्तुओं की पैदाइश के बाद तो धूम ही मच गई। कूकना, दहाड़ना, मिमियाना, रेंकना, भूंकना, हुंकारना जैसी संगीत की अलग-अलग शैलियां प्रकाश में आईं। उधर बाकी स्थूल जगत में भी रियाज़ चलता रहा- हवा सरसराती, पत्ते खड़कते, झरने कलकलाते, बारिश टपटपाती और बिजली कड़कती। कुल मिला कर चौबीसों घंटे आर्केष्ट्रा बजता रहता। अपनी भारत भूमि पर तो इंसानों के अलावा देवी-देवताओं ने भी संगीत के प्रचार-प्रसार में अपना भरपूर योगदान किया। शिव ने न केवल डमरू बजाया, बल्कि जबर्दस्त तांडव नृत्य भी किया। सरस्वती वीणा बजाती रहीं तो कृष्ण ने बांसुरी पर गाय और गोपियों को खूब संगीत सुनाया। देवी लक्ष्मी ने बेशक ऐसी कोई हरक़त नहीं की जिसका असर उनके वाहन और भक्तों की नीरस प्रकृति में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, हालांकि अपवादस्वरूप मुद्रा की छन-छन इन्हें भी प्रिय है। आदमी तो मानो संगीत पर पिल ही पड़ा। वेदों में कठिन शास्त्राीय संगीत की रचना करने के बाद वह अगली सदियों में उसे सुगम बनाने में लगा रहा। इस तरह धरती पर गाने-बजाने की अनंत परंपरा चालू रही।
ऐसी संगीतमय धरती पर मैं भी आलाप लेता उतरा। छुटपन में अष्टम सुर की तलाश में मां-बाप का जी हलकान किये रखा और फिर नर्सरी-स्कूल के ‘ट्विंकल-ट्विंकल’ को ही संगीत मान कर ज़िद तोड़ दी। आगे बड़े होने की प्रक्रिया में संगीत तरह-तरह के रूप लेकर मुझमें प्रवेश करता रहा। आस-पास हर तरफ़ फ़िल्मी-संगीत-प्रेमियों की भीड़ थी। पहले लगा था कि घर में मेरे पिताजी तो ज़रूर ही संगीत-शत्रु हैं। पर एक दिन उनको आंख मूंदे रेडियो पर सहगल के गीत पर झूमता देख कर जाना कि वे तो केवल नए गानों के दुश्मन थे। अपना तो ये हाल था कि हर नया गाना पिछले वाले गाने से बेहतर मालूम होता था।
जवानी के बहकते कदम मुझे एक शास्त्रीय -संगीत की एक महफ़िल में ले गए। संगीत के इस रूप का पहला साक्षात्कार खासा आतंककारी था। फ़िर भी मैं जाता रहा क्योंकि मैं जाता नहीं था बल्कि किसी ऐसे के द्वारा ले जाया जाता था जो उन दिनों मुझे अपने साथ हवालात भी ले जाती तो ज़रूर जाता। बहरहाल जल्दी ही मुझे ये संगीत पसंद आने लगा जिसकी वज़ह इसके गै़र-संगीतीय पहलू थे। मेरे पहलू में तो जो होता था सो होता ही था, आस-पास भी रेश्मी मुलायमियत और खुश्बुओं से माहौल ऐसा रहता कि मंच की ओर कम ही तव्वजो देनी पड़ती थी। आगे चलकर इस संगीत का एक रोचक दृश्य-पहलू भी उभरा, जिसने इसमें मेरी रुचि बढ़ा दी। मंच पर गाते कलाकार संगीत को बाक़ायदा कहीं हवा में पकड़ते और मुठ्ठी में कुछ प्रोसेसिंग जैसा कर के श्रोताओं की ओर फेंक देते थे। ये आप पर था कि उसे पकड़ें या रहने दें। ज़ाहिर है अन्य कामों में व्यस्त होने की वज़ह से मैं उस ओर नहीं लपकता था सो उनकी लज्ज़्त से महरूम ही रहा। बहरहाल ये संगीत बहुत महान भी बताया जाता था, इसलिए अपनी तुच्छता को ध्यान में रखते हुए मैं मंच से सुरक्षित दूरी बनाए रख अपने काम में लगा रहता था।
