संगीत के संदर्भ में कुछ नोट्स (नरेश सक्सेना) / नागार्जुन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नागार्जुन उन कवियों में हैं जिनकी सबसे ज़्यादा कविताएं मेरी स्मृति में हैं। पूरी कविताएं नहीं, उनके मुखड़े। नागार्जुन की ख़ासियत यह है कि वह अक्सर पहली पंक्ति में ही सारा काम निबटा देते हैं। यही उनकी ताक़त है। कुछ कविताएं याद करें: ‘मेरी भी आभा है इसमें’, ‘बादल को घिरते देखा है’, ‘कालिदास सच-सच बतलाना’, ‘जो नहीं हो सके पूर्ण काम’, ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया’, ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’, ‘चंदू मैंने सपना देखा’, ‘धिन-धिन धा धमक धमक मेघ बजे’, ‘इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको’, ‘अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है बाक़ी ब्रह्म पिशाच’, ‘कुत्तों ने भी कुत्ते पाले, देखो भाई’। यदि आपने कभी छोटे से छोटा काम भी मनुष्यता के हक़ में किया है तो आपको सिर्फ़़ उस काम में नहीं बल्कि पूरे अंतरिक्ष में अपनी आभा के दर्शन होने लगेंगे। ‘बादल को घिरते देखा है’ पंक्ति पढ़ते ही न जाने कब की देखी, उमड़ती घुमड़ती घटाओं के दृश्य याद आने लगते हैं। ठंडी हवा चलने लगती है। बारिश की बूंदें, सावन के गीत और न जाने क्या-क्या। एक इतनी सरल और साधारण सी पंक्ति आपको समय और स्पेस की सीमाओं के परे पहुंचा देती है। अनुभव को ट्रांस्सेंड कर देती है। सघन बिंबों और ध्वनियों के लोक में पहुंचा देती है। यही नागार्जुन की ताक़त है। नागार्जुन की जो कविता मुझे पूरी याद है, वह है, ‘अकाल और उसके बाद’ और जो पूरी याद करना चाहता हूं, वह है, ‘मंत्रा’। क्या कविता का याद हो जाना उसका कोई गुण है? यदि कविता हमारी ऐंद्रिक संरचना का हिस्सा नहीं बनती तो वह हमारी सौंदर्य-चेतना, संवेदना और सृजनात्मकता का हिस्सा भी नहीं बनती। वह हमारी मनुष्यता को आलोकित करने का काम कैसे कर सकती है? ऊपर किये गये प्रश्न का सही उत्तर यही है कि जो कविताएं किसी की स्मृति में नहीं रहतींμवे कहीं नहीं रहतीं। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ हो या अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’, ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा’ हो या ‘एक पांव रखता हूं कि हज़ार राहें फूटती हैं’ हमारी स्मृति को मुक्त और निर्द्वंद्व नहीं छोड़तीं। नागार्जुन की कविताएं यह काम अपने भाषा संस्कार, बिंबों की सघनता और लयात्मकता के बल पर करती हैं। शब्दसंपदा उन्होंने संस्कृत से और लोकचेतना मैथिली से अर्जित की है। लोकसंगीत ने उनकी लय और बिंबात्मकता दोनों को संपन्न किया है। ऊपर उद्धृत नागार्जुन की सभी कविताएं लय में हैं। यह चार-चार मात्राओं के टुकड़ों से बना छंद है। उदाहरण के लिए ‘बादल को घिरते देखा है’ में कुल 16 मात्राएं हैं। तबले के ताल के बोलों के आधार नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 335 पर यह धा गे न ति न क धि न यानी कहरवा ताल है। नागार्जुन मुख्यतः कहरवा ताल के ही कवि हैं। इनमें से केवल दो कविताएं, ‘इंदु जी, इंदु जी’ और ‘धिन-धिन धा धमक धमक मेघ बजे’, की संगत धाधीना तातीना से (या ताक धिनाधिन से) बैठती है। यह छः छः मात्राओं के टुकड़ों से बना ताल है जो दादरा कहलाता है। ये संसार के सबसे सरल छंद हैं। बच्चों के खेलने