संघर्ष / अमित कुमार पाण्डेय
रतन अपने पिताजी के साथ रात को बाज़ार से गांव लौट रहा था। रतन के पिताजी सस्ते दामों पर प्लास्टिक से बने सामान शहर से लाते थे और रतन के साथ मिलकर गांव के बाज़ार में उसे बेचा करते थे। यही उनकी जीविका का मुख्य साधन था। इस काम में रतन अपने पिताजी का साथ बखूबी निभाने लगा था। आज उनका सारा सामान बिक गया था। इसलिए बाप बेटे दोनों बहुत खुश थे और रात को खुशी-खुशी अपने घर लौट रहे थे। रतन का घर नदी किनारे स्थित गांव के एक मलिन बस्ती में था। रतन के गांव से थोड़ी दूर पर एक रेलवे स्टेशन था जिस पर पूरे दिन में दो चार ट्रेन ही रुका करती थी। गांव के कुछ गरीब लोग उस रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करते थे। फिलहाल अभी उनकी जीविका का साधन प्लास्टिक के बने सामान को ही बेचना था। रतन ने अपनी झोपड़ी में प्रवेश किया।
उसके पिता सुधीर ने उससे कहा, -"रतन, तू सब्जी काट दे। मैं चावल चढ़ा देता हूँ। आज हम सब्जी चावल खाएंगे"। रतन ने सब्जी काटकर पिताजी के पास रख दी और बाहर आकर झोपड़ी के सामने बने चबूतरे पर लेट गया और ऊपर आसमान में चमकते तारों को देखने लगा। नदी से होती हुई ठंडी हवा चल रही थी जो रतन की दिन भर की थकावट को कम कर रही थी। चारो तरफ शांति फैली हुई थी। सिर्फ हवा के सनसनाने की आवाज़ आ रही थी। एक नजर उसने अपनी झोपड़ी पर डाली। झोपड़ी में लालटेन टिमटिमा रही थी और हवा के वेग हिल रही थी। उसका बाप सुधीर झोपड़ी में बैठा शराब पी रहा था और खाना बनाने में मस्त था। आसमान में टिमटिमाते तारों को देख कर उसे अपनी माँ की याद आ गई. उसकी माँ का देहांत पिछली साल हो गया था। वह बहुत बीमार रहने लगी थी। उचित समय पर इलाज ना मिल पाने के कारण वह चल बसी. माँ कहती थी कि जो लोग भगवान के पास जाते हैं वह आसमान में तारे बनकर टिमटिमाते है। इसलिए रतन रोज़ आकाश में फैले तारों में अपनी माँ को ढूंढा करता था। जब उसकी माँ जिंदा थी तो रतन कितना खुश रहा करता था। वो रोज पढ़ने के लिए स्कूल जाया करता था। उसकी माँ सारे गांव में चौका-बर्तन करती थी। जब वह थका हारा घर लौटता था तो माँ अपने हाथ से खाना खिलाती थी। पर माँ की मौत उसे अपनी माँ से कितना दूर कर दिया। माँ के देहांत के बाद बाप ने उसका स्कूल छुड़वा दिया और अपने साथ काम में लगा लिया। माँ के देहांत ने रतन से उसका बचपन छीन लिया। उसके बाप को इसी गम में शराब की लत पड़ गई. उसके बाप को माँ की बीमारी की वजह से बहुत कर्जा भी हो गया। अब दोनों बाप बेटे कमाकर अपनी जीविका चलाते थे और लोगों का कर्जा भी चुकाने की कोशिश करते थे।
