संगीत सन्ध्या / अन्तोन चेख़व / अनिल जनविजय

Gadya Kosh से
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हम नदी किनारे बने बगीचे में आ बैठे थे। हमारे सामने ही भूरी चिकनी मिट्टी की ढलान थी। हमारी पीठ के पीछे पेड़ों का एक घना झुण्ड था। थोड़ी ही देर में हम पेट के बल नरम हरी घास पर लेट गए और अपने दोनों हाथों का तकिया बनाकर उन्हें हमने अपने-अपने सिर के नीचे रख लिया। हमने घुटनों के नीचे के अपने पैरों को ऊपर की तरफ़ उठा लिया था और उन्हें हिलने-डुलने के लिए खुला छोड़ दिया था। हमने अपने हलके कोट उतारकर अपनी बगल में वहीं हरी घास पर डाल दिए थे। चान्द निकल आया था। पेड़ों के झुण्ड पर और दूर-दूर तक दिखाई दे रहे मैदान पर आसमान से झर रही हलकी चान्दनी बिखरी हुई थी और दूर कहीं लाल रंग का अलाव जलता हुआ दिखाई दे रहा था। पारदर्शी हवा मन्द गति से बह रही थी और उसमें से भीनी-भीनी सुगन्ध आ रही थी, जो हम लोगों को मदहोश कर रही थी। पूरा वातावरण वैसा ही था, जैसाकि किसी संगीत-सन्ध्या के लिए ज़रूरी होता है। इस सन्ध्या के आयोजक भरत पक्षी के लिए यह बात बड़ी सन्तोषजनक थी। अब हमें संगीत-सन्ध्या के शुरू होने का इन्तज़ार थे। हम बेचैनी से संगीत की प्रतीक्षा कर रहे थे। संगीत-सन्ध्या के शुरू होने का समय कब का बीत गया था और हमारी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। मुख्य कार्यक्रम शुरू होने से पहले समय बिताने के लिए हमारे लिए कुछ दूसरे ही कलाकार अपने-अपने आइटम पेश कर रहे थे और हमारा ध्यान उनकी तरफ़ लगा हुआ था।

आख़िर संगीत सन्ध्या शुरू हो गई। सबसे पहले कोयल अपना गीत गाने के लिए आई। दूर बगीचे में कहीं उसकी कूक सुनाई दे रही थी। वह बड़े आलसी ढंग से धीरे-धीरे कूक रही थी और दस बार कूकने के बाद वह ख़ामोश हो गई। तभी दो बाज़ हमारे सिर के ऊपर उड़ने लगे और तीखी आवाज़ में कूँ-कूँ करके चीख़ने लगे। इसके बाद एक पीलक पक्षी ने आकर अपनी गुरु-गम्भीर आवाज़ में चहकना शुरू कर दिया। इसका गीत हमें बेहद पसन्द आया और हम बड़े ध्यान से उसका गायन सुनने लगे। हमें मज़ा आ रहा था, पर तभी अपने घोंसलों की तरफ़ लौट रहे कौओं की काँव-काँव का कर्ण-कठोर संगीत हमारे कानों में पड़ने लगा। ये कौए एक काले-घने बादल की तरह पेड़ों के झुण्ड के ऊपर आकाश में छा गए थे। ये ’कारे-कारे मेघा’ देर तक गरजते रहे।