के सारे गीत और लोरियां सामान्यतः इसी छंद का अनुसरण करती हैं। उदाहरण के लिए: बाबा बाबा आम दो, अक्कड़ बक्कड़ लोहे की टक्कर, हंपटी डंपटी सैट ओन ए वाल, चंदा मामा दूर के, कीची कीची कौवा खाय। ये सब कहरवा ताल के गीत हैं। ढोलक, मजीरा, करताल, चिमटा, खंजरी पर इनकी संगत आसानी से हो जाती है। लोक में, इसीलिए, सबसे अधिक व्याप्ति इसी ताल की है। ‘आवारा’ और ‘श्री चार सौ बीस’ के प्रसिद्ध गीत ‘आवारा हूं’ और ‘मेरा जूता है जापानी’ भी कहरवा ताल के ही गीत है। ‘जनकवि हूं, मैं साफ़ कहूंगा, क्यों हकलाऊं’ भी उसी ताल के गीत हैं। नागार्जुन तो अपनी कविता को गाते हुए नाचते भी थे। नाच के लिए भी यह ताल सबसे सीधा, सरल है और उपयुक्त भी। नागार्जुन की कविताओं में लय की सरलता है, किंतु अभिव्यक्ति और संवेदना की दृष्टि से कविता को शीर्ष पर पहुंचाने की कला में उन्हें महारत हासिल थी। लोकचेतना से संपन्न और जनकवि होने की आकांक्षा वाले कवि के लिए यह स्वाभाविक ही था। लय, यानी काल को एक निश्चित अवधि के आघातों से व्यक्त करना। किंतु यह घड़ी की टिक्-टिक् जैसी एकरसता और ऊब पैदा न कर दे, उस लिए इसके 3 आघातों या 4 आघातों के ‘पैटर्न’ या प्रतिरूप बनाये गयेμयही ताल कहलाया। (लय के साथ गति जुड़ी रहती है। जब हम ‘ताल’ को दु्रत में लाना चाहते हैं तो कहते हैं कि लय बढ़ा दो, ताल तो वही रहता है, किंतु लय धीमी या तेज़ होती है।) दिल की धड़कनों की लय द्रुत या विलंबित होते ही, हम जानते हैं, जीवन संभव नहीं होता। सामूहिक श्रम की कल्पना हम बिना लय के कर ही नहीं सकते।’ ‘हेइस्सा’ की जो लयबद्ध हांक लगायी जाती है, वह सामूहिक बल को समय के एक निश्चित बिंदु पर केंद्रित करने और एक ख़ास दिशा देने के लिए होती है। चल मेरे भइया, हेइस्सा अरे, पार लगैया, हेइस्सा अरे, नचै रुपैया, हेइस्सा अरे, छमक के छइया, हेइस्सा जय गंगा मइया हेइस्सा इस लय की न सिर्फ़़ एक वैज्ञानिकता है बल्कि बोलों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का दर्शन भी है। यह हांक भी कहरवा ताल पर चलती है। इंजन के कार्बोरेटर में यदि पैट्रोल, ऑक्सीजन और चिनगारी लय से बाहर हो जायें तो ‘फ़ायरिंग’ बेअसर हो जाती है और इंजन बंद। बेताले युवकों को सेना में भर्ती नहीं किया जाता। और सेनाएं जब सेतु से गुज़रती हैं तो सैनिक अपने कदमों की लय तोड़ देते हैं। वरना पुल टूट जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है। लय एक ‘मूड’ यानी मनोदशा पैदा करती है और पाठक-श्रोता के लिए शब्दों की अर्थवत्ता बढ़ा देती है। हर कवि अपनी तरह 336 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 से इसका इस्तेमाल करता है। शमशेर, जिन्हें एक ख़ास तरह के व्यक्तित्व और सौंदर्य का कवि माना जाता है, वह भी नागार्जुन की तरह कई तालों का प्रयोग करते हैं किंतु उनका रुझान ‘धमार’ या तेवरा ताल की ओर है। यह तीन और चार मात्राओं के जोड़ से बना सात मात्राओं का ताल है। यह कहरवा की तुलना में कुछ कठिन और इसीलिए अधिक शास्त्राीय है। प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ हर टुकड़े में सात मात्राएं हैं, जो, धाधीना, धीना धीना (14 मात्रा) या एक दो तीन, एक दो, एक दो (सात मात्रा) के हिसाब से इसका रूप निर्धारण करती हैं। तेवरा और धमार संभवतः मृदंग के ताल हैं और तबले पर 7 मात्राओं का ‘रूपक’ ताल बजाया जाता है। हर