रतन की उम्र महज 10 साल थी। पर अब उसमें एकदम लड़कपन नहीं था। उसका व्यवहार बिल्कुल बदल गया था। इसी सोच में उसे चबूतरे पर कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।
थोड़ी देर बाद उसके बाप ने नशे में आवाज़ लगाई, -"रतन, खाना बन गया है। खा ले"।
रतन उठा और बाप के हाथ से खाने की प्लेट ले ली। जैसे ही उसने खाने का एक कवर मुंह में डाला उसे अपनी माँ की याद आ गई. भयानक बीमारी के बावजूद उसकी माँ उसको अपने हाथ से ही खाना खिलाती थी। आज सब कुछ कितना बदल गया था। रतन ने खाना खाया और प्लेट धुलकर झोपड़ी में रख दी। इसके बाद वह झोपड़ी के आगे बिछी खाट पर सो गया।
थोड़ी देर बाद उसका बाप उसके पास आया और बोला, -"रतन अब चुपचाप सो जा। मैं बाहर जा रहा हूँ। रात को मैं देर से घर लौटूंगा"। रतन ने जैसे अपने पिता की बात सुनी न हो। वह चुपचाप आकाश में टिमटिमाते तारों को देख रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि रोज रात को उसका बाप कहाँ चला जाता है। हालांकि उसकी उम्र अभी बहुत कम थी पर फिर भी हालात ने उसे अपनी उम्र से ज़्यादा अनुभवी बना दिया था। जबसे उसकी माँ उसे छोड़कर गई थी तब से उसका बचपन भी उसे छोड़कर चला गया था। यही कारण था कि वह ज़रूरत से ज़्यादा गंभीर हो गया था। दूसरे दिन उठकर वह अपने बाप के साथ फिर बाज़ार चला गया।
पर रात को लौटते हुए उसके बाप ने उससे बोला, -" रतन तू घर जा। मैं थोड़ी देर बाद घर आऊंगा। आज खाना बनाने की ज़रूरत नहीं है। तेरे लिए खाना बाहर से लेता आऊंगा। आज अपनी जोरदार कमाई हुई है। रतन चुपचाप घर आ गया और हाथ मुंह धो कर अपने झोपड़ी के आगे बने चबूतरे पर बैठ गया। रोज़ की ही तरह ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी आ उसके थकान को दूर कर रही थी। अचानक उसकी नींद उसके बाप सुधीर की आवाज से टूटी. वह शराब के नशे में था।
उसका बाप रतन से जोर से बोला, -"रतन उठ, देख मैं तेरे लिए खाना ले आया हूँ। खा ले"।
रतन ने आँख खोली तो पाया कि उसके बाप के साथ एक औरत खड़ी है।
सुधीर गुस्से में बोला, -" अबे देख क्या रहा है। यह तेरी नई माँ है। चल अपनी नई माँ के पैर छू। रतन उठा और अपनी नई माँ के पैर छुए. पर उसकी माँ ने कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप सुधीर के साथ झोपड़ी में चली गई. इधर रतन खाना खाने के बाद खाट पर लेट गया। झोपड़ी के अंदर से उसे अपने बाप के ठहाके लगाने की आवाज़ आ रही थी। रतन चुपचाप आकाश में टिमटिमाते तारों को देख रहा था और अपनी माँ को याद कर रहा था। काश उसकी माँ जिंदा होती तो उसका बाप उसके लिए दूसरी माँ लेकर नहीं आता। पहले सब कुछ कितना अच्छा चल रहा था। आभाव का समय भी कितने आराम से कट रहा था। पर उसके माँ के देहांत ने सब कुछ कितना बदल दिया। उसको भी और उसके बाप को भी। तभी उसे अपनी माँ के हाथों का आभास सर पर हुआ। उसे लगा कि उसकी माँ उसका सर सहला रही हो। उसने पीछे मुड़कर देखा पर वहाँ कोई नहीं था। आंखों में आंसू लिए हुए वह लेट गया। इसी बीच उसे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।
