संग्राम / बालकृष्ण भट्ट
आज कल जब लोगों का चित्त ट्रान्सवाल युद्ध के बारे में चुभ रहा है - संग्राम है क्या? और इसका क्या परिणाम होता है? यह सब लिखा जाय तो हम समझते हैं कि असामयिक घोर अरोचक न होगा। संग्राम बहुत पुराने समय से होता आया है। वेदों में तो अध्याय के अध्याय ऐसे ही पाये जाते हैं जिनमें व्यूह-रचना एक-एक अस्त्र-शस्त्र के अभिमंत्रण और उनको शत्रुओं पर प्रयोग करने के क्रम और तरीके लिखे हुए हैं। और अब इस समय तो यूरोप और अमेरिका में रोज नई-नई तरह की बंदूक और तोपों के ईजाद से युद्ध करने का हुनर तरक्की के ओर-छोर को पहुँचा हुआ है। यद्यपि सब दार्शनिक ज्ञानी विद्धान इसमें मत हो कह रहे हैं कि लड़ाई करना बुरा है, तथापि खेद का विषय है कि यह कभी बंद न हुई वरन ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती जाती है डायनामाईट, आदि, नये-नये तरह की पाउडर और लड़ाई की कलें निकलती आती है। युद्ध के नये-नये अस्त्र-शस्त्र में सुधराई होती जाती है और संग्राम में मृत मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती है।
कुछ लोगों कहेंगे संग्राम में जो शत्रु के सम्मुख तन त्यागते हैं, वीरगति पाते हैं और सूर्य-मंडल भेद कर सीधे स्वर्ग को जाते हैं।
"द्वाविसौ पुरुषौ लोके सूर्य मंडलभेदिनौ।
योगेन त्यजते प्राणान् रणे चाभिमुखे हत:।।"
इसलिये कि बहुधा लोग अपने देश या जाति के लिए प्राण देते हैं और फिर युद्ध करना क्षत्रियों का मुख्य धर्म है। क्षात्र धर्म की थाप रखना अपना परताप। चाहे आगे आवे बाप तहू चाप खैचना। जब लड़ना क्षात्र-धर्म की थाप अर्थात् प्रतिष्ठा है तो इसमें क्या बुराई है। ऐसों से हमारा यह प्रश्न है कि जब किसी को पीड़ा या दु:ख पहुँचना महा पाप है 'पापाय परपीडनम्' तब रणक्षेत्र में तो न जानिये कितने लोगों को पीड़ा कैसी वरन् उनका वध हो जाता है। आप के घर में दो-चार डाकू या चोर जबरदस्ती घुस आयें और दो-चार सौ की पूँजी छीन ले जायें दो चार मनुष्यों को घायल भी कर डालें तो आप का कितना क्रोध होगा और उन डाकुओं को फँसाने और दंड दिलवाने का आप कितना यत्न करेंगे। यदि आप के छोटे से घर के बदले एक बड़ा-सा गाँव या देश हो और दो-चार की पूँजी की जगह लाखों या करोड़ों की जमा हो दो-चार डाकुओं के बदले सेना की सेना ने आक्रमण किया हो और दो-चार घायल मनुष्यों के एवज हजारों लाखों की जान गई हो तो यह क्या अच्छा होगा? थोड़े-से धन या थोड़ी-सी पृथ्वी के वास्ते लाखों की जान लेना या किसी बात के हठ में आय लाखों करोड़ों, रुपया बरबाद करा देना क्या उचित होगा? जितना रुपया प्रति वर्ष इन लड़ाइयों में व्यय किया जाता है वह न जानिये कितने आवश्यक कामों के लिये काफी होता। हमारे खेतिहार बेचारे बड़े-बड़े कष्ट सह जो रुपया सरकार को देते हैं वह रुपया बारूद और गोलों के छर्रो में फुक जाना क्या अनुचित नहीं है।