कौओं की काँव-काँव की गरज सुनकर नदी किनारे उगे हुए सरकण्डों के बीच बिना किराया दिए मुफ़्त के घरों में रहने वाले मेंढकों ने टर्राना शुरू कर दिया था। क़रीब आधे घण्टे तक तरह-तरह के गायक एक साथ ही अपना समूहगान पेश करते रहे। जल्दी ही उनका वह गायन एक तरन्नुम में बदल गया था। हम बड़ी मस्ती से चुपचाप इस सुगम संगीत का मज़ा ले रहे थे। तभी इन गायकों ने अपना यह समूहगान बन्द कर दिया और उसकी जगह चिलबिल पक्षी ने ले ली। चिलबिल अपनी बुलन्द आवाज़ में कड़कड़ाने लगा था और वातावरण में एक रोमांच-सा भर गया था। नदी किनारे सरकण्डों के झुण्ड में रहने वाली जलमुर्गियाँ भी कुड़कुड़ाने लगी थीं। अचानक हवा की गति तेज़ हो गई और सरकण्डे आपस में टकराने लगे और उनकी टकराहट से भी एक सरस ध्वनि झरझराने लगी और संगीत-सन्ध्या में जैसे एक नया साज़ बजने लगा था। इसके बाद संगीत सन्ध्या का मध्यान्तर हो गया। चारों तरफ़ फिर से ख़ामोशी छा गई थी। बस, कभी-कभी श्रोताओं के पास घास में छुपे झींगुर झीं-झीं करने लगते थे, जैसे श्रोताओं को बान्धे रखने के लिए मध्यान्तर के दौरान बजने वाला हलका सुरीला संगीत बज रहा हो।

यह मध्यान्तर बहुत लम्बा खिंच गया था और हम श्रोताओं के सब्र का बान्ध टूटने लगा था। आख़िर हमने इस संगीत-सन्ध्या के आयोजक भरत पक्षी से यह शिकायत कर ही दी कि मध्यान्तर बहुत लम्बा खिंच गया था। तब तक रात पूरी तरह से उतर आई थी और चान्द हमारे सिर के ऊपर मण्डराने लगा था। वह एकदम बगीचे के ऊपर आ पहुँचा था। अब उसकी बारी थी। चान्द महोगनी के पेड़ की चौड़ी-चौड़ी पत्तियों के पीछे जाकर छुप गया था।तभी एक कृष्ण-कस्तूरी पक्षी नदी किनारे की झाड़ियों पर उड़ान भरकर चुपचाप नदी किनारे उतर आया और अपनी पूँछ उठाकर बिना हिले-डुले वहाँ खड़ा हो गया।

उसने सलेटी रंग की मिरजई पहनी हुई थी और श्रोताओं की तरफ़ बिना कोई ध्यान दिए वह बगुला भगत बना अपने ही ख़यालों में मस्त था। जैसे कोई छैल-छबीला चिड़ा अपनी छबीली चिड़िया को लुभाने के लिए शानदार सूट पहनकर संगीत-सभा में आया हो। मेरा मन हुआ कि उससे कहूँ — ऐ नौजवान, देख रहा हूँ तुम्हारी आन-बान, क्या ठाठ हैं तुम्हारे और क्या शान, पर याद रखो, तुम हो इस सन्ध्या के मेजबान और हम श्रोता हैं तुम्हारे मेहमान ! ख़ैर ... तीन मिनट तक वह एकदम चुपचाप खड़ा रहा, ज़रा भी हिला-डुला नहीं। तभी हलकी हवा बहने लगी और पेड़ों की फुनगियाँ हिलने लगीं और झींगुर भी जोर-ज़ोर से झीं-झीं करने लगे।