कुछ दिन बाद, एक रात रतन खाट पर लेटा हुआ सो रहा था। झोपड़ी के अंदर सुधीर अपनी नई पत्नी रमा के साथ शराब पी रहा था। रमा उसके बगल में बैठी थी।
रमा गुस्से से बोली, -"सुधीर, क्या सोचता है? शहर में रहने के लिए चलना है कि नहीं"।
सुधीर नशे में बोला, -"अभी कुछ नहीं सोचा है। बाद में देखेंगे"।
रमा गुस्से से बोली, -"मैं तेरे लड़के के साथ यहाँ गांव में नहीं रहने वाली। तू मुझे शहर ले चल। अन्यथा मैं तुझे छोड़ कर चली जाऊंगी"।
सुधीर बोला, -"थोड़ा सोचने का समय दें"।
रमा गुस्से से बोली, - "नहीं" ।
सुधीर असहाय-सा बोला, -"देख रमा, मुझे तेरे साथ शहर जाने में कोई आपत्ति नहीं है। जैसे हम यहाँ गुजारते हैं। वैसे ही शहर में भी गुजार लेंगे। पर समस्या यह है कि तू अपने साथ रतन को रखने को तैयार नहीं है। अब मैं उस छोटे बच्चे को कहाँ छोड़ दूं। वह भी मात्र 10 साल का है। मेरी बात मान उसे भी शहर ले चलते हैं। वह काम में मेरा हाथ बटाएगा और हम लोगों की आमदनी भी बढ़ जाएगी। अकेले मुझे रोजी रोटी कमाने में बहुत मुश्किल होगी"।
रमा गुस्से से बोली, -"मैं कुछ नहीं जानती हूँ। मैं तेरे बेटे के साथ शहर नहीं जाऊंगी। अब तू चाहे मुझे अपने पास रख या अपने बेटे को। मैं तुझे 1 सप्ताह का समय देती हूँ। अगर तब तक कुछ तूने निर्णय नहीं लिया तो मैं तुझे हमेशा के लिए छोड़कर चली जाऊंगी। मुझे और कुछ नहीं कहना है"।
सुधीर गुस्से में कुछ नहीं बोला। उसने शराब का आखिरी घूंट लगाया और गुस्से से गिलास को जमीन पर पटक दिया और नशे में धुत होकर जमीन पर लेट गया।
जैसे ही हफ्ता खत्म होने को आया, रमा ने रात को फिर सुधीर से पूछा, -"शहर जाने के बारे में क्या सोचा है"। सुधीर ने कहा, -"मैंने सोच लिया है। कल सुबह मैं काम पर नहीं जाऊंगा। मेरा और अपना सामान रख ले। कल सुबह की ट्रेन से हम लोग शहर चले जाएंगे। रतन से कह देंगे की तू बीमार है। तुझे शहर डॉक्टर को दिखाने के लिए ले जा रहें हैं। उसके बाद हम लोग हमेशा के लिए शहर चले जाएंगे और रतन को भी पता नहीं चलेगा। चल अब तो खुश हो जा"।
"नहीं, अभी नहीं। पहले शहर चलते हैं"।
दूसरे दिन सुबह उठ कर सुधीर और रमा ने अपना सामान पैक कर लिया।
उसके बाद सुधीर ने रतन को जगाया और बोला, -"देख रतन, आज हम काम पर नहीं जाएंगे। तुम्हारी माँ की तबीयत खराब है। मैं उसे डॉक्टर को दिखाने के लिए शहर जा रहा हूँ। शाम तक हम लोग वापस आ जाएंगे। तुझे घर की निगरानी करनी है। और अब चल सामान स्टेशन तक पहुंचाने में हमारी मदद कर"।
