संचायिका दिवस की सार्थकता / मनोहर चमोली 'मनु'
‘बड़ी देर कर दी आज तो! वैसे आज तो पफीस डे था। कहां रह गए थे?’ मैडम ने पूछा।
वैसे एक पत्नी अपने पति से देर से आने का कारण पूछ सकती है। लेकिन वो चेहरे पर संदेह के भाव बनाए। अपनी आँखें एक सौ अस्सी डिग्री के कोण बनाकर घूमाए तो अच्छे खासे पत्नीव्रता का दिमाग खराब हो जाए। ऐसे में ऐसे पति से यह सवाल किया हो जो किसी इंटर कालेज का प्रधनाचार्य हो तो उसका चेहरा देखने लायक न होगा! मेरे साथ भी यही हुआ।
हालांकि मेरी मैडम भी अध्यापिका है। वो भी थकी-मांदी आती है। पर पिफर भी मेरा पुरूष अहं उजागर हो ही गया। मैं पल भर के लिए चुप ही रहा। मैं जानता था कि मेरी चुप्पी से और परेशानी बढ़ेगी। मेरा गला प्यास से सूखा हुआ था। मैंने हाथ से पानी के गिलास की इच्छा जताई। मैडम झट से पानी का गिलास ले आई। मुझे थमाते हुए कहने लगी, ‘देर हो गई आज। सब ठीक तो रहा!’
‘गलत क्या होना था।’ मैंने थोड़ा तल्खी से कहा।
‘इसमें मुंह बनाने वाली कौन सी बात है। मैंने ऐसा क्या पूछ लिया?’ इस वाक्य में थोड़ा नाराजगी थी। मैं समझ गया कि अब छानबीन पूरी न होगी तब तक चाय भी नसीब न होगी। मैंने हथियार डालने में ही बुद्धिमानी समझी। मैंने चेहरे को सामान्य बनाते हुए कहा, ‘आज संचायिका दिवस था न। बस कॉलेज में कार्यक्रम जरा लंबा खींच गया।’
‘अभी विश्व साक्षरता दिवस था। कल हिन्दी दिवस था। आज ये संचायिका दिवस बता रहे हो। कल कुछ और मनाओगे। अगर कॉलेज में ये दिवस ही बनाते रहते हो, तो पढ़ाई कब करवाते हो?’ मैडम ने ऐसे कहा जैसे मंडलीय अधिकारी ने बड़ा फ़ॉल्ट ढूंढ लिया हो।
मेरा तुनकना स्वाभाविक था। पिफर भी मैंने समझाने की मुद्रा बनाते हुए कहा, ‘ये राज-काज के काम हैं। मैं इंटर कालेज का प्रिंसिपल हूं। तुम्हारी तरह प्राईमरी पाठशाला की मास्टरी नहीं करता। हमारे यहां शासन स्तर की नीतियां फ़ॉलो होती हैं। इंटर कॉलेज चलाना कोई दाल-भात पकाना नहीं है। एक भोजन माता के सहारे नहीं चलता मेरा स्कूल।’
‘बस भी करो। जरा बताना ये संचायिका दिवस है क्या?’
‘संचायिका दिवस। यानि अल्प बचत को प्रोत्साहन देना। हमारे यहां प्रत्येक छात्र प्रति माह दो रूपया जमा करता है। यानि साल में चौबीस रूपये। जो उसे वापिस मिल जाते हैं, जब वह विद्यालय छोड़ता है। संचायिका दिवस के दिन हम वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबन्ध लेखन, भाषण आदि कराते हैं ताकि बच्चे बचत की आदत डालें।’
‘साल में एक दिन! बाकि और दिन कभी बचत पर चर्चा भी होती है?’
‘एक दिन काफी नहीं है क्या? कई और दिवसों पर भी तो और आयोजन करवाने होते हैं।’
‘आपके यहां कक्षा छह से कक्षा बारह तक यानि छह साल एक बच्चा पढ़ता है। यानि एक बच्चा आपके यहां छह साल में एक सौ चौबीस रूपये जमा करता है। जो उसे स्कूल छोड़ते समय वापिस मिल जाते हैं।’
‘जी हां। मैं भी तो यही कह रहा हूं। आपके प्राइमरी में है ये व्यवस्था? सिर्फ दाल-भात खिलाने से अच्छी आदत विकसित नहीं हो सकती।’
‘एक मिनट। जरा ये तो बताना कि आप एक सौ चौबीस रूपये में ब्याज कितना देते हैं?’
‘ब्याज! मैडम हमने बैंक नहीं खोला हुआ है। कोई ब्याज-व्याज की व्यवस्था नहीं है। बच्चों को वही धनराशि लौटाई जाती है, जो उन्होंने जमा की होती है।’
‘वाह! क्या खूब है। कोई एहसान करते हैं आप लोग। अरे छह साल में तो यह धनराशि दोगुना होनी चाहिए। बच्चों में अल्प बचत की भावना कहां से आएगी। प्रधनाचार्य महोदय। क्या कभी आपने सोचा है कि आप अपना रूपया छह साल तक ऐसे बैंक में जमा करेंगे जो आपको एक पाई भी नहीं दे। अपने साथ जो व्यवहार आपको पसंद नहीं, वो दूसरों के साथ आप कैसे कर सकते हैं। बोलिए। आप इधर-उधर क्यों झांक रहे हैं?’ मेरी मैडम ने मुझसे कहा।
मैं क्या कहता। थोड़ी देर चुप रहा। खीज मिटाने के लिए बोला, ‘अरे तो। मैं अपने आप थोड़े कोई नियम बना सकता हूं। सरकारी आदेश है। जैसी व्यवस्था है, वैसे ही तो संचालन करना होगा। हां। इस बात पर गंभीरता से मैंने भी सोचा था। मगर किसी से कहा नहीं। अब तुमने भी वही बात कही, जो मैं अपने आपसे कई बार कह चुका हूं। अब मैं सोचता हूं कि तुम भी मेरी तरह सोचती हो।’
‘बस। रहने दो। मैं तुम्हारी नस-नस से वाकिफ हूं। हम उन बच्चों को पढ़ाते हैं, जिन्हें नाक पोंछना भी हम सिखाते हैं। जो आदमी घर में कभी एक प्याली चाय नहीं बना सकता। अपने धुले-धुलाए कपड़ों पर इस्त्री भी नहीं कर सकता। वो कैसे एक इंटर कॉलेज का संचालन करता होगा। यह कम से कम मेरे लिए तो शोध का विषय है। जाइए। हाथ-मुंह धो लीजिए। तब तक मैं चाय बनाती हूं।’ यह कह कर मेरी मैडम रसोई में चली गई।
मैं मन ही मन में सोच रहा हूं, ‘वाकई। अल्प बचत की भावना संचायिका दिवस मनाने से नहीं आ सकती। चलिए इस मुद्दे पर एक पत्र अपने उच्चाधिकारी को तो लिखा ही जा सकता है।’