संगोष्ठी / मधु संधु
स्थानीय कालेज में सेमिनार था। पूरा विभाग ही आ जुड़ा था। जुड़ा नहीं चिपक गया था। कुछ क्रिया में, कुछ प्रक्रिया में और कुछ प्रतिक्रिया में।
जिस समय उन्होंने फोन उठाया, रात के पौने नौ बजे थे। वे जानते थे कि सर्दियों की रात में पौने नौ का अर्थ आधी-रात होता है। उद्वेगातिरेक उन्हें चैन नहीं लेने दे रहे थे। तन काँप रहा था। मन फडफड़ा रहा था। मस्तक फट जाने की स्थिति में था। बवंडर उठ रहे थे। ब्लड-प्रेशर और नींद की गोली ले वे लेट गए। इतना अपमान कभी नहीं झेला था।
वह नगर की सम्प्रदाय विशेष से जुड़ी संस्था थी। यू० जी० सी० की अच्छी खासी ग्रांट से वहाँ सेमिनार हो रहा था। भनक तो उन्हें बहुत पहले लग गई थी, पर उनकी इजाज़त के बिना पत्ता भी हिले, यह उन्हें मंजूर नहीं था। उनके बिना भी उस संस्था में कुछ क्रियान्वित हो सकता है, ऐसा तो उन्होंने कभी सोचा तक नहीं था। ख़ून खौल रहा था। वे जानते थे, यह समय उत्तेजित होने का नहीं, सूझ-बूझ से काम लेने का है। छटपटाहटें काबू में नहीं आ रही थी। यह अपमान उन्हें एसिड बम की तरह लग रहा था। सिंहासन हिलने जैसा था। लगा पाँव तले की ज़मीन खिसक गई हो। ब्लड-प्रेशर और नींद की गोली ले वे लेट गए। कब से इस संगोष्ठी में अपने वर्चस्व के लिए उतावले थे, पर नाक से इतनी लकीरें निकालनी पड़ेंगी, उम्मीद नहीं थी। शुक्र है कि हिम्मत हारना उनके स्वभाव में नहीं था।
वह साम्प्रदायिकता पसन्द व्यक्ति थे। साम्प्रदायिकता पसन्द थे या नहीं, पर साम्प्रदायिकता को भुना-भुना कर ही उन्होंने आकाश को तो नहीं, बादलों को छूने की चेष्टा अवश्य की थी और अब थोड़ी ऊँचाइयाँ छू एक प्रदूषित हवा में झूम -बिखर रहे थे।
लम्बी ऊहापोह के बाद उन्होंने फोन नम्बर मिला ही लिया। यह उस संस्था के अध्यक्ष का नम्बर था, जिसमें संगोष्ठी का आयोजन हो रहा था और आव देखा न ताव फटाफट बोल गए-
’क्या हाल है....साहब’
’प्रणाम’
’पहले तो आप मेरी मुबारक लीजिए- आपके नेतृत्व में चलने वाली हमारे सम्प्रदाय की संस्था इतनी तरक्की कर रही है। नित्य नई तकनीकों पर संगोष्ठियाँ करवा रही है।’
’इस बार तो आपने बहुत अच्छा विषय चुना है।’
’कौन सा, किस विषय में ?’
’सोशल साईंस में।’
’बड़े अच्छे लोग बुलवाए हैं।’
’लेकिन किसी साजिश के तहत सारे विधर्मी ही आ जुटे हैं। आप जैसे काम को समर्पित लोग तो बहुत सी बातों की परवाह नहीं करते। मैं विश्वविद्यालय का सबसे सीनियर प्रोफेसर हूँ और अपने सम्प्रदाय का होने के बावजूद मुझसे न सलाह-मशवरा किया गया है और न ही मुझे बुलाया गया है। कोई बड़ी साजिश है।... साहिब पानी सिर से ऊपर जा रहा है।’ यहाँ एक ज़ोर आजमाइश, एक रस्साकशी थी और पंजा लड़ाने के लिए वह मैदान में उतर चुके थे।
अध्यक्ष साहब जन्मना पोलिटिकल आदमी थे। भले ही इस समय दोनों सम्प्रदायों की मिली-जुली सरकार चल रही थी, परन्तु स्थिति उन्हें पल भर में स्पष्ट हो गई थी। उन्होंने प्रिंसिपल को फोन किया, आदेश दिए। प्रिंसिपल ने विभागाध्यक्ष को फोन किया, इन्क्वायरी की। विभागाध्यक्ष ने कार्यक्रम अधिकारी प्रवक्ता को बुलाया, निर्देश दिए। कार्यक्रम-अधिकारी प्रवक्ता कम्प्यूटर-आपरेटर के पास गया, पत्र टाईप करवाया। फिर सभी आवश्यक हस्ताक्षर हुए और यह सब होते-होते पाँच बज गए। संस्था के सब कर्मचारी अधिकारी जा चुके थे। आज आमन्त्रण पत्र भेजा जाना मुश्किल था।
प्रिंसिपल को पता था कि यह उस कैटेगरी का आदमी है, जो किसी लाश तक को हथिया कर, सम्प्रदाय के नाम पर, जुलूस निकाल शहर में दंगे करवा सकता है। बस चलता तो शर्मिला- पटौदी, ऋतिक- सुजेन, शाहरुख- गौरी, सुनीलदत्त- नर्गिस जैसी जोड़ियों के यहाँ आग दहकाने से बाज न आता। उनकी कोशिश अपने सेमिनार को साम्प्रदायिकता से बचाने की थी। सोचते अगर यह मुसीबत टल जाए तो कोई चमत्कार ही समझो, पर चमत्कार हुआ नहीं करते।
अगले दिन सुबह साढ़े दस बजे जैसे ही आमन्त्रण मिला, उनका आत्मविश्वास लौट आया। गुब्बारे से हल्के हो यहाँ-वहाँ उड़ने लगे। कोई भी फोन या काम करने से पहले उन्हें होमवर्क करने की समझदार आदत रही थ। उन्होंने लाइबरेरी का चक्कर लगाया, प्राचार्य का वर्षों पुराना थीसिस निकलवा उसकी भूमिका और उपसंहार पढ़ डाला। हाथ फिर फोन के रिसीवर पर पड़े-
’हैलो, सर! मैं बोल रहा हूँ।’
.......