लोग कहते हैं, जैसे-जैसे समय बीतता है हम अधिक-अधिक सभ्य होते जाते हैं। क्या सभ्यता का यही चिह्न है कि केवल पृथ्वी और धन के लोभ से सैकड़ों हजारों की जान गँवाई जाये? खांद लोग और फीजी टापू के रहने वालों को हम लोग असभ्य और जंगली कहते हैं तो इसी लिये कि सुकृत, भलाई, अनुग्रह, दया, क्षमा इत्यादि गुण जो ईश्वर की ओर से मनुष्यों में दिये गये हैं और जिसके कारण वह सब जीवों में श्रेष्ठ माना गया है वे सब गुण उन जंगली लोगों में नहीं हैं। हम जो उन्हें पापी, दुराचारी, असभ्य कहते हैं सो इसीलिये कि वे मनुष्यों को मार उन्हें खा जाते हैं। परंतु उनको जो रणक्षेत्र में उदारता, दया और कोमलता को ताक पर रख सैकड़ों हजारों वरन् लाखों की जान ले विजय की खुशी मनाते हैं, उन्हें हम वीर कह सराहते हैं और उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं, सरकार से उन्हें बड़े-बड़े तमगे और खिताब दिये जाते हैं। किसी मनुष्य को जो बात उसके चित्त में है और जो वह कहता है उसके अतिरिक्त कुछ कहे तो हम उसे झूठा और मिथ्यावादी कहते हैं। पर वही बात यदि कोई राज मंत्री कहे और उसके द्वारा स्वार्थ साधन कर दूसरों को हानि पहुँचाये तो उसे हम राजनीतिज्ञ कहते हैं। जो काम खांद जाति के लोग या फीजी टापू के रहने वाले करके दुष्ट और पापिष्ट कहे जाते हैं वही यदि जापान या जर्मनी के रहने वाले करें तो वीर हैं। जो झूठ और बनावट, अदालत के कसूरवार को 7 वर्ष का कैदी कर देता है वही आक्रमणकारी देशों के सेनापतियों अथवा और कर्मचारियों के लिए राजनीतिज्ञता है।
मनुष्य में जहाँ बहुत-सी तामसी या शैतानी प्रकृति है उनमे लड़ना भी एक है किंतु उसी के साथ कितने उत्तम गुण भी उसमें हैं। एक समय मनुष्य क्रोध-वश या लालच में पड़ कोई बुरा काम करता है तो पीछे भी पछताता है और मान लेता है की हमसे बुरा बन पड़ा और उस बात का प्रण करता है कि अब हमसे ऐसा काम न बन पड़े। अवश्य यह बात मनुष्य में अच्छी है, यदि उसमें दोष हों और वह जान जाय कि यह हमारे में दोष है तो आगे के लिए यह एक भलाई का चिह्न है, और यदि उस दोष को वह दोष मानता ही नहीं तो लाचारी है। हमें बड़ा खेद है कि आज-कल हमारी सभ्यता में संग्राम के लिये उत्साह का होना जो बड़ा लग रहा है हम उसे दोष मानते ही नहीं वरन् उस दोष के और अधिक फैलाने के लिये लोगों की प्रोत्साहित करते हैं।
यह बात सत्य है कि किसी-किसी समय हमें लड़ाई करने के लिये लाचार हो जाना पड़ता है और उस न लड़ना ही अधम और बुरा काम है परंतु दो एक उदाहरण से हम तरह की और-और बातों को जो अच्छा सिद्ध करें तो ऐसा मान लेना भी हमारी भूल होगी। यदि ऐसा होता कि कभी कुछ मनुष्यों में लड़ाई हो जाती तो हम उसको मनुष्य का एक स्वभाव समझते परंतु इन दिनों लड़ाई तो एक बड़ा भारी गुण समझा जाता है जिसका यूरोप की सभ्य जाति बड़ा पोषण कर रही है। जहाँ अनेक शिल्प और विज्ञान में वे लोग एकता हो रहे हैं वहाँ लड़ने भिड़ने के सामान और हुनर भी तरक्की के अंत के छोर तक पहुँच गये हैं। और शिल्प-विज्ञान की तरक्की की तरह इसकी तरक्की भी सभ्य जाति का एक अंग हो रही है। ऐसी समझ रखने वालों को हम मूर्ख तो क्या कहें? आदमी की जान और शरीर कोई कागज का पुतला नहीं है जिसके नाश होने या बनने में कुछ हानि नहीं है।