ताल का अपना अलग चरित्रा होता है। अलग व्यक्तित्व। अलग चाल-चलन। कहरवा और दादरा चपल चंचल प्रकृति के ताल हैं जबकि तेवरा या धमार गंभीर और परुष को व्यक्त करता है। कवि का रुझान किस ताल की ओर है, इससे कुछ हद तक उसके व्यक्तित्व और प्रकृति को समझा जा सकता है। यह याद रखना चाहिए कि निराला ने छंद को मुक्त किया था, तोड़ा या त्यागा नहीं था। मुक्तिबोध ने भी गद्य में लिखने के बावजूद अधिकांश कविताओं में तुकों और लयात्मकता का निर्वाह किया था। भारतीय संस्कृति में तो ईश्वर भी नाचते हैं। कृष्ण नाचते हैं। शिव तो सपरिवार नाचते हैं मय गणेश और पार्वती के, और विद्या की देवी सरस्वती वीणा लिये रहती हैं। सोहर के साथ जो ढोलक बजनी शुरू होती है तो छठ, मुंडन, सालगिरह, ब्याह और गौने तक रुकती नहीं है। बिना संगीत के लोक के निकट जाने की हम कल्पना ही नहीं कर सकते। भाषा हमने लगभग अंतिम कला के रूप में पायी है। भाषा से पहले लय, अभिनय, चित्राकला हमारी मनुष्यता अर्जित कर चुकी थी। कविता अपनी ताक़त के लिए इन सभी का इस्तेमाल करती है। जिन कवियों की शताब्दी या डेढ़ सौवां जन्म वर्ष हम मना रहे हैं, उन सभी ने इन तत्वों का भरपूर इस्तेमाल किया है। रवींद्र नाथ ठाकुर से लेकर अज्ञेय और गोपाल सिंह नेपाली तक सभी का अधिकार लय पर रहा है। (दर्शन दो धनश्याम, नाथ मेरी अंखियां प्यासी रेμनेपाली का प्रसिद्ध गीत है) यह सब कहने का आशय यह नहीं है कि कविता को छंद में लिखा जाना चाहिए, बल्कि यह है कि छंद को, लय और ताल को समझ ज़रूर लेना चाहिए। इसे बिना समझे हम न तो शताब्दी समारोह के कवियों को समझ पायेंगे और न अपनी तात्कालिक कविता पर सार्थक दृष्टिपात ही कर पायेंगे। यह भी समझ लेना चाहिए कि सरल गद्य के वाक्यों के पीछे बोली की स्वाभाविक लय छिपी होती है। अक्सर अच्छी कविताओं की शुरू की पंक्तियां बोली की इस लय का डिज़ायन रच देती हैं, और आगे की पंक्तियां इसका अनुसरण करती हैं। इस छिपी हुई लय का पता सामान्यतः कविता के पाठ के दौरान ही चल पाता है। यहां यह कहना भी ज़रूरी है कि विचारों की भाषा का लयात्मक होना सहज संभव नहीं होता। उसे नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 337 फ़ालतू शब्दों का प्रयोग करके लयात्मक बनाने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इस तरह भाषा कुछ सख़्त और सपाट हो जाती है। इसकी भरपाई कवि कैसे करता है? उसे अर्थ की ऊंची छलांग लगाने और संवेदनाक्षम बनाने के लिए कवि अपनी काव्य प्रतिभा और कौशल का इस्तेमाल कैसे करता है, यही उसकी क्षमता की कसौटी बनती है। नागार्जुन की दूसरी विशेषता है उनकी सघन बिंबों की संरचना और कविता को ‘लिरिकल’ या लोक गीतात्मक बनाने की क्षमता। ‘अकाल और उसके बाद’ कविता की हर पंक्ति के शुरू में ‘कई दिनों तक’ की पुनरावृत्ति और दूसरे पद के अंत में ‘कई दिनों के बाद’ की। या चंदू मैंने सपना देखा, या तीन दिन तीन रात का दुहराव या धिन-धिन धा धमक धमक मेघ बजे में ‘मेघ बजे’ की पुनरावृत्ति। लोकगीतों में अपनी प्रसन्नता को (कभी-कभी दुःख को भी) घनीभूत करने के लिए अक्सर इसी विधि को अपनाया जाता है। जैसे: जब मेरे बन्ने के हल्दी चढ़ेगी जब मेरे बन्ने के तिलक लगेगा जब मेरे बन्ने के सेहरा बंधेगा जब मेरा बन्ना घोड़ी चढ़ेगा इसी तर्ज़ परμ पंक बना हरिचंदन मेघ बजे हल का है अभिनंदन मेघ बजे दाहुर का कंठ खुला मेघ बजे धिन धिन