इसके बाद तीनों सामान लेकर रेलवे स्टेशन आ गए और ट्रेन के आने का इंतज़ार करने लगे। प्लेटफार्म पर रखे सामान को देखकर रतन ने आश्चर्य से पूछा, -"पिता जी आप और माँ को इतना सामान ले जाने की क्या ज़रूरत है"।
सुधीर को कुछ भी जवाब नहीं सूझा। वह रमा की ओर देखने लगा। तभी रमा ने कहा, -"रतन हो सकता है हमें शहर में एक दिन और लग जाए. इसलिए हम सामान लेकर जा रहे हैं"।
पर रतन ने एक निगाह सामान पर डाली। शायद उसे रमा के उत्तर से संतुष्टि नहीं हुई थी।
फिर उसने सुधीर से पूछा, -"लेकिन पिताजी इतना सामान ले जाने की क्या ज़रूरत है"। तभी सुधीर ने गुस्से में रतन को एक जोरदार थप्पड़ मारा।
चुपचाप खड़ा रह। कहा ना शाम तक हम लोग वापस आ जाएंगे। मार से रतन की आँख में आंसू आ गए. पर पता नहीं उसे मन ही मन बहुत डर लग रहा था कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है। पर बच्चा होने की वजह से वह शायद समझ नहीं पा रहा। तभी ट्रेन ने हॉर्न बजाया। रमा और सुधीर सामान के साथ ट्रेन पर चढ़ गए. रतन ट्रेन की खिड़की से आशा भरी निगाहों से सुधीर को देख रहा था। सुधीर भी कठोर बना रतन को देख रहा था। ट्रेन प्लेटफार्म से चल दी। रतन भी ट्रेन के साथ धीरे-धीरे चलने लगा। वह प्यार से सुधीर को हाथ हिला रहा था पर सुधीर का मन एक बार भी नहीं पसीजा। जबकि सुधीर को पता था कि अब उसकी मुलाकात दोबारा रतन से कभी नहीं होने वाली है और शायद रतन को भी यह नहीं पता था उसके मां-बाप अब दुबारा लौटने वाले नहीं हैं। ट्रेन प्लेटफॉर्म पर से तेजी से जाने लगी। सुधीर भी तेजी से ट्रेन के साथ दौड़ने लगा।
उसने सुधीर से कहा, -" पिताजी मैं शाम को आपका प्लेटफार्म पर इंतजार करूंगा। ट्रेन ने तेजी से प्लेटफार्म छोड़ दिया। रतन तेज ठोकर के साथ प्लेटफार्म पर गिर पड़ा। उसके दोनों घुटने बुरी तरह छिल गए. वह जोर-जोर से प्लेटफार्म पर होने लगा। पर उसे चुप कराने वाला वहाँ कोई नहीं था। वह दुखी मन से अपने घर लौट आया। झोपड़ी के अंदर देखा तो पाया कि झोपड़ी बिल्कुल खाली थी। सिर्फ़ एक मिट्टी के बर्तन में रात का चावल पड़ा हुआ था। उसने नमक चावल खाया और बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गया। पता नहीं क्यों उसे बहुत डर लग रहा था। पता नहीं उसका बाप अब दोबारा लौटेगा की नहीं। पर वह बार-बार अपनी मन को सांत्वना दे रहा था। पूरा दिन उसका इंतजार में गुजर गया। उसका मन कहीं नहीं लग रहा था। जैसे ही शाम हुई वह भाग कर रेलवे स्टेशन पहुंचा और ट्रेन के आने का इंतजार करने लगा। ट्रेन सही समय पर रेलवे स्टेशन पर आई और चली गई. उतरने वाले मुसाफिरों में रतन