एक समय एक बड़े प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ ने कहा था, इस बात को कि कितने आदमी लड़ाई में मारे जाते हैं मुझे कुछ भी परवाह नहीं है। मनुष्य को तो एक दिन मरना ही है तब इसके विचार का क्या अवसर है की वह कब मरा और कैसे मरा था? मुझे तो कुछ ऐसा जान पड़ता है कि जिस महाशय ने यह कहा था उन्होंने मनुष्य के अनमोल जीवन का कितना मूल्य है कभी नहीं सोचा। कहने को चाहे जो जैसा कह डाले किंतु उनके चित्त से तो पूछो जिनके पति, जिनके पिता, जिनके भाई और जिनके लड़के मारे गये हैं उन अबोध बालक बलिकाओं से तो पूछो जो कल आनंद में मग्न खेल रहे थे आज अनाथ हो खाने तक को तरसने लगे, उस कुलीन अबला से पूछो कल जो पति की सेवा टहल और दर्शन से जन्म सफल मानती थी, अब रंडापे को दु:ख झेलते अपना जीवन उभारू मान रही है। सारा जगत उसके वास्ते काँटा हो रहा है। न जानिये कितने नई जवानी के खिलते हुए फूल गोली और छर्रे की चोट से टुकड़े-टुकड़े हो गये। तलवार और बरछी के आघात से ऐंठ के रह गये। कभी एक मनुष्य को भी अपमृत्यु गाड़ी इत्यादि से दब के मरते देख कितना खेद होता है किंतु ऐसे रणक्षेत्र को देख जहाँ लाखों मनुष्यों के शव को कुत्ते, कौवे, सियार, गिद्ध, अपनी-अपनी ओर नोच-खसोट, कलोलें करते हुए पाये जाते हैं। चित्त पवर कैसा असर होता होगा। धन्य हैं वे साहसी वीर पुरुष जो प्राण को पत्ते पर रख ऐसे स्थान में भी निर्भय रह वीरता के जोश में भरे हुए पीछे कदम न धर शत्रु के सन्मुख आगे बढ़ते ही जाते हैं। जो कुछ आदर, गौरव और मान इन वीर पुरूषों का किया जाय वह सब कम है, इनके बराबर का दरजा न तो बड़े से बड़े विद्वान का है, न बड़े प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ का है, न किसी नामी विज्ञानविद कला-कोविद् (साइंटिस्ट या ऑर्टिस्ट) का है। संसार भर में वध, बंधन आदि अपमृत्यु से मरे हुओं की संख्या अवश्य उससे जितनी कम होगी जितनी अभी हाल में ट्रांसवाल युद्ध में मारे गये है। किंतु ऐसी लड़ाई देवासुर संग्राम, राम रावण युद्ध का प्युनिकवार से शुरू कर अब तक में न जानिये कितनी हो चुकी होगी जिनमें लोगों की जान गई होगी और कितने धन का अपव्यय हुआ होगा। इन्हीं सब बातों की देखभाल, विद्धान ज्ञानी जन के चित्त में तर्क-वितर्क उठता है कि संग्राम क्यों होता है और इसका क्या परिणाम है? यदि किसी कुशल राजनीतिज्ञ राज-मंत्री से यह प्रश्न पूछा जाये तो वह बहुधा यही उत्तर देगा कि अमुक जाति या देश के लोग हम से डरते नहीं। सरकश हो गये, हमारी इतात नहीं कुबूल करते, वरन् औरों पर अत्याचार करते हैं उन्हें अपना वशंवद बनाये रखने को इस युद्ध का आरंभ किया गया है। ऐसे-ऐसे कोई बहाने अपनी सफाई रखने का ढूँढ़ लेते हैं। किंतु वास्तव में जब उनका वैभवोन्माद सीमा को अतिक्रमण कर लेता है धन, प्रभुता और वीरता का अभिमान बढ़ जाता है तभी लड़ना सूझता है ऐसों ही के पक्ष में संग्राम सर्वथा बुरा और अनुचित है नहीं तो किसी ने ठीक कहा है - शस्त्र की विद्या सब विद्याओं से श्रेष्ठ हैं, शस्त्र के द्वारा जब राज्य की रक्षा हो सब भाँति स्वस्थ रहता है तब पढ़ना-लिखना धर्म-कर्म, भोग-विलास सब सूझता है।
"शस्त्रविद्या स्वभावेन सर्वाभ्योस्ति महीयसी।
शस्त्रेण रक्षिते राष्टे शास्त्रचिंता प्रवर्तते।।"
इन दिनों स्वार्थी, उन्मत्त, अविवेकी, कुटिल राजनीतिज्ञों ने संग्राम को ऐसा घिन के लायक कर दिया कि जिससे सिवाय हानि के लाभ का कहीं लेश भी नहीं है। ईश्वर ऐसों को सुमति दे जिसमें वे अपनी कुटिलाई के एच-पेच काम में न लाया करें तो संग्राम न हुआ करे लाखों जान कृतांत के कर-ग्रहण से बची रहे और प्रजा का कल्याण हो।
अप्रैल, 1900 ई.