धा धमक-धमक मेघ बजे कोई भी दृश्य बिना अपनी ध्वनियों के, बिना अपनी गंध के नहीं होता। बादल गरज रहे हैं, यह कहना तो ठीक है, लेकिन इसमें यह धिन-धिन धा धमक धमक कहां से आ गया! दरअसल, यहां किसान का तनमन नाच रहा है। उसे लगता है, आकाश मृदंग बजा रहा है और धरती नाच रही है। इस बिंब के अतीत में दरकी हुई धरती है और झुलसी हुई वनस्पतियां और भविष्य में है हरी भरी फ़सलें। याद करें, फ़िल्म मेघ्ेघे ढका तारा में ऋत्विक घटक कैसे राग की तान को चीख़ में बदल देते हैं। उस दृश्य का भी एक अतीत था और भविष्य में बड़ी बहन की मृत्यु का अहसास है, क्योंकि वर्तमान में मुंह से ख़ून आने का दृश्य है। या कुरोसावा के बारिश के दृश्य और बारिश की आवाज़ें। यहां नागार्जुन ने बादलों की गर्जना को दादरा के ताल में बदल दिया है। ‘अकाल और उसके बाद’ कविता की हर पंक्ति में एक ताक़तवर बिंब है। उदास चक्की के पास कानी कुतिया के पड़े रहने का बिंब तो अभूतपूर्व है। पूरी कविता में एक सन्नाटा पसरा है। छप्पर के 338 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 ऊपर धुआं उठने से लगता है, चूल्हे का रोना बंद हो चुका है। अब कुछ पकाना शुरू हुआ है। कई दिनों की भूख के बाद पेट में कुछ पहुंचे तब तो बोल फूटेंμघर में ऐसी गतिविधियां शुरू हों जिनकी आवाज़ें हों। इस कविता के बारे में विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है कि यहां पिता अपने बच्चों को भूखा देख रहा हैμयह पीड़ा असीम है और अकथनीय है। यह सिर्फ़ व्यंजित ही की जा सकती है, कही नहीं जा सकती। इसीलिए इस कविता में इसे अभिव्यक्त करने की कोशिश भी नहीं है। सारी कथा चूहों, छिपकलियों, सोती हुई कानी कुतिया और कौवों और धुएं के मार्फ़त कही गयी है। सभी बिंब मूक हैं। इस कविता में सिर्फ़ सन्नाटा बोलता है। ऐडवर्ड मंक की एक प्रसिद्ध पेंटिंग है (यह जर्मनी में कार्यरत रहे संभवतः 1995 के आस-पास) ‘चीख़’ (द स्क्रीम), अब चित्रा में चीख़ कैसे आयेμआवाज़ें़ कैसे आयें। यह चित्राकारों की एक समस्या रही है। लेकिन इस पेंटिंग में लड़की के भयभीत चेहरे, खुले हुए मुंह और धुंधले रंगों की पृष्ठभूमि का सुनसान उस चीख़ की भावना को दर्शक के हृदय में पैदा कर देता है। यह भी अकथनीय को कहने की, बिना आवाज़ के कहने की रचना है। इसी तरह बादलों और बारिश की कितनी कविताएं नागार्जुन के यहां हैं: ‘बादल को घिरते देखा है’, ‘उमड़ घुमड़ कर बादल आये’, ‘श्याम घटा बिजुरी चमकार’, ‘आज होगी सजनि वर्षा’। यहां भी बादल बरसने जा रहा है: ‘शिशु घन कुरंग’, ‘गीली भादो रैन अमावस’, ‘काली-काली घन-घटा’, ‘फुहारों वाली बारिश’, ‘बादल भिगो गये रातों रात’, ‘धिन-धिन धा धमक धमक’। इसीलिए नागार्जुन को जनकवि कहा जाता है। भारत किसानों का देश है। जी.डी. पी. का मुख्य स्रोत कृषि है और किसान उम्र भर आकाश की ओर निहारते रहते हैं। ज़रा सोचकर देखें कि हमारी वर्तमान कविता में बारिश की कितनी कविताएं हैं? हाल ही में दिल्ली में राजेश जोशी से मैंने पूछा कि बारिश की कोई कविता याद आती हो तो बताओ। राजेश सोचते रहे, फिर बताया, ‘वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर हैं’, किंतु यह शहर की बारिश का प्रसंग है। बारिश पर स्वयं राजेश की एक अच्छी कविता मेरे पास है जो ‘रचना समय’ के कविता विशेषांक में आयेगी, किंतु वह भी शहर की बारिश के बारे में है। मंगलेश