अपने बाप और माँ को ढूंढता रहा। वे लोग उसे नहीं मिले। काफी देरी वह प्लेटफार्म पर लगे बेंच पर इंतजार करता रहा। जब रात हो गई तो उठ खड़ा हुआ और अपने घर की तरह वापस चल पड़ा। इस उम्मीद से कि शायद वे लोग घर पर मौजूद हो। उन्होंने उसे प्लेटफार्म पर इंतजार करते हुए ना देखा हो। उसने झोपड़ी के अंदर निगाह डाली। वह पहले की तरह बिल्कुल खाली थी। उसका मन उदास हो गया। रतन चुपचाप बाहर आया। उसको अब भूख भी महसूस हो रही थी। पता नहीं क्यों अब उसको महसूस हो रहा था कि उसका बाप उसे छोड़ कर चला गया है। उसकी आँख से निरंतर आंसू बह रहे थे। वह खाट पर लेट गया। उसे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। थोड़ी देर बाद उसकी नींद अचानक टूटी तो देखा कि कोई सिरहाने पर बैठा उसका सर सहला रहा है। वह बगल वाले घर की चाची थी।
चाची ने प्यार से पूछा, -"बेटा रतन कैसे हो"।
रतन बोला, -"चाची, पिताजी के आने का इंतजार कर रहा हूँ"।
चाची ने प्यार से समझाते हुए कहा, -"बेटा रतन अब तुम्हारे पिताजी कभी नहीं आने वाले। तुम्हारा बाप उस औरत के साथ हमेशा के लिए शहर चला गया है। बेटा वह औरत नहीं चुड़ैल है। क्या करें बेटा अगर तुम्हारी माँ जिंदा होती तो क्या करने वह औरत तुम्हारे बाप की ज़िन्दगी में आती। बेटा अगर माँ दूसरी होती है तो बाप तीसरा हो जाता है। लो मैं तुम्हारे लिए खाना ले आई हूँ"। रतन ने जल्दी से सारा खाना खा लिया।
चाची ने बोला, -"बेटा मैं सोचती हूँ कि अब तुम्हारा क्या होगा। अब तुम किसके सहारे अपना जीवन काटोगे। सच बताऊं तो मेरी अपनी हालत भी ऐसी नहीं है कि मैं तुम्हारा पालन पोषण कर सकूं"।
रतन मायूस होकर बोला, -"चाची देखते हैं क्या होता है"।
चाची बोली, -"नहीं बेटा, अभी तुम्हारी उम्र इतनी नहीं है। पर बेटा तुमको कुछ ना कुछ तो करना होगा"। इतना कहकर चाची खाने का बर्तन लेकर वापस चली गई. रतन चुपचाप खाट पर लेट गया। अब उसे अपने बाप के आने का इंतजार नहीं करना था। वह सुबह उठा। उसके समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. कितना भी हौसला क्यों न हो पर उसकी उम्र महज अभी 10 साल की ही थी। उसका मन अंदर से रो रहा था और उसे भूख भी लग रही थी। वह चाहता तो चाची के घर जा सकता था। पर चाची ने अपनी असमर्थता पहले ही जाहिर कर दी थी। अचानक उसके मन में रेलवे स्टेशन जाने की इच्छा हुई. वह पैदल रेलवे स्टेशन की तरफ निकल पड़ा और वहाँ एक बेंच पर बैठ गया। थोड़ी देर में उसने देखा एक ट्रेन आई. उसमें से कुछ मुसाफिर उतरे। उसने देखा कि एक औरत को कुली की ज़रूरत थी। छोटी जगह होने के कारण वहाँ कुली की संख्या कम थी।
रतन फौरन उस औरत के पास गया और बोला, -"क्या मैं आपका सामान कहीं रख दूं?"