’गुड मार्निंग।’
........
’आप के सेमिनार का आमन्त्रण-पत्र मिला। बड़ा अच्छा विषय लिया है। इस पर मैंने ही बीस-साल पहले काम किया था।’
’पर यह एप्रोच तो दो-तीन वर्ष ही पुरानी है। मूलतः यह तो अभी भी डिबेट का विषय है। इसके तो पैरामीटर अभी सैट नहीं हुए। मैंने सच्चाई की तह तक जाने के लिए ही सेमिनार आयोजित किया है।’ - प्रिंसीपल ने आश्चर्य-चकित स्वर में स्पष्टता दी।
’सर जी ! आपका थीसिस भी तो इसी विषय पर था। भले ही इस शब्द का कहीं प्रयोग नहीं मिलता। तब तो इस शब्द का जन्म भी नहीं हुआ था।’ - इतने प्रभावपूर्ण स्वर में वे बोले कि रफता-रफता प्रिंसिपल साहेब भी स्तभित/कायल हो गए।
’जी हाँ साहब , मैंने पाँच साल की मेहनत से लिखा है।’
’वह ज़माना और था। पर आपका थीसिस अपने समय से बीस साल आगे है। भले ही इसका नोटिस नहीं लिया गया।... आपने भी कोशिश नहीं की। ही... ही... ही, आपको व्यस्तताओं से फुरसत ही कहाँ मिली होगी।... समय तो निकालना पड़ता है।’
स्वर ऐसा था, मानों प्रतिभा की पहचान वही कर सकते हों, अमूल्य चीज़ों का मूल्य डालने की तौफ़ीक मात्र उन्हीं में हो।
लोग सोचते कि कपड़ों के बारे में वे काफ़ी बेपरवाह हैं। अकसर वही लाल या मैजंटा चैक शर्ट वे किसी की मृत्यु पर जाते समय डालते और ऐसी ही ख़ुशी के मौके पर। उस दिन उन्होंने गिफट में मिली नई वी० आई० पी० शर्ट निकाली। चेहरे पर इधर-उधर पड़ने वाले डाई के धब्बों से बचने के लिए सैलून से बचे-खुचे बाल वगैरह डाई करवाए।
यहाँ आकर उनका खासा मोहभंग हो गया। लगा कि इतने वर्षों की मेहनत से, जबान की तेज़ी से, संजोया गया नम्बर वन उनकी दसों अंगुलियों से फिसलता जा रहा है। स्टेज पर उनके नाम के साथ वह सम्मान नहीं जुड़ा, जिसकी उन्हें आकाँक्षा थी। उनकी कुर्सी वहाँ नहीं थी, जहाँ होनी चाहिए थी। वह माइक उनकी पहुँच से दूर था, जहाँ वे कोहराम मचाया करते थे। संस्था के प्रधानजी भी वहाँ उपस्थित नहीं थे। लोग असम्प्रदायिक हो रहे हैं अथवा पढ़े लिखे लोग असम्प्रदायिक हो जाते हैं- यह विषय उनके लिए विचारणीय था। उनकी उपस्थिति सम्प्रदाय के झंडे से अधिक न थी।
सर्वत्र अपनी अनुपस्थिति से वे मायूस थे। चाहते तो थे कि चील की तरह सब कुछ झपट कर उड़ान भर लेते, पर हिस्से में एक टुकड़ा भी न आया था। वे उदास थे। धीरे-धीरे कैंपस से छड़ी टेकते हुए जा रहे थे कि एक पत्रकारनुमा किशोर को कालेज अधिकारियों के आगे-पीछे घूमते देखा। थोड़ा सा सरक कर वे उसके साथ हो लिए। स्कूटर पर बिठा अपने घर ले गए। चाय पानी पूछा और फिर संगोष्ठी का सार अपनी तरफ मोड़-तोड़ कर लिखवा दिया।
अगले दिन उस संगोष्ठी की सारी ख़बर अपने से शुरू और खत्म होते देख वे मुस्कुराए बिना न रह सके। उन्हें अपनी चाणक्य बुद्धि पर मान हुआ।