बस, तभी ज़ोर-ज़ोर से बैण्ड बजने लगा और विभिन्न वाद्य-यन्त्र झनझनाने लगे। कृष्ण-कस्तूरी पक्षी ने अपनी भरभराती हुई आवाज़ में एक ऊँचा आलाप लेकर गाना शुरू कर दिया। मैं उसके गायन के उस अद्भुत्त प्रभाव को शब्दों में शायद ही पूरी तरह से अभिव्यक्त कर पाऊँगा। बस, इतना ही कह सकता हूँ कि उसकी आवाज़ ने लोगों को इतना पुलकित कर दिया था कि बैण्ड भी सिहरकर ख़ामोश हो गया। अब कलाकार अपने पूरे रंग में आ गया था और अपना सिर ऊपर उठाकर अपनी पूरी चोंच खोलकर विलम्बित लय में अपना राग सुनाने लगा था। उसकी गहरी आवाज़ ने सभी श्रोताओं को बान्ध लिया था और वे उसके गीत की मधुरता में मगन हो गए थे। वैसे कृष्ण-कस्तूरी के इस श्रेष्ठ गायन का विस्तार से वर्णन करके मैं कल्पनाशील कवियों के पेट पर लात नहीं मारना चाहता। यह उनका काम है कि वे ख़ूबसूरत शब्दों में यह लिखें कि कैसे उसका गाना सुनने के लिए पूरी पृथ्वी पर ख़ामोशी छा गई थी, यहाँ तक कि प्रकृति भी मूक हो गई थी। सिर्फ़ एक बार कुछ पेड़ों ने थोड़ी-सी नाराज़गी व्यक्त की थी और वे सरसराने लगे थे। लेकिन जब हवा ने बहना बन्द कर दिया तो वे भी ख़ामोश हो गए और बड़े ध्यान से कृष्ण-कस्तूरी का गायन सुनने लगे। फिर जब देर तक कृष्ण-कस्तूरी गाता ही रहा तो उसे चुप कराने के लिए उलूक पक्षी ने अपने टिर्र-टिर्र शुरू कर दी थी। उल्लू का टर्राना सुनकर कृष्ण-कस्तूरी चुप हो गया था।

फिर आकाश में सुबह की सफ़ेदी झलकने लगी। तारों ने आसमान के आँचल में अपना चेहरा छुपाना शुरू कर दिया। रात को गाने वाले गायक पक्षियों की संगीत सन्ध्या का अन्त समय नज़दीक आ गया था। उनके स्वर निरन्तर मन्द होते चले गए। पेड़ों के पीछे से ज़मीदार के बावर्ची का आकार उभर आया था। अपने बाएँ हाथ में अपनी टोपी पकड़े हुए वह धीमी गति से चुपचाप बढ़ा जा रहा था। उसके दाएँ हाथ में एक टोकरी थी। थोड़ी देर तक उसकी परछाईं पेड़ों के बीच झिलमिलाती रही और फिर धीरे-धीरे वह पेड़ों के झुण्ड की दूसरी तरफ़ पहुँचकर गायब हो गया।वातावरण में फिर से मौन छा गया था। हम श्रोता भी चलने की तैयारी करने लगे।

तभी हमें एक आवाज़ सुनाई पड़ी — देखो, यह बेहया फिर आ गया ! इसके साथ ही हमने फिर से उस बावर्ची को देखा। ज़मींदार का बावर्ची ज़ोर-ज़ोर से हँसता हुआ हमारी तरफ़ ही बढ़ा चला आ रहा था। उसने अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाया। हमने देखा कि उसने भरत पक्षी को गरदन से पकड़ रखा है और भरत पक्षी जैसा कलाकार उसके पंजे में फँसा तड़फड़ा रहा है। बेचारा गायक ! ख़ुदा बचाए, इस तरह के चिड़ीबाज़ों से।

— अरे भाई, तुमने इस भरत पक्षी को क्यों पकड़ लिया? — हमने बावर्ची से पूछा।

— जी, मैं इसे पालूँगा और अपने पिंजरे में रखूँगा इसे !

सुबह का स्वागत करते हुए वहाँ बगीचे में एक अन्नपुट्ट पक्षी दर्दभरी आवाज़ में रुदन कर रहा था। वह बगीचा भी शोक से चीख़ रहा था, जहाँ से बावर्ची भरत पक्षी का अपहरण करके ले गया था। उधर बावर्ची ने पाटल-प्रेमी उस भरत पक्षी को अपनी टोकरी में रखकर टोकरी का ढक्कन बन्द किया और गाँव की तरफ़ बढ़ गया। हम भी अपनी-अपनी राह चल पड़े।

1883

कहानी का मूल रूसी नाम -- बिनिफ़ीस सलअविया Бенефис соловья