औरत ने कहा, - "हां" । रतन उसका सामान उठाकर टैक्सी के पास ले गया। औरत ने उसे 20 रुपए दिए. वह भागा-भागा प्लेटफार्म पर आया और चाय वाली दुकान से उसने 20 रूपय में खाने का सामान खरीदा। कुछ खाने के बाद उसे बड़ी राहत महसूस हुई और ज़्यादा राहत इससे महसूस हुई कि उसे कुली बन कर अपनी जीविका चलाने का मौका मिल गया। उस दिन शाम तक रतन ने सौ रुपए कमा लिए थे। आज जब वह घर लौटा तो उसके पास खाने का सामान था। वह खाना खाकर वह चुपचाप खाट पर लेट गया। दिन भर की थकान से उसे कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला। दूसरे दिन सुबह उठकर वह फिर रेलवे स्टेशन की तरफ चला गया। अब वह हर रोज सुबह रेलवे स्टेशन चला जाता। पूरे दिन स्टेशन पर कुली का काम करता और शाम को तक अपनी खाने के लिए पैसा इकट्ठा कर लेता था। यह उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।
एक दिन की बात है उसे पूरे दिन में मात्र 20 रुपये मिले। शाम तक उसे तेज बुखार हो गया। अगर वह बुखार की दवा लेता तो 20 रुपए खर्च हो जाते। तब उसके पास खाने के लिए कुछ नहीं बचता। उसे भूख भी बहुत तेज लग रही थी। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि खाना खाया जाय या दवा ले। उसने सोचा यदि मैं दवा ले लूंगा तो कल तक मैं ठीक हो जाऊंगा नहीं तो उसे कल भी भूखा सोना पड सकता है। अतः उसने आज की रात भूखा सोने का निर्णय लिया।
एक रात जब वह घर के बाहर सो रहा था तो गजब का तूफान आ गया। उसकी झोपड़ी टूट गई. अब तक उसके पास जो छत थी भगवान ने उसे भी छीन ली। उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वह दुबारा झोपड़ी बना सके. अतः उसने रेलवे स्टेशन पर सोने का निश्चय किया। अब वह पूरे दिन कुली का काम करता और रात को प्लेटफार्म की बेंच पर सो जाता था। अब प्लेटफार्म ही उसका घर हो गया था। धीरे-धीरे उसकी मित्रता चाय बेचने वाले दुकानदार से हो गई.
एक दिन रात में रतन बेंच पर सोया हुआ था। चाय वाले ने अपनी दुकान बंद की और रतन के पास आया।
उसने रतन से बोला, -"रतन, मैं जानता हूँ तुम्हारी ज़िन्दगी कितनी कठिनाई से गुजर रही है और जो बात मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ वह पूरे दिन की थकान के बाद काफी मुश्किल है। पर रतन तुम्हें पढ़ाई करनी चाहिए. यदि चाहो तो मैं तुम्हें कुछ पैसे उधार दे सकता हूँ। जब तुम्हें हो जाए तब लौटा देना"।
रतन बोला, -"रामू चाचा आप तो जानते हैं कि पूरे दिन की कमाई से दो वक्त का गुजारा बड़ी मुश्किल से होता है। आपका पैसा मैं कैसे चुकता कर पाऊंगा"।
रामू चाचा ने कहा, -"कोई बात नहीं। मुझे भगवान पर भरोसा है। तुम पढ़ाई शुरू करो"।
रामू चाचा की मदद से रतन किताबें खरीद लाया और उसने अपनी पढ़ाई शुरू कर दी। दिन भर वह कुली का काम करता और रात में रेलवे स्टेशन के लैम्पपोस्ट के नीचे पढ़ाई करता। धीरे-धीरे 3 साल बीत गए. इस बीच रतन ने आठवीं की परीक्षा पास कर ली। पर वह रतन चाचा के पैसे अब तक नहीं चुका पाया था। हालाकी उसका जीवन प्लेटफॉर्म पर ठीक चल रहा था पर अब उसे अपने जीवन में कुछ करना था। आठवीं के बाद पढ़ाई करने के लिए उसे शहर जाना पड़ता। एक रात दिन भर की थकान के बाद वह बेंच पर बैठा आराम कर रहा था। तभी रामू चाचा उसके पास आये और बोले, -"रतन तुम्हें आगे की पढ़ाई करने के लिए शहर चले जाना चाहिए"।