एक दिन इस सिलसिले को तोड़ कर मेरे जीवन में पत्नी का प्रवेश हो गया। पत्नी के रूप में मुझे एक ऐसी हस्ती मिली जिसने संगीत के एक नए ही अंदाज़ से मुझे रु-ब-रु कराया। अगर आप कहें, जैसा कि पूरी दुनिया कहती है कि लता मंगेश्कर संगीत की मलिका हैं तो फ़िर मेरी श्रीमतीजी क्या हैं। लताजी का क्या है, इतना सुरीला कंठ है, इतने अच्छे-अच्छे गाने गाने को मिले, बस गाती चली गईं। पर श्रीमतीजी का क्या कहूं, कंठ तो इतना विकट किस्म का मिला कि सुर उसमें से सरकते हुए ऐंठने लगते हैं। गाने उन्हें किसी ने गाने को दिए नहीं, फ़िर भी हमेशा अपनी मर्जी से चुन कर उन्होंने गाया। संगीत के प्रति समर्पण ऐसा कि मेरी तरह संगीत सुनकर ही काम चला लेने का खयाल तक कभी उनके मन में नहीं आया। इधर उनका मुंह गाने को खुलता है, उधर मेरा कष्ट उनके चेहरे पर गाने की कोशिश में उभरी यंत्रणा के सामने छोटा पड़ जाता है। संगीत के समर में उनके इस जौहर को मैं फर्शी सलाम बजाता हूं।
मेरी पत्नी के स्कूल की तरह ही संगीत के कुछ ऐसे घराने भी हैं, संगीत जिनकी सूली है, सुर और लय जिनके कान में टपकता सीसा है और ताल जिनके पांव में चुभते कांटे हैं। अगर कभी इनका संगीत से साबका पड़ ही जाय तो अपनी उन तमाम इंद्रियों को स्विच की तरह ऑफ़ कर देते हैं, जिनका संगीत सुनने से ताअल्लुक है। निश्चय ही इस काम में खासी मशक्कत होती होगी, क्योंकि संगीत तो आदमी का पूरा जि़स्म ही सुनता है। अगर इससे आधी कोशिश वे संगीत में रमने में करते तो शायद कामयाब हो जाते। ये आश्चर्य का विषय है कि इन्हें भी अपने कण-कण में संगीत रखने वाली प्रकृति ने ही बनाया है। इस बारे में मेरा अनुमान है कि हो न हो इनके पूर्वज गन्धर्वों से कोई खानदानी दुश्मनी पाल बैठे होंगे या इनकी कुलदेवी की देवी सरस्वती से नहीं बनती होगी।
मेरे कुछ दोस्त और पड़ोसी भी इस घराने से संबंध रखते हैं। एक पर तो संगीत का असर कमाल का ही होता है। उनकी आंखें मुंद जाती हैं और जब तक ऐसा भ्रम होने का खतरा हो कि वे संगीत में डूब कर परमानंद की अवस्था को छू गए हैं, उनकी नाक खर्राट-सुर में संगीत से जुगलबंदी करने लगती है। एक अन्य बंधु ने संगीत से बचने का बड़ा ही नायाब तरीव़फा निकाला है। जैसे ही आपने उनके सामने कोई गीत बजाया, वो ब्रास-बैंड के बड़े भोंपू के सदृश अपनी आवाज़ में संगति करने लगते हैं। अपने पसंदीदा गीत का फ़ालूदा होते देख उसे बंद कर देना ही ठीक मालूम होने लगता है। इतनी कृपा वे ज़रूर करते हैं कि गाना बंद हो जाने के बाद वे खुद नहीं गाते। मेरे एक और मित्र हैं, जो मेरी गाड़ी में लिफ्ट लेने के आदी हैं, पर गाडी में बजते संगीत को अपना प्रतिद्वंद्वी मानते हैं। वे कई बार मुझे चेतावनी दे चुके हैं कि अगर मैं उन्हें लिफ्ट देते रहना चाहता हूं तो ये संगीत-फंगीत बजाना बंद कर दूं। दरअसल वे चाहते हैं कि संगीत की जगह मैं उनके शेयर बाज़ार के उत्तम ज्ञान से फ़ायदा उठाऊं। मेरे एक अन्य संगीत-शत्रु मित्र तो साफ ही कहते हैं कि संगीत में वक्त बर्बाद करने से तो अच्छा है कोई ढंग का काम किया जाय, मसलन गप्पें, ताश, दारू की महफ़िल या महज़ पड़ोसन को ताड़ना ही। इन फ़ायदेमंद कामों में वे संगीत को बैकग्राउंड में भी बर्दाश्त करने को राज़ी नहीं होते। संगीत उनके इरादों और कारगुज़ारियों की राह में गति-अवरोधक या लालबत्ती का काम करती है और ज़िन्दगी में इन दोनों चीजों को सीधे फलांग जाने में यकीन करते हैं। मेरे एक पड़ोसी ऐसे भी हैं जो संगीत में बिल्कुल रुचि न होते हुए भी हर वक्त ढेर-सारा संगीत सुनते पाए जाते हैं। संगीत की हैसियत उनके यहां ड्राइंग-रूम में रखे क़ालीन, गुलदस्ते या पेंटिंग की है। अक्सर वे अपना सुरुचिपूर्ण, परिष्कृत या वैसा ही कुछ संगीत अपने मंहगे म्यूजिक-सिस्टम के जरिये पूरे मुहल्ले को सुनाते हैं और खुद सीन से भाग निकलते हैं। मुझे उनका ड्राइंग-रूम उन दिनों की महफिलों की याद दिलाता है जब मैं बकौल शरद जोशी, सितार सुनने की पोशाक पहन कर संगीत सुनने जाता था और संगीत के सिवा बहुत कुछ देख-सुन कर आता था।
