संगीत बाजार में 'उत्पाद' का महत्व / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 फरवरी 2013
अंग्रेजी भाषा में गरीब के अमीर बनने की कहानी को 'रैग्स (चीथड़े) टू रिचेस' कहते हैं, परंतु दिल्ली के गुलशन कुमार की कहानी 'रस से माधुर्य' कही जा सकती है। कहा जाता है कि दिल्ली में वे फलों का रस बेचते थे और साथ ही कैसेट की अनुकृतियां भी बनाते थे। उन्होंने 'टी सीरीज' नामक संगीत कंपनी की स्थापना की और कुछ ही वर्षों में संगीत व्यापार के सम्राट हो गए। इस तरह की अफवाहें रही हैं कि उन्होंने अवैध संगीत वीडियो भी बेचे हैं। दरअसल इस तरह की बात प्राय: कही जाती है। मारिया पुजो ने अपनी 'गॉडफादर' में लिखा है कि अनेक औद्योगिक घरानों की सफलता का राज अपराध रहा है। भारतीय व्यवस्था ने भी नियम तोड़कर धन बनाने की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया।
गुलशन कुमार ने तीस वर्ष पूर्व ग्रामीण अंचलों में 'कैसेट क्रांति' की थी। कम दामों के 'टू इन वन' से बाजारों को पाट दिया था और उन यंत्रों पर उच्च गुणवत्ता का कैसेट नहीं बजाया जा सकता। भारत में सड़कों की दुर्दशा के कारण मजबूत कारों का निर्माण हुआ, जिनमें लगभग ट्रेक्टर की क्षमता थी। जैसे ही देश मेें आधुनिक सड़कें बनीं, उनके अनुरूप कारें आ गईं। मध्यम वर्ग के कार स्वप्न को मारुति ने पूरा किया। गुलशन कुमार ने संगीत बाजार को दूर-दराज के अंचलों तक पहुंचा दिया और उनकी 'वर्जन रिकॉर्डिंग' ने यह जुल्म ढाया कि मूल रचना का लोप हो गया, जैसे बाजार में खोटा सिक्का असल सिक्के को चलन से बाहर कर देता है।
वर्जन रिकॉर्डिंग उस दौर में वैध थी। गुलशन कुमार ने नए गायकों को प्रचुर अवसर उपलब्ध कराए। सोनू निगम ने उनके लिए सैकड़ों 'वर्जन' किए और उसी रियाज के कारण वह आज अपनी आवाज को ऐसे बदल लेता है, जैसे अय्यार अपने चेहरे बदल लेते हैं। गुलशन ने अनुराधा पौड़वाल से हजारों गीत गवाए। गुलशन के आगमन के पूर्व एक ही संगीत कंपनी का राज था और भारत के असीमित संगीत बाजार का आकलन गुलशन कुमार ने ही कराया और इसी कारण कुछ और संगीत कंपनियां आ गईं तथा प्रतिस्पद्र्धा का ऐसा दौर शुरू हुआ कि निर्माताओं को बहुत मोटी रकम मिलने लगी। गुलशन कुमार ने संगीत बाजार में तहलका मचा दिया। उन्होंने रिकॉर्डिंग स्टूडियो बनाया और फिल्म निर्माण भी शुरू किया। नदीम-श्रवण भी उन्हीं की देन हैं। गुलशन कुमार की नृशंस हत्या के बाद उनके उन्नीस वर्षीय पुत्र भूषण ने व्यवसाय को संभाला और आज अपने पिता के साम्राज्य को विराट बना दिया। भूषण अपने पिता से अलग मिजाज के हैं। गुलशन कुमार में देहाती सादगी थी, भूषण में महानगरीय निर्ममता है। गुलशन अपनी अकल्पनीय सफलता का श्रेय ईश्वर को देते थे, क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि उनमें कोई विशेष योग्यता नहीं थी, इसलिए वे भंडारा भी चलाते थे। भूषण को अपनी काबिलियत पर यकीन है और वह जानता है कि उसने सफलता परिश्रम से अर्जित की है। मसलन उन्होंने भारत के अनेक होटलों से रॉयल्टी वसूल की और संगीत मुफ्त में नहीं बजाया जा सकता, यह सबक अनेक व्यावसायिक संगठनों को सिखा दिया। बरसों से होटल वाले निशुल्क फिल्म गीत बजाते थे और अब उनको लगता है कि उन पर 'जजिया कर' लग गया है। उसने संगीत तस्करी के खिलाफ कड़े कदम उठाए।
'टी सीरीज' के उदय के पहले कोई कंपनी इस तरह की वसूली नहीं करती थी और साथ ही वे फिल्मकार-संगीतकार को कोई दिशा-निर्देश नहीं देते थे। टी सीरीज और उसके बाद आने वाली कंपनियों ने संगीत सृजन के काम में दखल देना शुरू किया और उन्हें यह भ्रम है कि वे जनता की पसंद के जानकार हैं। क्या हम इस तरह की कल्पना कर सकते हैं कि कोई कंपनी मालिक गुरुदत्त या राज कपूर को बता रहा है कि यह जनता की पसंद है और आप ऐसा गीत बनाएं? यह बात इसलिए गौरतलब है कि बाजार की ताकतें सारे सृजन क्षेत्रों पर हुकूमत कर रही हैं। किताब में कौन-से शेड्स हों, सनसनी कैसे पैदा करते हैं, खबर कैसे लिखी जाती है, ये सारे फैसले अब बाजार के हाथ हैं। पश्चिम में तो अधिक बिकने वाली किताब 'विशेषज्ञों' की देखरेख में वस्तु की तरहनिर्मित की जाती है। आज संस्कृति डिजाइन की जाती है। इतना ही नहीं वरन पुरानी संस्कृति की नई परिभाषा भी तैयार की जाती है।
फिल्म के बड़े सितारों पर कोई अंकुश नहीं लगा सकता, परंतु बॉक्स ऑफिस सफलता की खातिर वे भूषण कुमार की बात सुन लेते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि यह साधारण रचना को अपनी मार्केटिंग द्वारा कामयाब बना सकता है। एक गीत को दसों दिशाओं में गुंजाने की भी इंजीनियरिंग है और अवाम की जुबान पर राजनीतिक नारे हों या फिल्मी गीत चढ़ाए जा सकते हैं। राजनीति को व्यापारी चला रहे हैं, धर्म को प्रचारक और सृजन क्षेत्र भी अब स्वतंत्र नहीं है।