रतन ने कहा, -"चाचा वही तो मैं भी सोच रहा हूँ। मैं शहर चला तो जाऊं पर वहाँ क्या करूंगा कैसे रहूँगा क्या खाऊंगा। यहाँ तो कुली का काम करके जैसे तैसे गुजारा हो जाता है। लेकिन शहर में तो यह भी मुश्किल है"।
रामू चाचा ने कहा, -"हां बेटा बात तो सही है। लेकिन अभी तक तुमने जीवन में इतना संघर्ष किया है तो बेटा तुम्हें नहीं रुकना चाहिए. तुम्हें अपनी पूरी ज़िन्दगी प्लेटफार्म पर नहीं खत्म करनी है"।
रतन ने कहा, -"पर चाचा मैंने अभी आपके पिछले पैसे भी नहीं चुकाए है"।
रामू चाचा ने कहा, -"ठीक है। जब हो तब चुका देना"। इसके बाद चाचा ने अपनी दुकान बंद कर दी और चले गए. चाचा के जाने के बाद रतन बेंच पर बैठा सोचता रहा कि चाचा सही कह रहे हैं। मैंने बचपन से इतना संघर्ष किया है तो मुझे कुछ बनना चाहिए. वह पूरी रात सोचता रहा। कुछ निश्चित नहीं कर पा रहा था कि क्या किया जाए. अंततः उसने निश्चित किया कि वाकई वह अपना जीवन प्लेटफार्म पर नहीं गुजारेगा। वो आगे की पढ़ाई करने के लिए शहर चला जाएगा। दूसरे दिन सुबह उसने चाचा का धन्यवाद दिया। और भविष्य में उनका पैसा चुकाने का वादा किया।
इसके बाद वह शहर की गाड़ी पकड़ कर शहर चला गया। शहर पहुंचकर वह रेलवे स्टेशन से बाहर निकला तो क्या देखता है कि चारों तरफ भीड़ भाड़ है। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. वह पूरा दिन शहर में बेकार टहलता रहा। जब उसे कुछ भी नहीं सूझा तो उसने निश्चय किया कि वह शाम वाली गाड़ी से अपने गांव वापस लौट जाएगा। इसी उद्देश्य से वह रेलवे स्टेशन की तरफ लौटने लगा। लौटते समय अचानक उसकी नजर एक होटल पर पड़ी। होटल की साइड में एक बोर्ड पर लिखा हुआ था उन्हें एक नौकर की ज़रूरत है। वह रुका और फिर होटल के अंदर चला गया।
उसने काउंटर पर बैठे आदमी से पूछा, -"मैं नौकर का काम करना चाहता हूँ। पर मैं शहर में नया हूँ। मेरा यहाँ कोई परिचित नहीं है"।
उस आदमी ने कहा, -"ठीक है। शाम को होटल बंद होने के बाद तुम यहाँ सो सकते हो। तुम्हें दो वक्त का खाना मिलेगा और 1000 रुपए तुम्हारी तनख्वाह होगी"।
रतन ने तुरंत हां कह दिया। बस क्या था रतन की ज़िन्दगी शहर में चल पड़ी। वह दिनभर होटल में काम करता और रात को होटल बंद हो जाने के बाद पढ़ाई करता। धीरे-धीरे 2 साल बीत गए. उसने दसवीं की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली। अब उसे आगे पढ़ने के लिए होटल की नौकरी छोड़ने की ज़रूरत थी। पर उसे आगे की जीविका चलाने का साधन समझ में नहीं आ रहा था। इसी परेशानी में वह होटल से निकल कर सड़क पर टहलने लगा। अचानक उसने एक बोर्ड देखा जिस पर लिखा था कि कक्षा 1 से 5 तक पढ़ाने के लिए एक प्राइवेट ट्यूटर की आवश्यकता है। उसके दिमाग में बिजली कौधी। वह इंस्टीट्यूट की तरफ चल दिया। इंस्टीट्यूट के मालिक ने उसे रख लिया और रहने के लिए जगह भी दे दी। एक बार फिर उसकी पढ़ाई आगे की तरफ चल दी। उसने 12वीं कक्षा पास की। बारहवीं कक्षा पास करने के बाद उसने बीटीसी में दाखिला ले लिया। पर अब भी उसकी आय का साधन प्राइवेट ट्यूशन