बहरहाल इन अपवादों की वज़ह से ये सच्चाई छुप नहीं सकती कि पूरी दुनिया ही संगीत की दीवानी है और मौक़ा देख उसके कई रूपों में से किसी न किसी का मज़ा लेने के फ़िराक में रहती है। बाकी चीज़ों की तरह संगीत भी शुद्ध, मिलावटी या परिष्कृत किया हुआ होता है। इसी तर्ज़ पर भारत में संगीत के पर्यायवाची म्यूजिक प्योर, रिमिक्स या रिसायकिल्ड आदि किस्मों में मिलता है। मूलतः संगीत दो ही प्रकार का होता है, एक जो रचा जाता है, दूसरा जो चुरा लिया जाता है। संगीत तरह-तरह के साजों पर रचा जाता है और कंठ और शरीर के दीगर हिस्सों से गाया जाता है। गले और नाक के समवेत स्वर में गाकर कई कलाकार महान हो चुके हैं। इधर म्यूजिक-विडियो नामक संगीत में संगीत बजता तो साजों पर ही है पर निकलता मालूम होता है कुछ नर्तकियों के लचकते निरावृत शरीर के अलग-अलग कोणों से।
जब से संगीत बजाने के यंत्र नन्हें-मुन्ने आकारों में मिलने लगे हैं, संगीत-प्रेमियों की दुनिया में एकदम क्रान्ति ही आ गई है। अब चाहें तो अपना प्रिय संगीत सीधे अपने कान में ही उंड़ेल सकते हैं। संभवतः संगीत की एक ऐसी भी किस्म है जो मन को तो खूब भाती है, पर सबके सामने सुनते शर्म आती है। उधर बड़े-बड़े चोंगों और भोंपुओं के जरिये पूरे मुहल्ले को अपने संगीत-प्रेम का परिचय देने का ज़माना अभी लदा नहीं है, बल्कि आपके इरादे को सरंजाम देने को आपकी ज़ेब में पड़े फ़ोन में ही छोटे-छोटे भोंपू मिलने लगे हैं। इधर आपके फ़ोन की घंटी बजी, उधर आस-पास खड़े लोगों को आपके ‘म्यूजिकल-टेस्ट’ की एक नन्हीं-सी झलक मिल गई। जितनी देर इधर आपके फोन की घंटी बजती रही, फ़ोन करने वाले ने ‘कॉलर-ट्यून’ के बहाने संगीत का सेवन किया। मेरे एक व्यंग्यकार मित्र ने फ़ोन करने वालों को मेंहदी हसन की आवाज़ में ये नज़्म सुनवाने का इंतज़ाम किया है कि ‘कैसे कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं..’
आज के वातावरण में चारों ओर बजते अलग-अलग सुर-ताल के टुकड़ों का ये घनघोर कोरस पहले से ही कण-कण में संगीत समाये बैठी प्रकृति को कैसा लगता होगा, ये शोध का विषय है। मैंने कल्पना की तो देखा कि कोयल ने बसंत आया देख गाने के इरादे से चोंच खोला ही था कि पेड़ के नीचे से किसी फोन का रिंग टोन बजा- ‘‘आ! देखें ज़रा, किसमें कितना है दम!’’.. कोयल एकदम सहम गई या जाने उसका मूड ऑफ हो गया या फिर यही सोच कर चुप हो गई कि कहीं कोई गा ही रहा है तो क्यों खामख़्वाह जी हलकान करूं। फिर मुझे ये दृश्य दिखा कि बारिश की बूंदें बंगले के लॉन में पत्तों पर टप-टप करना चाह रही थीं, पर अंदर हॉल में न केवल बोतल से जामों में पूरी धार ही गिर रही थी और बड़े-बड़े काले स्पीकरों से टप-टप की क्या औक़ात, बादलों की गड़-गड़ तक को निगल जाने वाली ढम-ढम और बूम-बूम गूंज रही थी। बारिश की बूंदें डर के मारे चुपचाप पत्तों पर से सरकते हुए मिट्टी में मिल जाती हैं।
बहरहाल ये महज मेरा भ्रम हो सकता है। प्रकृति को धमका कर उसकी बोलती बंद करने के इरादे से हमने और बड़े-बड़े कारनामे कर रखे हैं। इंतिहा तक पहुंच चुके हैं शायद कि ‘बिग-बैंग’ से जन्मी धरती का विध्वंस कर सकने वाले एटमी धमाके भी रच डाले हैं। इंसान के छोटे-मोटे सांगीतिक प्रयोगों का वो बुरा नहीं मानती होगी, इस यकीन के साथ संगीत की दुनिया आगे बढ़ती रहे!
आमीन!