डबराल की एक कविता में घनघोर बारिश के दिन कुछ बच्चे सिर्फ़़ यही पूछने स्कूल पहुंच जाते हैं कि आज स्कूल खुला है कि बंद। ग्रामचेतना के इतने कवि बताये जाते हैं लेकिन बारिश की एक भी सही कविता याद नहीं आती, तो क्यों? नागार्जुन साथी कवियों पर भी बहुत प्यार लुटाते थे। शंकर शैलेंद्र के लिए उन्होंने लिखा था: तुम प्रतिभा के ज्योति पुत्रा थे छाया क्या थी . . . दिल ही दिल थे, काया क्या थी। केदार नाथ अग्रवाल के लिए तो लिखा ही था कि केनकूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो कालिंजर का चौड़ा सीना वह भी तुम हो नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 339 याद करें समकालीन कवियों की दूसरे कवियों पर लिखी ऐसी प्यार भरी कविताएं। क्या कोई कविता याद आती है? सुधीर सक्सेना एक अपवाद की तरह याद आते हैं जिन्होंने शायद अपने कवि मित्रों पर सबसे ज़्यादा कविताएं लिखी हैं। बाक़ी कवि तो एक दूसरे का नाम लेने से ही कतराते दिखते हैं। किसी साथी कवि की अच्छी कविता याद करने के प्रश्न पर अक्सर चुप्पी छा जाती है। भगवत रावत, एकांत श्रीवास्त, राजेश जोशी, विजय कुमार, लीलाधर मंडलोई, आदि ऐसे कुछ लोगों में से हैं जिन्हें दूसरों की कविताएं भी याद रहती हैं। बहुत घेरने और दबाव डालने के बाद विनोदकुमार शुक्ल ने पहली बार चार नाम लिये हैंμविष्णु खरे, भगवतरावत, उदय प्रकाश (कहानी) और कुमार अंबुज (कहानी संग्रह)। राजनैतिक वक्तव्यों की कविता तो लगभग सभी लिखते हैं किंतु ‘साहस’ के संदर्भ में संभवतः भारत के इतिहास में नागार्जुन अकेले हैं जिन्होंने अपनी समकालीन सत्ता के शीर्ष का नाम लेकर ललकारा (‘अलाव’ के एक लेख में रविभूषण ने अपनी विशिष्ट शैली में नेहरू पर लिखी कविताओं का हवाला दिया है)। आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी / यही हुई है राय जवाहर लाल की या इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको। कमाल की बात यह है कि स्थिति का सारा विश्लेषण और निष्कर्ष गोया पहली पंक्ति में ही प्रकट हो जाता है। साहस के लिहाज़ से देखें तो ऐसा कोई काम कबीर ने भी नहीं किया था। कबीर ने धर्म की रूढ़ियों पर तो कड़े प्रहार किये, सामाजिक विषमताओं और संकुचित वृत्तियों की भी खूब निंदा की, किंतु दिल्ली के सुल्तान या काशीनरेश का नाम कभी उनकी कविता में नहीं आया। फिर भी यह उल्लेखनीय है कि कबीर की अध्यात्म चेतना रूढ़िवाद, पाखंड और कर्मकांड पर वज्र की तरह टूटी पड़ती दिखायी देती है। कबीर क्या, भक्ति काल से लेकर छायावाद तक और नागार्जुन को छोड़ दें तो आज तक राजसत्ता की आलोचना के लिहाज़ से लगभग सन्नाटा ही है। गौतम बुद्ध भी राजाओं, सामंतों और सेठों साहूकारों के अत्यंत प्रिय थे। वे सब बुद्ध के शांति और अहिंसा के दर्शन को अपने लिए उपयोगी पाते थे। ग़्ाुलामों का संघ में प्रवेश वर्जित था। उन्हें अपने मालिक से अनुमति लेनी होती थी। स्त्रिायों और बच्चों को भी परिवार के मुखिया की अनुमति के बिना दीक्षा नहीं दी जाती थी। इस दृष्टि से भारत के इतिहास में नागार्जुन अकेले हैं। स्वतंत्राता से पहले और स्वतंत्राता के बाद बार-बार जेल जाने वाले रचनाकार भी वह संभवतः अकेले ही हैं। उनकी कविताओं के कथ्य और शिल्प के विकास का अध्ययन किया जाना चाहिए। मंत्रा और हरिजन गाथा और भी कुछ कविताओं पर समय होता तो ज़रूर लिखता। मो.: 08090222200