था। वह सुबह शाम को ट्यूशन पढ़ा कर अपना गुजारा कर लेता था। बीटीसी का कोर्स कंप्लीट करते ही भगवान की कृपा से उसको एक प्राइमरी स्कूल में जॉब मिल गई. प्राइमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिलने के बाद उसकी जीविका की समस्या समाप्त हो गई. उसे हर महीने इतनी सैलरी मिलने लगी कि उस का गुजारा आराम से चलने लगा। पर शिक्षक बनना रतन का लक्ष्य नहीं था। अतः शिक्षक पद पर रहते हुए उसने बीए की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की। पर रतन के मन को अभी संतोष नहीं था। उसे और आगे बढ़ना था।
हिम्मत करके उसने पीसीएस की तैयारी शुरु कर दी। भगवान की कृपा से 5 साल के अथक प्रयास के बाद उसका पीसीएस में सलेक्शन हो गया और पास के ही डिस्ट्रिक्ट में उसकी नियुक्ति SDM के पद पर हुई. अब सब कुछ ठीक हो गया था। जो उसका लक्ष्य था उसने उसकी प्राप्ति कर ली थी। उसने भविष्य में शादी नहीं करने का निश्चय किया। वह अपनी हर महीने की पूरी पगार का कुछ हिस्सा अनाथालय में दान दे देता था।
एक दिन उसने रामू काका के लिए हुए पैसे देने का निश्चय किया। उसके दूसरे दिन वह गांव पहुंचा। रामू चाचा अब काफी बूढ़े हो चले थे। उन्होंने रामू चाचा का पैर छुआ और उनके पैसे वापस किए. रामू चाचा रतन की सफलता से बहुत खुश हुए.
रतन गांव में अपने घर गया। उसने देखा कि जहां उसकी झोपड़ी थी वहाँ अब मैदान है। वह अपने घर के सामने बैठे चबूतरे पर बैठ गया है और पुरानी बातों को याद करने लगा। समय के साथ सब कुछ कितना बदल गया। पर वह तब भी अकेला था और आज भी अकेला है। वह वापस रेलवे स्टेशन आ गया और गाड़ी पकड़ कर शहर की ओर वापस चल दिया।
एक दिन उसे एक अनाथालय में होने वाले कार्यक्रम में चीफ गेस्ट के रूप में बुलाया गया। रतन सरकारी गाड़ी से अनाथालय पहुंचा। उसने वहाँ अनाथ बच्चो का कार्यक्रम देखा। कार्यक्रम के अंत में उसे बच्चों के उत्साहवर्धन के लिए भाषण देने के लिए कहा गया।
रतन ने अनाथ बच्चों से बोला, -"बच्चो, ज़िन्दगी में कोई अनाथ नहीं होता। भगवान ही सब का नाथ होता है। जब मैं 10 साल का था तब मेरे माँ बाप मुझे छोड़ कर चले गए. तब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पर मेरे अंदर कुछ कर गुजरने की चाहत थी। अतः मैंने अपना जीवन एक कुली से आरंभ किया और मैं आज SDM हूँ। मैं इससे भी अच्छा कर सकता हूँ और आगे भविष्य में करूंगा। ज़िन्दगी में मनुष्य को निष्काम भाव से सतत कर्म करना चाहिए. ईश्वर में आस्था रखिए. उसके पास सबको देने के लिए कुछ ना कुछ है। वह सब को बराबर मौका देता है। पर हां हर आदमी के प्रारब्ध के अनुसार सबको कर्म अलग-अलग करना पड़ता है। पर उससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए. मैंने जो बात आप से कही वह कोई नई बात नहीं है। मुझसे भी बहुत लोगों ने यह बात कही है। आप भी बहुत लोगों से यह बातें सुनेंगे"।
यह कहकर वह मंच से उतर गया और अपनी सरकारी गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी धूल उड़ाती हुई चली गई. सारे बच्चे पीछे से हाथ हिलाकर उसका अभिवादन करते रहे। रतन तब भी अकेला था और आज भी अकेला है। पर उसके संघर्ष ने उसे आज एक सफल आदमी बना दिया।